अपना आकाश - 3 - तुम लोगों का नाम तो न होगा Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अपना आकाश - 3 - तुम लोगों का नाम तो न होगा

अनुच्छेद- ३
तुम लोगों का नाम तो न होगा
आज डिग्री कालेज में प्रवेश सूची को सूचना पट्ट पर लगा दिया गया। बी.एस-सी. गणित में ६५.३% से ऊपर वालों का ही नाम देखकर द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण छात्र / छात्राएँ निराश हुए। तन्नी और तरन्ती भी सूची देखने के लिए पहुँचीं। सूची को जगह जगह लोगों ने फाड़ दिया था। सूची देखकर तन्नी हताश हो गई। शायद प्रवेश न हो पाए वह सोचने लगी। आस-पास ऐसे बच्चे अधिक थे जिनका नाम सूची में नहीं था । पिन्टू भी कुछ बच्चों के साथ बात कर रहा था। 'प्रवेश देना पड़ेगा। कैसे नहीं होगा प्रवेश ?" पिन्टू बोलता रहा। उदास बच्चों के चेहरों पर पिन्टू के शब्द एक हल्की सी आशा की किरण उभार रहे थे। 'यहाँ नहीं प्रवेश मिलेगा तो स्ववित्त पोषित महाविद्यालय का दरवाजा देखा जायगा।' एक छात्र ने कहा। 'लड़कियाँ कैसे इतनी दूर जा सकेंगी?" एक दूसरे छात्र ने टोका । "जाने की क्या ज़रूरत है। फीस जमा करो, परीक्षा दो।’ पहले ने जड़ा । 'जब पढ़े नहीं रहेंगे तो परीक्षा क्या देंगे?' दूसरे से न रहा गया। ‘उसका भी जुगाड़ है?' 'तो फिर जुगाड़ ही करो। पढ़ाई से क्या मतलब? इससे अच्छे तो खुले विश्वविद्यालय हैं। बच्चों से कुछ कार्य तो करा लेते हैं।' 'तुमसे बहस कौन करे।' कहकर पहला चला गया। 'यही संकट है। पढ़ाई, गुणवत्ता की बात करो तो लोग मुँह फेर लेते हैं'। दूसरा बड़बड़ाता रहा। जो
तन्नी और तरन्ती उदास, एक पेड़ के नीचे बैठ गई। रुकने की कोई ज़रूरत नहीं थी पर मन कहाँ मानता है? द्वितीय श्रेणी वालों का प्रवेश पिछले साल नहीं हो पाया था।' एक लड़के ने कहा 'पिछले साल नहीं हो पाया था लेकिन इस बार कराया जायगा।' पिन्टू के एक साथी ने ढाढस बँधाते हुए कहा। तन्नी को प्यास लगी। आकाश में हल्के बादल थे। हवा की गति कम जरूर थी पर खुली जगह खड़े होने पर शरीर को ठंडक पहुँचाती थी । तन्नी उठी। टंकी की टोंटी तक गई। कई बच्चे पानी पी रहे थे। उसने भी पानी पिया । इसी बीच अनुष्का दिखाई पड़ी। उसने अपनी स्कूटी को खड़ा किया। आई तो कुछ उसकी परिचित बच्चियाँ उसकी ओर बढ़ीं। तन्नी भी उसके पास पहुँच गई। तरन्ती भी वहीं आ गई। 'क्या हम लोगों का प्रवेश हो पाएगा?" तन्नी ने पूछ लिया । 'पिछले साल तो साठ प्रतिशत से नीचे वालों का नहीं हो पाया था। इस बार देखो.....।' अनुष्का कुछ सोचती हुई कह गई । 'तो हम लोग मान लें कि प्रवेश नहीं मिल पाएगा।’ तन्नी ने उदास स्वर में कहा।
'अभी यह भी नहीं कह सकते।' कह कर अनुष्का मुस्करा उठी। अनुष्का भी छात्र संघ का चुनाव लड़ने की इच्छा रखती है। इसीलिए बीच-बीच में आकर नए प्रवेशार्थियों से सम्पर्क करती रहती है। अनुष्का को लगा कि उसे इस तरह की बात नहीं करनी चाहिए। बोल पड़ी- 'आप लोग बहुत चिन्तित न हों। हम लोग हर संभव प्रयास करेंगे।' कह कर वह आगे लड़कियों के दूसरे समूह की ओर बढ़ गई।
