"सुना है कल गाँव में लोगों को एक डायन दिखी",अहमद अली बोले...
"आप इन सब बातों पर भरोसा करते हैं",रहमान मियाँ ने पूछा...
"मैं तो ऐसी बेतुकी बातों पर बिल्कुल भरोसा नहीं करता,ना कभी आँखों से देखा ,ना कभी कानों से सुना तो ऐसी सुनी सुनाई बातों पर भला मैं कैसें भरोसा कर लूँ",अहमद अली बोलें...
"आप देख लेते ना! तो जरूर ऐसी बातों पर भरोसा करने लगते,रहमान मियाँ बोलें...
"आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे कि आपने सचमुच की डायन देखी है",अहमद मियाँ बोलें...
"देखी है तभी तो कह रहा हूँ,मैं ऐसी अलौलिक दुनिया में जा चुका हूँ",रहमान मियाँ बोलें...
"मैं नहीं मानता कि ऐसी अलौलिक दुनिया होती भी है",अहमद मियाँ बोलें...
"ये तब की बात है जब मैं जवान था और अपने दोस्त के साथ घूमने कश्मीर गया था और वहाँ की वादियों में भटक गया था",रहमान मियाँ बोले...
"तो क्या ये सच है"?,अहमद मियाँ ने पूछा...
"हाँ! बिल्कुल सच", और ऐसा कहकर रहमान मियाँ ने अपनी कहानी सुनानी शुरू की...
जवानी के दिनों में मैं और मेरा दोस्त कश्मीर घूमने गए थे और एक वादी में घूमते घूमते रास्ता भटक गए,वो वादी सचमुच हुस्न की मलिका थी जिसकी ख़ामोशी दिल जीत लेती थी,इर्दगिर्द के पहाड़ों की बर्फ़ से भरी चोटियाँ आँखों में चमक पैदा करतीं थीं ,सूरज की पारदर्शी और भड़कीली किरनों की बदौलत वो और भी ताजातरीन दिखती थीं,वहाँ की वादियों का हरा निखरा हुआ रंग आँखों को ताजगी दे रहा था, धानी रंग के खेत एक अजब सी बहार दिखा रहे थे,तरह तरह की बेलें फूली हुई थीं जिनकी ख़ुशबू से तमाम वादी महक रही थी,उस क़ुदरती और अलौकिक दुनिया में जाकर हमारी रूह तक मुस्कुराने लगी थी,थोड़ी दूर एक छोटी सी रुपहले पानी वाली नदी आहिस्ता-आहिस्ता बह रही थी, जिसके उस पार दरख़्तों का एक झुण्ड था जहाँ से गाने की हल्की-हल्की आवाज़ आ रही थी,हम बढ़ते चले जा रहे थे ,पानी छिछली नदी को पार किया तो मालूम हुआ कि दरख़्तों के पास एक क़ब्रिस्तान है जिसमें घनी घनी घास खड़ी थी,पास में एक बाड़ा दिखाई दे रहा था, क़ब्रिस्तान और बाड़े को अलग करने के लिए ही शायद बेलों की ऊँची बाड़ बाँधी गई थी,जिसके दूसरी तरफ़ पत्थर की इमारत थी जहाँ कोई धीमे सुरों में गाना गा रहा था.....
