भारतीय रंगमंच का इतिहास - 7 शैलेंद्र् बुधौलिया द्वारा नाटक में हिंदी पीडीएफ

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भारतीय रंगमंच का इतिहास - 7

रंगमंच - भारतीय व विदेशी संदर्भ 1 

शैलेंद्र बुधौलिया
'रंगमंच ' क्या है ?श्री भरत मुनि प्रणीत नाट्य शास्त्र में नाट्य शब्द का प्रयोग और व्यवहार बहुत ही व्यापक अर्थ में हुआ है ।
इसकी अपनी मर्यादा और विशेष अर्थ गौरव है।' रंगमंच' से तात्पर्य केवल नाटक या रंग से नहीं है, बल्कि इसके अंतर्गत नाटक, रंग, वास्तु, अभिनय, रस, छंद ,नृत्य, संगीत, अलंकार, वेशभूषा, रंग शिल्प, उपस्थापना, पात्र और दर्शक समाज सब है।
पाश्चात्य साहित्य में 'थियेटर' शब्द का व्यवहार किया जाता है ., वहां थिएटर के अंतर्गत नाट्य साहित्य, प्रस्तुतीकरण, अभिनय, उपर₹ स्थापन, रंग शिल्प, रंग भवन, रंगशाला और नाट्य लोचन सब कुछ समाहित है।
आधुनिक युग में पश्चिम के अनेक स्वनामधन्य विद्वानों ने नाट्यशास्त्र में अनुसंधान किया। इस तरह जो कुछ भी प्राप्त हुआ उसका नए सिरे से संपादन और नव संस्करण हुआ। और जब इसके अनुवाद होने लगे तथा इसकी व्याख्या प्रस्तुत की गई तो स्वभावत: नाट्य शब्द का अनुवाद तथा अर्थ बोध 'ड्रामा' से लिया गया।
फिर यही काम जब भारत के विद्वानों ने किया तब उन्होंने भी नाथ शब्द का अनुवाद एवं नव ग्रहण नाटक से ही किया। आगे चलकर इससे नए यह अर्थ हुआ कि पश्चिम के ड्रामा और संस्कृत के नाटक को एक ही भाव से देखना अथवा ग्रहण करना शुरू कर दिया गया । वर्तमान संदर्भ में ड्रामा शब्द का अनुवाद नाटक स्वीकार किया जा सकता है, पर इससे और इसे नाटक का पर्याय हो जाने से दृष्टिकोण का फर्क महसूस होता है। यह भारतीय नाट्य पद्धतियों तथा रंग संस्कारों के विपरीत है ।सबसे बढ़ा दोष औऱ हानि यह है कि आज नाटक का विद्यार्थी तथा रस भोगी पूर्व पश्चिम की नाट्यसंपति को सही ढंग से ग्रहण नहीं कर पाता है ।मेरा विश्वास है कि इस विरोधी प्रकार विभिन्न धर्म की संपत्ति के रसग्रहण एवं सही मूल्यांकन से विद्वान ही वंचित रह गए जिन्होंने ड्रामा नाटक का एक ही अर्थ लिया।
भरतमुनि के नाट्य शास्त्र के उपरांत काव्य क्षेत्र में एक से एक बड़े आचार्य अवतरित हुए-वामन, कुंतक, पंडितराज जगन्नाथ ! पर इनमें से एक ने कृपा न की कि काव्य के अंतर्गत मुख्य स्थान पाने वाले रूपक अथवा नाटक के नाटक संबंधी सिद्धांतों का रूपों पर अपनी महत लेखनी से समुचित प्रकाश डालें। फल यह हुआ कि नाट्य शास्त्र में जो संपूर्ण महत्वपूर्ण स्थापनाएं नाटक के संबंध में थी उनको आगे चलकर ना ही प्रकाश मिला और ना ही वे समृद्ध हुई।

