अपना आकाश - 2 - सपनों की खेती Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अपना आकाश - 2 - सपनों की खेती

अनुच्छेद-२
‌ ‌ सपनों की खेती

वीरेश ने लालटेन जलाई। तख्ते पर बैठ गणित के प्रश्न हल करने लगा। तन्नी रोटी बना रही थी। तवे पर ही रोटी फुलाने की कला में वह प्रवीण हो चुकी है। लकड़ी जलाकर खाना बनाना भी एक कला है। एक शीशी को ढिबरी बनाकर उसी के उजाले में तन्नी रोटी सेंकती रही। जुलाई का महीना, पूरा शरीर पसीने से तर। रोटी बना चुकी तो आलू उबालने के लिए रख बाहर आ गई। हाथ का पंखा झलकर पसीना सुखाने लगी। माँ भी बाहर ही बैठी थी। लड़कियों को भोजन बनाना माएँ सिखाती हैं। तन्नी का अभी बी.एस-सी. में प्रवेश नहीं हुआ है। इसीलिए वह भोजन बनाने का दायित्व सँभाल रही है। वीरेश समीकरण हल कर रहा था। एक प्रश्न में उलझ गया। दीदी, यह सवाल नहीं आ रहा।' वीरेश ने तन्नी की ओर देखते हुए कहा । तन्नी तख्ते पर बैठ सवाल हल कर बताने लगी। प्रश्न का उत्तर आ जाने पर वीरेश बहुत खुश हुआ। सवाल हल कर तन्नी फिर पंखा झलते हुए उठी। उसी समय कुकर की सीटी बजी।
दूसरी सीटी बजने पर तन्नी ने कुकर उतार लिया । तन्नी के ही सुझाव पर इस घर में कुकर आया था। इससे ईंधन में बचत होने लगी। माँ भँवरी देवी भी इससे प्रभावित हुई । तन्नी आलुओं को एक थाली में उड़ेल कर ले आई। माँ और बेटी छिलका उतारने लगीं। नमक, मिर्चा, लहसुन और थोड़ा सा कडुवा तेल डालकर भुर्ता बनाया।
घर के बाहर नल पर मंगल राम हाथ पैर धो आए तो भंवरी देवी ने कहा, 'चलो रोटी खा लो।' वीरेश भी उठा। लालटेन तन्नी को देकर हाथ धोया। आंगन में बैठकर मंगल और वीरेश ने भोजन किया। दोनों के उठ जाने के बाद भँवरी और तन्नी खाने के लिए बैठीं। दोनों को रोटी के साथ भुर्ता का स्वाद अच्छा लगा।
'भुर्ता आज अच्छा बना है', भँवरी ने कहा ।
'हाँ, लहसुन और कडुवातेल पड़ जाने से अच्छा बन गया।'
मंगलराम थके थे। अपनी चारपाई पर आकर पड़ गए। तन्नी और वीरेश फिर तख्ते पर लालटेन रख पढ़ने लगे। वीरेश ने कुछ सवाल और लगाया । तन्नी उसकी विज्ञान की पुस्तक पढ़ती रही। अब हाईस्कूल विज्ञान की वह पुस्तक अधिक अच्छी तरह समझ में आ रही थी।
भंवरी भी आकर मंगल राम के पास बैठ गई। 'तन्नी के बारे में सोच रहे हो न?"
'आज गया था लहसुन के आढ़तियों के पास तुम से बात हुई थी न? चार बीघा लहसुन ही लगा दिया जाय। ए.डी. ओ. साहब तो मूसली या अश्वगन्धा की खेती के लिए जोर दे रहे थे लेकिन मैं सोचता हूँ कि लहसुन जानी पहचानी फसल है। भाव भी इस साल अस्सी रुपये किलो है। अगले साल दस बीस रूपया कम भी हुआ तब भी अच्छा लाभ मिल सकता है।'
'बीज खाद?"
'बीज ही तो देखने गया था? साढ़े तीन कुन्तल बीज लगेगा।'
'इतने बीज का दाम ?'
'अट्ठाइस हजार होगा।'
'राम राम । इतना पैसा कहाँ से आएगा?'
' पन्द्रह दिन से यही सब तो कर रहा हूँ। आज बैंक का क्रेडिट कार्ड बन गया है?"
' पर बैंक इतना पैसा देगा?"
'बीस हजार क्रेडिट कार्ड से मिल जायगा ।'
'बाकी रकम ?"