हमलोग ये सोचकर उस इमारत की ओर बढ़ गए कि कोई मिल जाएगा तो हम रास्ता पूछ लेगें,हम वहाँ पहुँचे तो देखा कि इमारत के दरवाज़े बंद थे, उस इमारत के सामने एक खूबसूरत सा बगीचा था, जिसके आख़िरी सिरे पर दूर से एक ख़ूबसूरत, कश्मीरी डिजाइन का एक झोंपड़ा दिखाई दिया,ज्यों ज्यों हम आगे बढ़ रहे थे तो,गाने की आवाज़ साफ़ और बुलंद होती जा रही थी, गाने वाली की आवाज़ में इतना रस और लय इतनी दिलनशीं थी कि हम लोग उसमें तल्लीन होते जा रहे थे,हम बेताबी से उस बगीचें में घुस कर गाने वाली को टकटकी लगाकर देखने लगे,जो कि झोपड़े के पास था,वहाँ क्यारियों के बीच छाया के लिए एक छोटा सा छप्पर छाया गया था ,जिसके नीचे एक परी जैसी खूबसूरत लड़की बैठी एक ऊर्दू का गीत गा रही थी,
वो गाने वाली हसीना बड़ी ही कमसिन और नाजुक थी, उसके भूरे खुले बाल उसको चारो ओर से घेरे हुए थे, चूँकि वो हमारी ओर अपनी पीठ किए बैठी थी इसलिए उसे हमारी मौजूदगी का पता ना चला, हम उसके गाने के नशे में बेसुध होकर बहुत देर तक चुप-चाप खड़े रहे लेकिन ज्यों ही गाना ख़त्म हुआ हम उसके क़रीब चले गये, हमारे पाँव की आवाज़ सुन कर उसने अपने वाद्ययन्त्र रबाब को एक ओर रख दिया और चेहरे से बिखरे हुए बालों की लटें हटाईं,मैं कह नहीं सकता कि वो किस क़दर हसीन थी,हुस्न की रौशनी से हमारी आँखें फटी की फटी रह गईं,उसकी खूबसूरती देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे चाँद काली बदलियों से निकल आया हो, उसकी वो रंगत बिल्कुल इस तरह थी जैसे कि बर्फ में कश्मीरी सेब,उसकी खूबसूरत बड़ी-बड़ी मस्त आँखों में मयख़ानें की बस्तियाँ आबाद थीं,ऐसा लगता था कि जैसे वो किसी चित्रकार की नायाब रचना हो और किसी शायर की बेहतरीन गज़ल,वो किसी दीवाने की दिवानगी और गुलशन का सबसे खूबसूरत फूल थी,उसने खूबसूरत ऊनी कढ़ाईदार लबादा पहन रखा था और सिर पर ऊनी दुपट्टा बाँध रखा था....
पहले वो हमें यूँ ही कुछ पल देखती रही फिर हमारे वहांँ जाने की वजह जानकर हमें अपने झोपड़े के भीतर ले गई,उसने झोपड़े को बहुत ही करीने से सजा रखा था,सारी चींजे बड़े ही व्यवस्थित तरीके लगी थीं और कुछ देर तक वो हम से बातें करती रही फिर ,हमारे लिए खाना लेने बावर्चीखाने में चली गई और उसके जाते ही हम आपस में बातें करने लगे,मैं ने अपन दोस्त कहा कि शायद वो यहाँ अकेली रहती है, क्योंकि उसके सिवाए कोई दूसरा इन्सान यहाँ नहीं दिख रहा था,मेरे दोस्त ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता,उसका कोई परिवार जन कहीं बाहर खेत पर गया होगा,इतने में वो खाना लेकर आ गई जो कि लकड़ी की ख़ूबसूरत तश्तरियों में रखा हुआ था, ये खाना भी अजीब तरह का था, यानी उबले हुए सेब , मोटी मोटी रोटियाँ, शहद, अंडे, दूध, कच्चे अख़रोट,वो खाना देखकर हमारा मुँह बन गया,जैसे तैसे हमसे वो खाना खाया गया....
फिर मैनें उससे पूछा....
"आपने उर्दू ज़बान किससे सीखी?"
उसने कहा,
"अपने वालिदैन से,जो कि राउलपिण्डी के रहने वाले थे",
फिर मैनें उसका नाम पूछा तो उसने अपना नाम जाफरान बताया, क्या प्यारा नाम था उसका, वो ख़ुद भी जाफरान जैसी ही थी,
फिर मैनें पूछा....
"आप इस इलाक़े में कैसे आईं? "
उसने कहा,"बस क़िस्मत ले आई",
फिर मैनें पूछा,"आपका शरीक-ए-ज़िंदगी,मतलब आपका शौहर शायद काम पर गया होगा",
तो वो शरमाकर बोली....
" मैं अब तक कुँवारी हूँ",मेरा कोई भी नहीं है,मैं बिल्कुल अकेली हूँ"
"अकेली?",मैनें हैरत से कहा..
"हाँ बिल्कुल अकेली",वो बोली...
"ये सामान वगैरह कौन लाता है आपके लिए",मैनें पूछा...
