अनुच्छेद- २३
कंकड़ी उवाच और........
भँवरी, नन्दू और हरबंश के हस्ताक्षर से एक प्रार्थना पत्र जब पुलिस अधीक्षक के सामने आया, वे चौंक पड़ीं। डाक से प्रार्थना-पत्र की प्रति डी. आई.जी. और मुख्य मंत्री को भी भेजी गई थी। उन्होंने चटपट सी. ओ. सदर को जाँच के लिए दे दिया।
शाम तक कोतवाल को भी सूचना मिल गई। वे अपनी कुर्सी पर बैठे चाय की चुस्की ले रहे थे। एक बार उनके मुँह से निकला 'हूँ।' दौड़ रहा है उनका दिमाग । फिर एक बार निकला 'हूँ।' वे अकेले बैठे हैं। दो घूँट पीने के बाद चाय का प्याला रख दिया। पलहा पर आया चौकीदार प्याला उठा ले गया। कोतवाल साहब ने रोल को हवा में घुमाकर कोई गोला बनाया। एक बार फिर निकला 'हूँ।'
रात के ढाई बजे थे। नन्दू और हरबंश अपने अपने दरवाजे पर बाहर सो रहे थे। नन्दू एक तख्ते पर बिना कुछ बिछाए लेटा था । सिर के नीचे उसका पैंट था बगल में कमीज़ । तख्ते के नीचे हवाई चप्पल एक दरोगा जी और दो सिपाही पहुँचे। धीरे से जगाया। दोनों सिपाहियों ने दोनों हाथ पकड़ लिया। पैंट और कमीज़ उसके कंधे पर रखा। अन्डर वीयर और हवाई पहने नन्दू ने कहा, 'माँ को बता दें।'
'कोई ज़रूरत नहीं। उन्हें बता दिया जायगा। तुम चलो।'
नन्दू चल पड़ा। वह चिल्लाना चाहता था पर सिपाही ने उसका मुँह पकड़ लिया।
'चुपचाप चलो।' दरोगा ने कहा। लमहर पुरवा गमकी हुई थी। पुरवे के कुत्ते तक मग्न सो रहे थे। दो एक ने कुछ आवाज़ की पर धीरे-धीरे चुप हो गए।
ठीक इसी समय हरबंश को भी दबोच लिया गया। फर्क इतना था कि वहाँ दीवान जी अगुवाई कर रहे थे।
दूर सिवान में खड़ी जीप में दोनों को पीछे बिठाया गया। नन्दू और हरबंश की आँखें मिलीं। सिपाही भी उनके साथ बैठे । नन्दू हरबंश दोनों अण्डर वियर और चप्पल में ही दोनों के कंधे पर कमीज़ और पेंट उन्हें जब कोतवाली में उतारा गया, दरोगा जी ने कहा, 'कपड़े पहन लो।'
कोतवाल साहब भी गश्त से लौटे। जीप से उतरे। नन्दू और हरबंश को देखा। दोनों के सामने खड़े हो गए। एक बार रोल घुमाया। 'हूँ' उनके मुख से निकला। दो डग आगे बढ़े। दीवान जी से कहा, 'चम्बल के मलखान हैं ये । इनका कागज बना दो।'
दीवान जी के कमरे में ही दोनों बिठा दिए गए। आखिर नाम पता सब लिखना ही है।
हठीपुरवा में सुबह हुई। कहीं कोई हलचल नहीं । नन्दू और हरबंश की माँओं ने समझा बेटा कहीं गया होगा। शौच आदि से निबट कर आएगा ही । दिहाड़ी काम पर जिन्हें जाना था, चले गए। बाकी लोग अपने काम धन्धों में लग गए। जब दस बजे तक हरबंश नहीं लौटा, माँ को चिन्ता हुई। वह नन्दू के घर गई। नन्दू की माँ रोटी बना रही थी। 'नन्दू भैया कहाँ हैं बहिनी,' उसने पूछा।
'का बताई। पागल अस घूमत हैं। कौनो पता नाहीं रहत । कहाँ गए, कहाँ आए? तन्नी के बापू जब से मरे हैं बेटा के चाल-ढाल.. कहकर नन्दू की माँ ने तवा चूल्हे से उतार दिया। '
'हमरे हरबंश का भी पता नहीं।'
"दूनो साथे हुइहैं। न जाने कौन खिचड़ी पकावत रहत हैं।' नन्दू की माँ ने भी दुख प्रकट किया।
‘अब हम कहाँ कहाँ भागी ? हरबंश के बाबू दिल्ली बैठा हैं।' 'कहूँ गए होइहैं तो अइबै करिहैं। अब हम सब कहाँ खोजी ?"
'तो फिर चलित है । आइ जैहैं तो बतायो ।'
'चलो। खाय जूनी ज़रूर आइ जैहैं।
पेट करोई तो भाग कै अइहैं।'
हरबंश की माई चली गई।
नन्दू की माँ भी चिन्तित हुई- आखिर गए कहाँ दोनों ? किसी को नियंत्रित करने के लिए प्रशासन लोगों पर जो धाराएँ लगाता है वे सभी नन्दू और हरबंश पर लग गईं। उनकी यह हिम्मत ! कोतवाल के खिलाफ हो जाएँ। कोतवाल अपने क्षेत्र का राजा है। देख लेने की सभी कलाएँ उसे आती हैं। छोटे किसान-मजदूरों के इन बेटों को ऐसा सबक देना है कि फिर कोई प्रार्थना-पत्र देने का साहस न कर सके। इसी तरह तो इकबाल बनता है और प्रशासन इकबाल से ही चलता है।
मुख्य न्यायिक दण्डाधिकारी के सामने दोनों पेश किए गए। उन्होंने कुछ पूछा नहीं, कागज देखा और एक बार इन दोनों को भी । कागज का पेट भरा था। न्यायिक अभिरक्षा में दोनों जेल भेज दिए गए। नन्दू और हरबंश इतने महत्त्वपूर्ण नहीं थे कि कोई हलचल होती। इसीलिए कोई खबर नहीं। बड़ी सामान्य सी बात को कौन तूल देता?
कोतवाल को पल पल की सूचना थी। अपनी कुर्सी पर बैठे वे एक बार ठठाकर हँसे । मूँछों पर हाथ फेरा। रोल को उठाया। दोनों हाथ की उंगलियों से उसे नचाया। फिर हँसे तुरन्त ही गम्भीर हो गए। रोल को मेज पर रखा। मेज पर उँगली से एक घेरा बनाया। कुछ गिना एक बार आवाज़ निकली 'हूँ'। कुछ क्षण पश्चात फिर 'हूँ'। 'कहाँ जाओगे बच्चू ?' उनकी ज़बान से निकला ।
अनेक दांव-पेंच से अनजान नन्दू और हरबंश अब भी सोचते हैं कि मेरे दिए हुए प्रार्थना पत्र पर कार्यवाही ज़रूर होगी। कार्यवाही होगी। कोई जरूरी नहीं कि नन्दू जिस तरह कार्यवाही चाहते हैं उसी तरह हो । हर प्रार्थना-पत्र पर कार्यवाही होती ही है।
कोतवाल साहब की प्रतिष्ठा का प्रश्न है। वे अपना क्षेत्र देखते हैं। रुपये की आमद भी पक्की है। कोई उन्हें चुनौती दे तो उसे मज़ा चखाना ही पड़ता है। यही प्रशासन का धर्म है। वे कुर्सी से उठे पर फिर बैठ गए। दीवान जी को बुलाया। ज़रूरी कागज पत्र देखा। उन पर हस्ताक्षर किया। पर दिमाग तो मंगल की कहानी पर ही व्यस्त था। बड़ा मूँजी है दिमाग, शरारती भी । शरारत पर उतर आए तो इसका कोई जवाब नहीं। इसीलिए मन के शुद्धीकरण की बात की जाती है।
कोतवाल साहब का दिमाग काम कर रहा है। सोते-जागते, उठते-बैठते मंगल की गुत्थी और नन्दू । उन्होंने भरे समाज में वादा किया है गुत्थी को खोल कर रख देंगे। उस वादे को निभाएंगे। कोतवाल हैं वे। कोतवाल होना कोई हँसी खेल है? कितने लोगों की सुरक्षा का दायित्व उनके कंधों पर है। कंधे मजबूत भी हैं। दिल-दिमाग दोनों काम करते हैं।
उन्हें मंगल की गुत्थी का इल्हाम हो गया और वे उछल पड़े। उन्हें लगा कि गौतम बुद्ध की तरह उन्हें भी ज्ञान प्राप्त हो गया है। इल्हाम तो इसी तरह अचानक होता ही है। यदि वे कोतवाल न होते तो इस ज्ञान पर चैतन्य प्रभु की तरह नाच उठते । पर कोतवाल वह भी वर्दी में फिर भी खुशी फूट ही पड़ी। दीवान जी से कहा- सभी को चाय पिलाओ। गुत्थी सुलझ गई । 'कैसी गुत्थी साहब?' दीवान के पूछने पर वे हँस पड़े। 'चाय पिलाओ। अभी और कुछ नहीं । ज्ञान पात्र को ही मिलता है।' दीवान जी ने कुछ समझा नहीं पर हँसते हुए चाय का आदेश दे दिया।
शाम तक जब नन्दू नहीं लौटा माँ की चिन्ता बढ़ी। एक गाय उन्होंने पाल रखी है। छोटी सी लाली छुए सफेद रंग की गाय तीन लीटर दूध देती है। माँ बेटे के लिए पर्याप्त दूध दही, घी सब कुछ घर में उपलब्ध। माँ-बेटा दोनों मिलकर अनाज पैदा कर लेते हैं। पिता भी साल-दो साल में आकर घर सँभाल लेते हैं। शाम को दुहा हुआ दूध कंडी की आग पर रखा है। माँ अगोर रही है। बेटा आए तो रोटी बनाऊँ। बेटे का कहीं पता नहीं। छोटे से पुरवे में न कोई वकील है, न मुंशी । कचहरी जाने से बचते रहे हैं इस पुरवे के लोग । अलगू, बलराम एक बार घर की ज़मीन का बंटवारा करते समय सहमति नहीं बना पा रहे थे। पर पुरवे के लोगों ने जुटकर निर्णय करा ही लिया। कचहरी न जाना पड़े इसका भरपूर प्रयास किया जाता।
हरबंश की माँ भी नन्दू की माँ से पूछने आ गई।
'नन्दू बेटा लौटा ?"
'कहाँ लौटा ? उसे ही तो......।'
'हम मेहरारू जन कहाँ जाएँ? कहाँ खोजें? बैठो बहिनी ।' नन्दू की माँ ने कहा । 'बैठाओ न बहिनी । घर सूना पड़ा है। सोचा नन्दू आए होयँ तो पूछी हरबंश कहाँ हैं?' 'नन्दू का भी तो पता नहीं। आँख देखते देखते पथरा रही है।'
'कहाँ चला गए दोनों?" कहते हुए हरबंश की माँ लौट पड़ीं। वह रोती हुई जा रही थी। रास्ते में राम दयाल मिले। पूछा, “भौजी रो क्यों रही हो?' 'का बताई भैया? हरबंश के सबेरे से पता नहीं ।'
'आजकल के लड़के किसी की सुनते हैं? पागल जैसे घूम रहे हैं। एक नन्दू हैं और ई हरबंश । इन्हें घर-द्वार से मतलब नहीं। रोओ न। चलो। घूम फिर कै अइबै करिहैं । कहाँ जइहैं? एक रोटी कोई और देने वाला है?" रामदयाल समझाते रहे।
हरबंश की माँ चुप हो घर चली गई। अभी समय है। लड़का है, माई का मोह होगा तो आएगा ही। वह सोचती रही।
नन्दू की माँ और निश्चिन्त थी। लड़का माई को छोड़कर कहाँ जाएगा?
एक के बाप हैदराबाद एक के दिल्ली, कौन पता लगाए ?
जब दो दिन बीत गया, दोनों नहीं लौटे, पुरवे में सुगबुगाहट शुरू हुई। शाम को अंगद ने राम दयाल से कहा, 'का हो, नन्दू और हरबंश कै पता न लगावा जाई?"
'लड़के जब किसी की सुनते नहीं...।'
"क्या इसीलिए उनका पता न लगाया जाय?"
'मेरे कहने का यह अर्थ नहीं है। पता क्यों न लगाया जाय?"
"तब?"
"क्या किया जाय? तुम्हीं बताओ।'
'पता तो लगाना चाहिए। पुरवे के बच्चे हैं। पुरवे की भलाई के लिए ही दौड़ते हैं। कभी किसी का नुक्सान नहीं किया।' 'ठीक कहते हो अंगद । पर क्या करें हम, यह तो बताओ ।'
‘उनको किसी ने कहीं आते जाते देखा?' 'देखा तो नहीं। पुरवे के लोग इधर-उधर जाते ही कहाँ है?' 'उनकी किसी से दुश्मनी भी नहीं थी। किसी पर शक की कोई गुंजाइश नहीं। एक दिन और बीत गया। पुरवे के लोग पता करने लगे......‘नन्दू हरबंश को किसी ने देखा है?" बात फैल गई कि नन्दू और हरबंश कहीं गायब हो गए हैं। कुआँ, ताल, नदी, झाड़ी, झंखाड़ सब छान मारा लोगों ने। दोनों का कहीं पता नहीं। हो सकता है दोनों ने कुछ कमाई करने के लिए किसी शहर की राह पकड़ी हो। दोनों के बाप बाहर रहते ही हैं। गाँव के बच्चे इसी तरह हैदराबाद, दिल्ली, बम्बई के लिए भागते हैं। कुछ दिन बाद पता चलता है कि वे कहाँ हैं ? दोनों की माँ भी यही सोच संतोष किए बैठी हैं।
हैदराबाद, दिल्ली फोन मिलाकर पूछा गया-नंदू हरबंश का कहीं पता नहीं। दोनों के पिता को फोन किया गया। दुध मुहें बच्चे नहीं है वे सब कुछ समझते हैं। हाईस्कूल पास हैं दोनों । यही सोचकर सभी निश्चिन्त थे ।
चौथे दिन शाम को एक वकील साहब ने जब आकर बताया कि दोनों जेल में हैं, दोनों की माँएँ बेहोश हो गईं। पुरवे में हाहाकार मच गया। आखिर क्या कर दिया इन बच्चों ने? पूरा पुरवा इकट्ठा हो गया। 'क्या आपने नन्दू - हरबंश को देखा है वकील साहब?" सब की ज़बान पर यही सवाल । 'मैं अपने एक मुवक्किल से मिलने जेल गया था। वहीं नन्दू मुझसे मिले थे । हरबंश से मेरी भेंट नहीं हुई पर नन्दू ने बताया था कि हरबंश भी जेल में ही हैं। दोनों को एक ही दिन जेल के अन्दर किया गया। पूरा पुरवा सन्न रह गया। 'क्या कर दिया इन बच्चों ने?"
'अभी मैं कुछ बता नहीं सकता। पुलिस आफिस से इसकी जाँच करनी पड़ेगी । तभी पता चल सकेगा कि किस धारा में इन्हें बन्द किया गया है।' 'आप पता लगाओ वकील साहब जो खर्चा लगेगा, दिया जाएगा।' अंगद ने कहा। वे अपने घर से सौ रुपये ले आए। वकील साहब को दिया। दोनों की माँओ से कुछ माँगना उन्हें असंगत लगा।
"ठीक है । कल शाम को मेरे आवास पर आ जाइएगा। सारी बातें पता कर आपको बता दूँगा।' कहकर वकील साहब अपनी मोटर साइकिल पर बैठे और चल पड़े।
दोनों की माँओं को संभालना अब पुरवे की जिम्मेदारी हो गई । औरतें, बच्चे सभी उनकी और उनके ढोर की देखभाल में लग गए। किसी को विश्वास नहीं हो रहा कि नन्दू भैया ने कोई गलत काम किया होगा। सभी यही सोचते उन्हें गलत फँसा दिया है किसी ने........।
दूसरे दिन शाम को अंगद वकील साहब के यहाँ पहुँचे । 'इन्हें डकैती की योजना बनाते पकड़ा गया है।' वकील साहब ने बताया।
'डकैती', अंगद का मुँह खुला का खुला ही रह गया। 'इन बच्चों ने डकैती ......।'
'कुछ कहा नहीं जा सकता भाई साहब। आज पढ़े लिखे बच्चे डकैती करने लगे हैं।' वकील साहब बताते रहे।
‘मुकदमा संगीन है। काफी मेहनत करनी होगी इन्हें छुड़ाने में।'
'ठीक है, मैं चल रहा हूँ । इनके पिता से भी बात कर लूँ। वे बाहर रहते हैं। दो दिन बाद आऊँगा।' अंगद ने घर की राह पकड़ी। मन में अनेक संशय उग रहे थे। क्या सचमुच इन बच्चों ने डकैती की योजना बनाई, कैसे पता चलेगा यह सब? ये बच्चे ऐसे तो नहीं हैं।
दूसरे दिन अंगद ने ही हैदराबाद फोन किया, नन्दू के पिता रो पड़े । कहा, 'आ रहा हूँ तब तक सँभालो।' तत्काल आरक्षण मिलना कितना कठिन ? सामान्य बोगी में भूसे की तरह भरकर आना है। उन्होंने अपने मालिक से बात की। स्थिति बताई। घर जाना जरूरी है नहीं तो बच्चा जेल में ही ...... । मालिक ने छुट्टी दे दी, रुपये का हिसाब भी कर दिया।
नन्दू के बाप घर भागे । बेटा जेल चला जाएगा, कभी सोचा नहीं था उन्होंने ।
'डकैती की योजना बनाते पकड़े गए। क्या हमारा बच्चा डकैत हो गया?' नन्दू के पिता राम सुख सोचते रहे। गाड़ी में बैठ गए। रोटी बनाकर बाँध लिया था पर उसे खाया नहीं। पानी और कभी कभी चाय बिस्कुट, इसी के सहारे इतनी लम्बी यात्रा । मन अशान्त हो तो भूख प्यास की ओर ध्यान कहाँ जाता है?
अब हैदराबाद छूट जाएगा। वे सोचते रहे। मुकदमा लड़ना पड़ेगा। इतनी जल्दी मुक्ति कहाँ ?
हरवंश के पिता नरसिंह दिल्ली में थे। सूचना मिली तो अवाक् रह गए। कौन सा काम कर लिया बेटे ने पुलिस पीछे पड़ गई। डकैती की योजना बनाते पकड़ा। वे भी अपने मालिक से छुट्टी लेकर घर भागे ।
कोतवाल मुखबिर से बात कर रहे थे ।
‘कैसे मुखबिर हो जी ।'
'हुक्म करें सरकार ।'
'मंगलराम को उन्हीं के पुरवे के दो लौंडों ने शराब पिलाई।' 'किस लिए साहब? मंगल तो शराब नहीं पीते थे।' 'लहसुन बेचा था उसने। इन लौंडों ने सोचा होगा - माल लिए जा रहा है, शराब पिला कर ले लिया जाय।' 'पर साहब ऐसे लौंडे तो उसके पुरवे में नहीं है। एक भी मदकची नहीं पाओगे साहब।' 'तुम आदमी की भीतरी बातों से बिल्कुल अनजान हो बैकुण्ठ ।'
" आप सही कहते हैं। मैं मूरख आदमी अन्दर की बात क्या जानूँ ?”
'तुम्हें ही कहना पड़ेगा कि मैंने अपनी आँखों से देखा है।'
'क्या देखा है साहब?"
"कि दो लौंडों ने मंगल को शराब पिलायी। वे पी नहीं रहे थे। इन लौंडों ने कोकाकोला में शराब मिलाई। पहले गिलास में थोड़ी मिलाई। जब नशे में आ गए तो आधा-आधा मिलाकर पिला दिया।' 'कह पाना मुश्किल है साहब ।'
"कैसे आदमी हो जी?"
'मैं तो सही बताने की कोशिश करता हूँ पर झूठ को सच बनाना मुश्किल है साहब?"
'झूठ कौन कहता है। सच को सच की तरह कहो।'
'हुजूर, बाल बच्चे हैं मेरे ।'
'मेरे भी हैं बैकुण्ठनाथ ।'
"आप समर्थ हैं और मैं..... ।'
'तुम्हें यह कहना ही पड़ेगा कि इन लौंडों ने...... ।'
'ये लौंडे कौन हैं साहब?"
'समय आने पर बताऊँगा। शहर के छोर पर जो ठेकी है, उसे इत्मीनान से देख आओ जिससे बात करते समय गलती न हो। यह समझ लो पुलिस की मुखबिरी से ही तुम्हारी इज्जत है ।'
'सच कहते हैं साहब, पर...... ।'
'पर-वर कुछ नहीं । तुम्हें अदालत में बयान थोड़े देना है।'
"तब?"
'मैं चाहता हूँ पुरवे में फूट पड़ जाय । नन्दू और हरबंश को सबक भी मिल जाए।' 'यह काम नेता लोग करते हैं साहब। आप तो...।' 'ज़रूरत पड़ने पर अधिकारियों को भी नेता का काम करना पड़ता है।' 'नेताओं ने बहुत चाहा कि पुरवे में फूट पड़ जाय पर हो नहीं पाया साहब। अब भी गाँव का मामला गाँव में निपट जाता है। पुलिस और अदालत दोनों से दूर रहते हैं पुरवे के लोग। गाँव भर के लोग तय करके वोट एक जगह डालते हैं। मंगल के मामले में ही पुलिस वहाँ गई।' 'पर अब पुलिस गई तो जायगी। उसके साथ तुम्हें भी जाना होगा।' 'मुझे क्या करना होगा साहब?' 'तुम्हें यह बात उस पुरवे में ही कहनी होगी। मैं चाहता हूँ कि पुरवा नन्दू और हरबंश के विरोध में आ जाए।' 'बहुत मुश्किल है साहब। पुरवा बहुत एक जुट है। यही उसकी ताकत है।' 'तुम किस मर्ज़ की दवा को बैकुण्ठ ?
कोई मेरे खिलाफ शिकायत करे और मैं चुप रहूँ?' 'ऐसा कैसे हो सकता है। आप समर्थ हैं साहब।' 'इसीलिए तुम्हें पुरवे में यह बात फैलानी है।' 'मेरे लिए थोड़ा मुश्किल है साहब।'
"क्यों?"
'पुरवे के कुछ लोग मेरे परिचित हैं। वे कहेंगे- अभी तक क्यों नहीं बताया। आज कैसे आ गए बताने?' 'तब?"
'इसका जुगाड़ करूँगा साहब। आपका काम है, तो..... । एक आदमी को तैयार करूँगा । वह शराब पीता भी है। दूर का है, इसलिए उसका कहा लोगों को जँचेगा।'
'हूँ।' कोतवाल साहब के मुख से निकला ।
राम सुख और नरसिंह दोनों एक ही दिन पुरवे में पहुँचे। पुरवे की हवा देखकर बहुत दुखी हुए दोनों । तन्नी भी परीक्षा देकर घर आ गई थी। उसने भी सुना। माँ से कहा, 'माँ, ऐसा नहीं हो सकता । नन्दू भैया ऐसा नहीं कर सकते।' भँवरी की समझ में कुछ आ नहीं रहा। वह प्रायः मौन रहती ।
नन्दू और हरवंश के माता-पिता को काटो तो खून नहीं। लड़का जेल में है। उसे कोशिश करके छुड़ाएँगे पर यह अपवाद ? इसका कोई हल उनकी समझ में नहीं आता । तन्नी दोनों के घर गई। उन्हें सांत्वना दी। 'यह झूठ है चाची।' उसने कहा। 'किसी ने गाँव में फूट डालने के लिए एक चाल चली।'
शाम को मंगल के ही दरवाजे पर गांव के लोग इकट्ठा हुए। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था अफवाह पर। पर संशय का जिन्न तो घूम ही रहा था। अंगद और राम दयाल के सामने ही एक आदमी जिसे लोग कंकड़ी कहते हैं, कहा था मेरे सामने ही नन्दू और हरवंश ने कोकाकोला में मिलाकर मंगल को दारू पिलाई। मुझे भी एक बोतल दिया था ।
अगर गाँव को विश्वास हो कि नन्दू ने मंगल भाई को शराब पिलाई तो मैं चाहूँगा कि नन्दू जेल में सड़े। मैं उसकी जमानत नहीं कराऊँगा ।' रामसुख ने दुखी मन से बात कही।
'नहीं चाचा, यह झूठ है। नन्दू और हरबंश भैया ऐसा नहीं कर सकते। उन्होंने डकैती की योजना भी नहीं बनाई। उन्हें फँसाया गया है।' तन्नी बोलते हुए हॉफ रही थी।
'मसला कठिन है । क्यों राम दयाल भाई?"
अंगद के कहते ही रामदयाल ने भी हुँकारी भरी ।
'इसका कोई हल निकालना पड़ेगा।'
'क्या होगा इसका हल?' तन्नी ने ही पूछा।
"हमें उस आदमी से सम्पर्क करना होगा जिसने यह बात बताई है।' अंगद ने कहा । 'अंगद भैया तुम्हीं यह जिम्मा लो।’ एक वृद्ध ने कहा। राम दयाल ने भी समर्थन किया।
'ठीक है तीन दिन का समय दीजिए। हम उससे मिलकर बात साफ करेंगे। हमारे साथ रामसुख और नरसिंह भैया भी चलेंगे।' 'जब तक बात साफ नहीं होती हम और नरसिंह जमानत के लिए नहीं जाएँगे।' राम सुख ने अपना फैसला सुना दिया।
सभी दुखी थे। बात को जल्दी साफ करना चाहते थे।
दो दिन दौड़ने के बाद तीसरे दिन आखिर अंगद ने कंकड़ी को ढूँढ ही लिया ।
'कहो कंकड़ी तुम्हारी बात क्या सच है?' अंगद ने पूछा।
'तो क्या मैं झूठ बोलता हूँ?" कंकड़ी कुछ ऐंठते हुए बोले ।
'लेकिन कंकड़ी हम लोगों को विश्वास नहीं हो रहा है। वे बच्चे ऐसे नहीं है।'
'तुम्हारे विश्वास से मुझे रोटी तो नहीं मिलेगी।' 'क्यों कंकड़ी? क्या तुम्हारा यही पेशा है?" अंगद ने पूछा।
'किसने बताया आपसे ?' कंकड़ी कुछ चौंका। 'एक सज्जन मिले थे । वे कहते थे कि कंकड़ी का यही पेशा है। उसकी बात पर यकीन न करो।'
'मैंने आपको सच बताया। आप यकीन करो या न करो।'
'नहीं कंकड़ी, तुम सच नहीं बता रहे हो। कहो तो एक दो बोतल का दाम में ही दे दूँ पर सच बता दो। अगर तुम सच नहीं बताओगे तो मेरा पुरवा बर्बाद हो जायगा कंकड़ी।' कहते हुए अंगद ने सौ का नोट कंकड़ी को पकड़ा दिया ।
'देखो भाई, एक दो बोतल से कहीं गाँव की बर्बादी बचती है?"
'तो तुम्हीं बता दो।'
'मुझे उस झूठ के लिए पाँच सौ मिले हैं। यही मेरा पेशा है यह जान ही गए हो ।
पर रोटी भी बहुत महंगी हो गई है।' कंकड़ी ने गुटका मुँह में डालते हुए कहा ।
'किसने तुम्हें पाँच सौ दिया ?"
"यह नहीं बताऊँगा । इसे मेरे पेशे की गोपनीयता समझो।' "कितना आपको दिया जाएं भाई कंकड़ी?"
'इसका अनुमान तो तुम्हीं लगाओ।'
'मेरे अनुमान से काम नहीं चलेगा। तुम्हें ही बताना होगा।'
'देखो भाई मेरी कुछ शर्ते हैं। आप यह नहीं पूछेंगे कि रुपया मुझे किसने दिया और किसने इसे कहने के लिए भेजा।'
'आप जैसे दो-तीन आदमियों के सामने कहने के लिए छह सौ रुपये पड़ेंगे।' 'पर यदि मैं अपने पुरवे पर ले चलूँ ।'
'वहाँ क्या मार खाने जाऊँगा?"
'तो गाँव वालों को विश्वास कैसे होगा?"
'यह तुम्हारा मसला है, मेरा नहीं।"
अंगद लौट पड़े। शाम को पुरवे के लोग फिर इकट्ठा हुए। अंगद ने कंकड़ी से हुई अपनी बात का खुलासा किया। ‘वह गांव की पंचायत में आने को तैयार नहीं है। उसे डर है कि गांव के लोग दौड़ा लेंगे।' अंगद ने बात रखी।
'उसका डर भी वाजिब है। लोग उसे साबुत तो नहीं ही जाने देंगे।' राम दयाल ने कहा । 'एक डर उसे और होगा। जिसने कहलवाया है उससे तो डरेगा ही। आखिर बात पटलने के लिए तो उसने रुपया दिया नहीं।' अंगद ने बताया 'चाचा, आप लोग जिन्न के पीछे मत भागो। अंगद चाचा के सामने उसने बात कबूल की। क्या इतना काफी नहीं है?" तन्नी ने प्रश्न किया।
सभी मौन हो गए। एक क्षण बाद तन्नी ने ही कहा, 'चाचा अब इस मसले को खत्म करो। नन्दू भैया और हरबंश की जमानत कराइए। संकट में तरह तरह के जिन्न दिखाई पड़ेंगे। सावधान रहना होगा पुरवे को।' 'तो क्या नन्दू - हरबंश को छुड़ाने की पैरवी की जाए?' अंगद ने पूछा 'बिल्कुल किया जाए।' सभी ने कहा। राम सुख खड़े हो गए। हाथ जोड़कर कहा, 'आप लोगों ने हरवंश और नन्दू में विश्वास किया। इससे दोनों परिवारों को राहत मिली है। अब आपकी आज्ञा से ही हम दोनों की जमानत के लिए कार्यवाही कर रहे हैं। भगवान यही विश्वास गाँव में बनाए रखें।'
सभी संतुष्ट हो अपने घर गए। अंगद ही इस समय अधिक सक्रिय हैं। वे चंडीगढ़ की एक डेयरी में काम करते हैं। देश-दुनिया देखा है। मंगल की घटना के समय वे चंडीगढ़ में ही थे। घर आने की योजना बना रहे थे कि मंगल के मौत की सूचना मिली। वे तत्काल गाँव के लिए चल पड़े। यहाँ आकर उन्होंने परिस्थितियों को समझने की कोशिश की । नन्दू और हरवंश के पकड़े जाने से दुखी थे । कक्षा सात में उनकी पढ़ाई छूटी थी। चंडीगढ़ में रहते हुए उन्होंने पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ना जारी रखा। अब वे फर्राटा पढ़ लेते हैं। ज़रूरत पड़े तो आवेदन वगैरह लिख लेते हैं। घर में पत्नी है, दो छोटे बच्चे हैं एक लड़का एक लड़की। लड़की पढ़ने जाने लगी है। लड़का अभी छोटा है।
अंगद, रामसुख और नरसिंह बैठकर आगे क्या किया जाए, इसी पर विचार करने लगे ।
तन्नी को परीक्षा से छुट्टी मिली। वीरू अब कम बोलता । घर की जिम्मेदारी अनुभव करने लगा है। भैंस को नाँद पर बाँध दिया है। अब वह दूध नहीं देती। 'दीदी, लहसुन का हिसाब नहीं किया जाएगा?' वीरू ने तन्नी से पूछा।
"किया जाएगा। किसी दिन राम दयाल और अंगद चाचा को साथ लेकर हिसाब के लिए चला जाएगा। देख ही रहे हो पुरवे पर कोई न कोई आफ़त आ रही है। पहले नन्दू और हरबंश भैया जेल गए और अब यह अफ़वाह ।'
'इस अफवाह के पीछे भी कोई बात होगी।'
'पुरवे में फूट डालने का जिनका उद्देश्य होगा वे जरूर..... ।' 'राम दयाल चाचा बता रहे थे कि लहसुन का दाम व्यापारियों ने बहुत गिरा दिया है।' 'यही संकट है वीरू। किसान जो पैदा करता है उसका दाम तय करने में वह कहीं नहीं है।' 'सच कहती हो दीदी। व्यापारी दाम तय करता है। किसान ठगा ठगा देखता है।'
"क्या बापू को मालूम था कि दाम गिर गया है?"
'कौन जाने? बापू ने तो कभी कहा नहीं। वे यही कहते रहे कि भाव खुलने वाला है।' 'भाव कौन खोलता है दीदी?"
'जो खरीदता है ।'
' पर हम लोग किताब कापी खरीदते हैं तो भाव लिखा रहता है। हम भाव तो नहीं खोलते ।'
'ठीक कहते हो वीरू । पर किसानों के साथ ऐसा ही होता है। सभी व्यापारी एक जुट हो जाएँ तो जैसा चाहें दाम तय कर लें। अभी अंगद काका, बता रहे थे कि सीमेन्ट का दाम फैजाबाद में दो सौ पचपन रुपया बोरी और यहीं गोण्डा में तीन सौ बीस रुपये बोरी।' 'इतना फर्क क्यों हो गया दीदी?"
'मैं भी नहीं समझ पा रही हूँ कि इतना फर्क क्यों है?"
"जब तुम नहीं समझ पा रही हो तो मैं कैसे समझ पाऊँगा?"
"अंगद काका से पूछूंगी। वे शायद जानते हों।' 'वे कैसे जानेंगे? वे तो हमारे इतना भी नहीं पढ़े हैं।'
'केवल पढ़ लेने से ही कोई काबिल नहीं हो जाता वीरू। अंगद काका ने देश दुनिया देखी है। वे चंडीगढ़ में रहते हैं।' 'ठीक कहती हो दीदी। यहाँ इस पुरवे में रहकर हम लोग कितना जान पाएँगे? बिजली तक नहीं पहुँची पुरवे में । शहरों में बच्चे कम्प्यूटर से खेलते हैं। मोबाइल लिए घूमते हैं। अंगद काका के पास भी मोबाइल है दीदी। लगता है उन्होंने इसी साल खरीदा है। लहसुन का पैसा मिल जाए तो तुम भी मोबाइल खरीद लो ।'
'अभी पढ़ाई लिखाई देखना है वीरू। मोबाइल फिर देखा जाएगा।' कहकर तन्नी घर के अन्दर चली गई। भैंस की आवाज़ से वीरू उठे । भूसा नाँद में डाला। नाँद में पानी कम था। एक बाल्टी पानी लाकर नाँद में भरा। भैंस मुँह बोर कर खाने लगी। पड़िया को भी पानी पिलाया। अभी आठ ही बजा था पर धूप तेज हो गई थी। उसने पढ़ रखा है कि पृथ्वी गर्म हो रही है । आज भैंस को उसने देर से नाँद पर बाँधा । बापू होते तो दिन निकलने के पहले ही उसका दूध निकाल कर नाँद पर लगा देते। भैंस मुँह बोर कर खाती और अपनी कोई बराबर कर लेती। उनके न रहने से अब देर ही हो जाती।
माई को जाने क्या हो गया है। जहाँ ही बैठ जाती हैं, बैठी ही रह जाती हैं। वत्सला बहिन जी से बात कर कुछ दवा करानी होगी। वीरू सानी-पानी करते सोचता रहा।