'चल तरन्ती ।' तन्नी ने कहा। दोनों बाहर आ गईं। साइकिल निकाली और चल पड़ीं।
'धर बहिन जी से मिलते चलें।' तन्नी ने कहा, 'चलो। वे घर आ गई होंगी। दोनों उनके आवास की ओर बढ़ गई।
वात्सलाधर प्रथम श्रेणी में एम. एस. सी. (गणित) अकेले रहती हैं। सहज, सरल लड़कियों के प्रति अधिक संवेदनशील अभी उन्होंने शादी नहीं की है। पिता नहीं हैं, माँ कभी कभी आ जाती हैं। वे भी अध्यापिका थीं। दो साल पहले अवकाश ग्रहण किया है। तरन्ती के हाथ में घड़ी थी । देखा बारह बजकर चालीस मिनट ।
बहिन जी अभी अपने कमरे का ताला खोल ही रही थीं कि तन्नी और तरन्ती की साइकिल रुकी। उन्होंने देख लिया। बोल पड़ीं- 'ऊपर आ जाओ।' दोनों सीढ़ियों से ऊपर चढ़ गईं। दो कमरा, रसोई और प्रसाधन । किराए का मकान। ऊपरी मंजिल पर सुरक्षित, स्टेशन रोड पर ही । बहिनजी के संकेत पर दोनों कमरे में रखी कुर्सियों पर बैठ गईं। प्रसाधन कक्ष से निकलकर वे तश्तरी में बड़े से गजक के टुकड़े के साथ आ गईं। तीन गिलास निकाला। तन्नी दौड़कर उनमें पानी भर लाई। छोटी मेज पर रख दिया। 'लो पानी पियो', कहते बहिन जी ने गजक तोड़कर कर एक टुकड़ा स्वयं लिया। लड़कियों ने भी संकोच के साथ एक एक टुकड़ा लिया।
'कहाँ गई थी तुम लोग?" बहिन जी ने पूछा ।
'प्रवेश सूची निकली थी आज उसी को देखने गई थी।' 'तुम लोगों का नाम तो न होगा सूची में । '
'हाँ, नहीं था।' तन्नी ने उदास स्वर में कहा ।
'मैं जानती हूँ। यहाँ मुश्किल है।'
'तब हम लोग क्या करें बहिन जी ?"
धर बहिन जी चुप | कुछ सोचने लगीं।
'किसी अच्छे महाविद्यालय में तुम लोगों का प्रवेश मुश्किल है।' उनके मुख से निकला।
'लगता है अब हम लोग नहीं पढ़ पाएँगे।' तन्नी दुखी हो गई । 'समस्या जटिल ज़रूर है।' बहिन जी ने गिलास उठाकर पानी पिया, दोनों लड़कियों ने भी । 'निकट के स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों में प्रवेश हो भी जाए तो पढ़ तो न पाओगी। वहाँ कुशल अध्यापक भी नहीं हैं । प्रयोगशाला भी नाम मात्र ।' 'हम लोगों के लिए कुआँ खाई वाली स्थिति है बहिन जी।' तन्नी से रहा न गया । पूरी बातचीत में तरन्ती चुप रही ।
'जिन विश्वविद्यालयों में परीक्षा के बाद प्रवेश मिलता है उसकी तैयारी के लिए भी संसाधन चाहिए। एक-दो महीना अच्छी तरह पढ़ने का मौका मिले तभी कोई परिणाम निकल सकता है। संसाधनों का अभाव भी तुम लोगों की प्रगति में आड़े आ रहा है।' बहिन जी ने गहरी सांस ली।
'बाहर जाकर पढ़ने का खर्च भी हम लोग कहाँ दे पाएँगे?" तन्नी का विषाद बाहर आ गया।
'शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है। जिनके पास साधन नहीं है, वे अच्छी शिक्षा नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं।' बहिन जी ने टिप्पणी की। 'बहिन जी, हम लोगों के बारे में कुछ सोचिएगा।' कहते हुए तन्नी और तरन्ती उठ पड़ीं। प्रणाम कर नीचे आ गईं। साइकिल उठाई और चल पड़ीं।
वत्सलाधर ने कुकर में तहरी रख दिया। अकेले रहने वालों के लिए यही सबसे सरल पड़ता है। वे सोचने लगीं। हम तन्नी के लिए क्या कर सकते हैं? व्यक्तिगत तौर पर कुछ मदद की जा सकती है। यदि व्यवस्था बदल जाए तो हर तन्नी को आगे बढ़ने का मौका मिल सकता है पर व्यवस्था अकेले वत्सलाधर के चाहने से नहीं बदलती। अगस्त का महीना, उनके चेहरे पर पसीना चुहचुहा आया। मन दुःखी जरूर है पर उनका मकड़जाल ।
'क्यों सोचती हो तुम?' एक मन ने प्रश्न किया ।
'पढ़े लिखे लोग नहीं सोचेंगे तो कौन सोचेगा? हमें इस समस्या पर ध्यान देना चाहिए।' दूसरे मन ने उत्तर दिया।
‘पर राह कठिन है, अभी तुम्हें घर बसाना है । तुम्हारे अपने सपने हैं ।'
'ठीक कहते हो तुम। पर समाज की समस्याएँ भी अहम हैं। इसी बीच कुकर की सीटी बज उठी। वे उठीं। कुकर को उतार कर रख दिया। मूली - टमाटर का सलाद काटने लगीं। पर मन तन्नी की कठिनाई से अलग न हो सका। इस देश में अल्प साधन वाले परिवारों के बच्चे कैसे गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे? हमें विकास का नया मॉडल बनाना होगा। पूर्व पश्चिम सभी के अनुभवों का सम्परीक्षण करते हुए। पर ऐसा कुछ हो नहीं रहा है । वैश्विकता के नाम पर अमेरिकी माडल की नकल ही होती रही। उदारीकरण शुरू हुआ, विदेशी उद्यमियों को छूट मिली । वे अपना माल बेचने आ पहुँचे । कुछ थोड़े से लोगों को अच्छा वेतन, काम भी दिया पर कितनों का घरेलू धन्धा चौपट हो गया।
राजनीतिक नारे 'सबको शिक्षा, सबको काम लगते तो हैं। पर... । उन्होंने सलाद को धोकर उस पर नमक मिर्च भुरक दिया। एक थाली में तहरी निकाल लाई छोटी मेज पर रखा तहरी खाती रहीं, मन उड़ता रहा। पानी लेकर नहीं बैठी थीं, एक हरी मिर्च की तल्खी से वे उठीं। पानी पिया और एक गिलास पानी रख लिया।
एक-एक चम्मच खाती रहीं और सोचती रहीं। एक दो कण नीचे गिर गए पर उनका ध्यान उधर कहाँ था? वे बराबर कक्षाएँ लेतीं। भरसक लड़कियों की मदद करतीं। वे सोचतीं यदि कक्षा न लगी तो आर्थिक रूप से कमजोर घरों की लड़कियाँ जो टयूशन या कोचिंग की फीस नहीं दे सकतीं कैसे पढ़ पाएँगी? वे खूब मेहनत से पढ़ातीं। लड़कियों के बीच उनकी छवि एक कुशल और सहृदय अध्यापिका की है। उनकी माँ कहा करती हैं, 'बेटी लड़कियों के साथ दगा न करना । मेहनत करके पढ़ाना।' वे इसे मूल मंत्र की तरह गठिया कर चलती हैं। पर साथ की कुछ अध्यापिकाएँ जो कक्षाएँ कम लेती हैं, वत्सलाधर का मजाक उड़ाती हैं। कुछ उन्हें 'बूढ़ी दादी', 'चुस्त-दुरुस्त' आदि वाक्यांशों से चिढ़ातीं, वत्सला जी सुनतीं और हँसते हुए अपना काम करती रहतीं। नई उम्र, कसी हुई देह, कालरदार ब्लाउज और रेशमी साड़ी में उन्हें जो भी देखता एक बार देखता ही रह जाता। आवाज प्रभावी, स्पष्ट, चाल में पैनापन अनेक लड़कियाँ उनके तौर-तरीकों का अनुसरण करतीं। उनके घुंघराले काले बॉब कट बाल जिनके दो छल्ले गाल पर चुपचाप बैठ जाते चलते समय कभी कभी हल्के से उछलते हुए । वत्सला जी की रुचि संगीत में भी है। सायं काल थोड़े समय के लिए उनकी उँगलियाँ वीणा के तारों पर अवश्य थिरकतीं। गीतांजलि के गीत वे प्रायः गाती हैं। पाप संस्कृति में तन थिरकाने वाले गीत गाए जाते हैं पर गीतांजलि के अधिकांश गीत तो मन के घाट नहाते हैं।