रंगमंच ड्रामा का इतिहास सुखान्तकी 5
पाश्चात्य रंगमंच
ड्रामा कथोपकथन के माध्यम से कहानी प्रस्तुत करने की एक कला है ।अतः कथानक ड्रामा का मूल आधार तत्व है किंतु ड्रामा का व्यावहारिक संबंध थिएटर और मंच से है, मंच एक ऐसा स्थान है जिसका सीधा संबंध दर्शकों से है
सुखान्तकी –
जिस प्रकार दुखांन्तकी का महत्व पूर्ण स्वरूप रोमीय ( रोम देश की ) दुखांन्तकी है। ठीक उसी प्रकार रूमी सुकांन्तकीका भी सत्य है। निश्चय ही रोमीय ( रोम देश की ) सुखांन्तकी रोम के समग्र जीवन और उसके पूरे परिवेश का दर्पण है।
रोम के निवासियों का विश्वास उनके जीवन का राग रंग और उनके सांस्कृतिक तत्व इन सब का प्रतिबिंब रोमी सुखान्तकी में प्राप्त होता है ।इस तरह से नाटक का यह रूप दुखांन्तकी की अपेक्षा कहीं अधिक जीवन का परिचय और उसका प्रतिनिधि स्वरूप है।
रोमीय सुखांन्तकी लेखक अपने राष्ट्रीय सिद्धांत और सामाजिक आचरण के पालन में प्राय: वृद्ध और अनुभवी पुरुष पात्रों को दायित्व देते हैं।
टेरेंट्स और प्लाटस रोम के प्रसिद्ध सुखांन्तकी लेखक हुए हैं।
इसके साथ मध्य युग के आगमन ने साहित्य को इतने अपार विषय दिए कि रोमीय सीमित संकीर्ण विषय पीछे छूट गए ।तब तक अंग्रेजी लेखकों का इतना मानसिक विस्तार भी हुआ कि कभी अपने विषय दृष्टिकोण में सुख शांति के साथ बहुत आगे निकल गए और उन्होंने अपनी सुखान्तकी की धारणा अपनी मौलिक ढंग से विकसित की।
शेक्सपियर का नाम इस प्रसंग में बहुत ही महत्वपूर्ण है। शेक्सपियर की सभी सुखांतकिया रोमांचक है, उसने रोमनो की सुखान्तकी की पद्धति को पलट दिया। शेक्सपियर के कथानक रोमनों की तरह षड्यंत्र पूर्ण, घटनाप्रधान न हो कर पात्र प्रधान हुए । शेक्सपियर के सभी सुखान्तकीयों में प्रेम उपासना ही मूल आधार है, जिसके ऊपर वह अपने स्वर्ण युग की संस्कृति और प्रेम की अनुभूति का महल खड़ा करता है।
प्रकार-
सुखान्तकी के जितने स्तर और प्रकार होते हैं उतने नाटक के अन्य रूपकों में नहीं। लेकिन इसके प्रकारों को अलग अलग बाँट कर देखना इसलिए कठिन है कि कि नाटक कारों ने मुक्त होकर प्रायः सुखान्तकी के विभिन्न तत्वों को अपने नाटकों में खुलकर प्रयोग किया है।
प्रदर्शन
सब नाट्य प्रकारों की अपेक्षा सुखान्तकी का अभिनय रंग प्रदर्शन का सत्य है। क्योंकि इसकी संपूर्णता किसी भी तरह लेखन में या पांडुलिपि में नहीं रहती वरन यह संपूर्ण रूप रंग प्रयोग में आती है। अभिनेता की गति उसकी वाक् चातुर्य , उसका वस्त्र विन्यास, समूह और मंच व्यापार, परिश्थिति का निर्माण और उसके उसमें हास्य सृष्टि ये सब सुखांतकी के प्रदर्शन में महत्वपूर्ण है।
हंसी समाज वृत्ति है, यह छूत की बीमारी की तरह है, किंतु शर्त यह है कि सामाजिक जरा हल्के मूड में हो।
जब सहज प्रतिक्रिया दर्शक और अभिनेता के बीच चलती रहे, किंतु यह सारा प्रयोग सिर्फ बेकार है यदि सुखान्तकी मैं सुखान्तकी की वास्तविकता नाथ स्थिति ना हो आत्मा ना हो।
पाश्चात्य रंगमंच का प्रस्तुतीकरण-
हर कला प्रकृति का अनुकरण है। मनुष्य की प्रकृति की यथार्थ झांकी और उसका प्रतिबिंब यही मूल आधार है पश्चिम की कला दृष्टि का। चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तु कला, साहित्य और रंगमंच।
इस तरह मनुष्य की प्रकृति का दर्पण है तथा उनके भावों विचारों की अभिव्यक्ति है। उस अभिव्यक्ति की रचना प्रक्रिया यह है कि रचनाकार, कलाकार पूर्व स्मृतियों, चित्रों, भावों की संरचना करता है, उन्हें फिर से रचता है । इस प्रकार कला सृजनकर्ता द्वारा जीवन की व्याख्या है । मैडोना जैसा महान चित्र, ताजमहल जैसी महान इमारत दर्शक के भीतर भाव ही तो पैदा करती है और ठीक इसी तरह ऑडीपस, हेमलेट , सीगल, लोअर डेप्थ जैसे नाटक दर्शक के भीतर भाव और विचार पैदा करते हैं।
रंगमंच के प्रस्तुतीकरण कला से दर्शक और श्रोता में वह बड़ा भाव और विचार उद्धृत करना इस सत्य का मूल आधार है कि नाटक में व्याप्त भाव और विचार को प्रस्तुतीकरण कला के माध्यम से संप्रेषित करना। इस संप्रेषण के लिए कलाकार पहले मूल विषय वस्तु के प्रति अपनी अवधारणा निश्चित करता है फिर उस अवधारणा को कला माध्यम से व्यक्त करने के लिए वह उसकीशिल्पविधि का सहारा लेता है।
इस तरह कला रचना के लिए कुछ तत्व आवश्यक होते हैं –
अवधारणा.
शिल्प विधि
अन्विति
संगता
आग्रह
अनुपात
गहनता
भाव दशा
लक्ष्य