भारतीय रंगमंच का इतिहास - 2 शैलेंद्र् बुधौलिया द्वारा नाटक में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

भारतीय रंगमंच का इतिहास - 2

रंगमंच का इतिहास 2

 पाश्चात्य रंगमंच

शैलेंद्र बुधौलिया

पाश्चात्य रंगमंच का प्रादुर्भाव सर्वप्रथम यूनान देश में हुआ , जिसे इतिहासकारों ने थिएटर ऑफ डायोनिसियस की संज्ञा दी है।  यूनानीयों को प्रकृति में अपार श्रद्धा थी क्योंकि उसी में से उन्हें महान शक्ति का अनुभव हुआ था, विशेषकर प्रकृति के परिवर्तनशील दृश्यों को देखकर तथा उसके अटल नियमों को अनुभूत कर यूनानीयों ने प्रकृति में एक देवी शक्ति की कल्पना की जो मानव की सुख समृद्धि और संतोष देने वाली थी । उसी शक्तिमय कल्पना के सहारे स्वभाव तथा यूनान वासियों ने अपने आदि देवता के रूप निर्माण और पूजा आराधना को निश्चित किया।

 ड्रामा का जन्म अपने बीज रूप में ‘डायोनिसियस’ की पूजा प्रतिष्ठा में गाए गए ‘कोरस’ अथवा ‘सह गायन’ के माध्य से हुआ ।  ट्रेजडी का आदि अर्थ है ‘got song’ यानी बकरे का चीत्कार, क्योंकि यूनान में पूजन में बकरे की बलि भी दी जाती थी ।

 छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में यूनान के thespis नामक एक व्यक्ति ने कोर्स में एक परिवर्तन किया ‘कोरर्स में वार्तालाप का प्रयोग !’ आगे चलकर इसमें तीसरा तत्व भी मिलाया गया! फिर देवताओं का स्थान कालांतर में श्रेष्ठ वीरों तथा नायकों ने ले लिया है। इस तरह ड्रामा की संपूर्ण स्थिति पूरी हो गई । ड्रामा के सारे तत्व सामने आ गए अतः ड्रामा की कला तथा उसके सिद्धांत सर्वप्रथम वहीं सूत्रबद्ध  हुए ।

अत: इन आधारों पर ड्रामा के विषय में सहज ही यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ड्रामा काव्य का वह रूप है, जिसमें कार्य व्यापार का प्रदर्शन रहता है और ट्रामा की प्रकृति काव्य के स्वरूप की ही बात अनुकरण सिद्धांत पर प्रतिष्ठित है।

 

दर्शक सापेक्ष –

ड्रामा अपनी प्रकृति और विधा विशेष में सबसे अलग यहां है कि ड्रामा में दर्शक सत्य सनातन से जुड़ा हुआ है ।बिना दर्शक के किसी ड्रामा की कभी  कल्पना और परिकल्पना की ही नहीं जा सकती। ड्रामा के मध्य में एक ऐसी कहानी अवश्य है, जिसकी व्याख्या अर्थबोध मंच पर अभिनेताओं द्वारा दर्शकों को कराया जाता है। ड्रामा की कल्पना, अर्थबोध , मंच पर अभिनेताओ द्ववारा  दर्शकों को कराया जाता है ।

ड्रामा की कल्पना अठाव उसके वर्थ का बोध दर्शक को कथा की व्याख्या देने वाले अभिनेता के बिना हो ही नहीं सकता । स्पष्ट है ड्रामा के इस धरातल में दर्शक और अभिनेता दो सत्य मिलते हैं और दोनों विशुद्ध मानव सत्य हैं बल्कि मानव हैं ।इन तत्वों के फलस्वरूप ड्रामा साहित्य के अन्य प्रकारों की अपेक्षा स्वभाव तथा अपने अस्तित्व के चारों ओर अपनी सीमाओं की दीवार भी खींच लेता है। इस दिशा में ड्रामा की पहली सीमा है- समय! क्योंकि इसका सीधा संबंध है दर्शक वर्ग से जो कुछ समय के भीतर ही ड्रामा देख चुकना स्वीकार करेगा। यही स्थिति अभिनेता की भी है। वे मंच पर उतनी ही देर तक अभिनय कर सकता है या वह उतना ही अभिनय कर सकता है जितना मनुष्य से संभव है। वह  अपनी मानवीय परिस्थितियों के परे नहीं जा सकता। अभिनय कला की सीमाओं से दर्शकों द्वारा ड्रामा के द्वारा देख सुनकर उसे समझने की सीमा से , इसके अलावा यह भी सोचना होगा कि दर्शक कितनी देर तक के लिए जलपान और विश्राम के बिना ड्रामा देखने के लिए बैठ सकते हैं? व्यावहारिक शक्ति के के अनेक पक्ष रंगमंच को प्रभावित करते हैं।