{ विनिद्र संत }“कृपया मुझे हिमालय में जाने की अनुमति दीजिये। मुझे लगता है कि वहाँ के अखण्ड एकान्त में मैं ईश्वर से अनवरत तादात्म्य स्थापित कर सकूँगा।”
एक बार सचमुच मैंने अपने गुरु से ये कृतघ्र शब्द कहे। कभी-कभी साधक के मन में अप्रत्याशित रूप से उत्पन्न होने वाले भ्रम के जाल में मैं फँस गया था। कॉलेज की पढ़ाई और आश्रम के कर्तव्यों के प्रति दिनप्रतिदिन बढ़ती उदासीनता मुझे अधिकाधिक अधीर किये जा रही थी। इस कृतघ्नता के पातक को किंचित् हल्का करने वाली बात यह थी कि मैंने यह प्रस्ताव तब रखा था जब श्रीयुक्तेश्वरजी के साथ रहते मुझे केवल छह महीने ही हुए थे। अभी तक मैं उनकी गगनस्पर्शी उच्चता को पहचान नहीं पाया था।
“हिमालय में कई पहाड़ी लोग रहते हैं, उन्हें तो कोई ईश्वरानुभूति नहीं है।” मेरे गुरु ने धीरे-धीरे और सहजभाव से कहा। “जड़ पर्वत की अपेक्षा किसी आत्मज्ञानी मनुष्य से ज्ञान प्राप्त करना अधिक अच्छा।”
गुरुदेव के इस संकेत की कि मेरे गुरु पर्वत नहीं बल्कि वे स्वयं हैं, उपेक्षा कर मैंने पुनः अपनी प्रार्थना दुहरायी। श्रीयुक्तेश्वरजी ने कोई उत्तर नहीं दिया। मैंने उनके मौन को स्वीकृति मान लिया – एक संदिग्ध परन्तु मनोनुकूल निर्णय।
उस दिन शाम को कोलकाता के अपने घर में मैं अपनी यात्रा की तैयारी करने में जुट गया। एक कंबल में कुछ सामान को बाँधते समय मुझे इसी प्रकार की उस गठरी की सहसा याद आ गयी, जिसे मैंने कुछ वर्ष पूर्व चोरी-चोरी अपनी अटारी की खिड़की से नीचे फेंका था। मन में यूँ ही विचार आया कि कहीं यह भी एक और अनिष्ट-ग्रहयोगयुक्त हिमालयपलायन साबित न हो। पहली बार की यात्रा के समय मेरा आध्यात्मिक उत्साह उछाल पर था; आज अपने गुरु को छोड़कर जाने के विचार पर मेरा अंतर्मन मुझे धिक्कार रहा था।
दूसरे दिन प्रातः मैं स्कॉटिश चर्च कॉलेज के अपने संस्कृत प्राध्यापक बिहारी पंडित के पास जा पहुँचा।
“सर, लाहिड़ी महाशय के एक महान् शिष्य के बारे में आपने मुझे बताया था। कृपया मुझे उनका पता बता दीजिये।”
“तुम्हारा आशय रामगोपाल मजूमदार से है। मैं उन्हें विनिद्र संत कहता हूँ। वे सदा ही ब्रह्मानन्द में निमग्न रहते हुए जागृत रहते हैं। उनका घर तारकेश्वर के निकट रणबाजपुर में है।”
मैंने उनका धन्यवाद किया और तुरन्त तारकेश्वर जाने के लिये ट्रेन पर सवार हो गया। इस विनिद्र संत से हिमालय में एकान्त ध्यान में रत होने की अनुमति लेकर मैं अपने मन में उठ रही आशंका को शांत करना चाहता था। बिहारी पंडित ने मुझे बताया था कि रामगोपाल को बंगाल की निर्जन गुफाओं में अनेक वर्षों तक क्रियायोग का अभ्यास करने के पश्चात् आत्म-साक्षात्कार हो गया था।
तारकेश्वर में मैं वहाँ के सुविख्यात मन्दिर की ओर चल पड़ा। हिन्दू लोगों के मन में इस मन्दिर के प्रति नितान्त श्रद्धाभाव है, जैसे फ्रांस में स्थित लूई के पवित्र स्थल के प्रति कैथोलिक ईसाइयों के मन में है। तारकेश्वर में रोग निवारण के असंख्य चमत्कार घटित हुए हैं जिनमें से एक मेरे परिवार के एक सदस्य के साथ भी हुआ था।
“मैं मन्दिर में पूरे एक सप्ताह तक बैठी रही ”, मेरी सबसे बड़ी चाची ने मुझे बताया था। “पूर्ण उपवास करते हुए मैं तुम्हारे शारदा चाचा की एक जीर्ण रोग से मुक्ति के लिये प्रार्थना करती रही। सातवें दिन मेरी अंजलि में अपने आप एक बूटी प्रकट हो गयी! मैंने उसका काढ़ा तैयार किया और तुम्हारे चाचा को पिला दिया। उनका रोग तत्क्षण गायब हो गया और फिर कभी प्रकट नहीं हुआ।”
मैंने तारकेश्वर के पवित्र मन्दिर में प्रवेश किया। उस मन्दिर में एक गोल पत्थर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। उसकी अनादि और अनन्त परिधि अनन्त ब्रह्म का उचित प्रतीक है। भारत में एक अनपढ़ किसान भी निराकार ब्रह्म की संकल्पना को समझता है; वस्तुतः पाश्चात्यों ने यदाकदा उस पर कल्पना जगत् में जीने का आरोप भी लगाया है !
मेरी अपनी मनस्थिति उस समय इतनी वैराग्यपूर्ण थी कि उस पत्थर के आगे नतमस्तक होने की मेरी इच्छा नहीं हुई। मुझे लगा कि ईश्वर को केवल अपनी आत्मा में ही ढूंढा जाना चाहिये।
मैं वहाँ प्रणाम किये बिना ही मन्दिर से बाहर आ गया और निकट स्थित रणबाजपुर की ओर द्रुतगति से चल पड़ा। रास्ते में मिले एक व्यक्ति से जब मैंने रणबाजपुर का रास्ता पूछा तो वह दीर्घ चिंतन में डूब गया।
“आगे एक चौराहा आयेगा, वहाँ दाहिने मुड़ जाओ और चलते जाओ,” उसने प्रश्नदेवता की गहन भावभंगिमा में अन्ततः उच्चारण किया।
उसके दिशा-निर्देश का पालन करते हुए मैं एक नहर के किनारे किनारे चलता गया। चलते-चलते अन्धेरा हो गया। जंगल में बसे गाँव के बाहर का इलाका चमकते जुगनुओं और आस-पास मँडराते सियारों की “हुआ-हुआ” से सजीव हो उठा। चाँद का प्रकाश इतना मंद था कि उसमें रास्ता दिखायी देना कठिन हो रहा था। दो घण्टे तक मैं ठोकरें खाता रहा।
आहा! गाय के गले में बँधी घण्टी की वह आल्हादक ध्वनि ! मेरे बारम्बार ज़ोर-ज़ोर से पुकारने पर आखिर एक किसान मेरे पास आ गया। “मैं रामगोपाल बाबू की खोज में हूँ।”
“इस नाम का कोई व्यक्ति हमारे गाँव में नहीं रहता। उस आदमी ने कटु स्वर में कहा। “तुम शायद झूठ बोल रहे हो और कोई जासूस हो।”
उसके राजनीतिक आशंकाओं से व्यथित मन से सन्देह दूर करने की आशा से मैंने हृदयस्पर्शी ढंग से अपनी रामकहानी उसे सुनायी। वह मुझे अपने घर ले गया और उसने मेरी अच्छी आवभगत की।
“रणबाजपुर तो यहाँ से काफी दूर है,” उसने कहा। “चौराहे पर तुम्हें बायें मुड़ना चाहिये था, दाहिने नहीं।”
