हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 46 Shrishti Kelkar द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 46

राष्ट्रपति द्वारा गीताप्रेस के नये द्वार का उद्घाटन
जयदयालजी गोयन्द का और पोद्दारजी बहुत दिनो से यह सोच रहे थे कि गीताप्रेस एवं 'कल्याण' के आदर्श तथा गौरव के अनुरूप ही उसके मुख्य द्वार का निर्माण हो। सं० 2012 में वे इस योजना को सफल कर सके। गीताद्वार के निर्माणमें देश की गौरवमयी स्थापत्य कला के मूल प्रतीक प्राचीन मन्दिरों से प्रेरणा ली गयी। प्रवेशद्वारमें सात प्रकार के प्रतीकों का समावेश किया गया।

(१) उपनिषदों तथा गीता के वाक्य के रूपमें शब्द-प्रतीक।
(२) वृषभ, सिंह तथा नाग के रूपमें जन्तु प्रतीक।
(३) कमल के रूपमें पुष्प-प्रतीक। (४) स्वस्तिक के रूपमें चिन्ह प्रतीक।
(५) कलश एवं शंख के रूपमें वस्तु-प्रतीक।
(६) शंख चक्र, गदा, पद्म, त्रिशूल, डमरू, धनुष, बाण आदि के रूपमें आयुध-प्रतीक।
(७) जपमाला, पुस्तक, दीप, धूपमात्र, आरती आदि के रूपमें उपकरण-प्रतीक यथा स्थान दशार्य गये हैं।

प्रवेश-द्वार के निर्माणमें एलोरा, अजन्ता, दक्षिणेश्वर के काली मन्दिर, काशी के विश्वनाथ मन्दिर, मथुरा के द्वारकाधीश मन्दिर, पुरी के जगन्नाथ मन्दिर, भुवनेश्वर के लिंगराज मन्दिर, कोणार्क सूर्य मन्दिर, मदुरा के मीनाक्षी मन्दिर, अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर, खजुराहो के महादेव मन्दिर, साँची स्तूप, आबू का जैन-मन्दिर, उज्जैन के महाकाल मन्दिर, केदरनाथ के शिव-मन्दिर, बोधगया के बुद्ध मन्दिर तथा ब्रह्मदेश के पैगोडा संज्ञक बौद्ध-मन्दिर के निर्माणमें प्रयुक्त कला का आश्रय लिया गया है। इसके मुख्य भाग के द्वितीय खण्डमें संगमरमर का बना चार घोड़ों का रथ है जिसपर भगवान् श्रीकृष्ण की प्रतिमा अर्जुन को कौरव सेना दिखाने की मुद्रामें हैं।
रथकी लम्बाई ६ फुट १ इंच है, वजन लगभग ३६ मन है। मूर्ति जयपुर से बनवाकर मँगवायी गई है।

गीताप्रेस के इस भव्य प्रवेश-द्वार का उद्घाटन करने के लिये पोद्दारजी के विशेष आग्रह से राष्ट्रपति डा० राजेन्द्रप्रसाद जी बैशाख शुक्ल सं० २०१२ को गोरखपुर पधारे। गीताप्रेस की ओर से पोद्दारजी ने उनका हार्दिक स्वागत किया। राष्ट्रपति ने उद्घाटन भाषण में अपने विचार व्यक्त करते कहा–
“गीताद्वार के उद्घाटन के अवसरपर आमन्त्रित कर आपने मुझे कृतज्ञ किया है। आपने भारतवर्ष के विभिन्न मन्दिरों, स्तूपों एवं देवालयों के अंशों को लेकर एक भव्यद्वार का निर्माण किया है। हजारों वर्षों और हजारों वर्गमीलमें निर्मित स्थापत्य नमूनों से चुन-चुनकर आपने एक द्वार बनाया, जिसका दर्शन करके कोई भी यात्री उन सभी इमारतों के अंश देख सकता है। मैं जब कहीं कोई ऐसी संस्था देखता हूँ जो इस प्रकारके विचारों के प्रचारमें व्यावहारिक रूपमें प्रयत्नशील हो तो स्वभावतः मेरा हृदय भर आता है। इसलिये गीताप्रेस का जो काम आजतक हुआ है और हो रहा है, उसका मैं आदर करता हूँ और चाहता हूँ कि वह दिन-प्रतिदिन अधिक विस्तार पावे। जीवन की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति आप कर रहे हैं। जिसने आपको यह प्रेरणा दी, वही आपके प्रयत्नोंको सफल करेगा, यही मेरी आशा और शुभकामना है।”

सुदर्शन सिंह 'चक्र' की प्राण-रक्षा
‘कल्याण’ के प्रसिद्ध लेखक श्रीसुदर्शन सिंह जी 'चक्र' की भाईजी पर अपार श्रद्धा थी। एक बार भाईजी ने किस प्रकार उनकी जीवन रक्षा की, इसका विवरण उन्हीं के शब्दोंमें पढ़िये--

सन् 1955 की बात है। मैं कैलाश मानसरोवर की यात्रा करके लौटा था. थकावट के स्थानपर मनमें उत्साह था चाहता था कि लगे हाथ मुक्तिनाथ, दामोदर कुण्ड की भी यात्रा हो जाय तो उत्तराखण्ड से प्रायः सब तीथों की मेरी यात्रा पूरी हो जाय। मैंने भाईजीसे मुक्तिनाथ जाने की अनुमति माँगी और वह मिल गयी।

सितम्बर के दूसरे सप्ताह से अक्टूबर तक यात्रा होनी चाहिये थी। यही सबसे उपयुक्त मौसम था सब तैयारी हो चुकी थी। सोचा था कि गोरखपुर से ऐसी बस पकड़ेंगे कि उसी दिन हवाई जहाज मिल जाय। भैरहवामें रात्रि व्यतीत करके दूसरे दिन पैदल यात्रा प्रारम्भ कर दें।
सामान बाँध लिया गया। बस अड्डे के लिये रिक्शा बुला लिया. मैं भाईजी को प्रणाम करने उनके कमरेमें गया। तब भाईजी गीतावाटिका के सम्पादन कार्यालय वाले अपने कमरेमें चटाईपर बैठे कागज देख रहे थे। मैंने जाकर प्रणाम किया।

"आप जा रहे हैं ?" अचानक भाईजी ने मुख लटका लिया। उनका स्वर भारी और उदास हो गया। वे बोले- "जाइये, कल्याण के विशेषांक (सत्कथांक) के लिये अभी चित्र निश्चित नहीं हुए, चित्रकारों को निर्देश नहीं दिये गये। मैं खटूंगा, करूँगा ही किसी प्रकार।

सर्वथा अकल्पित स्थिति थी। मैंने बहुत पहले इस यात्रा के सम्बन्धमें उनसे पूछ लिया था। उन्होंने प्रसन्न होकर अनुमति दे दी थी। आवश्यक प्रमाण–पत्र पानेमें सहायता की थी। चित्रों का चुनाव, उनके सम्बन्धमें चित्रकारों को निर्देश श्रीभाईजी ही सदा दिया करते थे। मैंने बहुत अल्प सहायता ही इसमें कभी-कभी की थी।

सबसे विशेष स्थिति यह थी कि श्रीभाईजी को इस प्रकार बोलते सुनने का यह मेरे लिये पहला अवसर था। आगे भी कभी मैंने उनको इस स्वरमें बोलते हुए नहीं सुना। मेरे लिये उनका यह स्वर असह्य था। अतः मैंने कह दिया -- आप ऐसे क्यों बोलते हैं ? मना करना है तो सीधे मना कर दीजिए।

इतना सुनते ही उल्लास भरे स्वरमें पूरे जोरसे भाईजी ने उस समयके सम्पादन–विभाग के व्यवस्थापक दुलीचन्दजी दुजारी को पुकारकर कहा-- "भाया रिक्शा लौटा दे।सुदर्शनजी नहीं जा रहे हैं।"

अब मेरे कहनेको कुछ रह ही नहीं गया था। मैं चुपचाप उठ आया। रिक्शा लौट गया। बिस्तर खोल दिया गया। मनमें कुछ दुःख हुआ ही।

दूसरे दिन मैं अपने नित्य-कर्मसे निवृत्त हुआ ही था कि भाईजी मेरे कमरेके द्वारपर आ खड़े हुए। बड़े गम्भीर स्वरमें बोले, "सुदर्शनजी! बड़ी दुर्घटना हो गयी।"

"क्या हुआ ?" मैंने पूछा।

वे बोले— "अभी जिलाधीश का फोन था। उन्होंने पूछा था कि आपके यहाँ से जो मुक्तिनाथ जाने वाले थे वे कल गये या नहीं। मैंने कह दिया कि नहीं गये। उन्होंने बतलाया कि कल जाने वाला हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो गया।
उसके सभी यात्री मर गये।"

पीछे समाचार पत्रों में छपा कि आँधी-तूफान और भयानक ओलावृष्टि से हवाई जहाज तो नष्ट हुआ ही मोटर मार्गकी सड़क भी कई मील टूट गई। मार्गके पन्द्रह-बीस दिन पहले खुलने की सम्भावना नहीं थी।