व्यवहारिक दृष्टि भेद हमारे नाट्यनिर्माण में बहुत ही अमंगलकारी रहा है। नाटक के अंतर्गत समस्त पक्ष आयाम,सृजन, और विवेचन तीनों धरातलों में अविकसित रह गए । तथा इस और हमारी समूची नाटक प्रस्तुति का मूल्यांकित होने से रह गयी। फलत: हमारे आधुनिक नाट्यशास्त्र में महान बल और महति प्रेरणा उस स्तर से नहीं हो सकी जिस तरह आधुनिक पाश्चात्य थिएटर अथवा नाट्य को वहां की प्राचीन नाट्य सम्पत्ति के वैज्ञानिक मूल्यांकन तथा दृष्टि से स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात हम समान रूप से पश्चिम के संपर्क में आए, हमने अपने आप को गौरव देने के साथ ही स्वागता अपने व्यवहार शब्दों को भी नया अर्थ गौरव दिया। रंगमंच को हमने थिएटर के ही परिपेक्ष में ग्रहण करना प्रारंभ किया है। संस्कृत रंगमंच, आधुनिक रंगमंच, रंगमंचीय आंदोलन, रंगमंच एक साहित्य कला संस्था, रंगमंच एक आदिम परंपरा, रंगमंच पूरी सामाजिकता की अबाध धारा रंगमंच आत्मदान।
ग्रीक थिएटर ,ब्रिटिश थिएटर, थिएटर ऑफ शेक्सपियर के ही अर्थ गौरव ठीक उसी परिप्रेक्ष्य में आज हमने रंगमंच को देखना शुरु किया है ।
दूसरे संदर्भ में रंगमंच का अर्थ और व्यापक हो जाता है,जैसे हिंदू रंगमंच और ग्रीक थिएटर और मास्को आर्ट थियेटर। यहां हिंदू रंगमंच के अर्थबोध में एक और संस्कृत का समस्त नाट्य साहित्य, नाट्य शास्त्र है दूसरी ओर उसमें व्याप्त और प्रतिपादित मंच स्वरूप का प्रस्तुतीकरण का समूचा भावाचित्र है। तीसरी ओर समूचा युग मन है, उसकी कला रुचि, आनंद भोग का स्तर और उसकी बिलास भूमियां है । अर्थात समूचे युग के नाटककार, अभिनेता, प्रस्तुतकर्ता , निर्देशक, सूत्रधार, सामाजिक रस भोगी और उसके देशकाल सभी कुछ संबंधित है।
जीवन एक रंगमंच -
जीवन गत रंगमंच का एक आध्यात्मिक पक्ष भी है। हम कहते आए हैं जीवन रंगमंच है ।हम इसमें अपनी पात्रता। भोग कर समय को प्रदर्शित कर प्रस्थान कर जाते हैं। हम जीवन अभिनेता है।
हम जीवन और काल रूपी रंगभूमि में प्रवेश कर राग विराग, सुख-दुख, सत असत, कुरूपता, और विराट सौंदर्य के साक्षी बनाते हैं ।और अपनी गति से काल को भी मोहित कर लेते हैं ।
आज यह बात नहीं है कि रंगमंच नवोन्मेष से सभी लोग इस रंगमंच को सही ढंग से ही ले रहे हैं। अधिकांश लोग यही नहीं समझ पाए हैं कि रंगमंच क्या है ?
आज भी लोग रंगमंच को भवन और स्टेज के अर्थ में ही लेते हैं। मनोरंजन अथवा कार्यकलाप के ही रूप में ।।
यह हमारे लिए आश्चर्य और दुख की बात नहीं है । हमने अभी-अभी तो नाटक की उसकी कुछ बातचीत मर्यादा देनी आरंभ की है । रंगमंच की अपनी अतुल गरिमा है इसे अपने अभी फिर से ग्रहण किया है। इसलिए स्वाभाविक ही है कि रंगमंच के प्रति जो निम्न धारणाएं, कुवृत्तिया और संस्कार आज से पहले समाज में व्याप्त विरासत के रूप में इसे भी मिल गए ।परंतु मेरा विश्वास है कि रंगमंच को नव संस्कार और उसका स्वायत्त भाव मिलते ही हमारी भाव नाट्य विषयक दृष्टि परिवर्तित हो वास्तविक और संपूर्ण गरिमा पूर्ण हो जाएगी।
वस्तुतः काव्य और कला के महत् दृष्टिकोण के स्तर पर यह सार्वदेशिक बिघटन आज के समसामयिक जीवन की दुर्घटना है।
आज रंगमंच का नाम लेते ही जो भाव चित्र हमारे सामने उजागर होता है कुछ इस प्रकार का है- आधुनिक जीवन के आनंद प्रशाधन तथा भौतिक सुख सुविधाओं से परिपूर्ण विशाल भवन के भीतर रंगशाला , जहां एक भाग में कुर्सियों पर सजे सजाए बैठे हैं और सामने मेहराब खचित रँग दरबार, रंग पीठ पर नेताओं द्वारा नाट्य अनुष्ठान !
