दादरीमें एकान्त-सेवन:भाईजीकी एकान्त सेवनकी लालसा फाल्गुन सं० 1995 (सन् 1938) से पुनः तीव्र हो गई। काम करते थे पर मन नहीं लगता था। इस समय श्रीसेठजी द्वारा गीताकी तत्त्व-विवेचनी टीका लिखायी जा रही थी जिसे सं० 1996 (सन 1939) के कल्याण के विशेषांकके रूपमें निकालनेका निश्चय किया गया था। इस कार्यसे भाईजीको कुछ समय बाँकुडा भी रहना पड़ा। पर मनमें निश्चय कर लिया था कि इसके पश्चात् गोरखपुरसे कहीं एकान्तमें जाना ही है। श्रावण 1996 में गीतातत्त्वांक छपकर तैयार हुआ। इसी बीच भाद्र कृष्ण 3 सं० 1996 (1 सितम्बर, 1939) को द्वितीय महायुद्ध आरम्भ हो जानेसे श्रीसेठजीने पन्द्रह-बीस दिन जानेसे रोक लिया। उन दिनों भाईजीका किसी काममें मन नहीं लगता था। कल्याण का सम्पादन, लेख लिखना आदि सभी कुछ बन्द था कार्यालयमें जाकर बैठ जानेपर मन साथ न रहनेसे कोई कार्य नहीं कर पाते। अन्ततोगत्वा भाद्र शुक्ल 12 सं० 1996 (25 सितम्बर 1939) को दादरी (हरियाणा) के लिये प्रस्थान किया। रवाना होनेसे पूर्व भाईजीने सभी प्रेमीजनोंको बुलाया और बड़े प्रेमसे कहा– आपका प्रेम है तो मैं चाहे जहाँ रहूँ आपके पास ही हूँ। प्रेमका बदला तो कुछ हो नहीं सकता। मैं जहाँ भी रहूँगा आपके प्रेमका ऋणी ही रहूँगा। हो सकता है मैं शीघ्र ही वापस आ जाऊँ या भगवान्की इच्छासे कुछ अधिक दिन वहाँ रहना हो जाय। ऐसा मेरा निश्चय नहीं है कि कभी वापिस न आऊँ ।दूर रहनेपर मेरे एक पत्रका भी बड़ा असर हो सकता है। मैं दैवीप्रेरणा से ही जा रहा हूँ। विदाईके समयका दृश्य बड़ा ही हृदय विदारक था। सैकड़ों लोग स्टेशनपर खड़े करुण भावसे भाईजीकी ओर देख रहे थे।
एकान्त-सेवनके लिये स्थान दादरी चुननेका कारण यह था कि वहाँ डालमिया बन्धुओंकी सीमेन्ट फैक्ट्री थी और उनका आग्रह था कि एकान्तकी सारी व्यवस्था भाईजीके मनोनुकूल कर दी जायगी। डालमिया-बन्धुओंसे भाईजीका बहुत वर्षोंसे मैत्री भाव था अतः उनका
आग्रह स्वीकार कर लिया। वहाँ पहुँचने पर भाईजीको एक पृथक बंगला दे दिया गया एवं जैसा भाईजी एकान्त चाहते थे, वैसी सारी व्यवस्था कर दी।
एक प्रश्न उठता है कि भाईजीको जब भगवानके साक्षात दर्शन, वार्तालापका सौभाग्य प्राप्त था. उसके बारह वर्ष बाद भी भाईजीको एकान्तमें साधना करनेकी क्यों आवश्यकता हुई ? इसका वास्तविक उत्तर तो अन्तर्यामी ही जाने पर एक संकेत मिलता है। एक बार गोरखपुरमें भाईजीके कुछ प्रेमीजन उनसे आग्रह कर रहे थे कि हमको भी भगवान्के दर्शन करवाइये। जब आपकी भगवान्से बातें होती हैं तो हमारे बारेमें उनसे कहिये। तब भाईजीने कहा कि मैं जानता हूँ जो वस्तु मुझे प्राप्त है, वह आप लोगोंको प्राप्त नहीं है। किन्तु मैं चाहनेपर भी आपको वह प्राप्त नहीं करा सकता। मेरे प्रेमीजनोंका मेरे सकल्प मात्रसे कल्याण हो जाय ऐसी मैं चेष्टा करना चाहता हूँ। परन्तु इस स्थितिको प्राप्त करनेका साधन बड़ा ही कठिन है। उसकी भूमिका मात्रके लिये छः महीने तो सर्वथा एकान्तमें अज्ञातवास और अजगरवृत्तिसे रहना पड़ता है। पूरे साधनमें कितना समय लगे पता नहीं।
भगवान्की ऐसी ही इच्छा थी--दादरीमें भाईजी लगभग तीन महीने ही रह सके। वहाँ भाईजीने अपनी निम्नाकित दिनचर्या बना रखी थी-
प्रातः ४ बजेसे ५ बजेतक: भगवान्की मधुर लीलाओंका आस्वादन
५ बजेसे ६ बजेतक : शौच, स्नान, संध्या आदि
६ बजेसे ७ बजेतक : आये हुए पत्रोंका हाथसे उत्तर देना
दिनमें ७:३० बजेसे १०:३० बजेतक: कमरा बन्द करके एकान्त - साधन
१०.३० बजेसे ११.३० बजेतक: शौच, स्नान, तर्पण आदि
११.३० बजेसे १२.३० बजेतक: मौन रहकर जप करना
१२.३० बजेसे १ बजेतक : भोजन
१ बजेसे १.३० बजेतक: मौन खोलकर स्वल्प वार्तालाप
१.३० बजेसे २.३० बजेतक : लिखकर बातें करना आवश्यक होनेपर
२.३० बजेसे ५.३० बजेतक: कमरा बन्द करके एकान्त-साधना
५.३० बजेसे ६ बजेतक : आये हुए पत्रोंको पढ़ना
सायंकाल ६ बजेसे ७ बजेतक : शौच स्नान संध्या आदि
७ बजेसे ८.३० बजेतक : बाहर दूबपर बैठकर स्वल्प समाचार-पत्र पढ़ना, भोजन, मौन खोलकर आवश्यक वार्तालाप
रात्रि ८.३० बजेसे : एक लाख नाम-जप करके शयन
वहाँसे श्रीगोस्वामीजीको एक पत्रमें भाईजीने लिखा..
डालमिया, दादरी
आश्विन कृ० 9 सं० 1996 (7 अक्टूबर, 1939)
प्रिय श्रीगोस्वामीजी,
सादर सप्रेम हरिस्मरण। आपका पत्र मिला।
मैं एकान्तमें रहता हूँ मेरे पास प्राय कोई आते भी नहीं, परन्तु यहाँका वातावरण मीलका है और भी कई बातें हैं। अतः यहाँ स्थायी रूपसे रहनेका विचार न पहले था, न अब है। परन्तु यह भी निश्चय नहीं हो पाया कि यहाँसे कहाँ जाना चाहिये। रतनगढ़ मेरे मनके अनुकूल नहीं और दूसरी जगह स्थायी रूपसे रहनेमें पूज्य माँजी तथा सावित्रीकी माँको प्रतिकूलता मालूम होगी। यद्यपि जहाँ मैं रहूँ, वे वहीं रहनेको कहती हैं और रहेंगी भी, परन्तु उन्हें अनुकूल नहीं है, ऐसा मेरा अनुमान है। ऐसी स्थिति में देखा जाए कहाँ रहना हो। ........निस्तब्ध-नीरव-सा जीवन है और अभी, यही प्रिय मालूम होता है।
आपका--हनुमान
दादरीमें भाईजीके साथ केवल बाबा (स्वामी श्रीचक्रधरजी) एवं गम्भीरचन्दजी दुजारी थे। वहाँ भाईजी जो लिखकर बातें करते थे उसका कुछ थोड़ा-सा अंश दिया जा रहा है–
