एक-एक करके सभी रिश्तेदार गंगा को छोड़ कर चले गए और अपने-अपने ठिकाने पहुँच गए। गंगा के मन के अंदर भभकता हुआ दिया एकदम से बुझ गया। अब वह बिल्कुल अकेली थी। मोहन और शालू कभी उसे कचरा बीनने नहीं जाने देते थे। वह पहला दिन था जब उसे शालू ने कहा था, "तू बहुत ज़िद्दी है, रोज़ एक ही पहाड़ा पढ़ती है, जा ले आ।"
गंगा के कानों में बार-बार यही शब्द गूँजा करते थे। वह सोच रही थी शायद भगवान ही उसे बचाना चाहते थे। अम्मा कभी हाँ नहीं कहती थी पर उस दिन उन्होंने हाँ कह दिया और वह कचरा लेने चली गई। वरना शायद उस दिन वह भी उसके माता-पिता के साथ...!
फिर वह सोचती काश अम्मा ने उस दिन भी उसे रोक लिया होता तो जहाँ भी रहते साथ-साथ रहते। इस तरह अकेली वह क्या करेगी पर यह सब सोचने से क्या होता है। होता तो वही है, जो ऊपर वाला लिख देता है। गंगा जानती थी कि अब उसका जीवन आसान नहीं होगा। संघर्ष और चुनौतियों के साथ अब उसका रिश्ता और भी गहरा होता जाएगा।
अपने रिश्तेदारों का व्यवहार देखकर गंगा दुखी ज़रूर हुई लेकिन उसने उनके इस व्यवहार को एक चुनौती समझ कर अपना लिया। उसने कमर कस ली अपने जीवन का बोझ अकेले ही ढोने की। बाजू की खोली में रहने वाली शांता ताई से गंगा के परिवार का घनिष्ठ सम्बंध था। शालू और शांता ताई की बहुत गहरी दोस्ती थी। हालांकि शांता ताई उम्र में शालू से काफ़ी बड़ी थीं। शांता ताई एक-एक करके जाते हुए गंगा के रिश्तेदारों को देख रही थीं। वह उन्हें अच्छी तरह जानती थीं पर उन्हें यह अंदाजा बिल्कुल नहीं था कि दुख के इस समय में वे सब इतने स्वार्थी हो जाएंगे और गंगा को इस तरह अकेली छोड़ कर चले जाएंगे।
शांता ताई गंगा के पास आई। गंगा दुखी होकर अपनी खोली में शांत बैठी थी। शांता ताई ने जैसे ही उसके सर पर हाथ फिराया। गंगा उनसे लिपट कर रोने लगी। रोते हुए उसने कहा, "शांता ताई मैं अकेली हो गई। सब मुझे छोड़ कर चले गए। मैं अब क्या करूंगी?"
"चुप हो जा बेटा, जिसका कोई नहीं होता उसका भगवान होता है और हम दोनों हैं ना। तेरा ख़्याल हम रखेंगे। भगवान ने हमें औलाद नहीं दी। तू भी तो हमारी बेटी की तरह ही है," कहते हुए शांता ताई ने उसे अपने सीने से लगा लिया।
वह उसके लिए खाना लेकर आई थीं। अपने हाथों से उसे थोड़ा-सा खाना खिला कर वह अपनी खोली में वापस चली गईं।
दूसरे दिन सुबह तड़के गंगा घर से निकल गई। आज वह उसी स्थान पर गई, जहाँ वह दुर्घटना हुई थी। वहाँ जाकर, अपनी साइकिल को किसी तरह से खींच कर वह साइकिल सुधारने वाले की दुकान तक ले गई। आज उसकी कचरे की गाड़ी के घुंघरुओं की आवाज़ बदली हुई लग रही क्योंकि काफ़ी सारे घुंघरू टूट कर कहीं गिर चुके थे। कुछ चपटे होकर अपनी मधुर ध्वनि खो चुके थे और जो दो चार बचे थे उन घुंघरुओं की आवाज़ में मानो एक दर्द घुल गया था। साइकिल को दुकान पर छोड़ कर वह हाथ में बड़ा-सा थैला लेकर कचरा बीनने निकल गई।
साइकिल वाला उसे अच्छी तरह जानता था क्योंकि मोहन हमेशा उसी की दुकान से अपनी साइकिल में हवा भरवाता था। साइकिल वाला यह भी जानता था कि शालू और मोहन अब इस दुनिया में नहीं रहे।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः