अंत्येष्टि कर्म का कड़वा सच गायत्री शर्मा गुँजन द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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अंत्येष्टि कर्म का कड़वा सच

क्या बात कर रही हो अंजना ' हम ठहरे शेड्यूल कास्ट के लोग और आप कहती हैं कि हमे धर्म-ग्रंथ पढ़ना चाहिए ??
आपका दिमाग तो खराब नहीं हो गया है ,,
"हमे नहीं पढ़ना कोई शास्त्र ....' बड़े ही तेवर में माया जी ने अपनी सहेली अंजना से कहा ! अंजना को तो समझ ही नहीं आया यह क्या अनाब- शनाब बोल रही हैं ।
अंजना मायूस होकर खुद को कसूरवार मानने लगीं
वह सोच में पड़ गई कि कैसे एक वर्ग विशेष का दर्जा पाने वाले पंडितों ने समाज के अन्य वर्गों में अपनी पैठ जमाई है जिससे बाहर निकलना बहुत कठिन है ।
माया ....." मुस्कुराते हुए बोली , अरे बहन ! तुम तो बुरा मान गई । मैं सच कह रही हूं इन धर्म ग्रंथो को छूने का हमे अधिकार सदियों से नहीं है और तुम आई हो बदलाव करने ....! ज्ञान देने ....! तो हमे भी ज्ञान है हमारा समाज जिस धारणा पर चलेगा हम उसे ही फॉलो करेंगे तो प्लीज आप हमें ज्ञान मत दीजिए ।
और इतना कहकर माया जी अपने घर चली गई ।
उनके बेटे - बहु और पति ने एक एक करके पूछा .....' आज वाकई माया जी का चेहरा उतरा हुआ था ।
और वह भी उसी तरह जल रही थी जैसे अग्नि में चिता!
उन्होंने अपने पति धीरू की तरफ देखा और कहा...." सुनिए जी मुझे कुछ बात करनी है ।
धीरू ने बच्चों को कमरे में भेज दिया और खाने के टेबल पर बैठकर दोनों बातचीत करने लगे ।
धीरू ने जब माया को शांत किया तो शांत मन से सवाल पूछा , माया अपने पति की तरफ देखकर रोने लगी ।
उन्होंने एक सांस में जबान के तमंचे से सारी गोली चला दी जो अंजना ने उनसे कहा था ।
धीरू ने जवाब दिया ..." देखो माया अंजना ने कुछ गलत नहीं कहा परन्तु तुम जरूर डर गई यह सुनकर कि अगर किसी को कानो कान खबर हुआ कि हम पंडितों के ग्रंथो को पढ़कर खुद से ही कई सारे पूजा पाठ सम्पन्न कर लेंगे तो लोग ताने देंगे कि यह आपका अधिकार क्षेत्र नहीं है फिर उलाहना के डर से तुमने अंजना को काफी कुछ कह दिया । ऐसा नहीं करना चाहिए था । माया शांत बैठी रही
उधर अंजना जी के घर के पास किसी का बेटा गुजर गया था । प्रशांत ' जोकि पहले से ही किसी गलत गैंग के साथ मिलकर बदनामी मोल लिया था कि कोई भी उसे काम दिलाने के लिए गारंटर के तौर पर खड़ा नहीं होना चाहता था ।
वह आवारा बन यहाँ- वहाँ फिरता था बहुत से लोगों से उधार लेकर दुश्मनी मोल लिया था । शायद इसलिए बिचारा मारा गया ......'' धीरे से एक औरत प्रशांत के जनाजे के सामने खड़ी होकर दूसरी महिला के कान में यह बात बोली ; अब क्या था उनके ठीक पीछे खड़ी अंजना जी ने सुन लिया ।
अंजना ने दोनों महिलाओं को जोर से फटकारा ....''तुम लोग क्या समझती हो अपने आप को ... किसी के मौत पर साहस नहीं बंधा सकती तो चली आई कानाफूसी करने ...' चलो निकलो यहाँ से वरना तुम्हारे बच्चे कितने सुथरे हैं यह किसी से छिपा नहीं है ।
मैं सबको बता दूंगी । जो नए पीडोसी कॉलोनी में आये हैं उन्हें भी तो पता चलना चाहिए ना ...! अंजना के चेहरे पर क्रोध की धधकती आग और भीतर ही भीतर प्रशांत के मौत का दुःख व्याप्त था। अंजना की बातों से वह दोनो महिला सन्न हो गईं ।
दाह संस्कार के बाद :
अगले दिन सुबह अंजना जी प्रशांत के घर गईं और उसकी माँ को वही सलाह दे दिया जो उन्होंने माया जी को दिया था ।
