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उजाले की ओर –संस्मरण

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स्नेहिल नमस्कार

सभी मित्रों को

शोभित और अमित वैसे तो एक ही गर्भ से जन्म लेने वाले जुड़वाँ भाई हैं परंतु उनके स्वभाव में देखो तो कितना विकट बदलाव है ! मित्रों को लग रहा होगा कि मैं विकट जैसे कठिन शब्द का प्रयोग क्यों कर रही हूँ ? खुलासा कर ही देती हूँ | मैंने सुना था और बहुत सी फिल्मों में भी दिखाया जाता है कि जुड़वाँ बच्चों में बहुत कुछ एक से गुण होते हैं | यह भी कहा जाता अथवा दर्शाया जाता रहा है कि अगर दो जुड़वाँ किसी मेले में बिछड़ जाते हैं अथवा किसी कारण से दूर हो जाते हैं तो एक को यदि कोई बीमारी हो अथवा कोई परेशानी हो जाए तो दूसरे को भी वही परेशानी, तकलीफ़, पीड़ा होती है लेकिन जब इन दो जुड़वाँ भाइयों को देखा तब लगा कि सम्भवत: ये बातें अब पुरानी हो गई हैं | हँसी भी आई कि इसमें भी कुछ नया-पुराना हो सकता है क्या?

जब वैश्विक रूप से हर बात में बदलाव हो रहे हैं तब बायोलॉजिकली भी कुछ बदलाव हों तो असंभव नहीं है न ? हमारी पीढ़ी ने देखते ही देखते न जाने कितने बदलाव देख लिए हैं | हमारी संस्कृति में, हमारे आचरण में, वातावरण में ---सब जगह बदलाव ही तो हैं |इसको भी जाने दें । सोचिए, प्रकृति में कितने बदलाव हुए हैं ! आश्चर्य होता है किन्तु सब बदलाव होते हुए भी कुछ बातें, कुछ चीजें अथवा कुछ सोच ऐसी हैं कि यदि हम मन से प्रयास करें तो स्थिति बेहतर हो सकती है लेकिन बेहतरी के लिए तो सोचना पड़ता है न !यदि सोचेंगे ही नहीं तो चीजें कैसे बेहतर हो सकती हैं ?

यहाँ बात हो रही थी शोभित और अमित दो जुड़वाँ भाइयों की जिनके स्वभाव एक गर्भ से जन्म लेने, एक समय जन्म लेने के उपरांत भी इतने अलग हैं कि अभी तक की सब सुनी-कही बातें गलत लगती हैं | जहाँ शोभित बहुत विनम्र स्वभाव का है और यदि उससे कोई गलती हो जाए तो तुरंत क्षमा प्रार्थना करने के लिए तत्पर रहता है, वहीं अमित इतना जिद्दी है कि वह जानता है कि उसने कोई बात गलत की है परंतु कभी भी अपनी गलती के लिए क्षमा मांगना उसने नहीं सीखा |

परिणाम स्वरूप जहाँ शोभित का परिवार व मित्र वर्ग उसको बहुत स्नेह करते हैं, उसका सम्मान करते हैं, प्रेम करते हैं और किसी भी परेशानी में उसके साथ खड़े रहते हैं वहीं अमित ने अपने परिवार से, अपने मित्रों से अपने को अलग कर लिया है | हम नहीं जानते कि जीवन कितने दिन का है और हमसे प्रतिदिन ही जाने-अनजाने कितनी गलत बातें, निंदनीय व्यवहार होता रहता है |कभी उस क्षण हमें पता नहीं चलता जब किसी विशेष परिस्थिति में हम वह व्यवहार कर बैठते हैं किन्तु जब हमें होश आता है तब तो हम समझ सकते हैं न कि हमसे त्रुटि हो गई है, हमें स्वीकार कर लेना चाहिए |

जैन धर्म में एक बहुत अच्छा पर्व है जो वर्ष भर में एक बार आता है और सब आपस में क्षमा याचना कर लेते हैं | 'मिच्छामि दुक्कड़मम्' अगर मैं ठीक हूँ तो शायद ये ही शब्द बोले जाते हैं जिनका अर्थ है कि हमें क्षमा कर दें अर्थात् कभी भी हमसे जाने-अनजाने में जो त्रुटियाँ हो गई हों, उनके लिए हम सबसे क्षमा मांगते हैं | यह एक बहुत अच्छी बात है जो हमें नमना सिखाती है लेकिन अमित जैसे लोग एक दिन के लिए भी झुकने को अपना अपमान समझते हैं |

वैसे मेरे विचार में यदि हम क्षमा माँगकर फिर से वही काम अथवा अपना गलत व्यवहार दोहराएं तब कोई लाभ नहीं है | बात तो तभी बनेगी न जब हम अपनी गलतियों को बेशक भुला दें किन्तु क्षमा माँगकर उनसे यह सीख सकें कि भविष्य में ऐसा व्यवहार हमसे न हो |

यह बात सही है कि प्रत्येक मनुष्य के जीवनमें समस्याएं आती हैं, वह परेशान भी हो जाता है और गलत व्यवहार कर बैठता है | समस्याएं चाहे व्यक्तिगत जीवन से सम्बंधित हो या पारिवारिक, आर्थिक हो या सामाजिक, प्रतिकूल परिस्थितियों से संघर्ष करने के लिए सकारात्मक सोच हमेशा काम आती है। यदि किसी का भी चिंतन नकारात्मक होगा तो वह भीतर ही भीतर टूटता रहेगा। अपने जीवन को अपने ही हाथ बर्बाद कर देगा।अकड़ मनुष्य को कहीं का भी नहीं रखती |

इसीलिए यदि हमें जीवन में सफल होना है तो हम अपने से त्रुटियाँ होने के बावज़ूद भी उन्हें ठीक करने का प्रयास करेंगे | प्रतिकूल परिस्थितियों के बारे में सोचने से समस्याओं का समाधान संभव नही है। इसे सम्भव बनाया जा सकता है बस आवश्यकता है मानसिक संतुलन बनाए रखने की। तीव्र इच्छा शक्ति सकारात्मकता ओर स्वस्थ चिंतन को बनाये रखने की। मानसिक संतुलन तभी सम्भव है जब विचारों की उलझन को कम किया जाए। सहज स्थिति विकसित की जाए। जब विचारों में उलझन कम होती है तो व्यक्ति किसी भी तरह की परिस्थिति में सामंजस्य बैठाने लायक हो जाता है।

गलतियाँ किसी भी मनुष्य से हो सकती हैं, दरसल होती ही हैं किन्तु उन्हें स्वीकार करके भविष्य में चैतन्य रहना ही एक सही मनुष्य बनने का मार्ग प्रशस्त करता है | क्यों छोटी-छोटी बातों में अकड़कर रहने की आवश्यकता है? हम सब ही जानते हैं कि प्रकृति अथवा जिसे ईश्वर कहते हैं, कभी भी हमारे जीवन का 'द एंड' ला सकता है | इसलिए बेहतर हो यदि हम सबसे कुछ न कुछ सीख सकें, विनम्र बने रह सकें, जीवन को बिना अकड़ के सरल, सहज बना सकें |

फकीरा खड़ा बाज़ार में मांगे सबकी खैर, 

न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर !!

मित्रों को आमंत्रण है यदि इसमें उन्हें कुछ भी कहने का मन हो अथवा कुछ गलत लगे तो कृपया अपने विचारों से अवश्य अवगत कराएं |अनुग्रहीत रहूँगी |

सधन्यवाद

आप सबकी मित्र

डॉ प्रणव भारती

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