कुछ दिन पहले पाली में एक case सुनने को मिला था। जिसमे एक लडकी के इंटरकास्ट मैरिज के बाद उसके मां बाप ने खुदखुशी कर ली.. और लोगो ने भर भर के उस लड़की को गालियां दी।। पर क्या वाकई में सिर्फ वो लड़की गुनहगार है ?
क्या सच में इसके पीछे कोई और छुपा नहीं है जो अप्रत्यक्ष रूप से इस हत्या में शामिल है ?
क्या ये समाज भी उतना ही जिम्मेदार नहीं है उनकी मौत का जितनी वो लड़की ?
पर क्योंकि वो लोग संख्या में ज्यादा है और अपने आप को छुपाना जानते है इसलिए उनपे कोई अंगुली नही उठाता।
एक लड़की जिसे सरकार चुनने का अधिकार है जो इस पूरे देश को चलायेगी ...उसे अपने जीवनसाथी को चुनने का अधिकार भी नहीं है।। और इस मामले में लडकियो की हालत तो और बदतर है...जिस इंसान के साथ उसे पूरी जिंदगी बितानी है वो ही कई बार उसके गले जबरदस्ती बंद दिया जाता है । और गलती से अगर अपनी पसंद से शादी कर ले तो जिंदगी भर के ताने...कोर्ट मैरिज तो कर ले तो ये समाज तब तक चैन से नहीं बैठ पाता जब तक उस परिवार में किसी की मौत से उनके अहंकार को तृप्त न कर दे।।
मरना मारना सिर्फ समाज के डर से है और वही समाज जरूरत के वक्त पर साथ की जगह ताने देता है।। जो साथ ही ना दे सके उनके डर से मरना उचित है ?
और हां नियम भी यहां अलग अलग वर्ग के लिए अलग अलग बनते है अमीर वर्ग को परेशान करने के अलग नियम है और गरीबों का तो हाल मत ही पूछो।
फिर ये लोग आपके जख्मों पर नमक भी इस तरह लगाते है की हम समझ ही नही पाते ये नमक लगा रहे या दवा।।
मैं समझती हूं की समझदारी एक उम्र के बाद आती है वो लड़की शायद नहीं जानती थी की जो वो कर रही है उसका अंजाम इतना बुरा होगा...पर उसकी मां बाप की मौत की वजह क्या उसका शादी कर लेना था ..या समाज का डर था?
फिर कुछ so cold लोग आते है जो कहते है की वो समाज सुधार की पहल करेंगे और पहल भी ऐसी की जिसे सुन मैं अपनी हसी नही रोक पाई। समाज सुधार में और किसी की मौत पर मुजरा करने में फर्क होता है...
कुछ लोगो ने तो यह तक कहा की ऐसी लड़की भगवान किसी को न दे...इंसान हमेशा वही करता है जो काम उसके लिए आसान हो और लड़कियों को कोख में मारना तो वो सदियों से करता आ रहा तो ये कहना उसे कभी मुश्किल नहीं लगेगा पर खुद को और समाज की कुरीतियों को बदलना कठिन है और इतना वक्त हमारे पास कहा। हम तो बस ज्ञान दे सकते है जैसे कुछ दिन पहले दिया था और जैसे इस वक्त मैं दे रही।
भाई जीने दो लोगो को...तुम भी उसी भीड़ का हिस्सा हो जो किसी अनजान की मौत का कारण हो ...तुम समझो इस बात को की तुम ही वो 4 लोग हो जिनके डर से वो लोग अपनी जान देने पर मजबूर हुए ।
परिवर्तन ही संसार का नियम है और जब समाज में बदलाव आना तय है तो क्यों नही इस बदलाव को स्वीकार कर पा रहे हो।
जब सब कुछ इतना सहज हो सकता है तो कब तक जान लेते रहोगे ।।
तुम्हारे बनाए नियम_रीतियां , कानून से कभी ऊपर नही हो सकते...
मुझे एक वाकया याद आता है...कुछ साल पहले का । शायद तब मुझे इतनी समझ नहीं थी की उस घटना को समझ पाऊं पर आज मैं उसके पीछे की पूरी कहानी समझ सकती हूं ।
मेरे गांव से 6 km दूर एक गांव है सोनाईलाखा ...एक दिन अखबार में news आई की वहा कोई देवी प्रकट हुई है...जाहिर सी बात है 21 वी सदी में जहा पाप इतना बढ़ गया है वहा किसी देवी का प्रकट होना संभव नहीं है...तो news वाले लग गए उसके पीछे...दरअसल लड़का ट्रांसजेंडर था जो कई साल तक लड़के की तरह रहा जो अपने सच को जानता था और इस समाज की सोच को भी। कुछ साल बाहर रह कर उसने खुद की बॉडी को change करवा लिया और खुद को एक ट्रांसजेंडर लडकी बना लिया। वो जानता था की उसे लडकी रूप में कोई नही अपना पायेगा इसलिए उसने खुद को देवी बता दिया और मुंबई से गांव लौट आया...और एक मनघड़ंत कहानी बना दी की उसे सपने में देवी ने दर्शन दिए और अब वो खुद एक देव्य स्वरुप है...उसने लडको के परिधान त्याग कर एक औरत जैसे परिधान पहन लिए। लोगो के पास खबर पहुंची तो वो अपनी श्रद्धानुसार पहुंचे अपनी देवी मां का दर्शन करने। जब ये खबर मीडिया में पहुंची तो उन्होंने खूब अच्छे से उसकी खिंचाई की तब तक जब वो थक हार के अपने प्राण देने पर मजबूर न हुआ....हा उसका तरीका गलत था उसने कई लोगो की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाई हो पर वो जानता था ये समाज उसे कभी स्वीकार नहीं कर पाएगा वो जानता था यहां लोग देवी के रूप में उसे पूज लेंगे पर एक लडके से लडकी बनने पर उसे जीने ना देंगे और कुछ दिनों बाद उसने आत्महत्या कर ली।।
क्या समाज उसकी मौत का जिम्मेदार नहीं था?