'बाकी उधार से काम चलाया जायगा........।’
'उसका ब्याज चुका मिलेगा? दस रुपया महीना ब्याज माँगेंगे तब ?”
'सब जोड़ घटा लिया है। मूल और ब्याज देने के बाद भी लाख से ज्यादा बच जाएगा।'
मंगलराम इस तरह कह रहे थे जैसे लाख रुपया उनके हाथ में आ गया है और वे भँवरी को पकड़ा रहे हैं। भंवरी के मुँह में भी पानी भर आया । 'लेकिन सोच समझ कर कदम रखना है। कहीं धोखा न हो जाय।' आखिर भँवरी के मुख से निकल ही गया।
तन्नी यद्यपि लालटेन के सहारे वीरेश की विज्ञान की पुस्तक पलट रही थी पर कान माई और बापू की बातों में लगे थे। मंगलराम ने उठकर अपनी जेब से एक पर्चा निकाला। वे लालटेन के पास आकर बैठ गए। भँवरी को भी बुलाया। पर्चे का लिखा पढ़ने लगे। चार बीघे में लहसुन का बीज साढ़े तीन कुन्तल । इसका दाम हुआ अट्ठाइस हजार खाद पानी जुताई बुवाई के लिए दस हजार, बैंक और हथउधरा का दस प्रतिशत प्रतिमाह ब्याज भी जोड़ लिया जाय तो कुल ब्याज चौबीस हजार चार सौ। ब्याज सहित कुल खर्च होगा बासठ हजार चार सौ। दस कुन्तल बीघा पैदा हो जाय तो इसका दाम कितना होगा तन्नी ?" "भाव क्या रहेगा बापू ?"
'इस समय अस्सी रुपये किलो हैं लेकिन तू साठ रुपये किलो ही लगा । तन्नी ने गुणा कर बताया- 'दो लाख दस हजार' । 'इसमें से खर्च घटा दे। तन्नी ने बासठ हजार चार सौ घटाकर बताया, एक लाख सैंतालीस हजार छह सौ ।'
'तो यही वह लाभ होगा जो हमें बताया गया है।' 'सच बापू ?" तन्नी भी चौंक पड़ी। 'कभी हमने इतना फायदा नहीं सुना है।' भँवरी का मुँह खुला का खुला ही रह गया।
'हमने कभी लहसुन की खेती की ही कहाँ ? धान गेहूँ की खेती करते रहे।' मंगलराम का चेहरा भी चमक उठा। वीरेश भी इस बातचीत को रुचि पूर्वक सुनता रहा। बोल पड़ा, 'तब तो हमारे पास बहुत रुपया हो जायेगा दीदी। मैं बढ़िया कपड़ा खरीदूँगा।'
'खरीद लेना', तन्नी का चेहरा भी दमक उठा। 'तब तो हम मकान भी अच्छा बना लेंगे दीदी।' वीरेश फिर बोल पड़ा।
'क्यों नहीं? दो तीन साल ठीक से खेती हो गई तो बन ही जाएगा।' तन्नी ने उत्तर दिया।
'लेकिन दीदी?"
'कहो ?"
'बापू के दिमाग में लहसुन की खेती करने की बात पहले क्यों नहीं आई? अब तक हमारे घर बहुत रुपया आ गया होता और हम भी......।’
वीरेश फुसफुसाया ।
'जब से दिमाग में आया है तभी से काम हो जाय तो बहुत है।' तन्नी ने भी धीरे से जवाब दिया।
मंगल का चार प्राणियों का परिवार। चारों के मन में सपनों का एक भव्य संसार उगने लगा। भँवरी सोचती कि वह तन्नी की शादी धूमधाम से कर सकेगी। बारात का बढ़िया स्वागत होगा जैसा वह कुछ धनी परिवारों में देखकर आई है। उसके बक्से में कुछ न कुछ नोटों की गड्डियाँ रहेंगी ही । तन्नी सोचती बी.एस-सी. करने के लिए अब हर बार गेहूँ नहीं बेचना पड़ेगा। अगर पैसा ज्यादा आ गया तो वह भी अनुष्का की तरह स्कूटी खरीद लेगी और फुर्र से उड़ चलेगी। बी.एस.सी. करेगी फिर एम.एस-सी.। जीवन की धारा ही बदल जायेगी। वीरेश को भी अच्छे स्कूल में पढ़ाया जायगा। उसके लिए अच्छे कपड़े बनेंगे। माई के लिए भी मैडम सीकरी की तरह रेशमी साड़ी खरीद देगी। दो तीन साल की फसल में घर बन जायेगा - सुन्दर चमकदार। वीरेश भी सपनों में उड़ता रहा। दिन बदल जाएँगे वह सोचता। किसी अभाव पर वह अब दुखी नहीं होता। बस थोड़े दिनों की तो बात है। मंगलराम के मन में भी सपने उगते। वे और तेजी से अपने अभियान की तैयारी में जुट जाते।
