आज ज़िंदगी में पहली बार गंगा अकेली कचरा बीन रही थी। उसकी आँखों से आँसू गिर कर उस कचरे में मिलते जा रहे थे भले ही शालू और मोहन बेहद गरीब थे फिर भी गंगा के लिए उनके सपने बड़े थे। थैला भर कर कचरा बीनने के बाद गंगा उसे अपने कंधे पर टांगे चल रही थी। उसे अपनी माँ की कही बातें याद आ रही थीं।
"गंगा मैं तुझे कचरा बीनने के काम में कभी नहीं लगाऊँगी। तेरी शादी भी ऐसे लड़के से करूंगी जो तुझे अच्छे से रखेगा और वह भी कचरा बीनने का काम नहीं करता होगा।"
यही सोचते हुए वह साइकिल की दुकान तक आ गई। उसने पूछा, "भोला काका मेरी साइकिल..."
"हाँ-हाँ गंगा बिटिया ठीक हो गई है, लो लेकर जाओ।"
गंगा ने कहा, "काका पैसे अभी तो मेरे पास नहीं हैं, दो-चार दिनों में दे दूंगी।"
"अरे गंगा मुझे पैसे नहीं चाहिए बेटा। तेरा बापू मेरा अच्छा दोस्त था, बरसों का रिश्ता था हमारा। ऐसा कह कर मुझे शर्मिंदा मत कर बेटा।"
"ठीक है काका, मैं चलती हूँ।"
"गंगा मेरे लायक कोई भी काम हो तो ज़रूर कहना।"
"ठीक है काका।"
गंगा ने कचरे के थैले को अपने कंधे से उतारकर साइकिल में डाला और आज पहली बार वह साइकिल पर बैठकर पैडल घुमाने लगी। गंगा अपने पिता की तरह ही लंबी थी इसलिए साइकिल खींचने में उसे बहुत ज़्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा। जब सर पर जिम्मेदारी आती है और पेट में भूख महसूस होती है तो इंसान के हाथ पांव अपने आप ही चलने लगते हैं।
साइकिल लेकर वह फिर कचरा बीनने चली गई। दो-तीन घंटे घूम कर उसने बहुत सारा कचरा इकट्ठा कर लिया। पैदा हुई तभी से तो वह देख रही थी कैसे कचरे में से काम की वस्तुएँ उठाते हैं, कहाँ लेकर जाते हैं, क्या करते हैं, उसे सब पता था। बस ख़ुद के दम पर यह सब पहली बार करना था। वह सब कुछ उसने कर लिया फिर वह घर लौटी। उसे साइकिल खींच कर आता देख उसके अड़ोस-पड़ोस के लोग दंग रह गए।
शांता ताई ने भी उसे देखा और सोचने लगीं कल तक जो गंगा पीछे बैठकर मस्ती करती, गाने गाती रहती, आज हालात ने उसे ज़िन्दगी के किस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है। 12 साल की बच्ची कचरे की गाड़ी खींच रही है। वाह रे ऊपर वाले, कैसी तेरी माया? केवल तू ही जाने। शांता ताई गंगा के खाने-पीने का पूरा ख़्याल रखती थी। गंगा को केवल उनका ही सहारा था।
धीरे-धीरे गंगा अपने अकेलेपन को अब स्वीकार करने लगी थी। कभी-कभी हँसना भी शुरू कर दिया था लेकिन उसके साथ परेशानी यह थी कि अब वह जवानी की दहलीज़ पर क़दम रख रही थी। जहाँ भी जाती लोगों की बुरी नज़र उसके ऊपर टिक जाती। गंगा जैसे तन से बड़ी हो रही थी, वैसे ही मन से भी समझदार होती जा रही थी। वह जानती थी उसे अपने आप को लोगों की बुरी नज़र से बचाना है। कचरा बीन कर जब गंगा घर लौटती, अपने आपको अपनी खोली में क़ैद कर लेती। अब केवल शांता ताई ही थी जिस पर उसे भरोसा था।
शांता ताई के पति मनु भी गंगा के दर्द को समझते थे। उन्होंने शांता ताई से कहा, "शांता, अकेली बच्ची है गंगा। काल उसके माँ-बाप को खा गया। देखो ना एक-एक करके सभी उसे अकेला छोड़ कर चले गए। किसी ने उसका इस दुख की घड़ी में साथ नहीं दिया लेकिन हम से जितना बन पड़ेगा हम उसके लिए ज़रूर करेंगे।"
"हाँ तुम ठीक कह रहे हो मनु, पड़ोसी होने के नाते और इंसानियत के नाते हमें उसका ख़्याल रखना पड़ेगा। छोरी जवान हो रही है, बिन माँ-बाप की बच्ची अकेली जान है। मुझे तो डर लगता है कोई हमारी गंगा को मैला ना कर दे।"
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः