"क्यों री! आज फिर तेरी देह पर चोट के निशान हैं,आज फिर मारा क्या लल्लू ने तुझे"?, मुखियाईन ने अपनी मेहरी(कामवाली) गुन्जा से पूछा....
"क्या बताऊँ मुखियाईन कल रात फिर पीकर आया था वो,माँस पकाने को कह रहा था लेकिन मेरे पास इतनी रकम कहाँ से आई जो उस निठल्ले को माँस पकाकर खिलाऊँ,आपका दिया हुआ खाना धर दिया उसके सामने तो बिफर पड़ा और फिर वही रोज की कहा-सुनी और फिर मार-पिटाई", गुन्जा बरतन माँजते हुए बोली...
"तू क्यों सहती है इतना? छोड़ क्यों नहीं देती उस जालिम लल्लू को", मुखियाईन बोली...
"मुखियाईन! इतना सरल नहीं होता हम औरतों के लिए अपने खसम को छोड़ना,जो उसे छोड़ दिया ना तो दुनिया वाले चैन से ना जीने देगें",गुन्जा बोली...
"इसका मतलब है तू उससे प्यार करती है",मुखियाईन बोली....
"अब चाहे जो समझ लो मुखियाईन! अब मेरा संसार तो वही है ",गुन्जा बोली...
" तो फिर सहती रह और ऐसे ही मार खाती रह",मुखियाईन बोली....
"अगर मुखिया जी आपके साथ अत्याचार करते होते तो क्या आप उन्हें छोड़ देतीं"?,गुन्जा ने पूछा...
"शायद हाँ!", मुखियाईन बोली...
तब गुन्जा बोली....
"ये सब तो कहने की बातें हैं मुखियाईन! मुखिया जी आपसे कितना प्यार करते हैं,एक पल को तो आपसे दूर नहीं रह पाते,वें भला आप पर अत्याचार क्यों करने लगे और आप भी तो उनके पीछे पीछे लट्टू की तरह घूमती फिरती हैं,उनकी छोटी से छोटी चींज का ख्याल रखतीं हैं तो फिर भला आप दोनों के बीच कभी कैसे अनबन हो सकती है भला! ,वें आपको इतना चाहते हैं, पूरे परिवार से लड़कर उन्होंने आपके साथ प्रेमविवाह किया था, जो इन्सान इतना कुछ कर सकता है अपनी पत्नी के लिए तो फिर वो कभी भी उसके साथ बुरा सुलूक नहीं कर सकता",
"ये बात तो है गुन्जा! मुझे दुनिया का सबसे प्यारा इन्सान पति के रूप में मिला है,मैं उनसे कभी दूर जाने का सोच ही नहीं सकती",मुखियाईन बोली...
"वही तो मैं भी कहना चाह रही थी", गुन्जा बोली...
और दोनों ऐसे ही बातें करतीं रहीं,
तो ये थी गाँव के मुखिया राघवेन्द्र सिंह की पत्नी सरयू,अब राघवेन्द्र सिंह मुखिया हैं तो सरयू भी मुखियाईन बन गई ,सरयू का जैसा नाम है वो है भी वैसी,सरयू नदी की तरह पवित्र और शीतल ,शीतल इसलिए कि उसे कभी किसी पर गुस्सा नहीं आता ,वो बहुत ही सुलझी हुई है,कभी ना किसी से बहस करती है और ना कभी किसी से उलझती है लेकिन हाँ अगर कहीं कोई गलत बात होती है तो वो जरूर बोलती है और गुस्सा भी करती है,गलत के आगें वो कभी नहीं झुकती फिर चाहें उसका कितना बुरा ही क्यों ना हो जाए,राघवेन्द्र और सरयू के ब्याह को आठ साल होने को हैं लेकिन दोनों के बीच प्यार अभी भी वैसा ही बरकरार था जैसा कि ब्याह के वक्त था,उनका सात साल का एक बेटा भी है जिसका नाम सनातन सिंह है,
सबके दिन यूँ ही हँसी खुशी गुजर रहे थे कि गाँव में प्लेग फैला, चारों ओर हाहाकार मचा था,एक घर से एक दिन में दो-दो तीन तीन लाशें उठने लगीं,लोगों के भीतर प्लेग का खौंफ बैठ गया था, जिसको भी बुखार चढ़ता तो लोग उसके करीब जाना बंद कर देते,यहाँ तक उनके घरवालें भी मरीज के नजदीक जाने से डरने लगे थे,मामूली बुखार में इन्सान को सेवा और ढंग की खुराक ना मिलती तो भी वो तड़प तड़प कर मर जाता लेकिन उसके घरवाले उसके नजदीक ना जाते,चारों ओर खौफ़ का मंजर था,इसलिए लोग अपने अपने परिवार के साथ गाँव छोड़कर दूसरे गाँवों में जाने लगे,कोई अपने रिश्तेदारों के यहाँ चला गया तो कोई कहीं चला गया,लेकिन गाँव को छोड़ने का कोई फायदा नहीं था क्योंकि दूसरों गाँवों में भी प्लेग फैल रहा था,प्लेग रूपी बिमारी हर जगह मुँह फाड़े खड़ी थी.....
लोग मुखिया जी के पास विनती लेकर आते लेकिन मुखिया राघवेन्द्र सिंह के पास इसका कोई समाधान ना था,क्योंकि बीमारी विकराल रूप ले चुकी थी,आस-पास के इलाकों से केवल लोगों के मरने के ही खबरें आ रहीं थीं,प्लेग को रोकना गाँव के मुखिया राघवेन्द्र सिंह के बस की बात ना थी,बस उन्होंने इतना कर दिया था कि अपने खर्चे पर शहर से एक डाक्टर और कम्पाउण्डर बुला लिए थे गाँव के लोगों के इलाज और दवा के लिए,उन डाक्टर और कम्पाउण्डर को अपनी हवेली में शरण भ दे दी थी....
अभी डाक्टर और कम्पाउण्डर को गाँव में आएं दो दिन नहीं हुए थे कि सरयू को बुखार ने आ घेरा, जब हल्का फुल्का बुखार था तो सरयू एकाध दिन सहती रही लेकिन जब बुखार ने सरयू को बुरी तरह से जकड़ लिया तो फिर वो बिस्तर से उठ भी ना सकी,अब इस बात से मुखिया राघवेन्द्र सिंह के दिल की धड़कने बढ़ गई उनके मन में आशंका उठी कि कहीं सरयू प्लेग से ग्रस्त तो नहीं हो गई और जब घरेलू इलाज करने के बावजूद सरयू का बुखार ना उतरा तो फिर डाक्टर साहब को इलाज के लिए बुलाना पड़ा और उन्होंने सरयू की जाँच करते ही घोषित कर दिया कि ये प्लेग है,अब तो राघवेन्द्र जी ने अपनी जान के डर से सरयू के पास भी आना बंद कर दिया और सरयू का बेटा सनातन जब सरयू के पास जाने की जिद करता तो वें उसे भी उसके नजदीक ना जाने देते,लेकिन वो बच्चा था,माँ के पास जाए बिना कहाँ मान सकता था,इसलिए राघवेन्द्र सिंह ने तय किया कि वें नदिया किनारे बने आम के बाग वाले पुश्तैनी घर में सनातन के साथ रहने चले जाऐगें और उन्होंने वही किया,जब अपनी जान पर बन आती है ना तो इन्सान सारे रिश्ते नाते भूल जाता है और यही राघवेन्द्र सिंह ने भी किया...
जब राघवेन्द्र सिंह हवेली छोड़कर चले गए तो फिर नौकर और नौकरानियों को भी क्या पड़ी थी कि प्लेग से ग्रसित सरयू की सेवा करें,उन्हें भी तो अपनी जान का डर था ,इसलिए वें सब भी सरयू के प्रति लापरवाह हो गए और फिर राघवेन्द्र सिंह के जाने के दो दिन बाद ही सरयू ने बिल्कुल से हाथ पैर हिलाना बंद कर दिया,उसे अब साँस लेने में भी तकलीफ़ हो रही थी और एक रात उसकी साँसें एकदम से बंद हो गईं,नौकरों ने दूर से देखा तो सरयू के शरीर में कोई भी हरकत नहीं हो रही थी,फिर डाक्टर साहब आए तो उन्होंने उसकी जाँच किए बिना ही उसे मृत घोषित कर दिया क्योंकि कोई भी प्लेग से संक्रमित प्राणी को छूना नहीं चाहता था, इसलिए डाक्टर ने भी सरयू की जाँच नहीं की ,अब ये खबर लेकर एक नौकर अपनी साइकिल में बैठकर राघवेन्द्र सिंह के पास पहुँचा और बोला....
" हुजूर! मुखियाईन तो नहीं रहीं और उनका दाहसंस्कार को आपको ही करना पड़ेगा क्योंकि आप उनके पति हैं",
अब इस बात पर मुखिया राघवेन्द्र सिंह बोले....
"मैं मुखियाईन का दाह संस्कार करने नहीं जाऊँगा,तुम लोंग ऐसा करो कि दो चार नौकर उनकी अर्थी लेकर जाओ और उन्हें नदिया में विसर्जित कर दो,गुन्जा को कह देना तो वो इस काम में तुम लोगों की मदद कर देगीं",
अब वो नौकर अपना सा मुँह लेकर हवेली लौट आया और सबसे कह दिया कि मुखिया जी का आदेश है कि मुखियाईन को नदी में विसर्जित कर दिया जाए,इस बात पर गुन्जा रो पड़ी,उसने मन में सोचा ये वही इन्सान है जो मुखियाईन को इतना चाहता था और अब अपनी जान पर बन आई तो अन्तिम घड़ी में उसका मुँह देखने भी ना आया,फिर गुन्जा ने मुखियाईन की अर्थी सँजवाई और खुद भी चारों नौकरों के साथ नदी की ओर चल पड़ी और वहाँ पहुँचकर,गुन्जा ने मुखियाईन के ऊपर बँधी रस्सियों को खुलवा दिया और सबसे ये बोली कि जितनी जल्दी इनके शरीर को पानी के जीव खा लें तो उतना ही अच्छा,इन्हें जल्दी ही मुक्ति मिल जाऐगी,फिर नौकरों ने मुखियाईन को बाँस की अर्थी सहित नदी में विसर्जित कर दिया और वापस गाँव लौट आएं...
उधर मुखियाईन की अर्थी पानी में बहते बहते किनारे पर लगे हुए एक करौंदे के झाड़ से अटक गई,रातभर मुखियाईन की लाश को नदी की लहरें यूँ ही भिगोती रही और भोर होते ही चिड़ियों के शोर और सूरज की किरणों ने मुखियाईन को आँखें खोलने पर मजबूर कर दिया,लेकिन मुखियाईन के शरीर में इतनी जान ना थी कि वो उठकर बैठ सकें,उसे बहुत जोर की भूख लगी तो उसने उसी झाड़ से लटक रहे करौदों को खाना शुरु कर दिया,करौदें खट्टे थे लेकिन जो कुछ भी हो उनसे मुखियाईन की भूख तो मिट ही रही थीं,अब दिनभर में उसे जब भी भूख लगती तो वो करौंदे खा लेती और नदी के पानी से अपनी प्यास बुझा लेती,भादों का महीना चल रहा था इसलिए पानी इतनी ठण्डक नहीं दे रहा था,फिर बहुत जोर की बारिश आई तब मुखियाईन ने सोचा ऐसे कब तक इस अर्थी पर कफन ओढ़कर लेटी रहेगी और फिर उसने थोड़ा जोर लगाया और वो उठकर बैठ गई,
उसके पास वस्त्रों के नाम पर कफन के अलावा और कुछ ना था,इसलिए उसने उस कफन को अपने देह के चारों ओर लपेटा और उस झाड़ के सहारे उसे पकड़कर वो किनारे पर आ गई और बारिश से बचने के लिए एक पेड़ के नीचे शरण ली,बारिश शाम तक होती रही और मुखियाईन ऐसे ही उस पेड़ के नीचे बैठी रही,जब बारिश बंद हुई और अँधेरा गहराने लगा तो उसने सोचा वो बस्ती की ओर क्यों ना चली जाएं,शायद वहाँ कोई उसकी मदद कर दे और वो यूँ ही चल पड़ी,रास्ते में उसे लोगों के खेत मिले तो थोड़ा ढ़ाढ़स बँधा कि शायद उसे यहाँ कोई इन्सान दिख जाए,इन्सान तो नहीं दिखें लेकिन ऐक खेत के पास उसे एक छप्पर वाली कोठरी मिल गई ,वो उसके भीतर पहुँची लेकिन उसे वहाँ कोई नहीं दिखा ,बहुत अँधेरा छाया था और बारिश दोबारा होने की सम्भावना थी,इसलिए मुखियाईन वहीं रुक गई,उसने सोचा रातभर के लिए सिर छुपाने को जगह मिल गई,
वो रातभर वहाँ रही और जब सुबह होते ही उस कोठरी में उजाला हुआ तो उसकी नींद टूटी,फिर खोजने पर उसे उस कोठरी में कुछ बासी रोटियाँ एक कपड़े में बँधी मिल गईं और साथ में एक घाघरा चोली भी मिल गया,जिसे उसने पहन लिया और अपने कफन की ओढ़नी बना ली,फिर एक जगह बैठकर उसने वो बासी रोटी खाईं,वहीं मटके में पानी रखा था तो वो उसने पी लिया,तभी खेत की मालकिन वहाँ आ पहुँची और उसे देखकर उससे पूछा कि वो कौन है,लेकिन सरयू ने अपना परिचय नहीं बताया,बोली कि रास्ता भटक गई थी और वहाँ जा पहुँची,कपड़े बारिश से गीले हो गए थे इसलिए उसने वहाँ रखे सूखे कपड़े पहन लिए फिर वो औरत सरयू से बोली....
"कोई बात नहीं,अब तुम अपने घर लौट जाओ,हम गरीबों के मन में कम से कम इतनी दया तो होती है कि किसी की मदद कर सकें लेकिन बहन अमीरों में नहीं होती बिल्कुल भी दया,सुना है कि बगल वाले गाँव के मुखिया जी हैं ना राघवेन्द्र सिंह उन्होंने अपनी पत्नी को प्लेग होने पर ऐसे त्याग दिया जैसे कि कोई दूध में पड़ी मक्खी निकालकर फेंक देता है"
राघवेन्द्र सिंह का नाम सुनते ही सरयू का माथा ठनका क्योंकि उसे तो कुछ भी याद नहीं था,उसकी तबियत इतनी खराब थी कि वो पूरे समय बेहोश सी ही रही थी,उसे तो ये भी याद नहीं था कि उसके पति उसे हवेली में छोड़कर नदिया पार बगीचे वाले घर में रहने चले गए थे,उसे अपनी अर्थी और कफन याद था,बाकी की कहानी ना उसे पता थी और ना ही याद थी,इसलिए उसने उस औरत से पूछा...
"क्या हुआ बहन!मुखिया जी की पत्नी को"
तब वो औरत बोली.....
"बहन पत्नी प्लेग से मर गई तो वें अपने पुश्तैनी घर से हवेली तक उसका दाह संस्कार तक करने नहीं आए और नौकरों के हाथों उसका नदी में विसर्जन करवा दिया,मुझे तो ये बात मुखियाईन की नौकरानी गुन्जा ने बताई,वो अन्तिम घड़ी तक मुखियाईन के साथ थी,नदी में विसर्जन के समय भी वो वहाँ मौजूद थी",
अब ये बात सुनते ही सरयू के मन में बहुत ठेस लगी और वो उस कोठरी से निकलकर बाहर आई और ना जाने कहाँ को चल पड़ी ,वो वापस अपने पति के पास ना लौटी और फिर कुछ दिनों बाद पता चला कि कोई औरत गाँव से दूर बने तुलसिया माई मंदिर के पास लगे बरगद के पेड़ के नीचें रहती है ,भिक्षा माँगकर खाती है और गरीबों की मदद करती है,उसे सब मुखियाईन के नाम से जानते हैं....
समाप्त.....
सरोज वर्मा....