पहला अंतराल- दर्शकों का बाहर आना जाना , शोरगुल चाय कॉफी और सिगरेट पान ! दूसरा और तीसरा साल और दो ढाई घंटों की चहल-पहल, पारस्परिक औपचारिकता सामाजिक आदान-प्रदान साथी मनोरंजन, मित्रों, परिचितों से मेल मिलाप और अपने अपने व्यवसाय की अलग-अलग बातें ।
रंगमंच के नाम पर आज यह भाव और यह अवधारणा, संभवतः हमें आधुनिक जीवन और उससे भी अधिक सिनेमा सभ्यता से प्राप्त हुई है । जिसमें रंगमंच का व्यापक धर्म, मूल प्रकृति, गौरव एवं अर्थबोध को हटा दिया है।
आज सामाजिक कहते हैं कि हमारी अपनी अलग अवधारणा है आज रंगमंच के प्रति हमारे विचार हैं । हम आज जिस युग में जी रहे हैं उसकी अपनी साधन संपन्नता है, कला रुचि है और सौंदर्य बोध के मानदंड है ।
पर क्या हमने कभी गंभीरता से सोचा कि हमारा युग क्या है ?और क्या इस युग की प्रकृति और इसकी अंतरंगता ,इसका हमारा सारा सुख दुख, स्वप्न और आशा, पीड़ा और आज हमारी नीतियों और उनके अनुष्ठानों में प्रतिबिंबित है। मैं अनुभव करता हूं कि आज हम आज अपनी कृतियों संस्थानों के अपने समय को जीवन को और अपनी अंतरछबि को नहीं देख पा रहे हैं ।रंगमंच को उसके मूल स्थान से स्थानांतरित किया जा रहा है।
रंगमंच का स्वरूप और उसका अर्थ गौरव जीवन की ही भांति है। यह अपने अतल में जितना गहन और अमूर्त है, धरातल पर उतना ही मूर्त और विराट है । यह एक ओर आदिम और सनातन है उतना गत्यात्मक और युग सापेक्ष्य है। यह इतना असीम और अपरिमेय है कि इसके संपूर्ण व्यक्तित्व को देख पाना, अभिज्ञान करना और सबसे अधिक इसे अनुभवगम्य कर पाना किसी समाज अथवा व्यक्ति के लिए परम साधना औऱ परम सौभाग्य से ही संभव है ।
अर्थात नाटक खेलने का प्रयोजन का उद्देश्य जैसा कि आदिकाल से अब तक था और आज भी है- "प्रकृति को दर्पण दिखाना है " गुण को उसकी आकृति देना है, उसकी मूर्ति का उपहास करना है तथा युग काल के शरीर को उसके स्वरूप भाव को व्यक्त करना है।
इस कथन में वे तत्व हैं जो संसार के सभी रंगमंचओं के मूल आधार है और उसके स्वरूप के परिचायक हैं- जैसे रंगमंच का आदिकालिक तथा सनातन पक्ष,युग काल तथा समाज की व्यंजना, तथा ईसके अंतर्गत नाटक खेलने और खिलाने के स्तर से नाटक, दर्शक, समाज आदि। वस्तुतः यह कथन शेक्सपियर के थिएटर के व्यक्तित्व के संदर्भ में है जो निसंदेह अपने योग अपनी कला रुचि का जीवंत प्रमाण उपस्थित करता है।
हेमलेट ने थियेटर को दर्पण की ही उपमा से समझाया है ।
रंगमंच एक अमूर्त सत्य-
मनुष्य का अपना विरचित संसार ही उसका वास्तविक रंगमंच है।
प्रदर्शन मनुष्य का धर्म है और उसका आत्मानंद भी, और उससे भी आगे आत्म दर्शन उसकी धार सौन्दर्य बोध के लिए भी है ।
इसी प्रदर्शन और भावाभिव्यक्ति के ही आधार पर यह सिद्ध है कि जब कहीं कोई एक भी नाटक नहीं लिखा गया था, तब भी रंगमंच का पूर्ण अस्तित्व था।आदिकाल मे मनुष्य ने अपने गिरोह के साथ मृगया, आनंद, विजयोल्लास, देव पूजा और कृषि उत्सव, अथवा कर्म में जब समूह नर्तन किया होगा वह रंगमंच ही तो था।
वह भी रंगमंच ही था जब मनुष्य ने गिरोह के सम्मुख अपनी किसी हृदयस्पर्शी घटना, घनीभूत मनोभाव को मुद्राओं और संकेत आत्मक भावाभिनय, के साथ बिना किसी शब्दोंच्चारण के व्यक्त किया होगा। पर रूपण, भावाभिनय ही इस प्रकार रंगमंच की मूलभूत कला है।
इसके लिए ना किसी रंगमंच की अपेक्षा करता है, ना किसी विशेष मंच की आवश्यकता होती है। क्योंकि इसकी रचना, उसकी अभिव्यक्ति कहीं भी, कैसे भी सदैव संभव है !खेत में मैदान में !मार्ग में मनुष्यों की परिधि में उनकी भीड़ में !

यही रंगमंच है।
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