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अकेली - भाग 1

मोहन और शालू हर रोज़ सुबह अपनी तीन पहियों की साइकिल लेकर कचरा बीनने जाते थे। उसी से उनकी जीविका चलती थी। गाड़ी भले ही कचरे की हो पर वह अपनी गाड़ी को बड़ा ही सजा कर रखते थे। जैसे-जैसे पहिये घूमते घुंघरुओं की मद्धम-मद्धम आवाज़ कानों में एक तरंग छोड़ देती, जो कानों को बड़ी अच्छी लगती थी। आने जाने वाले उनकी गाड़ी की तरफ़ एक नज़र देखते ज़रूर थे। शालू ने विवाह के एक वर्ष के अंदर ही एक प्यारी-सी बेटी को जन्म दिया और उसका नाम रखा था गंगा।

गंगा के जन्म के समय ही डॉक्टर ने कहा, "अब तुम्हें बस इस अकेली बेटी से ही संतोष करना पड़ेगा। अब दूसरी बार गर्भवती होना तुम्हारे लिए ठीक नहीं है।"

गंगा दो-तीन हफ्ते की ही हुई थी कि शालू ने गंगा को भी साथ ले जाने का मन बना लिया। शालू क्या करती मजबूरी इंसान को मज़बूत बना देती है और मजबूर भी कर देती है। मोहन अकेले कचरे में से उतना प्लास्टिक नहीं ला पाता, जितना शालू बीन कर ले आती थी। अपने पति का हाथ बटाने के लिए शालू भी जल्दी ही काम पर लग जाना चाहती थी।

जब पहले दिन वह गंगा को लेकर बाहर निकली और अपनी साइकिल के पास आई तब मोहन ने कहा, "अरे शालू कुछ दिन और घर पर रुक जाओ। गंगा बहुत छोटी है।"

"अरे मोहन छोटी है और अभी छोटी ही रहेगी। जितनी जल्दी हमारे घर के माहौल में ढल जाए उतना ही अच्छा है। कुछ नहीं होगा उसे। कुछ ज़्यादा प्लास्टिक मिल जाएगा तो उसी के काम आएगा वह पैसा," कहते हुए शालू गंगा को गोद में लेकर कचरे की गाड़ी पर चढ़ गई और मोहन के पैर पैडल के साथ-साथ घूमने लगे।

शालू वहीं उसे दूध भी पिला देती और जब वह सो जाती तो मैले कुचैले कपड़ों की गोदड़ी उसी कचरे के ऊपर डाल कर उसे सुला देती। ख़ुद नीचे उतरकर प्लास्टिक की थैलियाँ और टूटा फूटा सामान बीन कर ले आती। वह कचरे की गाड़ी मानो गंगा के लिए सोने का पालना थी। वह सुकून से सोती थी उस पर।

धीरे-धीरे गंगा दो वर्ष की हो गई। गंगा ख़ुशी से उसी कचरे के ढेर पर बैठती। कोई टूटा फूटा खिलौना मिल जाए तो रोमांचित हो उठती। मिट्टी से सना वह खिलौना पाकर वह इतनी ख़ुश हो जाती मानो कीचड़ में से कमल का फूल उसे मिल गया हो। जिस कचरे के पास से गुजरते हुए हम अपनी नाक पर रुमाल रख लेते हैं। उस जगह हमारे क़दम अपने आप ही और अधिक गतिमान हो जाते हैं। उसी कचरे के साथ, उसी के बीच पल कर गंगा बड़ी हो रही थी। इसी तरह ज़िन्दगी अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ती जा रही थी।

रोज़ का वही नियम था, सुबह उठो कचरा बीनने जाओ। अब तो गंगा रास्ते भर अपनी शरारतों से शालू और मोहन का दिल बहलाती रहती। धीरे-धीरे वह बड़ी हो रही थी। कई बार सुबह उठकर वह सबसे पहले जाकर गाड़ी में बैठ जाती और वहाँ से आवाज़ देकर बुलाती, "अरे अम्मा बापू जल्दी चलो ना।"

रास्ते में गंगा कई बार शालू से कहती, "अम्मा देखो ना वहाँ प्लास्टिक की थैलियाँ उड़ रही हैं, मैं दौड़ कर ले आऊँ।"

"नहीं गंगा, बिल्कुल नहीं। मैं तुझे कभी इस काम में नहीं लगाऊँगी। तेरी शादी मैं ऐसे लड़के से करूंगी जो ख़ुद भी कोई और काम करता हो, यह काम नहीं।"

"क्यों अम्मा?"

"अरे गंगा हम दिन भर इस गंदगी में सर्दी, गर्मी, बारिश में भटक कर भी कितना कमा पाते हैं। प्याज और हरी मिर्च के साथ रोटी खानी पड़ती है। साग भाजी के भाव तो आसमान छू रहे हैं। मैं नहीं चाहती तुझे भी यही ज़िन्दगी मिले।"

इसी तरह गंगा हर रोज़ कचरे में प्लास्टिक उठाने की ज़िद करती पर शालू उसे जाने नहीं देती।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः

 

 

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