अपना आकाश - 24 - माई को क्या बताऊँगी? Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

अपना आकाश - 24 - माई को क्या बताऊँगी?

अनुच्छेद- 24
माई को क्या बताऊँगी?

‌ अंगद, राम सुख और नरसिंह पैरवी करते रहे । नन्दू और हरबंश को ज़मानत मिली। पैसा जरूर ज्यादा खर्च हुआ। जेल से जब दोनों युवक निकले तीनों से लिपट गए। राम सुख चबेना और लड्डू लिए थे। एक पेड़ के नीचे आकर पांचो ने चबेना- लडडू खा कर पानी पिया।
'गाँव का हाल चाल ठीक है काका?" नन्दू ने अंगद से पूछ लिया।
“ठीक है। पहले तुम गांव चलो। सभी तुम दोनों को देखने के लिए बेचैन हैं।' अंगद ने साइकिल पर बैठते ही कहा । नन्दू उन्हीं की साइकिल पर पीछे बैठ गया । हरबंश को रामसुख ने अपनी साइकिल पर बिठा लिया।
सायंकाल । दिन डूब रहा है। नन्दू और हरवंश के गाँव पहुँचने पर पुरवे के नर नारियों ने घेर लिया। दोनों की माँओं ने सुना। आकर दोनों से लिपट गईं। 'कहाँ डकैती डारत रहेव बेटा?' नंदू की माँ रोते हुए पूछ बैठी ।
'कहीं नहीं माँ। हम दोनों को तो दरवाजे से उठाया गया था। डकैती की कहानी झूठ है माँ। पुलिस इसी तरह उलटे-सीधे आरोप लगाकर जेल भेजती है।' नन्दू बताता रहा और माई उसका मुख देखती रही। पुरवे के बच्चे नन्दू और हरवंश को छूकर आश्वस्त होते। यह जानते हुए कि जेल से छूटे हैं पूछ ही लेते, 'कहाँ रहे भैया?" नन्दू और हरवंश दोनों मुस्करा भर देते जैसे इतना ही पर्याप्त है।
तन्नी माई और वीरू को साथ लिए आई। नन्दू और हरवंश ने माई के पाँव छुए, वीरू ने हरबंश और नन्दू के । तन्नी ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। तन्नी की माई अब बहुत कम बोलती है । मंगल की मौत ने जैसे उनकी वाणी छीन ली है। विकास का सारा सपना धूल चाट रहा है। पुरवे की समरसता बचाना ही अब मुख्य उद्देश्य हो गया है सभी का ।
राम सुख एक किलो लड्डू लाए थे। उसी को फोड़कर प्रसाद बाँटा गया।
अभी नन्दू और हरवंश जमानत पर ही छूटे थे पर पुरवा इसी से प्रसन्न था । अंगद के दरवाजे पर कीर्तनियाँ जुटे और ढोल की थाप और मंजीरे की रुनझुन के बीच कीर्तन के बोल लहरा उठे ।
नन्दू चुप नहीं बैठे । तन्नी से उन्हें पता चला कि अभी लहसुन का हिसाब नहीं हुआ है। कुछ मिला भी नहीं । तन्नी अंगद और नन्दू बाज़ार जाने के लिए तैयार हुए। पर रामसुख ने नन्दू को रोक दिया, कहा 'अभी तुम न जाओ। जमानत पर छूटे हो कोई बात हो जाए तो फिर..... ।' नन्दू रुक गए। उनकी जगह राम सुख तैयार हुए। तीनों नागेश लाल की दूकान पर पहुँचे ।
नागेश ने तीनों का स्वागत किया। एक छोकरे को चाय के लिए दौड़ाया। मंगल की मौत पर दुख प्रकट किया, 'मंगल भाई की मौत पर बहुत दुखी हूँ मैं । ईश्वर को यही मंजूर था और क्या कहा जाय?' इसी बीच चाय आ गई। चाय की चुस्कियों के बीच दुखभरी चर्चा होती रही । 'बहुत अच्छे आदमी थे मंगल भाई।' नागेश कहते रहे। 'उनके जैसा आदमी मिलना मुश्किल है।'
'लाला जी लहसुन का हिसाब कर दीजिए।' अंगद ने कहा । 'यह तन्नी उन्हीं की बेटी है। मंगल भाई तो अब रहे नहीं।' 'यह तो मालूम है', नागेश लाल ने कान खुजाया। इधर उधर की बात करते रहे। अंगद ने जब फिर याद दिलाया तो उन्होंने कहा, 'हिसाब तो मंगल के सामने हो गया था।'
"नहीं सेठ जी, बापू कहते रहे कि अभी भाव नहीं खुला है। भाव खुलेगा तब हिसाब होगा।' तन्नी बोल पड़ी। 'हाँ जिस दिन मंगल भाई ने लहसुन रखवाया था, उस दिन भाव नहीं खुला था। दूसरे दिन किसानों के कल्याण पर विचार करने के लिए जिलाधीश महोदय ने बैठक की थी, उसमें मुझे जाना पड़ा था। तीसरे दिन मंगल भाई को सारा हिसाब लिखकर दिया गया।' नागेश लाल कुछ हिचकिचाते बताते रहे।
'कितना रुपया उन्हें मिला था सेठ जी?” तन्नी ने पूछा।
'रूपया कहाँ मिला? मेरा ही दो हजार रुपया उन पर बाकी रहा।' गहरी सांस खींचते हुए नागेश ने कहा ।
'उनका कुछ नहीं बना सेठ जी?' तन्नी बराबर प्रश्न करती रही ।
'क्या बताऊँ? भाव गिर गया। उन्होंने जितना कर्ज लिया था वही पूरा नहीं हुआ। ऐसे में.....।' नागेश फिर सिर खुजलाने लगे ।
"क्या हिसाब हमें मिल सकता है?"
तन्नी ने पूछा।
'पर्ची में मंगल भाई को पहले ही दे चुका हूँ । बही देखकर बता देता हूँ ।’
'बता दीजिए सेठ जी।' अंगद ने आग्रह किया। अंगद और राम सुख दोनों सेठ / ठेकेदार के यहाँ ही नौकरी करते थे। नौकर की मानसिकता से आक्रान्त वे दोनों नागेश से कोई बहस नहीं कर सके। तन्नी ही प्रश्न करती रही। नागेश ने हिसाब बताया । तन्नी ने एक पर्ची पर उसे लिख लिया ।
'दो हजार रुपये कब देना होगा सेठ जी ।' तन्नी कुछ तल्ख हो गई।
'जब भी दे सकें।' नागेश दबे स्वर में बोले ।
'नहीं तो ब्याज भरना पड़ेगा।
'वह तो होगा ही। ब्याज कहीं बन्द होता है? वह तो दिन रात चलता है।' 'अगर हम लोग न दे पाए तो।'
'तो देखा जायगा कि क्या तरकीब निकलती है।'
'हम लोगों के पास अभी खेत बचा है न । कोई न कोई तरकीब तो निकल ही आएगी।' कहती हुई तन्नी उठ पड़ी। अंगद और रामसुख भी उसके साथ ही उठ पड़े ।
'सुनता हूँ फसल बहुत अच्छी हुई थी तन्नी ।' गाँव के रास्ते पर साइकिल मोड़ते हुए अंगद ने कहा ।
‘मैं क्या कहूँ काका। गाँव के लोग खुद ही बता देंगे। इतनी अच्छी फसल और उसका यह परिणाम ।' तन्नी का दुख बाहर आ गया।
'कैसे कोई आगे बढ़ेगा आज? सुनता हूँ तेरी फसल देखकर सभी कुछ न कुछ लहसुन उगाने की सोचने लगे थे।' राम सुख बोल पड़े।
'हाँ काका सच है यह । पूरा गाँव उत्साहित था।' तन्नी ने बताया ।
'सब के सपने ध्वस्त हो गए राम सुख भाई।' अंगद ने टिप्पणी की।
आधी दूर तक जाते जाते तन्नी अधिक गम्भीर हो गई। वह वीरू को क्या बताएगी? माँ को कैसे समझाएगी? जो संकट मंगल के सामने आया था वही आज तन्नी में संक्रमित हो गया। माँ, वीरू की अपेक्षाओं का क्या होगा ? उसके घर का सपना गया ही, पुरवे के सपने खो गए। कैसे कोई आगे बढ़ेगा?
बापू ने मेहनत की। अच्छी फसल उगाई। जब पैसा मिलने को हुआ तो 'भाव राजा है' की दुहाई देकर कर्ज़दार बना दिया गया।
'क्या कमजोर के सपने इसी तरह........? वह सोचती जा रही है। पैडिल पर पैर ..... । ज्यों ज्यों पुरवा नजदीक आता जा रहा है उसकी परेशानी भी बढ़ती जा रही है। कैसे वह माँ और वीरू के प्रश्नों का उत्तर देगी? बापू के सामने भी यही संकट आया होगा।...... तन्नी का हृदय भी धक-धक करने लगा। चलती हुई साइकिल पर बैठी वह पसीने से नहा उठी । 'क्यों बिल्कुल चुप हो गयी बेटी ?' अंगद ने पूछा ।
'नहीं काका, यही सोचती रही कि माई को क्या बताऊँगी।' तन्नी के स्वर में पीर छिपी थी। 'ठीक कहती हो तुम। कैसे समझा पाओगी उन्हें ?" अंगद भी तन्नी की पीड़ा को समझ रहे थे। रामसुख मौन पीछे पीछे ।
हठीपुरवा का सामान्य परिवेश किसी लहर से प्रभावित न होता। थोड़ी खेती, उससे खाने भर को अनाज हो जाता। साग-सब्जी भी थोड़ी बहुत हो ही जाती। नहीं कुछ हो पाता तो रोटी चटनी और छाछ से काम चलता । अधिकांश घरों का कोई सदस्य बाहर कुछ न कुछ साल में कमा ही लाता । सीमित अपेक्षाएँ उससे पूरी हो जातीं। वैश्वीकरण से बाज़ारें सामानों से पट गईं। वे निम्न मध्यम वर्ग को भी ललचातीं । हठी पुरवा में भी अब औरतें हँसुली, टेड़िया, कड़ा नहीं पहनतीं । मारकीन की धोती बनियायन पहनना कब का बन्द हो चुका है। बाहर रहने वाले लोगों ने कपड़े का प्रबन्ध अपने जिम्में ले लिया था। वे रेडीमेड कपड़े भी ले आते। विवाहिताएं साड़ी ब्लाउज पहनतीं और लड़कियाँ फ्राक, सलवार-समीज । खड़ाऊँ की जगह हवाई चप्पल | बाल-वृद्ध सभी हवाई चप्पल का प्रयोग करते । जूते सैंडिल भी सस्ते किस्म के खरीद लिए जाते। पचास से ऊपर के ही लोग धोती पहनते । नई पीढ़ी कमीज पैन्ट, जीन्स पहनने लगी है। घर पर अंगौछा तहमद से काम चल जाता। यदि यह न होता तो युवक पैंट पहने ही सो जाते। इक्यावन घरों में पैंतीस के पास कोई न कोई दुधारू जानवर, यद्यपि अच्छी नस्ल के कम ही । अठारह परिवार एक-दो लीटर दूध बेच लेते हैं । दुधहा आते दुहा कर ले जाते । देर सबेर भुगतान करते रहते। पंडिताइन काकी भी एक गाय पाले थीं। पंडित कथा बाँचकर काम चलाते। बाकी समय खेती तथा मुहूर्त्त बताने में लगाते ।
इस वर्ष दो घटनाएँ एक साथ घट गईं। अच्छी फसल पैदा कर मंगल की मौत और नन्दू हरबंश पर डकैती का मुकदमा। दो लड़कियाँ तन्नी तरन्ती इंटर कर चुकी थीं और दो बच्चे नन्दू हरबंश हाई स्कूल पास थे । मंगल लहसुन का अच्छा उत्पादन कर एक बड़ी छलांग लगाना चाहते थे पर लाभ के बदले कर्ज में डूब गए। नन्दू और हरवंश पुलिसिया जाल में फँस चुके हैं। अब वे दिल्ली, लुधियाना की ओर मुँह करने की स्थिति में नहीं हैं। मुकदमें की पैरवी के लिए उन्हें पुरवे में ही रहना है। पता नहीं कब वे दूसरे मुकदमें में मुजरिम हो जायें। फिर तो निरन्तर कचहरी की दौड़ दोनों के पिता का भी अब बाहर रह पाना संभव नहीं होगा।
चंडीगढ़ में रहने के कारण अंगद की आँखें खुल चुकी हैं। शाम को नन्दू, हरवंश अंगद के दरवाजे पर आए। अंगद ही इस समय उनके मुकदमें की पैरवी में दौड़ते हैं। तीनों बैठकर बात करने लगे।
'एक सरदार ने चुभती हुई बात कही थी चंडीगढ़ में।' अंगद ने बात शुरू की।
'क्या ?' नन्दू ने पूछा ।
'उन्होंने कहा कि पंजाब का आदमी उत्तर प्रदेश में छोटी मोटी नौकरी के लिए नहीं भागता है। पर उत्तर प्रदेश के लोग पंजाब भाग कर क्यों आते हैं?' 'बात तो सच है काका?" नन्दू ने बात को पकड़ा।
उस समय मैंने कह दिया था कि जैसे हम लोग भाग कर यहाँ आते हैं उसी तरह यहाँ के लोग भाग कर विदेश जाते हैं। पर..... क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम लोग अपने पुरवे में ही कुछ करें बाहर न जाना पड़े।'
'क्या हो सकता है काका?' हरवंश ने भी अपना दिमाग दौड़ाया ।
'छोटा मोटा कोई धन्धा अब तो चल नहीं पाएगा। बड़ी कम्पनियाँ उसे खा जायेंगी।' नन्दू ने अपनी चिन्ता प्रकट की ।
'बड़ा धन्धा हम लोग कर भी कैसे सकते हैं?' अंगद ने बात रखी।
'बात तो आपकी भी ठीक है काका ।' नन्दू सोचने लगे ।
'कुछ सोचो भैया क्या कुछ नहीं हो सकता?"
'कुछ न कुछ तो किया जाना चाहिए।' हरवंश बोल पड़े।
'केवल चाहिए का सवाल न रखो। कुछ करने का मन बनाओ।' अंगद कुछ आगे बढ़े। 'पहले यह तो पता हो कि क्या कर सकते हैं।'
नन्दू ने जायज़ प्रश्न उठाया।
'हम तो चार साल से चंडीगढ़ की डेयरी में काम कर रहे हैं। उसी के बारे में कुछ बता सकते हैं।' अंगद ने हुलस कर कहा 'आपका सुझाव है कि पूरा पुरवा मिलकर डेयरी का काम शुरू करे।' नन्दू का दिमाग भी चलने लगा। 'नहीं, बिना सोचे समझे नहीं। सोच समझकर यदि सभी सहमत हों तभी।' अंगद की आवाज़ में गम्भीरता थी ।
'ऐसा किया जाय। कल शाम को तन्नी के दरवाजे पर बैठकर बात किया जाए। मैं चाहता हूँ कि वह भी हमारी बातचीत में शामिल हो।' नन्दू ने प्रस्ताव किया।
'ठीक है।' अंगद ने सहमति जताई।