भारतीय रंगमंच का इतिहास - 4 शैलेंद्र् बुधौलिया द्वारा नाटक में हिंदी पीडीएफ

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भारतीय रंगमंच का इतिहास - 4

रंगमंच ड्रामा का इतिहास दुखांन्तकी 4

 पाश्चात्य रंगमंच

ड्रामा  कथोपकथन के माध्यम से कहानी प्रस्तुत करने की एक कला है ।अतः कथानक ड्रामा का मूल आधार तत्व है किंतु ड्रामा का व्यावहारिक संबंध थिएटर और मंच से है, मंच एक ऐसा स्थान है जिसका सीधा संबंध दर्शकों से है

 ड्रामा  कथोपकथन के माध्यम से कहानी प्रस्तुत करने की एक कला है ।अतः कथानक ड्रामा का मूल आधार तत्व है किंतु ड्रामा का व्यावहारिक संबंध थिएटर और मंच से है, मंच एक ऐसा स्थान है जिसका सीधा संबंध दर्शकों से है ।ऐसे दर्शक जो ड्रामा के अनुष्ठान को देखने और सुनने दोनों के लिए आते हैं। फलत: ड्रामा  में प्रेक्षणीयता , कार्य, दृश्य. अभिन्यात्म्कता , वृत्ति ! ये समस्त तत्व नितांत आवश्यक है।

 ड्रामा में संघर्ष की स्थिति-

 ड्रामा अपने समस्त प्रकारों में सर्वथा किसी ना किसी स्तर से संघर्ष की अंत: प्रेरणा से उदित होता है । अत : ड्रामा में संघर्ष का स्थान उतना ही महत्वपूर्ण होता है जितना कि संस्कृत रंगमंच में रस का वस्तुतः  पाश्चात्य रंगमंच में ड्रामा का उदय और जन्म संघर्ष तत्व से ही है ।

दुखांन्तकी में संघर्ष की स्थिति स्थूल और मानसिक दोनों स्तरों से विद्यमान रहती है । सुखांतकी में दो विभिन्न शक्तियों के जल से संघर्ष रहता है जैसे स्त्री पुरुष से संघर्ष व्यक्ति समाज से संघर्ष आदि।

दुखांन्तकी अरस्तू ने दुखांन्तकी की परिभाषा देते हुए कहा कि ‘दुखांन्तकी किसी गंभीर महत्वपूर्ण तथा विशाल कार्य का रंग स्थल पर अनुकरण है।  जो भाषा के माध्यम से सौंदर्य युक्त तथा आनंदमई बनकर भय और करुना द्वारा अपनी मानवीय भावनाओं को अति परिमार्जित करती है ।‘

फिर तूने दुखांन्तकी के छह विशेष तत्व गिनाये –

कहानी

पात्र

 भाषा

विचार

 दृश्यत्व

संगीत

 दुखांन्तकी अति गंभीरता का नाट्य रूप है, इसका विषय उनसे की गहन समस्या और स्वदेशी अमूल्य है ।  उनकी नियति, उसका लक्ष्य ,पुण्य, पाप, न्याय, अपराध और इंसान की भी निर्माण और कटु यथार्थ परिस्थितियां जिनसे उसका सतत संग्राम छिड़ा हुआ है । दुखांन्तकी का धरातल कभी भी हल्का या छोटा नहीं होता। दुखांन्तकी संपूर्ण नाट्य कृति होती है –आदि , मध्य और अंत से युक्त! और यह तीनों भाग उसकी आत्मा से इस तरह अखंड होते हैं, जैसे शब्द में अर्थ, जीवन में दर्द , दया, भय, करुणा में मूल स्वर है दुखांन्तकी ।

  ग्रीस और एलिजाबीथन इंग्लैंड इन दोनों देश कालों में दुखान्त्तकी के लिए जितनी परिस्थितियाँ  थी उनमें निश्चय ही दोनों काल स्वर्ण युग के थे।   काल की चेतना उच्च शिखर पर थी।  मानव आत्मा विजय को छू रही थी। इन दुखांतकियों का जीवन है कि मनुष्य महत्वपूर्ण है ,गरिमामय  है, आत्मसम्मान और गौरव ही उसका जीवनतत्त्व  है ।  अन्यथा सब बेकार है। तुच्छ है मृत्यु समान हैं।

 दुखांन्तकी का विषय महत् संघर्ष है ! उल्लेखनीय प्रश्न जिसने हर युग में मनुष्य को संट्रस्त  किया है, तोड़ा है और मथा  है ।

दुखांन्तकी का भावछेत्र यद्यपि उत्पीड़न, दुख और मृत्यु है फिर भी अपने लक्ष्य में यह सर्जनात्मक है ,सार्थक है। मृत्यु का मूल्य नहीं है वह तो अवश्यंभावी है। महत्वपूर्ण है मृत्यु के पूर्व तक मनुष्य के संघर्ष ।  तभी दुखांन्तकी  को ईमानदार कहा गया है। दुखांन्तकी का नाटक कार जीवन का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करता है , उसमें इतनी ईमानदारी और साहस होता है कि वह जीवन की सारी पराजय , हताशा और करुणा को भोगता है और जीता है ।