आज सबेरे साढ़े सात बजेसे दस बजेतक बहुत आनन्द रहा। यह सोचा है छ घंटे लगभग अकेला रहूँ।...... संख्यासे कम-से-कम एक लाख नाम-जप नित्य हो। इससे अधिककी संख्या नहीं। ........शरीर प्रतिक्षण मर रहा है। इसलिये नाम-जप जबतक होश रहे घड़ी भर भी न छोड़े। यदि ऐसा होगा तो बेहोशीमें भगवान् सम्भालेंगे। यदि भगवान हमारी चिन्ता करें तो यह सिद्ध होता है कि हमारी चिन्ताका कोई कारण तो है।...... जब भगवान हमारे हैं तो चिन्ताका कारण ही कहाँ?....... भविष्यकी चिन्ता न करके वर्तमानमें जैसी कुछ भगवान्की प्रेरणा मनमें मालूम हो, वैसी चेष्टा करनी चाहिये – बस, चेष्टामात्र। भविष्य में जो कुछ रचा हुआ है, हो ही जायगा। मेरा कोई लक्ष्य नहीं है, पता नहीं मन कल क्या चाहेगा। भगवान्ने जो रच रखा है वही लक्ष्य है। ...... शरीरके संयोगको महत्त्व न देकर आत्माके संयोगको महत्त्व देना चाहिये। अतएव यदि भौतिक शरीरसे प्रेमियोको परस्पर अलग रहना पड़े और आत्माका संयोग सच्चा हो तो अलग होनेपर भी रोज मिलन हो सकता है। सबसे उत्तम है कोई भी संकल्प न हो, हो तो यही कि भगवानका संकल्प पूरा हो।....... यह न हो सके तो पारमार्थिक शुभ संकल्प हो। एकान्तमें बैठा रहूँ उस समय बीचमें उठनेसे कई दिनोंका किया हुआ कार्य कुछ खराब हो जाता है।....... कई बार बहुत ही serious stage में रहता हूँ
.......चिन्ता तो बस एक भगवच्चितनकी ही करनी चाहिये। मन ठीक न हो तो भी कोई बात नहीं। भगवान्की कृपासे मनके ठीक हुए बिना भी जो कुछ होना है, हो जायगा। मन ठीक करनेकी जरूरत होगी तो उसे भी कृपा अनायास ही ठीक कर लेगी। आप यह विश्वास कीजिये, हम लोगोंपर भगवान्की बड़ी कृपा है।....... यहाँ तो सर्वथा एकान्त कमरा नहीं है इससे (कोई नये आदमीके आनेका) कम पता लगता है। यदि बिल्कुल एकान्त हो- दूसरा कोई प्रवेश करे ही नहीं तब तो बहुत जल्दी पता लग जाता है। साधनाके लिये उसीकी जरूरत है। नहीं तो स्थान व्यभिचार होनेसे वातावरण साधनके अनुकूल नहीं रहता।...... वस्त्र और आसन शुद्धि भी यहाँ ठीक नहीं है।
श्रीकृष्णभक्त विदुषी महिला रैहाना तैय्यबजीसे प्रेम-साधनापर गम्भीर पत्रोंका आदान-प्रदान यहींसे हुआ। इन्हीं दिनों राजस्थानमें भयंकर अकाल पड़ा। रतनगढ़के आस-पासका सेवा कार्य भाईजीने अपने निर्देश द्वारा यहीं से प्रारम्भ करा दिया। बादमें भाईजीको इस कार्यके उपलक्षमें बीकानेरके महाराज श्रीगंगासिंहजी द्वारा सिरोपाव और खास रुक्का (प्रशंसा पत्र ) भाईजी दिया गया। बादमें भाईजी दादरीसे रतनगढ़ चले गये।