अंजना जी किसी का भी दुख देख नही सकती थी और भावनावश जब भी कुछ अच्छा करने का सोचती थी हमेशा ही विवादों में फंस जाती थी ।
प्रशांत की माँ जो अपने होश हवाश खो चुकी थी उन्हे समझ नहीं आया परन्तु उनके पास बैठी विधवा बहु और परिवार के अन्य सदस्यों ने यही कहा कि हमारे यहाँ जो भी कर्मकांड है वह पण्डित् जी करते हैं हम लोगो को कोई अधिकार नहीं है कुछ गड़बड़ हो गया तो लेने के देने पड़ जायेंगे।
अग्निदाह के अगले दिन:

सुबह के 8 बज रहे हैं घर में विलाप का माहौल है सभी रिश्तेदार परिजनों को ढांढस बंधाते नजर आ रहे हैं , प्रशांत की मां का रूदन हृदय विदारक प्रतीत हो रहा है मानो कई दिनों से कोई भूखा खाना ना मिलने की अवस्था में बदहवास पागलपन के घोर अंधेरे में खो गया हो। एक मां के हृदय की पीड़ा , कराहना, सुनने वालों के होश उड़ा दे ।
मुन्ना लाल से अपनी धर्मपत्नी सरस्वती की पीड़ा देखी नहीं जा रही थी ।
जवान बेटे का गम दोनो को भीतर से झकझोर दिया। मुन्ना लाल पत्नी को जैसे तैसे दिल को मजबूत कर साहस बंधाने लगे ,उधर त्रिकालदर्शी स्वयंभू पंडित ज्ञानेंद्र का आगमन हुआ।
तन पर सफेद कुर्ता , पीली धोती, हवाई चप्पल पहने हुए मस्तक पर चंदन का टीका किए अपने बाएं कंधे पर पीला झोला लटकाए मुन्ना लाल के घर दस्तक देते हैं ।
प्रणाम पंडित जी " मुन्ना लाल बोले..!
पण्डित - भगवान आपको दुख सहन करने की शक्ति दें ।
जय महाकाल ....!!
मुन्ना लाल - पंडित जी विधि विधान बताइए , कैसे क्या करना है ।
पंडित ने एक रिश्तेदार मुकेश को सारी पूजा सामग्री लिखवा दिया और समान लाने को कहा
दक्षिणा में क्या - क्या फरमाइश है वह भी गिनाकर एक लम्बी लिस्ट थमा दिया।
और अपनी बात पूरी करते हुए कहा....' आज से 13वीं तक प्रेत को भोजन देना है मैं सारी प्रक्रिया समझाता हूं
कुछ देर में सारी बातें स्पष्ट हो गई अब पंडित जी दक्षिणा लेकर चल पड़े ।
मदन (मुन्ना के चचेरे बेटे) जब पंडित जी को भैरो मंदिर चौराहा पर उतारा तो पंडित जी बचते बचाते छुपकर एक पेड़ के पास खड़े हो गए इतने देर में एक काला कपड़ा पहने काली धोती और काला टीका लगाया हुआ पंडित के पास पहुंचा ।
जैसे ही वह मदिरा निकालकर पंडित को पकड़ाया तो पंडित ने राहगीरों से नजरें चुराते हुए बोतल को धीरे से अपने पीले झोले में रख लिया और आनंदित होकर वहां से चला गया।
यह सारा दृश्य मदन देख रहा था घर पहुंचकर सारा वृतांत कह सुनाया।
परिवार के सदस्य आगबुले हो गए। और अगले दिन पंडित बदलने की बात कही तो वह पंडित तिलमिला उठा और बोला " मुझे हर रोज के पूजा पाठ में पूरा दक्षिणा और स्वर्ण चाहिए किसी और को नहीं बुला सकते आप ! मदन ने बोला पंडित जी , हमारे घर के काफी पुराने पुरोहित जी हैं वो शहर से बाहर थे इसलिए नहीं आ सके तो हमने आपको निमंत्रण दिया था ।
बाकी के काम वही करेंगे ऐसा हमे आश्वासन दिया है ।
मुन्ना ने भी बेटे मदन के हां में हां मिलाया तो पंडित ने गुस्से में ....." मैं तुम्हे श्राप दे दूंगा वर्ना मुझे उचित दक्षिणा और स्वर्ण दो अंतिम तेरहवीं तक मैं ही रहूंगा।
अब सबकी हक्की हक्की बंद...........
नोट- गलत पंडितों से टकराना विपत्ति को बढ़ाना है। 'श्राप ' शब्द सुनने और झेलने वाले के लिए कितना पीड़ादायक अनुभव हो सकता है अनुमान नहीं लगाया जा सकता । पुरातन व्यवस्था की कुरीतियों को बदलने के लिए बुद्धिजीवी वर्ग को चेतना और क्रांति लानी होगी । ताकि दुष्ट , अघोरी, नकली पण्डित आदि कोई भी अशिक्षित , असहाय ,दुखी व्यक्ति , महिला ,पुरुष को बरगला ना सके ।