तब वो बोली,"सब गाँव वाले मेरे लिए मुहैया कराते हैं,
उसके बाद हम दोनों ने उससे कई एक सवाल किए मगर उसने कोई तसल्ली भरा जवाब नहीं दिया ,टालती रही,उस दिन तो हम वापस अपने होटल लौट आएं लेकिन जाफरान की खूबसूरती ने मुझे अपना दिवाना बना दिया था,मुझे जाफरान से बार बार मिलना अच्छा लगने लगा,वो भी मुझसे बड़े अच्छे से बात करती थी,मुझे लगने लगा कि वो भी मुझे पसंद करती है, क्योंकि जाफरान भी मुझ पर मेहरबान थी,मुझसे बड़े अच्छे से पेश आती थी,जब कि मेरे दोस्त के साथ नहीं,
जाफरान का हुस्न मामूली ना थी, उसकी भरपूर जवानी ,खिलता शबाब, मस्ताना चाल और उन सबसे बढ़ कर उसकी मासूमियत ने मेरे दिल में घर कर लिया था,रात दिन मैं उसके इश्क़ में तड़पने लगा और एक दिन जब मैं उसे अपने दिल का हाल बताने उसके पास गया तो गाँव के दो तीन लोंग मुझे रास्ते में मिले और मुझसे बोलें,
"बाबू ! तुम वहाँ ना जाया करो,क्योंकि जाफरान डायन है डायन",
अब ये सुनकर मेरी सारी इश्क़बाजी हवा हो गई और अब मैं डरते डरते जाफरान के झोपड़े में गया,उस समय मैं वहाँ अकेला गया था दोस्त को ना ले गया था,सोचा था जाफरान के साथ खूब सारी बातें करूँगा,लेकिन यहाँ तो मसला कुछ और ही समझ में आया और मैनें उससे हिम्मत करके पूछ ही लिया कि तुम्हें सब डायन क्यों कहते हैं?,
तब वो बोली....
मेरे अब्बा रावलपिण्डी के थे,जब वो मुझे यहाँ लाए तो उनका इन्तकाल हो गया,अम्मी मुझे जन्म देते वक्त ही अल्लाह को प्यारी हो गईं थीं तो मुझे एक औरत ने अपने घर में पनाह दी,जिसका शम्मो था,वो जादू टोने किया करती थी और बेवा थीं,लोंग कहते थे कि उन्होंने ही अपने शौहर पर काला जादू करके उन्हें मार दिया था,उनका बेटा था जिसका नाम रसूल था जो मुझसे बहुत बड़ा था लेकिन वो मुझसे नफरत करता था, लेकिन जब शम्मो मर गई तो रसूल ने मुझे अपनी बहन बनाकर अपना लिया लेकिन इसके पीछे उसकी खुदगर्ज़ी छुपी थी,जो मुझे बाद में समझ आई,....
तब रसूल भाई ने मुझे बताया कि जब वें बीस बरस के थे तो अपनी माँ के साथ इस इलाके में आए थे और किसी चरवाहे की लड़की जिसका नाम नसीम था उसको अपना दिल दे बैठे और उससे निकाह भी कर लिया,लेकिन नसीम के दिल में छेद था ,उसका बहुत इलाज करवाने के बावजूद भी वो कुछ ही दिनों बाद मर गई,उन्हें उसकी मौत का बहुत सदमा लगा, वो नसीम के इलाज के दौरान में कई एक ऐसी जुड़ी बूटियों से वाक़िफ़ हो चुके थे जिनकी अजीब ख़ासियतें थीं,उन्हें एक ऐसी जड़ीबूटी का भी पता था, जिसके फूलों पर अगर लाश रख दी जाए तो वो सालों तक ख़राब नहीं होती,फिर उन्होंने एक ताबूत में नसीम की लाश को तहखाने में उन फूलों के साथ रख दिया,बस दो चार दिन में उन फूलों को बदलना पड़ता था...
तभी उन्हें एक फकीर मिला जिसे बहुत तरीके के इलाज करने आते थे,जो ओझा,फकीर करते हैं उस तरह से,शायद डायने भी ऐसा ही करतीं हैं और रसूल भाई ने उस फकीर से नसीम का इलाज करवाने का सोचा जो कि एक बहुत बड़ी बेवकूफी थी,लेकिन इन्सान जब हैवानियत पर उतर जाएं तो भी क्या किया जा सकता है,उन्होंने बग़ैर किसी ऑपरेशन के नसीम के फेफड़े कलेजे सहित बाहर निकाल दिए और बकरी के ताज़ा फेफड़े उसके जिस्म में दाख़िल किए, लेकिन चूँकि इसको मरे हुए बहुत वक्त गुज़र चुका था, इसलिए उसका जिस्म सड़ चुका था और गोश्त सूख कर लकड़ी बन गया था इसलिए वो ज़िंदा न हो सकी,नसीम के जाने के गम में रसूल भाई भी बीमार पड़ गए, वे कई जुड़ी बूटियाँ जानते थे इसलिए उनके ज़रिए उन्होंने अपने मर्ज़ को दबा दिया मगर मर्ज जड़ से न गया और नसीम को उन्होंने अभी तक नहीं दफनाया था,उन्हें अब भी उम्मीद थी कि वें उसे फिर से जिन्दा कर लेगें,
वें तहखाने में नसीम की लाश की किसी खास जड़ी बूटी को आग में डालकर सिकाई किया करते थे और मैं एक दिन एक चूहा देखकर इतनी जोर से चीखी की उनके हाथ से नसीम की लाश छूटकर आग में जा गिरी और पल भर में खा़क हो गई,अब वें नसीम के जाने के बाद बेजार से हो गए और उनकी तबियत इतनी बिगड़ गई कि उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया और एक दिन वो मुझसे बोलें कि मैं उनका इल्म सीख लूँ और उनके कलेजे को बकरी के कलेजे से बिना आपरेशन के बदल दूँ और उन्होंने मुझे उस दिन दो तिलिस्म सिखाए, बकरी के ताज़ा फेफड़े जो ख़ास तौर पर इस काम के लिए तैयार रखे थे, मुझे दिए और हिदायत की कि पहले तिलिस्म के असर से जब उनके फेफड़े बाहर निकल आएं तो दूसरा तिलिस्म बकरी के फेफड़ों पर पढ़ने से ये इनके जिस्म में खुदबखुद दाख़िल हो जाएंगे,लेकिन मैंने उस काम को मामूली समझ रखा था,इसलिए ज्यों ही मैंने तिलिस्म पढ़ा तो कोई चीज़ मेरे हाथ पर आ गिरी,मैंने देखा कि उनका एक फेफड़ा बाहर निकलकर तड़प रहा था और उसे देखकर मैं जोर से चीखी और सारा खेल गड़बड़ हो गया था,फेफड़ा मेरे हाथ में था और मैं वो तिलिस्म के शब्द डर के मारे भूल चुकी थी कि मुझे क्या पढ़ना था,मैं ये बहुत देर तक सोचती रही लेकिन मुझे कुछ याद ना आया और मेरी वजह से भाई रसूल अब इस दुनिया से जा चुके थे,
मेरी चीख बाहर तक गई थी इसलिए गाँव की दो औरतें भागकर मेरे पास आईं और मुझे उस हाल में देखा ,बिस्तर पर मरा भाई और फेफड़ा मेरे हाथ में,इसलिए उन्होंने मुझे डायन समझ लिया और उस दिन के बाद डर के मारे सभी गाँव वाले मुझे खुदबखुद सारा सामान देकर जाने लगे और मैं उस दिन से डायन बन गई....
कहानी सुनाते सुनाते रहमान मियाँ रुक गए तो अहमद अली ने पूछा....
"फिर आपने क्या किया उससे शादी की या नहीं",
"नहीं! उसने मुझे वहाँ रुकने नहीं दिया,उसने कहा कि तुम इस अलौकिक दुनिया से निकल जाओ,ये अलौलिक दुनिया केवल मेरे लिए है तुम्हारे लिए नहीं और फिर मैं कभी वहाँ दोबारा नहीं गया,रहमान मियाँ बोले...
तो ये थी वो अलौलिक डायन और उसकी अलौलिक कहानी,अहमद अली बोले...
समाप्त....
सरोज वर्मा...