तमाचा - 43 (दस्तक) नन्दलाल सुथार राही द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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तमाचा - 43 (दस्तक)

दूर दूर तक सिर्फ रेत ही रेत। रेत के बड़े-बड़े पहाड़ जिस पर कहीं कहीं खेजड़ी और फोग की झाड़िया । आदमी और उसकी प्रजाति का दूर-दूर तक कोई अता पता नहीं। सभी विद्यार्थी इस आश्चर्यजनक वातावरण को देख अचंम्भित हो रहे थे। लेकिन दूसरी तरफ़ राकेश का ध्यान अब अपनी यात्रा और बाहर के नजारों से पूर्णतया हट गया था। अब उसकी नजरें बार-बार एक जगह पर आकर अटक जाती। तनोट पहुँचने से पहले बस एक बड़े रेत के धोरे के पास रुक गयी। सभी विद्यार्थी बाहर आये और और उस रेत के समुद्र में जैसे तैरने का लुफ्त उठाने लगे। विक्रम प्रोफेसर और विद्यार्थियों के साथ एक धोरे के ऊपर बैठकर चर्चा में मशगूल था। बिंदु अभी भी बस के पास ही खड़ी थी वहीं राकेश आकर काफ़ी देर उसके पास खड़ा रहा पर कुछ बोलने की हिम्मत नहीं कर पाया। बहुत कोशिश के बाद उसके कंठ से हल्की आवाज में कुछ स्फुटित हुआ। "हाय।"
"हैलो"
"आई एम राकेश , मैं इस ग्रुप का लीडर हूँ। आप?"राकेश ने अपना प्रभाव जमाने के लिए खुद को लीडर कहते हुए बोला।
"मैं बिंदु, आपके साथ जो गाइड है ,उनकी बेटी हूँ।"
"ओह्ह , वैसे आपके यहाँ के धोरे बहुत खूबसूरत है।"
"हाँ, वो तो है।"
"और साथ में लोग भी।" राकेश कुछ धीमे स्वर में बोलता है।
"क्या?" बिंदु ने जैसे सुनकर भी अनसुना किया हो। वह समझ रही थी कि यह मुझ पर डोरे डालना चाह रहा है। पर साथ ही वह खुद भी अपने अपने आकर्षक हुस्न पर इतरा रही थी।
"आप नहीं गयी उनकी साथ टीलों पर लुफ़्त उठाने?" राकेश ने बात पलटते हुए कहा।
"नहीं , आप भी तो नहीं गए।"
"मुझे तो उन टीलों से भी कुछ सुंदर दिख गया तो यहाँ रह गया।"
"अच्छा जी! ऐसा क्या देख लिया?"
"बस दिख गया । बता नहीं सकते।"
"ओके तो मत बताओ।"
"वैसे आप क्या करती हो? ग्रेजुएशन?"
"नहीं कुछ नहीं।"
"कुछ नहीं ! मतलब।"
"कुछ नहीं , मतलब ..कुछ नहीं ।
"क्यों आपकी पढ़ने की इच्छा नहीं थी या आपको पढ़ाया नहीं?" राकेश के इस प्रश्न सुनकर वह अपने मन के एक गहरे तल में चली गयी। वह सोचने लगी, कितनी अच्छी है कॉलेज लाइफ! फ्रेंड्स के साथ घूमना, मजे करना , कितनी मस्त है इन सबकी लाइफ। वह फिर से अपने पापा को कोसने लगी। उसके दिल में अपने पापा के प्रति जो नफ़रत थी वह और बढ़ गयी।
"ओ हलो... कहाँ खो गई जी आप।" अचानक से बिंदु तब चेतना में आई जब राकेश ने उसे जोर से यह बोला।
"जी..जी... कहीं नहीं । बस ऐसे ही ध्यान भटक गया था थोड़ा।"
"वाह! ध्यान तो आपकी वजह से हम जैसों का भटकता है। आपका भला कैसे भटक गया?" राकेश ने मौके पर चौका लगाते हुए कहा।
"अच्छा जी! हमनें भला कब भटकाया आपका ध्यान।" बिंदु जैसे खुद को उनकी टोली का सदस्य समझने लगी। वह राकेश से बातचीत में रस लेते हुए अपने कोमल स्वर से बोली।
"अब लगता है आप अपनी तारीफ़ करवा के ही मानेगी।"
"मैंने कब कहा कि मेरी तारीफ़ करो।"
"हाँ पर तारीफ़ भी भला कह के कोई थोड़ी करवाते है। और आप की तारीफ़ भला कोई करें ही क्या? मैं कोई कवि नहीं वरना एक कविता तो अवश्य बना ही लेता आप पर।" राकेश ने देखा कि बिंदु उसकी बातों का जवाब प्रसन्नता के लहज़े से दे रही है तो वह उससे और ज्यादा उत्साह से उससे बात करने लगा।
"ओहो! बस बस ! अब रहने भी दो। "
"रहा ही तो नहीं जाता।"
"अच्छा ! फिर इतनी सारी लड़कियाँ तो आई है आपके साथ, किसी को बना लो अपनी फ्रेंड।"
"इनमें वो बात कहाँ है? जो आपमें है ।"
"अच्छा जी! ऐसा आख़िर क्या है मेरे में जो आपको मेरे में उन सबसे ज्यादा पसंद आ गया?"
"आपका भोलापन।" बिंदु का हृदय अब जैसे प्रसन्नता के सागर में हिलोरे मार रहा हो। उसकी इतनी तारीफ़ कभी किसी लड़के ने नहीं की थी। जब राकेश ने उससे ऐसी बात की तो लगा जैसे उसके भी दिल के एक कोने में कोई दस्तक दे रहा हो।

कुछ ही देर में सभी बस में लौट आये और बस फिर से अपने गंतव्य की ओर चल पड़ी साथ ही बिंदु की ज़िंदगी भी.....


क्रमशः....