खिन्न मन से मैं सोचने लगा, मुझे रास्ते में मिलकर दिशानिर्देश देने वाला वह पहला आदमी अनभिज्ञ पथिकों के लिये एक निश्चित अभिशाप था। मोटे चावल का भात, मसूर की दाल और आलू और कच्चे केले की रसदार सब्जी के स्वादिष्ट भोजन के बाद आँगन से सटी एक छोटी-सी झोंपड़ी में मैं सोने के लिये चला गया। दूर कहीं पर गाँव के लोग मृदंगों और करतालों की ध्वनि के साथ उच्च स्वर में कीर्तन कर रहे थे। उस रात नींद आने का तो प्रश्न ही नहीं था; मैं एकान्तवासी योगी रामगोपाल के पास पहुँच जाने के लिये गहरी प्रार्थना करता रहा।
जैसे ही मेरी झोंपड़ी के छिद्रों से उषा की पहली किरण अन्दर आयी, मैं रणबाजपुर के लिये निकल पड़ा। धान के ऊबड़-खाबड़ खेतों मैं में से कटे हुए धान के ढूँठों पर और सूखी मिट्टी के बड़े-बड़े ढेलों से बचता-बचाता मैं धीरे-धीरे चलता जा रहा था। यदा-कदा मिल जाने वाला कोई किसान मुझे पूछने पर एक ही उत्तर देता कि रणबाजपुर “बस एक ही कोस (दो मील) दूर है।” छह घंटों में सूर्य ने क्षितिज से मध्याकाश की अपनी यात्रा तय कर ली, परन्तु मुझे अब लगने लगा था कि मैं रणबाजपुर से सदा के लिये एक कोस दूर ही रहूँगा।
दोपहर भी आधी ढल गयी, तब भी मेरा विश्व अंतहीन धान खेतों में ही सिमट कर रह गया था। आकाश से हो रही अग्नि-वर्षा से बचने का कोई उपाय नहीं था और उसकी दाहकता ने मुझे लगभग चक्कर खाकर गिर पड़ने की अवस्था तक पहुँचा दिया था। मैंने एक आदमी को आराम से टहलते हुए अपने पास आते देखा। अब मुझे उससे फिर वही प्रश्न पूछने का साहस भी नहीं हो रहा था, कि कहीं फिर “बस एक कोस” का उत्तर न मिले।
वह आदमी मेरे पास आकर रूक गया। नाटे कद और दुबले-पतले शरीर का वह आदमी अपनी हृदयवेधी काली तेजस्वी आँखों के अतिरिक्त दिखने में पूर्णतः अप्रभावशाली था।
“मैं रणबाजपुर से जाने वाला था परन्तु तुम्हारा उद्देश्य अच्छा था, इसलिये मैंने तुम्हारी प्रतीक्षा की।” मेरे विस्मयचकित चेहरे के आगे उँगली नचाते हुए उसने आगे कहा, “तुम बिना सूचित किये मुझ पर झपट पड़ने की चतुराई दिखाना चाहते थे न ? उस प्राध्यापक बिहारी को कोई अधिकार नहीं था कि वह तुम्हें मेरा पता दे दें।”
इस सिद्ध को अपना परिचय देना अब केवल शब्दाडंबर ही होगा यह सोचकर अपने ऐसे स्वागत पर कुछ दुःखित अन्तःकरण से मैं अवाक् खड़ा रहा। अचानक उन्होंने अगला प्रश्न कियाः
“अच्छा बताओ तो, तुम्हारे विचार में भगवान कहाँ है ?”
“क्यों ? वह मेरे भीतर और सर्वत्र है।” निश्चय ही मेरी व्याकुलता मेरे चेहरे पर पूर्णतः प्रकट हो रही थी।
“सर्वव्यापी, हाँ?” वे दबी हँसी हँसें। “तब क्यों, युवक महोदय, तुमने कल तारकेश्वर मन्दिर में प्रस्तर-प्रतीक में विद्यमान ब्रह्म के आगे सिर नहीं झुकाया?¹ तुम्हारे अभिमान के कारण ही तुम्हें उस पथिक द्वारा, जिसने दाहिने-बायें के सूक्ष्म भेदों की चिंता ही नहीं की, गलत दिशानिर्देश दिये जाने का दण्ड मिला। आज भी तुम्हें काफी मुसीबतें झेलनी पड़ी हैं!”
मैं इस बात से विस्मय-विभोर था कि मेरे सामने खड़े अतिसामान्य दिखनेवाले उस शरीर में सर्वव्यापी दृष्टि छुपी हुई थी, और उनकी बात से मैं पूर्णतः सहमत हुआ। योगी से एक व्यथा-निवारक शक्ति निःसृत हो रही थी; मैं उस दाहक खेत में भी तत्क्षण ताजगी अनुभव करने लगा।
“भक्त में यह सोचने की प्रवृत्ति होती है कि उसने जो मार्ग अपनाया है वही ईश्वर प्राप्ति का एकमेव मार्ग है,” उन्होंने कहा। “योग, जिससे अपने भीतर ही ईश्वर मिल जाता है, निस्संशय सर्वोच्च मार्ग है, जैसा कि लाहिड़ी महाशय ने हमें बताया है। परन्तु भीतर ईश्वर की प्राप्ति हो जाने पर हम शीघ्र ही बाहर भी उसकी अनुभूति करते हैं। तारकेश्वर तथा अन्य स्थानों के पवित्र मन्दिरों के प्रति उन्हें आध्यात्मिक शक्ति के केन्द्र मानकर जो श्रद्धाभाव लोगों में है वह बिल्कुल सही है।”
योगीवर की आलोचनात्मक वृत्ति अब अन्तर्हित हो गयी; उनके नेत्र करुणार्द्रता से स्निग्ध हो उठे। उन्होंने मेरा कंधा थपथपाया।
“छोटे योगी, मैं देख रहा हूँ कि तुम अपने गुरु से दूर भाग रहे हो। उनके पास वह सब कुछ है जिसकी तुम्हें आवश्यकता है; तुम्हें उनके पास लौट जाना चाहिये।” आगे उन्होंने कहा, “पर्वत तुम्हारे गुरु नहीं बन सकते” दो दिन पहले श्रीयुक्तेश्वरजी द्वारा प्रकट किया गया वही विचार।
“सिद्ध जन केवल पर्वतों में ही निवास करें, ऐसा कोई विधि का विधान नहीं है।” मेरी ओर रहस्यपूर्ण दृष्टि से देखते हुए वे कहते जा रहे थे: “भारत और तिब्बत के हिमालय शिखरों का सन्तों पर कोई एकाधिकार नहीं है। जिसे अपने अन्दर पाने का कष्ट न किया जाय, उसे शरीर को यहाँ-वहाँ ले जाने से प्राप्त नहीं किया जा सकता। जैसे ही साधक आध्यात्मिक ज्ञानलाभ के लिये विश्व के अंतिम छोर तक भी जाने को तैयार हो जाता है, उसका गुरु उसके पास ही प्रकट हो जाता है।”
मन ही मैं इस बात से सहमत हो गया। मुझे काशी के उस आश्रम में की हुई अपनी प्रार्थना का स्मरण हो आया जिसके बाद भीड़-भाड़ से भरी एक गली में श्रीयुक्तेश्वरजी से मेरी भेंट हुई थी।
“क्या तुम एक ऐसे छोटे से कमरे की अपने लिये व्यवस्था कर सकते हो जिसका दरवाजा बंद कर तुम अन्दर एकान्त में रह सको ?"
“जी, हाँ।” मेरे मन में यह विचार उभर आया कि ये सन्तवर इतनी विलक्षण गति से सामान्य स्तर की बातों से व्यक्तिगत स्तर पर उतर आते है।
“तो वही तुम्हारी गुफ़ा है।” योगिराज ने ज्ञान जगा देने वाली एक ऐसी दृष्टि मुझ पर डाली कि मैं उसे आज तक नहीं भूल पाया। “वही तुम्हारा पावन पर्वत है। वहीं तुम्हें ईश्वर की प्राप्ति होगी।”
उनके इन सरल शब्दों ने हिमालय के लिये मेरे मन में बैठी तीव्र आसक्ति एक पल में समाप्त कर दी। धान के एक दाहक खेत में मैं पर्वतों और अनंत बर्फ के स्वप्न से जाग गया।
“युवक महोदय, तुम्हारी ईश्वर-लालसा प्रशंसनीय है। मैं तुम्हारे प्रति तीव्र प्रेम अनुभव कर रहा हूँ।” रामगोपाल बाबू ने मेरा हाथ अपने हाथ ने में पकड़ा और जंगल में बनी खुली जगह में बसी एक छोटी-सी विचित्रसी लगने वाली बस्ती में मुझे ले गये। इस बस्ती में घर मिट्टी के बने हुए थे जिनकी छतें नारियल के पत्तों से बनी थीं। प्रवेश द्वारों को ताजे फूलों से सजाया गया था।
अपनी छोटीसी कुटीर में ले जाकर सन्त महाराज ने मुझे एक बाँस के मचान पर बैठाया। मुझे उन्होंने नींबू का शरबत और मिश्री का एक टुकड़ा दिया; तत्पश्चात् हम उनके आँगन में गये और पद्मासन लगाकर ध्यानस्थ हो गये। ध्यान में चार घंटे बीत गये। मैंने आँखें खोलकर देखा तो चंद्रमा के प्रकाश में योगिराज की मूर्त्ति निश्चल बैठी थी। मैं अपने पेट को दृढ़तापूर्वक याद दिला रहा था कि मनुष्य केवल अन्न से ही जीवित नहीं रहता, तभी रामगोपाल अपने आसन से उठ गये।
“मैं देख रहा हूँ कि तुम्हें बहुत ज़ोर से भूख लगी है,” उन्होंने कहा। मैं देख रहा हूँ कि तुम्हें बहुत ज़ोर से भूख लगी है, उन्होंने कहा। “भोजन अभी तैयार हो जायेगा।”
आँगन में ही उन्होंने मिट्टी के एक चूल्हे में आग जलायी। थोड़ी ही देर में हम केले के विशाल पत्तों पर चावल और दाल खा रहे थे। उन्होंने खाना बनाने में मेरी ओर से कोई सहायता स्वीकार नहीं की थी। “अतिथि देवो भव”² की हिन्दू लोकोक्ति का भारत में अनादिकाल से श्रद्धापूर्वक पालन किया जाता रहा है। बाद में अपनी विश्व भ्रमण यात्राओं में मैं यह देखकर अत्यन्त आनन्दित हुआ कि अनेक देशों के देहाती इलाकों में अतिथियों का इसी प्रकार सम्मान किया जाता है। शहरी लोगों में अपरिचित चेहरों की अति बहुलता के कारण अतिथिसेवा का उत्साह ठंडा पड़ गया है।
उस छोटी-सी जंगल-बस्ती के एकान्त में योगीवर के पास बैठे-बैठे मनुष्यों की भीड़-भाड़ से भरे स्थान कल्पनातीत रूप से सुदूर लग रहे थे। कुटीर का वह छोटा-सा कमरा एक मृदु प्रकाश में रहस्यमय रूप से आलोकित लग रहा था। रामगोपाल ने मेरा बिस्तर बनाने के लिये कुछ फटे कंबल ज़मीन पर बिछा दिये और स्वयं एक चटाई पर बैठ गये। उनके आध्यात्मिक आकर्षण से विभोर होकर मैंने साहस बटोरकर एक निवेदन उनसे किया।
“महाराज! मुझे आप समाधि क्यों नहीं प्रदान कर देते ?”
“प्रिय वत्स! मैं खुशी से तुम्हें यह ईश-सम्पर्क करा देता परन्तु उसका मुझे अधिकार नहीं है।” उन्होंने अर्धोन्मीलित नेत्रों से मेरी ओर देखा। “शीघ्र ही तुम्हारे गुरुदेव तुम्हें वह अनुभव प्रदान कर देंगे। इस क्षण तुम्हारा शरीर उसके लिये तैयार नहीं है। छोटे से विद्युत् बल्ब में अत्यधिक वोल्टेज की विद्युत् छोड़ दी जाय तो उसके जैसे परखच्चे उड़ जायेंगे, उसी प्रकार तुम्हारी नाड़ियाँ भी अभी महाप्राण के उस अत्यधिक भारी प्रवाह को सहन करने के योग्य नहीं बनी हैं। इसी समय यदि मैं तुम्हें समाधि दे दूँ तो तुम ऐसे जलोगे कि मानो तुम्हारे शरीर की प्रत्येक कोशिका में आग लग गयी हो।
“तुम मुझ से ब्रह्मज्ञान चाहते हो,” योगीवर सोच में डूबे हुए आगे कहते जा रहे थे, “जब कि जितना नगण्य व्यक्ति मैं हूँ और जितनी अत्यल्प ध्यान-धारणा मैंने की है, उससे मैं स्वयं इस अचरज में हूँ कि क्या मैं भगवान को प्रसन्न करने में सफल हो पाया हूँ? और उसकी दृष्टि में अंतिम मूल्यांकन के समय मेरा मूल्य क्या होगा ?”
“महाराज, क्या आप लम्बे समय से अनन्यभाव से ईश्वरप्राप्ति का प्रयास नहीं करते आ रहे हैं?”
“मैंने कुछ खास नहीं किया है। बिहारी ने तुम्हें मेरे जीवन के विषय में अवश्य ही कुछ बताया होगा। बीस साल तक मैं एक निर्जन गुफ़ा में प्रतिदिन १८ घंटे ध्यान करता था। फिर मैं उससे भी अधिक दुर्गम क्षेत्र में एक गुफ़ा में जाकर पच्चीस साल तक रहा। वहाँ मैं प्रतिदिन बीस घंटे यौगिक ध्यान में लीन रहता था। मुझे निद्रा की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि मैं सदा ईश्वर के साथ ही रहता था। निद्रा की साधारण अवचेतन अवस्था की आंशिक शान्ति से मेरे शरीर को जितना विश्राम मिलता उससे कहीं अधिक समाधि की अधिचेतन अवस्था की पूर्ण शान्ति में मिलता था।
“निद्रावस्था में मांसपेशियों को विश्राम मिलता है परन्तु हृदय, फेफड़े और रक्त संचारण प्रणाली निरन्तर कार्यरत रहती है; उन्हें कोई विश्राम नहीं मिलता। अधिचेतन अवस्था में सभी आंतरिक अवयव भी महाप्राण की शक्ति से आवेशित होकर निष्क्रिय जीवन्तता की अवस्था में स्थिर रहते हैं। ऐसी अवस्थाओं के कारण वर्षों से निद्रा मेरे लिये अनावश्यक हो गयी हैं।”
फिर उन्होंने कहा, “एक समय आयेगा जब तुम्हें भी निद्रा की आवश्यकता नहीं रहेगी हैं।”
“हे भगवान! आप इतने लम्बे समय से इतनी अधिक ध्यान-धारणा करते आ रहे हैं और अभी भी आपको निश्चित पता नहीं कि आपने प्रभु को प्रसन्न कर दिया है या नहीं?” मैंने आश्चर्य से कहा। “फिर हम जैसे साधारण लोगों का क्या होगा ?”
“क्या तुम नहीं समझ रहे हो वत्स, कि ईश्वर स्वयं अनंत काल है ? यह सोचना कि केवल पैंतालीस वर्षों की ध्यान-धारणा से कोई उसे पूर्ण रूप से जान लेगा, असंगत अपेक्षा रखना है। तथापि बाबाजी हमें यह विश्वास अवश्य दिलाते हैं कि थोड़ी-सी ध्यान-धारणा भी मृत्युभय और परलोक की अवस्था के भय से हमारा रक्षण करती है। तुच्छ पर्वतों को अपना आध्यात्मिक आदर्श न बनाकर निर्गुण ईश्वर प्राप्ति के तारे पर अपना लक्ष्य केन्द्रित करो। यदि कठिन परिश्रम करोगे तो वहाँ पहुँच जाओगे।”
इस सम्भावना से रोमांचित होकर मैंने उनसे कुछ और ज्ञानोपदेश करने की याचना की। उन्होंने लाहिड़ी महाशय के गुरु बाबाजी के साथ अपनी प्रथम भेंट की अद्भुत कहानी सुनायी। लगभग मध्यरात्रि होने पर तब रामगोपाल मौन हो गये और मैं अपने कंबलों पर लेट गया। जब मैंने आँखें बन्द कीं तो मुझे बिजलियाँ कौंधती दिखायी देने लगी; मेरे अन्दर का विशाल अन्तराल जैसे पिघले हुए प्रकाश से भर गया। मैंने आँखें खोलीं तो वही चुँधियाने वाला प्रकाश दिखायी दे रहा था। वह कुटीर उस अनन्त महाकाश का एक छोटा सा हिस्सा बन गयी थी, जिसे मैं अपनी अंतर्दृष्टि से देख रहा था।
तभी योगिराज ने कहाः “तुम सोते क्यों नहीं?”
“महाराज! मैं कैसे सो सकता हूँ जब मेरे चारों ओर बिजलियाँ कौंध रही हों, चाहे मेरी आँखें बन्द हों या खुलीं?”
“तुम धन्य हो जो तुम्हें यह अनुभव मिल रहा है। इन आध्यात्मिक प्रभा-किरणों का दर्शन आसानी से नहीं होता।” फिर उन्होंने स्नेह के कुछ और शब्द कहे।
उषाकाल होने पर रामगोपाल ने मुझे मिश्री के कुछ टुकड़े दिये और वापस लौट जाने के लिये कहा। उनसे विदा लेने में मुझे इतना दुःख हो रहा था कि अश्रु मेरे गालों पर बहने लगे।
“मैं तुम्हें खाली हाथ नहीं जाने दूंगा,” योगिराज ने दयार्द्र होकर कहा। “मैं तुम्हारे लिये कुछ अवश्य करूँगा।”
वे मुस्काराये और उन्होंने अपनी दृष्टि मुझ पर स्थिर की। मैं निश्चल हो गया, मानो ज़मीन से चिपक गया होऊँ। उनसे निःसृत होने वाली शान्ति की धाराओं ने मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व को आप्लावित कर दिया। तत्क्षण मेरी पीठ का दर्द ठीक हो गया जो अनेक वर्षों से बीच-बीच में मुझे तकलीफ़ देता रहता था।
ज्योतिर्मय आनन्द के सागर में नहा कर नव उल्लास प्राप्त करने से अब मेरा रूदन बंद हो गया। रामगोपाल की चरणवंदना करके मैं जंगल में प्रवेश कर गया। जंगल की उलझती झाड़ियों में से रास्ता बनाते हुए कई धान खेतों को पार करता हुआ आखिर मैं तारकेश्वर पहुँचा।
तारकेश्वर में दूसरी बार मैं अब मन्दिर गया और वहाँ भगवान के सामने साष्टांग दण्डवत किया। वह गोल पत्थर मेरी अंतर्दृष्टि के सामने आकार में बढ़ता गया और आकाशपिंड बन गया जिसमें वलयों पर वलय, अंचलों पर अंचल, सभी ईश्वर की प्रभा से ओतप्रोत लग रहे थे। एक घंटे बाद मैं खुशी-खुशी कोलकाता की गाड़ी में बैठ गया। मेरी उत्तुंग पर्वतों में नहीं बल्कि अपने गुरु के
यात्राओं का अन्त हो गया
हिमालय सदृश व्यक्तित्व के चरणों में।
¹ [“जो किसी के सामने नहीं झुकता वह स्वयं अपना बोझ भी कभी नहीं वहन कर सकता।” – दोस्तोयेवस्की, “द पजेस्ड” में।]
² [तैनिरीयोपनिषद १-११-२]