Why was Sita stigmatized? books and stories free download online pdf in Hindi

सीता पर लांछन क्यों लगा ??

राम और सीता धर्म की मूर्ति थे यह तो पूरी अयोध्या और रघुकुल में विख्यात था। । प्रश्न यह है कि रामराज्य जैसी सुंदर अयोध्या नगरी में मंगल ही मंगल होगा तो फिर मानव लीला का मायने क्या रह जायेगा ? कुछ तो अमंगल भी हो ! सुख है तो दुःख भी हो! यदि नर लीला है प्रभु का, तो अज्ञानियों के लिए प्रभु की लीला जिज्ञासा का विषय भी तो बने । तभी तो ब्रम्हा की रचना सार्थक होगी।
इसलिए कहा गया है मानव तन कर्म करने के लिए है। और सूक्ष्म शरीर मे आप क्या कर्म करेंगे सोचिये?
उस शरीर मे तो कोई पाप पुण्य बनता नहीं है केवल भोग भोगने की सामर्थ्य होगी इससे ज्यादा कुछ नहीं! भोग कर्मों का ही तो होगा अब आपके कर्म अच्छे हैं या बुरे आपका मन ही दर्पण है "! कोई और तो नहीं जान सकता।

तो प्रभु की लीला में एक और कड़ी आती है । सीता पर लांछन क्यों लगा ?
जब अयोध्या में दीपावली मनाई गई तो नगरवासी आनन्द विभोर हुए , समय अच्छा व्यतीत हो रहा होता है।
राम ने 5 साल के लिए प्रजा से लगान वसूलने पर रोक लगा दी और जनता में सोने की मुद्राएँ बांटने का आदेश दिया।
कुछ समय पश्चात अयोध्या में अब महारानियों के गोदभराई का भी शुभ अवसर आता है । इस हर्ष के बीच विषाद की पीड़ा सिर्फ सीता -राम ही जानते थे । क्योंकि यह मानवीय रूप अज्ञानियों के लिए प्रश्नवाचकरूप है और ब्रम्हज्ञानी के लिए आनन्ददायी है जिस प्रकार शिव जी ने राम की हर लीला को देखकर आनंदित स्वर में राम का यश गान ही किआ । और अपने भाग्य की सराहना की ।यह तो कोई बिरला ही समझ सकता है ।
वस्तुतः राम ने प्रजा में उनके खिलाफ विरोध के स्वर सुने थे और सीता ने अपने त्यागने की बात दासी से सुना था ।
सीता जी को बुरा इस बात का नही लगा कि दासी ने बताया। बुरा इसलिए लगा कि रघुवीर ने खुद क्यों नहीं बताया ?

तब सीता के प्रश्न का प्रभु ने उत्तर दिया..." सीते! ... मैं तुम्हे खुद से दूर नहीं कर सकता और इसलिए नहीं बताया कि तुम दुःखी ना हो जाओ!
सीता ने उत्तर दिया..." रघुवीर ! .... क्या आप मुझे इतना ही जानते हैं मैं आपकी होकर भी आपकी नहीं हूँ , गैर होकर भी गैर नहीं हूँ । फिर क्या हूँ मैं??
सीता ने अपने फर्ज याद दिलाये कि प्रजा में विरोधी आवाज हमारे कुल के गौरव को दाग़दार कर देगा यह मुझे मंजूर नहीं प्रभु !
राजरानी के रूप में प्रजा मेरे पुत्र -पुत्री के समान है और उनका ध्यान रखना राजा-रानी के लिए निजी जीवन से कहीं बढ़कर है ।
सीता ने अपनी माता से सुने राजधर्म की बातों को प्रभु राम को याद दिलाया कि......
जिस प्रकार भोलेनाथ सभी सुख त्यागकर एक योगी की भांति लीन रहते हैं उसी प्रकार एक राजा को निजी जीवन के सुखों को त्यागना पड़ता है खासतौर पर तब, जब राजा के सामने परिवार और प्रजा के प्रथम चयन की बात आये तो उसे प्रजा को ही प्रथम स्थान देना पड़ता है । इसलिए प्रभु ..."
रघुकुल की रक्षा के लिए मेरे प्राण भी त्यागने पड़े तो मैं पीछे नही हटूंगी "!
सीता के इन कथनों को सुनकर प्रभु व्याकुल हो उठे हालांकि नर लीला में उनका यह व्यवहार सामान्य मानव की भांति उचित था ।
प्रभु ने फिर तर्क दिया कि सीते...! मैं जानता हूँ कि मेरे लिए तुमने वनवास चुना, मेरे साथ सुख दुख में समान भागीदार रही हो ! अपने कुल, खानदान की लाज रखकर पूर्ण समर्पण भाव से सेवा की है ।
तब जानकी ने बीच मे ही रोककर उन्हें पुनः याद दिलाया ....."रघुवीर अब कोई प्रश्न नहीं उठता कि मैं अपने सुखः के लिए आपका अपमान होने दूँ आपका अपमान मेरे लिए प्राणघातक है आपने ही कहा था कि एक रावण तो मारा गया अब दूसरा रावण मारना है ।और यह बात अब समझी कि अब समय आ गया है लोभ, राजसुख़ भोग, राजसी ऐश्वर्य , सुखः आदि को भूलकर मर्यादा स्थापित करके बुराई के रावण का अंत करना है ।

इस प्रकार सीता जी ने सभी भोगों का त्याग कर दिया । वह चाहती तो स्वेच्छा से राजभवन के सुख भोग सकती थीं किन्तु सीता साक्षात लक्ष्मीस्वरूपा थी यह उनकी मानवीय लीला आने वाले युगों के लिए आदर्श स्थापित करने के लिए थी कि जब भी महिलायें विपरीत परिस्थितियों से सामना करें तो सीता समान सेवा , सहयोग , बलिदान से प्रेरित होकर एक नए आदर्श के मानदण्ड स्थापित करके मानव जाति को उत्कृष्टता की ओर ले जाएँ ।
यही गुण पुरुषों को राम से सीखना चाहिए कि स्त्री को सम्पूर्ण अधिकार दे उसे बराबरी का हक दे और ससुराल पक्ष की तरफ से पूर्ण प्रेम दें तथा धर्म की रक्षा के लिए कुल के गौरव के लिए समय आने पर पीछे ना हटे और समान रूप से हर सुख दुख में पुरुष अपनी भार्या का सहभागी बने।

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED