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अकेली - भाग 3

अपने माता पिता के पार्थिव शरीर के साथ गंगा पूरे समय अस्पताल में ही थी। घर पहुँचते ही उसने देखा उसकी खोली के सामने भीड़ लगी है, जिसमें उसके नज़दीकी रिश्तेदार और अड़ोसी पड़ोसी खड़े उनका इंतज़ार कर रहे थे। उसके तुरंत बाद ही मोहन और शालू की अंतिम विदाई की तैयारियाँ होने लगीं।

जैसे ही उनके पार्थिव शरीर को अंतिम यात्रा के लिए उठाकर कंधा दिया जाने लगा, तब पहली बार गंगा फूट-फूट कर ज़ोर से रोने लगी।

"अम्मा बापू मत जाओ मैं अकेली क्या करूंगी? कैसे खींचूंगी कचरे की गाड़ी। अम्मा तुम मुझे कचरा बीनने नहीं जाने देती थी ना, अब मैं क्या करूंगी?"

गंगा की बुआ और मासी ने रोते-रोते ही उसे संभाला। 12 वर्ष की नन्हीं गुड़िया ने एक साथ अपने माता-पिता को अग्नि दी। अग्नि देते समय उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे पर मन कहीं भविष्य की चिंता में भटक रहा था। उस कार वाले की याद आते ही गंगा की आँखें लाल हो जाती थीं।

पुलिस उस कार वाले को ढूँढने में जुट गई और कुछ ही घंटों में उसे गिरफ़्तार करके सलाखों के पीछे भेज दिया।

नज़दीकी रिश्तेदार चिंतातुर थे। चिंता उन्हें गंगा की बिल्कुल नहीं थी, चिंता तो उन्हें इस बात की थी कि कहीं गंगा की जिम्मेदारी उनके सर पर ना आ जाए। वह जल्दी से जल्दी वहाँ से निकल जाना चाहते थे।

तीसरा होते ही उसके चाचा ने कहा, "गंगा बेटा जाना पड़ेगा। मेरा तो रोज़ कमाओ, रोज़ खाओ वाला काम है वरना तुम्हें साथ ले चलता। मेरे ख़ुद के चारों पेट भर खाना नहीं खा पाते।"

गंगा चुपचाप अपने चाचा को जाते हुए देखती रही पर उसके मन में उम्मीद का एक दीपक टिमटिमा रहा था कि मामा उसे ज़रूर ले जाएंगे। उसके बाद मामा के जाने की बारी आई।

गंगा के सर पर हाथ फिराते हुए मामा ने कहा, "गंगा बेटा भगवान हमेशा तेरी रक्षा करे। बहुत मजबूर हूँ वरना तुझे अपने साथ ले जाता। तू तो जानती है तेरी मामी को ... चलता हूँ।"

चाचा की तरह उन्हें भी जाते हुए वह शांत खड़े देखती रही। कुछ भी नहीं बोली। छोटे चाचा, बड़े चाचा, मामा, बुआ सब चले गए। आख़िर में केवल मासी ही बची थीं। गंगा के मन में जलता हुआ उम्मीद का दिया भभक रहा था कि अब क्या होगा। गंगा सोच रही थी भले ही किसी ने उसे साथ चलने को नहीं कहा लेकिन उसकी मासी उसे ज़रूर साथ लेकर जाएगी। वह अपने मन में बड़ी उम्मीद लगाए थी।

मासी संकोच के कारण दो दिन और रुक गई। वह मन ही मन सोच रही थी, अब क्या बहाना बनाऊँ, कैसे इसे टरकाऊँ। अभी तो वह केवल 12 साल की ही है, छः-सात साल पालना पड़ेगा और कहीं कुछ ऊँच-नीच हो गई तो सब उसे ही दोष देंगे। नहीं-नहीं, वह इतनी बड़ी जवाबदारी नहीं ले सकती।

यही सोचते-सोचते गंगा की मासी ने झोले में अपना सामान रखना शुरू किया। गंगा बड़ी ही उम्मीद भरी नजरों से उनकी तरफ़ देख रही थी पर कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी।

जाते समय उसकी मासी ने कहा, "गंगा यह खोली तुम्हारे बापू ने बड़ी मेहनत से कमाकर बनाई है। इसे संभाल कर रखना। यहीं रहोगी तो खोली भी बची रहेगी वरना आजकल का ज़माना बहुत खराब है, पता नहीं कब कौन कब्जा कर ले।"

गंगा सोच रही थी मासी जानती हैं ज़माना बहुत खराब है। उन्हें खोली की चिंता हो रही है किंतु खोली में रहने वाली जो धीरे-धीरे जवान हो रही है, उसकी चिंता नहीं है।

मासी ने फिर कहा, "मैं आती जाती रहूंगी, तुम बिल्कुल चिंता मत करना। गंगा कुछ भी काम हो तो बेझिझक कह देना, कहते हुए मासी भी हाथों में अपना थैला लेकर बाहर निकल गई।"

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः

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