जहाँ चाह हो राह मिल ही जाती है - भाग - 3 Ratna Pandey द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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जहाँ चाह हो राह मिल ही जाती है - भाग - 3

पिंकी के मुँह से यह सुनकर कि तुम जल्दी से अपने घर भाग जाओ, विजया हैरान रह गई।

उसने पूछा, “क्यों दीदी?”

“कोई सवाल मत करो विजया मैं जैसा कह रही हूँ वैसा करो।”

विजया घर की तरफ़ जाए तब तक शक्ति सिंह वहाँ आ गया, विजया को देखकर बुदबुदाया, “अरे कितनी प्यारी बच्ची है।”

"बेटा तुम्हारा नाम क्या है?" उसका हाथ पकड़ते हुए वह बोला

विजया चिढ़ कर अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश करने लगी।

तब शक्ति सिंह ने उससे कहा, "बेटा डरो मत, मैं तुम्हारा नाम पूछ रहा हूँ, बता दो, फिर मैं तुम्हें जाने दूंगा।"

तभी अचानक हीरा लाल जी की गाड़ी वहाँ से गुजरी और विजया पर उनकी नज़र पड़ गई। उनका पूरा शरीर गुस्से से कांप गया, वह तुरंत गाड़ी से उतरे और विजया को लेने पहुँचे, "विजया बेटा यहाँ क्या कर रही हो और यह कौन है?" ऐसा कहते हुए उन्होंने शक्ति सिंह से अपनी बेटी को छुड़ा लिया।

"अरे हीरा लाल जी यह आपकी बेटी है?" शक्ति सिंह ने पूछा

"हाँ बिल्कुल लेकिन तुम कौन हो?" हीरा लाल ने प्रश्न किया

"हीरा लाल जी, आपको तो सारा गाँव जानता है लेकिन आप मुझे नहीं जानते शायद, मैं शक्ति सिंह हूँ, इस इमारत का मालिक।"

"अच्छा तो आपको पता है, यहाँ क्या चलता है?" हीरा लाल ने पूछा

"जी बिल्कुल पता है और मैं कुछ ग़लत नहीं कर रहा। मजबूर लड़कियाँ मुझे मिल जाती हैं, मैं उन्हें ही इस इमारत में सहारा देता हूं। इस में आपको क्या तकलीफ़ है?" शक्ति सिंह ने उत्तर दिया।

तब हीरा लाल ने कुछ ना कहते हुए विजया को वहाँ से ले जाना ही ठीक समझा। घर जाकर उन्होंने विजया को बहुत समझाया कि वह फिर कभी वहाँ ना जाए।

तब विजया बार-बार पूछने लगी, "वहाँ क्यों नहीं जाऊँ पापा।"

हीरा लाल ने उसे कुछ भी बताना उचित नहीं समझा और उसे बातों में बहला दिया। उन्होंने घर के सभी नौकरों को हिदायत दी कि वह विजया पर ध्यान दें और उसे उस गली में कभी ना जाने दे।

गायत्री और हीरा लाल आज बहुत डर गए क्योंकि अब विजया बड़ी हो रही थी। यूं तो हमेशा से ही हीरा लाल जी इमारत में रह रही लड़कियों के लिए कुछ करना चाहते थे लेकिन अब उनकी इच्छा निर्णय में बदल गई।

एक दिन सेठ हीरा लाल ने शक्ति सिंह से मिलने का निर्णय किया और उसे पास के ही एक होटल में मिलने के लिए बुलवाया। उन दोनों की मुलाकात होने पर हीरा लाल ने शक्ति को समझाया कि वह यह काम बंद कर दे।

"शक्ति सिंह, अब तुम्हें मेरी बात सुननी ही होगी और उन लड़कियों को आज़ाद करना होगा। तुम चाहो तो मैं तुम्हें कुछ धन राशि भी दे सकता हूँ, उस इमारत की क़ीमत भी ले लो।"

शक्ति सिंह उठ कर खड़ा हो गया, "नहीं हीरा लाल जी, मुझे इमारत नहीं बेचनी, ना ही अपना धंधा बंद करना है, आपसे जो बने आप कर लो, मेरा निर्णय अटल है "

बात को आगे बढ़ाते हुए वह बोला, "वैसे आपकी बेटी का नाम क्या है, बड़ी प्यारी और खूबसूरत है। अब जवान भी तो हो रही है, वैसे आई थी ना उस दिन वह पुरानी इमारत में, संभालियेगा उसे।"

शक्ति सिंह की बातें सुनकर हीरा लाल का क्रोध सातवें आसमान पर चला गया। वह एक समाज सुधारक थे और लड़ाई झगड़े से कभी भी बात बनती नहीं बल्कि बिगड़ ही जाती है, वह जानते थे। हीरा लाल जी ने सोच-समझकर धैर्य से काम लिया और शक्ति सिंह से कुछ बोले बिना ही वहाँ से वह जाने लगे। अपने दिल और दिमाग़ पर वह बहुत बड़ा बोझ लेकर जा रहे थे, सोच रहे थे कि शक्ति सिंह मानेगा या नहीं, उसे कैसे मनाया जाये? अनेक प्रश्न और कठिनाइयाँ उनके दिमाग़ में कोलाहल मचा रहे थे।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः