सुदूर तीर्थोंकी यात्रागीताप्रेस की तीर्थयात्रा स्पेशल ट्रेन श्रीसेठजी की संरक्षतामें सं० 1996 (सन् 1939) में गई। उस समय भाईजी को भी साथ चलने के लिये आग्रह किया गया था, किन्तु उस समय भाईजीके मनमें एकान्तवास का ज्वार-सा आ रहा था और वे दादरी एकान्तवास के लिये चले गये। उसके पश्चात् प्रेमीजनोंका भाईजी से तीर्थयात्रामें चलने का आग्रह चलता ही रहा और भाईजी उसे टालटे रहे। बहुतसे लोग श्रीसेठजी से इसके लिये आग्रहपूर्वक प्रार्थना करते रहे, क्योंकि उनका विश्वास था कि श्रीसेठ जी की बात को भाईजी नहीं टालेंगे। बार-बार अनुरोध करनेपर भाईजी को विवश होकर स्वीकृति देनी पड़ी किन्तु स्वीकृति देते समय भाईजी ने स्वयंको प्रबन्ध विभागसे सर्वथा अलग रहने को कह दिया। अन्तत्वोगत्वा पौष सं० 2012 ( जनवरी, 1956) में रवाना होने का कार्यक्रम निश्चित हुआ। यद्यपि इस समाचार का प्रचार नहीं किया गया, अन्यथा यह समस्या हो जाती कि किसको 'हाँ' कहा जाय किसको 'ना', किन्तु फिर भी साथ जाने वालों की संख्या इतनी अधिक हो गयी कि सबको साथ ले जाना संभव नहीं था और उनसे कर बद्ध क्षमा याचना ही करनी पड़ी। इतनेपर भी लगभग छः सौ भाई बहिन साथमें हो ही गये। इतने लोगों के लिये लगभग तीन महीनेका खान-पान एवं अन्य यात्रा की पूर्ण व्यवस्था करना एक अत्यन्त दुष्कर कार्य था।
पौष शुक्ल 6 सं० 2012 (19 जनवरी, 1956) को भाईजी लगभग सौ व्यक्तियों सहित गोरखपुर से काशी पहुँचे। काशी से ही यात्राका शुभारम्भ होना तय हुआ था। प्रारम्भमें यात्रा पहले पुरीकी तरफसे होने वाली थी, किन्तु उस समय उड़ीसामें उपद्रव होनेके कारण वह कार्यक्रम स्थगित करना पड़ा। कार्यक्रमको बदलने के लिये लगभग सात दिन काशीमें रहना पड़ा। बहुत विचार-विमर्शके बाद यह तय हुआ कि यात्रा पहले चित्रकूट, प्रयागकी तरफसे प्रारम्भ करके उत्तरी भारतका भ्रमण पहले कर लिया जाय। उसी अनुसार स्पेशल ट्रेनके सारे कार्यक्रममें परिवर्तन किया गया। पौष शुक्ल 14 सं० 2012 (26 जनवरी, 1956) को श्रीसेठजी लगभग 225-250 तीर्थयात्रा करने वालों के साथ कलकत्ता से काशी पधारे।
साथ जानेवाले सभी यात्रियों को एकत्रित करके श्रीसेठ जी, भाईजी एवं स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजने यात्रामें ध्यान रखने योग्य महत्त्वपूर्ण बातें बतलाई। काशीके मुख्य पंडितों द्वारा श्रीगणपति तथा अन्य देवताओं का विधिपूर्वक वेद मन्त्रों द्वारा पूजन कराया गया। तत्पश्चात् इञ्जन की पूजा तथा श्रीसेठ जी द्वारा संचालन का मुहूर्त कराया गया। भगवन्नामके जयघोषके साथ यात्रा दि० 27 जनवरी 1956 को प्रारम्भ हुई। दूसरे दिन प्रातः ट्रेन करवी स्टेशनपर पहुँची, वहाँ श्रीगोस्वामी जी के नेतृत्वमें प्रातःकाल की प्रार्थना एवं संकीर्तन हुए। भाईजी ने यात्रियों को पालन करने के आवश्यक नियम सुनाये। सम्पूर्ण यात्रामें यह क्रम रहा कि प्रातःकाल जिस स्टेशनपर गाड़ी पहुँचती वहीं प्लेटफार्मपर सब यात्री एकत्रित होकर श्रीगोस्वामी जी के नेतृत्वमें प्रार्थना एवं संकीर्तन करते फिर वहाँ उन्हें आसपास के दर्शनीय स्थानों की जानकारी दे दी जाती। करवी से सब लोग बस द्वारा चित्रकूट पहुँचे एवं वहाँ दो दिन रहे। सम्पूर्ण यात्राका विवरण यहाँ देना सम्भव नहीं है अतः कुछ स्थानोंका संक्षिप्त वर्णन ही दिया जा सकेगा। प्रयागमें श्रीपुरुषोत्तमदास जी टंडन एवं श्रीप्रभुदत्त जी ब्रह्मचारी के नेतृत्वमें विशाल जन-समूहने भाईजी का स्वागत किया तथा ब्रह्मचारीजी ने भाईजीको मानपत्र दिया। अयोध्यामें स्टेशनपर प्रार्थना, संकीर्तन एवं प्रवचनके पश्चात् सभी यात्री पैदल ही कीर्तन करते हुए स्टेशनसे सरयूके नये घाट तक स्नान करने गये। फिर सभी प्रमुख मन्दिरों के दर्शन करके सायंकाल भाईजीके स्वागतार्थ श्रीराम जन्मभूमिमें नगर निवासियों द्वारा एक बृहत् सभाका आयोजन हुआ जिसमें स्थानीय सभी प्रमुख सन्त पधारे।
भाईजी जब इन्दौर पहुँचे तो उन्हें बताया गया कि श्रीसीतारामदास ओंकारनाथजी महाराज उस समय ओंकारेश्वर तीर्थके आश्रममें रहकर गम्भीर योग और तपमें निरत हैं। भाईजी कुछ लोगोंके साथ उनके आश्रममें गये। वे मौनावस्थामें किसीसे मिलते नहीं थे, परन्तु भाईजीके पहुँचते ही वे तत्काल बाहर आये और तुलसीदल और पुष्पमाला देकर वहीं समाधि मग्न हो गये। बम्बईमें भाईजी का बड़ा भव्य स्वागत हुआ, क्योंकि वहाँके बहुतसे लोग भाईजी के चिरपरिचित थे। तीर्थयात्रा करते हुए भाईजीको अपने बीच देखकर सभीकी प्रसन्नताका पार नहीं था। सत्संगके आयोजनमें भी अपार जन-समूह एकत्रित था।
भाईजी जब दक्षिण भारत पहुँचे तो 'दक्षिण भारत हिन्दी-प्रचार सभा के मुखपत्र 'हिन्दी-प्रचार समाचार' के सह-सम्पादक श्री शा० रा० शारंगपाणि उनके साथ दुभाषिया बनकर रहे दक्षिण भारतके प्रायः सभी प्रमुख तीर्थोकी यात्रा की। उनमेंसे कुछ नाम हैं– तिरुपति, कालहस्ती, काञ्चीपुरम, तिरुवण्णमलै, रमणाश्रम, श्रीरंगम्, मदुरै, रामेश्वरम्, कन्याकुमारी, श्रीविल्लपुत्तूर, तेन्काशी, कुम्भकोनम् तिरुनेल्वली आलवार तिरुनगरी, मतिरुवनंतपुरम्, गुरुवयूर आदि।
प्रसंगोंको विश्लेषण करनेका भाईजी का अपना अनोखा ढंग होता था। एक उदाहरण लीजिये -- भाईजी तिरुपतिसे तिरुमलै जा रहे थे। समयकी दृष्टिसे यात्रा पैदल न करके बस या कार से की गयी थी। बसोंमें पहले सभी यात्रियों के आरामसे बैठानेके बाद भाईजी गाड़ीमें बैठे। जहाँसे पहाड़पर पदयात्रियोंके चढ़नेके लिये सीढ़ियोंका रास्ता निकलता है उस चौककर पहुँचते ही सब गाड़ियोंको रोक लिया एवं सभी यात्री उतर गये। भक्तिमय भावुकता के साथ भाईजी ने यात्रियोंको समझाया-- “यहाँकी विशेषता है कि यहाँ भगवान् के अर्चावतार के समान ही उनका विभवावतार भी महत्त्वपूर्ण एवं पूज्य माना जाता है। यह 'शेषशैल' जो वास्तवमें सात पहाड़ियोंका एक समूह है, आदिशेष का स्वरूप माना जाता है। यहाँ भगवान् को 'शेषशैल-शिरोमणि' कहते हैं। श्रीरामानुजाचार्य स्वामीने इस पवित्र पर्वतपर पैर रखकर चढ़ना अनुचित समझा और इसलिये अपने घुटनों और हथेलियोंपर कपड़े लपेटकर उन्हीं के बल चढ़कर मन्दिर पहुँचे। लेकिन हाय! आज हम अशक्त हैं, विवश हैं।” इतना कहकर थोड़ी देरके लिये भाईजी नेत्र बन्द करके ध्यानस्थ हो गये। फिर उन्होंने शेषाद्रि की ओर दण्डवत् प्रणाम किया और वहाँ की धूलि मस्तकपर लगायी। तीथॉमें भाईजीके जो प्रवचन होते थे वे साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक दृष्टिसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होते थे। मदुरैके मीनाक्षी मन्दिरमें आयोजित स्वागत-सभा का कार्यक्रम भी बहुत रोचक था। स्थानीय भक्त–प्रेमियोंने तमिल, संस्कृत और गुजराती भाषाके भजन सुनाये और भाईजीकी धार्मिक सेवाओंकी प्रशंसा करते हुए उनको बहुत बड़ी माला पहनायी और सम्मान पत्र पढ़कर समर्पित किया। भाईजीने उत्तरमें गंभीर होकर कहा कि किसी व्यक्तिके नाम-रूपकी पूजा करके, माला पहिनाकर गुणगान करना ठीक नहीं है। भाईजी की असाधारण दैन्यता देखकर वहाँ के लोग चकित रह गये। स्थान-स्थानपर वहाँ के वेदपाठी पण्डि शास्त्रज्ञोंके सामने सविनय नतमस्तक होकर प्रणाम करते एवं उनका सस्वर वेदपाठ सुनकर अत्यन्त हर्षित होते। उनका दक्षिणा देकर सम्मान करते। वहाँके लोगोंके अनुसार भाईजीकी इस यात्रासे दक्षिण भारतमें भक्ति-प्रचार को ही नहीं, अपितु हिन्दी प्रचारको भी बहुत बल मिला। कई स्थानोंपर वहाँ भावुक भक्त तीर्थयात्रा–ट्रेनकी परिक्रमा करते थे।
पुरी, भुवनेश्वर होते हुए भाईजी जब कलकत्ता पहुँचे तो हाबड़ स्टेशनपर बहुत बड़ी संख्या में एकत्रित जन समूहने भाईजी का स्वागत किया एवं वहाँके सत्संगके कार्यक्रमोंमें सम्मिलित होकर लाभ उठाया।
सभी तीर्थोका प्रामाणिक विवरण तैयार किया गया जिसे अगले वर्ष 'कल्याण' के विशेषांक 'तीर्थाक' के रूपमें निकाला गया।
“नहीं चाहती जाने कोई मेरी इस स्थितिकी कुछ बात”शरीरको कँपकँपा देनेवाली सर्दी चली गयी, शरीर को झुलसा देनेवाली ग्रीष्मका अभी पदार्पण नहीं हुआ है। प्रातःकालका समय है, मन्द समीर बह रही है। ऐसे ही सुहावने समयमें एक देवी अपने आराध्यके चित्रपटके सामने भावमग्न बैठी है। उसे न सर्दीका पता है, न गर्मीका। भावकी प्रबलतामें अश्रु रुक नहीं सके। भाव आज प्रगाढ़ होनेसे अश्रु टपकनेके स्थानपर, अश्रुधाराने कब उसके आञ्चलको भिगो दिया यह भी वह नहीं जान पायी। प्रातः कालसे बैठे-बैठे कितना समय बीत गया और भगवान् भुवन-भास्कर आकाशके मध्य आने लगे, इसका भी उसे पता नहीं लगा। उसकी स्थितिका शब्दों में चित्रण किया जाय तो–
पता नहीं कुछ रात-दिवस का पता नहीं कब सन्ध्या-भोर ।। (पद- रत्नाकर / प०सं० 505)
एक दिनकी बात नहीं है, न जाने कितने वर्षोंसे हृदयके गुप्त-कोने में एक ही साध लिये बैठी है–एक बार मेरे आराध्यके दर्शन हो जायँ। आराधना यदि सर्वव्यापी भगवद्विग्रहके रूपमें हों तो यह स्थिति बहुतसे भाग्यवान् साधकोंकी हो सकती है। पर जिसके दर्शन सुलभ होनेपर भी अभीतक न हुए हों उसके हृदयकी स्थिति लिखी नहीं जा सकती। पर अन्तर्यामीसे तो कुछ भी छिपा नहीं है और अब और प्रतिक्षा कराना उचित न समझकर उसकी व्यवस्था कर दी।
सन् 1956 में भाईजी भारतके सम्पूर्ण तीथाँकी यात्रा करते हुए दक्षिण भारत में बेजवाड़ाके आस-पास पहुँचे। एक परिचित प्रतिष्ठित वकीलके घर मिलने गये। बातें करते हुए उन्होंने बताया कि उनके पड़ोसमें ही एक प्रौढ़ महिला दिन-रात एकान्त भजन करती है। दैवी सम्पदासे युक्त, वे प्रायः पूजा-पाठमें ही लगी रहती है। आप पधारे हैं तो एक बार उससे अवश्य मिलें। उनके आग्रहवश भाईजी उससे मिलने गये। साथके लोगोंको बाहर बैठाकर वे अकेले ही उसके साधना-कक्षमें गये। देखा अत्यन्त सात्विक वातावरणमें एक देवी भाव-विहल बैठी है, सामने ठाकुरजीका विग्रह है और पासमें ही है उन्हीं भाईजीका चित्र। देवीने आँखें नहीं खोली सोचा प्रतिदिनकी भाँति प्रसाद ग्रहण करनेका कहनेके लिये कोई आया होगा। देखकर भाईजी भाव-विभोर हो गये। कुछ समय बाद बोले– "देवी! ये चित्र किसका है?" सिर झुकाये ही देवीने उत्तर दिया "बहुत वर्षों पूर्व मैंने इनके बारेमें कुछ पढ़ा था, तबसे मेरा इनके प्रति समर्पण भाव हो गया। बहुत प्रयत्न करनेपर बम्बईसे मुझे यह फोटो मिला। तबसे मैं इन्हें अपने इष्टदेवके रूपमें पूज रही हूँ।" भाईजीने कहा– "क्या आप इन्हें जानती हैं कभी इनसे मिली ये कहाँ रहते हैं?"
देवीने बताया– "मैं इनका नाम जानती हूँ पर कभी इनसे मिली नहीं हूँ। जब मैंने अपना समर्पण इन्हें कर दिया तो पता-ठिकाना जानने की आवश्यकता नहीं है।"
भाईजीने बड़े संकोचसे कहा– "एक बार आप ऊपर देखिये। बड़े लज्जा भरे नेत्रोंसे देवीने ऊपरकी ओर दृष्टि डाली और अपने आराध्य को सामने देखकर रोमाञ्चित हो गयी और भाईजीके चरणों में मस्तक रख दिया। कुछ देर बाद वह उठी और भाईजीके मस्तकपर चन्दनका तिलक किया, चरणोंमें चन्दन चढ़ाकर पुष्प अर्पण किये और धीरेसे बोली– "आप जा सकते हैं।"
भाईजी बोले– “देवी! आपका परिचय मैं जान लेता।” उत्तर मिला– "मेरा परिचय जाननेकी आपको आवश्यकता नहीं है। जो परिचय मिला है उसे भी आप कृपा करके अपने व्यक्तियों को मत दीजियेगा, नहीं तो मेरे यहाँ भीड़ लग जायेगी।" भाईजीने कहा– "आप मेरा पता नोट कर लें।"
देवीने कहा– “मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है। मेरे मनमें तो एक ही साध थी कि एक बार मुझे दर्शन हो जायँ, वह साध अन्तर्यामी प्रभुने बडे विचित्र ढंगसे पूरी कर दी। अब और कुछ नहीं चाहिये, मनसे तो मैं निकट ही रहती हूँ। बस मेरा यह समर्पण अन्ततक निभ जाय।”
यह देखकर भाईजी भाव-विहल हो गये और मनसे आशीर्वाद देते हुए बाहर चले आये। बहुत वर्षो बाद भाईजीने यह घटना अपने एक अन्तरंगको बतायी। बहुत आग्रह करनेपर नाम तो बता दिया 'चिन्मयीदेवी' पर स्थानका नाम-पता अन्ततक नहीं बताया। पूछनेपर कह देते– “वह नहीं चाहती कि जगत् का कोई व्यक्ति उसके निष्काम मूक समर्पणको जान पाये।”
एक दिन भाईजी बैठे थे, उसके भावोंकी कुछ स्मृति आ गयी और कलम चल पड़ी–
हुआ समर्पण प्रभु चरणोंमें जो कुछ था सब-मैं- मेरा।
अग-जग से उठ गया सदा को चिर-संचित सारा डेरा।।
मेरी सारी ममताका अब रहा सिर्फ प्रभु से सम्बन्ध।
प्रीति, प्रतीति, सगाई सबही मिटी खुल गये सारे बन्ध।।
प्रेम उन्हींमें, भाव उन्हीं का, उनमें ही सारा संसार।
उनके सिवा शेष कोई भी बचा न जिससे हो व्यवहार।।
नहीं चाहती जाने कोई मेरी इस स्थिति की कुछ बात।
मेरे प्राणप्रियतम प्रभु से भी यह सदा रहे अज्ञात।।
सुन्दर सुमन सरस सुरमित मूदु से मैं नित अर्चन करती।
अति गोपन, वे जान न जायें कभी, इसी डर से डरती।।
मेरी यह शुचि अर्चा चलती रहे सुरक्षित काल अनन्त।
रहूँ कहीं भी कैसे भी, पर इसका कभी न आये अन्त।।
इस मेरी पूजा से पाती रहूँ नित्य मैं ही आनन्द।
बढ़े निरन्तर रुचि अर्चामें, बढ़े नित्य ही परमानन्द।।
बढ़ती अर्चा ही अर्चा का फल हो एकमात्र पावन।
नित्य निरखती रहूँ रूप मैं उनका अतिशय मनभावन।।
वे न देख पायें पर मुझको, मेरी पूजा को न कभी।
देख पायेंगे वे यदि, होगा भाव-विपर्यय पूर्ण तभी।।
रह नहि पायेगा फिर मेरा यह एकांगी निर्मल भाव।
फिर तो नये-नये उपजेंगे 'प्रिय' से सुख पानेके चाव
–(पदरत्नाकर / पं० सं० 472 )
ऐसे भावोंका प्रत्यक्ष आदर्श रख दिया चिन्मयीदेवी ने अनन्त वंदन है उस देवी को और ऐसे गुप्त प्रेमियों को