रतनगढ़में निवास'कल्याण' का सम्पादन एवं सेवा कार्योंका संचालन करते हुए भी भाईजीका मन बीच-बीचमें सर्वथा एकान्त सेवनके लिये व्यग्र हो जाता। जब भी किसी निमित्त ऐसा शुभ अवसर मिलता भाईजी एकान्तमें चले जाते। ऐसा ही एक अवसर मिलने पर ये अपने मित्र लच्छीरामजी चूड़ीवालाके आग्रह पर आश्विन कृष्ण 3 सं० 1989 (18 सितम्बर, 1932) को लक्ष्मणगढ़ गये। वहाँ ऋषिकुलके संचालनकी व्यवस्थाके सम्बन्धमें परामर्श करके वहाँसे रतनगढ़ चले गये। वहाँ रहनेकी इच्छा थी, अतः 'कल्याण' के सम्पादकीय विभागको भी वहीं बुला लिया। एकान्तकी दृष्टिसे, रहने के लिय मोतीराम भरतियाकी ढाणीको चुना जो शहरसे लगभग डेढ़ मील दूर थी। 'कल्याण' के सम्पादन कार्यको देखते हुए ही, वहाँ एकान्त साधना चलने लगी। उस समय गीताप्रेसके कर्मचारियोंने हड़ताल कर दी और 'कल्याण का सारा कार्य बन्द हो गया तो उसका समाधान करनेके लिये भाईजीको गोरखपुर बुलानेका आग्रह होने लगा किन्तु भाईजी कुछ दिन एकान्त साध् नामें बिताना चाहते थे, अतः वहींसे पत्र द्वारा निर्देश देते हुए सात बातें लिखकर भेजी, जिनके आधारपर एक बार समझौता हो गया। फिर चिकित्साके लिये कलकत्ता जाकर गौहाटी होते हुए चैत्र कृष्ण 13 सं० 1989 (24 मार्च, 1933) को गोरखपुर लौट आये।
पुनः एक वर्षका अखण्ड-संकीर्तन यज्ञ पूर्ण होनेपर 'कल्याण' का विशेषांक 'सन्तांक' तैयार करके भाईजी श्रीसेठजीसे अनुमति लेकर रतनगढ़ रहनेके लिये श्रावण शुक्ल 6 सं० 1994 (15 अगस्त, 1937) को गोरखपुर से रवाना हो गये। वहाँ अधिक दिन रहनेका मन था, अतः 'कल्याण' के पूरे सम्पादकीय विभागको भी साथ ले लिया। उस समयकी अपनी मनकी स्थितिका सांकेतिक चित्र एक पत्रमें लिखा, जिसका अंश निम्नलिखित है –
गोरखपुर, श्रावण शुक्ल 3, सं० 1994 (6 अगस्त 1937)
प्रिय भाई.........
सप्रेम हरिस्मरण। अभी ता रतनगढ़ जानेकी ही बात है। यद्यपि रतनगढ़ जानेमें, गोरखपुरसे जानेका मेरा उद्देश्य सिद्ध नहीं होगा। मैं तो बिलकुल एकान्तमें चार-छः महीना सर्वथा अकेला रहना चाहता था, परन्तु पूज्य माँजी वगैरह भी मुझको अकेला नहीं छोड़ना चाहती और मेरे कामकाजके साथी लोगोंको भी रखना आवश्यक-सा हो गया है।
जबतक जो काम करता हूँ, लगनसे जिम्मेदार आदमीकी तरह ही करता हूँ और लीलामयका संकेत समझकर ऐसा करनेमें प्रसन्नता होती है। इतना होनेपर भी जो कामसे भागनेका मन करता है, इसमें प्रधान कारण 'निवृत्ति परक प्रकृति' ही मालूम पड़ती है। यह बात नयी नहीं है। जबसे होश सँभाला, तबसे नाना प्रकारके व्यावहारिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक क्षेत्रों में रहते हुए भी इस 'निवृत्तिपरक प्रकृति की धारा निरन्तर समान रूपसे चित्तमें बहती देखी गयी है। किन्तु आश्चर्य यह है कि शिमलापालके पौने दो वर्षको छोड़कर शेष सारा जीवन रहा है प्रवृत्तिमय ही। उस पौने दो सालमें भी प्रवृत्तिका अभाव नहीं रहा है, तथापि चित्त तो निवृत्तिकी ओर ही ताकता रहा। संभव है, पूर्वजन्ममें कोई त्यागी संन्यासी रहा होऊँ। मैं बहुत दिनोंसे लक्ष्य करता हूँ गेरूआ वस्त्र, कमण्डलु, कौपीन आदि अपने कपड़े और पात्र–से लगते हैं। नदी, तीर्थ और सन्यासियोंकी कुटियाएँ घर-सा मालूम होती है। संग्रहकी अपेक्षा त्यागमें सुख मिलता है। बल्कि संग्रहका तो ध्यान ही नहीं रहता। घरकी चीज कोई ले जाता है या किसीको दे दी जाती है, तो अच्छा लगता है। अकेलेमें बिना किसीसे बोले-चाले पड़े रहनेमें अनुकूलता मालूम होती है। भीड़-भाडसे चित्त भागता है। कोई पास न आये, कोई न मिले किसीसे न बोलना पड़े, कोई नयी बात जाननेमें न आवे, ऐसी-सी इच्छा रहती है। इसी भावनासे अलग जानेका मन हुआ था। स्वास्थ्यादिकी बात तो गौण है। परन्तु यह भावना सफल नहीं होती दिखायी देती। अवश्य सन्यास ग्रहण करनेकी इच्छा बिल्कुल नहीं है, परन्तु संन्यासीकी तरह रहनेका मन जरूर होता है, .......यह चित्तकी स्थिति है। .......
तुम्हारा – हनुमान
भाईजीके साथ सहयोगियों में सर्वश्री नन्ददुलारे वाजपेयी, पं० चिम्मनलालजी गोस्वामी, शान्तनुबिहारीजी द्विवेदी (स्वामी अखण्डानन्दजी), भुवनेश्वरजी मिश्र माधव, कृष्णदासजी बंगाली, पं० देवधरजी शर्मा दौलतरामजी तांबी, पं० गोवर्धनजी शर्मा आदि रतनगढ़ गये।
रतनगढ़ आनेके बाद भाईजी नित्य नियमित रूपसे प्रातःकाल तीन-चार घण्टे एकान्तमें बैठते थे, वस्तुतः वे ऐसे एकान्त सेवनके लिये ही यहाँ आये थे। बादमें उन्होंने प्रेमीजनोंको संकेत किया कि उस एकान्तमें भगवान् प्रायः स्वयं पधार कर सूत्ररूपसे रहस्यकी बातें समझा देते हैं।
श्रीगोस्वामीजी गणेशपुराणकी कथा कहते थे, उसके समापनपर भाद्र शुक्ल 3 सं० 1994 (7 सितम्बर, 1937) को भाईजी अपने परिकरों सहित बीकानेर गये। वहाँ श्रीलालीमाईजी एवं श्रीस्वयंज्योतिजी महाराजसे मिले। उन्हीं दिनों श्रीचम्पालालजी कोठारीके दामादका असामयिक देहान्त हो गया था, सो उनके घर जाकर ऐसे विलक्षण शब्दोंमें सान्त्वना दी कि उनका पूरा परिवार ही भगवान्में लग गया। (श्रीचम्पालालजीकी मृत्यु सं० 2021 (सन् 1954) मे कलकत्तामें श्रीभाईजीके सम्मुख बड़े विलक्षण ढंगसे भगवानका दर्शन करते हुई थी।) दूसरे दिन ही पुनः रतनगढ़ लौट आये। रतनगढ़में भाईजीके रहनेसे प्रेमीजनोंमें कीर्तन-सत्संगका उत्साह बढ़ने लगा। बहुत बार चौबीस घण्टेके अखण्ड कीर्तन के आयोजन हुए कई बार तीन-तीन दिनोंके अखण्ड कीर्तनके आयोजन होते रहे।
आश्विन शुक्ल पूर्णिमासे फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा तक भाईजीने वहीं रहकर एक विशेष अनुष्ठान करनेका निश्चय किया जिस धर्मशालामें 'कल्याण' के सम्पादकीय विभागके लोग रहते थे, वहाँ नियमसे प्रातः पाँच बजे प्रार्थना एवं कीर्तन होता था। भाईजीका सत्संग प्रतिदिन होता था। प्रेमीजन भी भाईजीसे मिलनेके लिये दूर-दूरसे आते थे। अनुष्ठानकी समाप्तिके पश्चात् भाईजीकी उपरामता और भी बढ़ गई।
फाल्गुन शुक्ल 8 सं० 1994 (10 मार्च 1938) को श्रीप्रभुदत्तजी ब्रह्मचारी रतनगढ़ पधारे तब नगर-संकीर्तनका आयोजन किया गया। श्रीसेठजी भी रतनगढ़ पधारे, उनके और भाईजीके प्रयत्नसे साम्प्रदायिक दंगा होते-होते बच गया। गीताप्रेसके कर्मचारियोंका उपद्रव शान्त न होनेसे श्रीभाईजी एक बार गोरखपुर गये। भाईजीके पहुँचते ही उनके नेता भाईजीकी बातें मान गये एवं उपद्रव शान्त हो गया। श्रीसेठजीके आग्रहसे कई महीने गोरखपुर रहना पड़ा।
सर्दी-गर्मीका शरीरपर असर नहींसं० 1995 (सन् 1938) में राजस्थानमें भयंकर अकाल पड़ा। भाईजी ऐसे सेवा कार्यों में सबसे आगे रहते ही थे। उस समय अकाल पीडितोंकी सेवाका प्रबन्ध किया। इसी सहायता कार्यके बारेमें श्रीसेठजीसे परामर्श करने भाईजी बाँकुड़ा गये। वहाँसे राजस्थान लौट रहे थे, पौषका महीना था, कड़ाकेकी ठंड पड़ रही थी। बाबा भी भाईजीके साथ थे। भाईजीने देखा बाबाको जाड़ा लग रहा है सो उन्होंने अपनी कम्बलें भी बाबाको ओढ़ा दी। बाबाने कहा– आपको ठंड नहीं लगेगी ? भाईजी बोले– आप मुझे क्या समझते हैं ? मैंने इसका साधन किया हुआ है। इसी क्षण मैं जाड़ेका द्रष्टा बन जाऊँ तो मुझे जाड़ेका बिलकुल भान भी नहीं हो सकता। इसी प्रकार गोरखपुरमें गर्मीके दिनोंमें काम करते हुए मेरे शरीर से तड़-तड़ पसीना आता रहता है, लेकिन इससे मेरे काममें कुछ भी बाधा नहीं पड़ती, न पंखेकी जरूरत पड़ती, न ठण्डी हवाकी । यह सुनकर बाबा बोले– जाडेका भान न भी हो, तज्जनित असरके कारण शरीर अस्वस्थ तो हो सकता है। भाईजीने उत्तर दिया– वह भी नहीं हो सकता। इसके बाद तो बाबा क्या कहते, मुस्कुराने लगे।