उसे जीने दिया जा सकता था जैसा वो है जैसा उसे ऊपर वाले ने बनाया उसे वैसे ही जीने दिया जा सकता था।।।
पर नहीं वो भी मारा गया एक भीड़ की साजिश का हिस्सा हो गया जो खुल के कभी सामने नहीं आती ना सुख में न दुःख में और न जरूरत के वक्त। हां वो अभिनय अच्छा कर लेती है...सहानुभूति दर्शाने की ओट में अपने मनोरंजन का पूर्ण इंतजाम कर देती है । उसने अपनी जान एक अंधे और बहरे समाज के लिए दे दी जो सिर्फ सुनता है तो किसी का दुःख और चित्कार और देख सकता है तो बस अपने अहंकार को फलता फूलता। ये दो लोग भी समाज की वजह से मारे गए । उनका साथ दिया जा सकता था। उन्हे समझा जा सकता था ।उन्हे जीने दिया जा सकता था पर उन्होंने मौत को गले लगाया
Bs इस डर से की मुंह क्या दिखाएंगे ।।
हम समझ ही नही पाते की एक पीढ़ी का पाखंड दूसरी पीढ़ी के लिए परंपरा बन जाती है... कब तक इज्जत के नाम पर अपनी सोच अपना पाखंड दूसरो पर थोपते रहोगे... जब एक इंसान आत्महत्या करता है तो उसकी मौत के जिम्मेदार हजारों लोग होते।।जो अपना गुनाह बड़ी चालाकी से छुपा लेते है ।
जब भगवान कृष्ण ने अपने श्रीमद्भागवत महापुराण के 9 वे अध्याय के 10 वे श्लोक में कहा की परिवर्तन ही संसार का नियम है इसके बिना सृष्टि में नवीन सृजन संभव नहीं है तो क्यों हम किसी परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पाते।
संसार शब्द का अर्थ ही गतिशीलता होता है निरंतर चलते रहना ही संसार है। परिवर्तन जरूरी है गतिशीलता जरूरी है क्योंकि ठहरा पानी हमेशा दुर्गंध युक्त होता है जबकि बहता पानी हमेशा स्वच्छ-शुद्ध -निर्मल।
परिवर्तन हमेशा सुखद हो ये ज़रूरी नहीं क्योंकि सतयुग से कलयुग तक का सफर कदापि एक सुखद परिवर्तन नहीं था पर आदिमानव से विज्ञान मानव तक का परिवर्तन सुखद है।
वैदिक कालीन सभ्यता में जब सिर्फ कर्म आधारित व्यवस्था थी तो ये व्यवस्था जाति धर्म आधारित कैसे हुई...क्या इसमें कुछ लोगो का स्वार्थ निहित नहीं था...क्या ये एक परिवर्तन नहीं था जिसे मानव ने सहर्ष स्वीकारा हो क्या इसमें सभी वर्गो का हित निहित था?
इन सवालों पर कोई अपना ध्यान केंद्रित नही करना चाहता।
मानव बस अपने बनाए नियमों के पिंजरे में कैद रहने में सुखद अनुभूति पाता है।
जिस सभ्यता संस्कृति जात धर्म के लिए आज मानव मरने मारने को उतारू है क्या वो वाकई में हमारी सभ्यता है?
क्योंकि सिंधु घाटी सभ्यता में भी किसी जाति विशेष का कोई उल्लेख नहीं है।
और सच में हमे अपनी सभ्यता बचानी ही है तो क्यों न इस समाज को एक बार फिर से मातृसतात्मक बनाया जाए ...जैसा सिंधुघाटी सभ्यता के समय था...औरतों को फिर से उच्च दर्जा दिया जाए ...समाज की बागडोर फिर से औरतों के हाथ में दी जाए...पर हम ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि इससे हमारा स्वार्थ फली फूथ नहीं हो पायेगा।
क्या समाज को एक सकारात्मक सुधार की आवश्यकता नहीं है...?
अपनी सोच का थोड़ा विस्तार करना जरूरी है और परिवर्तन को सहर्ष स्वीकार करना समय की मांग। वरना आने वाली पीढ़ी कब हमे हासिए की तरफ धकेल देगी इसका हम अंदाजा भी नहीं लगा पाएंगे।