सुबह उठकर भँवरी दही मथने बैठ गई। मक्खन निकाल कर रखा । मंगलराम ने बताया कि उसे बैंक जाना है। वह चौका बर्तन कर उठी। जल्दी से नहाया । अरहर की दाल को कुकर में रख दिया। दाल चुरती तब तक उसने आटा गूँथ लिया। सीटी होने के कुछ देर बाद उसने दाल उतार लिया । तवे को चूल्हे पर रख एक नया कंडा लगा दिया। तन्नी झाडू लगाकर नहाने लगी। वीरेश नहा चुका। उसने अपना बस्ता ठीक किया। मंगलराम ने भैंस को नाँद से हटाकर खूंटे में बाँध दिया। दो महीने की पड़िया को भी एक दूसरे खूँटे में बांधकर डलिया में चारा रख दिया। एक बाल्टी में पानी लाकर उसे पिलाया। तवे से रोटी निकलने लगी तो वीरेश खाने के लिए बैठ गया। रोटी, दाल, भरा हुआ मिर्चा और एक कटोरी छाछ। मिर्च को उसने दाल में मसल लिया। गरम गरम रोटियाँ दाल के साथ बहुत अच्छी लगीं। खा चुका तो हाथ मुँह धोया। दीवाल घड़ी नौ बजा रही थी। उसने अपना बस्ता उठाया और चप्पल पहन स्कूल के लिए चल पड़ा।
मंगलराम भी नहा कर आ पीढ़े पर बैठे। रोटी-दाल, भरा मिर्चा, छाछ उनके भी आगे भँवरी ने रखा। 'बहुत सोच समझ कर कदम रखियो ।' उसने कहा ।
'सोच समझ कर ही रख रहा हूँ। इतना मूर्ख नहीं हूँ।' कहते हुए मंगल राम गरम गरम रोटियाँ खाने लगे। एक रोटी छाछ में भी मसल कर खाया।
वे खाकर उठे । दरवाजे पर मड़हे में रखे तख्ते पर आ बैठे। जेब से तम्बाकू और चूना निकाल कर हाथ में मलने लगे। जैसे ही वे मुँह में डाल कर उठे कि डेल्टा पम्पसेट के एजेन्ट बाबू की हीरो होण्डा आ कर रुकी।
'कहो मंगल भाई, सुना है लहसुन की खेती करना चाहते हो ।'
'सोचता तो हूँ ।'
'तो पानी का भी जुगाड़ करना होगा।'
'हाँ सिचाई तो करनी ही पड़ेगी।'
'तो?'
'इस साल सोचता हूँ किराया देकर सिंचाई कर लूँ । भोलू भाई की बोरिंग मेरे नजदीक है। उनके पास पंपसेट भी है।'
“यह गलती न करो। कितना किराया दोगे? पानी बहुत लगेगा।' 'पानी तो लगेगा ही।'
'मेरी मानो पम्पसेट ले लो। निःशुल्क बोरिंग का प्रबन्ध मैं करा दूँगा ।'
'सोचा था कि इस साल कुछ कमा लूँ फिर अगले साल ?"
'कल किसने देखा है? काम जितनी जल्दी हो जाये उतना ही अच्छा।
आपके लिए मैं सही सलाह दे रहा हूँ । आपने वह कहावत नहीं सुनी - काल्हि करै सो आज कर, आज करै सो अब। पल में परलय होयेगा, बहुरि करैगो कब ?’ ‘मेरे पास दाम तो है नहीं बाबू साहब? 'दाम आपसे कौन माँगता है ? आपके पास खेत है, बैंक आपको पैसा देगा। सरकार अनुदान देगी। आजकल की सरकारों का क्या ठिकाना। कल को अनुदान बन्द हो जाय तो आपका घाटा हो जायगा।'
‘कुछ सोच विचार लूँ बाबू साहब। घरवाली कर्ज लेने से बहुत डरती है। उसे भी समझाना पड़ेगा।' 'ज़रूर जरूर। उन्हें ज़रूर समझाओ। कहो तो मैं ही उन्हें बताने का प्रयास करूँ ।'
'अभी तो वह चौके में रोटी बना रही है।'
'ठीक है। आप समझाइएगा। अगर उनकी शंका नहीं दूर होती है तो मैं आकर उन्हें तैयार करूँगा । वही घर की मालकिन हैं। आप कहीं जाने की तैयारी में हैं?"
'हाँ, बैंक तक जाना है।'
'चलो, मेरे साथ। मैं मोटरसाइकिल से लिए चलता हूँ । आपका काम भी करा दूँगा।'
मंगल घर के अन्दर गए। भँवरी को बताया कि इंजन वाले बाबू आ गए हैं। उन्हीं की मोटर साइकिल से बैंक जा रहा हूँ ।'
‘सोच समझकर दस्तखत करियो ।' उसने कहा । 'इतना मूर्ख नहीं हूँ जितना तुम समझती हो। समझबूझ कर ही कदम रखता हूँ ।'
मंगल ने अलगनी से अँगोछा खींचकर सिर में बाँधा। बैंक का क्रेडिट कार्ड झोले में रखा और सुतिन बाबू की मोटर साइकिल पर पीछे बैठ गए। किक के साथ भर्रर की आवाज कर गाड़ी चल पड़ी।
तन्नी भी नहा चुकी। उसने अपना बाल बेसन से धोया। अभी बाल गीले हैं। कहीं कहीं बेसन के कण चिपके रह गए हैं। वह छोटे से शीशे में अपना चेहरा देखती, बालों पर चिपके कणों को कंघी कर निकालती पर कण निकलते ही रहते। कंघी करते उसकी दृष्टि खुले उभरे उरोजों पर टिक जाती है । शरीर का उभार उसे रोमांचित कर देता है। अपने ही शरीर को देखकर मन आत्म मुग्ध हो उठता है। ये उभार केवल शारीरिक विकास के ही नहीं संवेगों एवं काम के उभार को भी प्रतिबिम्बित करते हैं। काम चार पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में गिनाया गया है। स्त्री-पुरुषों के व्यवहार का नियामक भी है। काम जीव को अपने आगोश में ले लेता है। किसी के भी व्यवहार को अचानक परिवर्तित कर देने की क्षमता रखता है। कोक, वात्स्यायन जैसे आचार्यों ने काम का शास्त्र ही बना डाला पर रोज कुछ न कुछ नया प्रकाश में आता ही रहता है। शरीर के उभारों को लेकर भी नए-नए प्रयोग किये जा रहे हैं।
कोई उभार कम करना चाहता है तो कोई अधिक। कोई सुडौल कराने के लिए बहुत कुछ खर्च कर देता है। नारी-पुरुष सभी में अपने शरीर के प्रति जागरूकता बढ़ी है। पर तन्नी के गांव घर में यह सब संभव कहाँ ?
दर्पण में अपने शरीर को देखने का काम तन्नी ने पहली बार नहीं किया है। उरोजों का उभार जब से शुरू हुआ न जाने कितनी बार उत्सुकता से वह उन्हें देखती रही है पर आज का अनुभव बिल्कुल भिन्न था। तरन्ती के यहाँ टी.वी. में और अखबारों में वह काम एवं शरीर के मनोभावों के बारे में काफी कुछ देखती पढ़ती रही है। उस ज्ञान के आलोक में आज उरोजों का अवलोकन कर भिन्न अनुभव। बाएँ हाथ में दर्पण दाहिने में कंघी। कंधी को उसने बाल में फंसा दिया। दायां हाथ खाली हुआ। उँगलियाँ उरोजों पर..... कोमल स्पर्श। मन अनन्त आकाश में उड़ता हुआ।
रोटियाँ बनाकर भँवरी ने परथन अलग किया। परात धो चुकी तो उसकी दृष्टि भी तन्नी के उरोजों पर चलती उँगलियों पर पड़ गई। तन्नी सयानी हो गई है उसके विचार को बल मिला। 'रोटी परोस रही हूँ। शीशा कंघी रखो।' भँवरी ने थाली उठाते हुए कहा । शीशा कंघी रखकर तन्नी ने कुर्ता पहना। माँ के पास खाने के लिए आ गई। माँ ने परोसी हुई थाली उसके आगे सरका दी। एक थाली में रोटी, दाल, छाछ परोस कर स्वयं भी खाने के लिए बैठ गई।