एक योगी की आत्मकथा - 5 Ira द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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एक योगी की आत्मकथा - 5

{ गंधबाबा के चमत्कारी प्रदर्शन }

“इस संसार में हर वस्तु की एक विशेष ऋतु और हर काम का एक समय होता है।” ¹

अपने मन को सांत्वना देने के लिये सोलोमन ² का यह ज्ञान उस समय मुझे प्राप्त नहीं था; घर से बाहर जहाँ कहीं भी मैं घूमने जाता, मेरी आँखें अपने इर्दगिर्द मेरे लिये नियत गुरु को ढूंढती रहतीं। परन्तु मेरी हाई स्कूल की पढ़ाई पूर्ण होने तक मेरी उनसे भेंट न हो सकी।

अमर के साथ हिमालय की ओर पलायन और श्रीयुक्तेश्वर जी के मेरे जीवन में आगमन के महान् दिवस के बीच दो वर्ष व्यतीत हो गये। इस बीच में अनेक साधु संतों से मिला— गंधबाबा, बाघस्वामी, नागेन्द्रनाथ भादुड़ी, मास्टर महाशय, और विश्वविख्यात बंगाली वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बोस।

गंधबाबा के साथ मेरी भेंट की दो भूमिकाएँ थीं; इनमें से एक सामंजस्यपूर्ण थी और दूसरी विनोदपूर्ण।

“ईश्वर सरल है। अन्य सब कुछ जटिल है। प्रकृति के सापेक्ष जगत् में निरपेक्ष मूल्यों की आशा मत करो।”

जब मैं मन्दिर में काली माता³ की मूर्ति के सामने मौन खड़ा था तब यह दार्शनिक निष्कर्ष कोमल स्वर में मेरे कानों में प्रविष्ट हुआ। पलटकर मैंने देखा तो मेरे समक्ष एक लम्बे कद का व्यक्ति खड़ा था जिसके कपड़ों से, या उनके अभाव से, ऐसा लगता था कि वह कोई परिव्राजक साधु था ।

“आपने सचमुच मेरे विचारों के संभ्रम को जान लिया !” मैं कृतज्ञतापूर्वक मुस्कराया। “प्रकृति के कल्याणकर और भयंकर रूपों की उलझन ने, जिनका प्रतीक काली है, मुझसे अधिक बुद्धिमान लोगों को भी असमंजस में डाल दिया है।”

“बहुत ही कम लोग उसके रहस्य का भेद पाते हैं ! अच्छा और बुरा तो प्रत्येक मनुष्य की बुद्धि को चुनौती देनेवाली वह पहेली है जिसे जीवन ने उसके सामने एक स्फिंक्स'⁴ की भाँति रख दिया है। इस पहेली को सुलझाने का कोई प्रयास भी किये बिना अधिकाँश लोग अपनी मृत्यु के रूप में इसका दंड भर देते हैं। यह दंड आज भी उतना ही लागू होता है। जितना थीबस के दिनों में था। कभी-कभार एकाध अत्यन्त उच्च व्यक्तित्व पराजय अस्वीकार कर देता है। द्वैत की माया⁵ से वह अद्वैत का अविभाजित सत्य खींच लेता है।”

“आप के शब्दों में दृढ़ विश्वास दिखता है, महाराज !”

“ज्ञानप्राप्ति के तीव्र दुःखदायी मार्ग, अर्थात् सत्यनिष्ठ आत्मपरीक्षण का मैंने दीर्घकाल तक अभ्यास किया है। आत्मपरीक्षण या अपने विचारों पर निरन्तर निर्मम दृष्टि रखना, एक कठोर और झकझोरने वाला अनुभव है। यह बलवान से बलवान अंहकार को भी चूर-चूर कर देता है। परन्तु सच्चा आत्मविश्लेषण गणित के नियमों की भाँति सिद्ध पुरुष उत्पन्न करने का कार्य करता है। अपने विचारों से अति प्रेम एवं व्यक्तिगत मान्यताओं में दृढ़ता का मार्ग अहंकारियों का निर्माण करता है जो ईश्वर और सृष्टि की अपने ढंग से व्याख्या करना अपना अधिकार समझते हैं।”

“ऐसी अहंकारयुक्त मौलिकता के सामने तो सत्य निश्चित ही विनम्रतापूर्वक पीछे हट जाता है”, मैंने कहा। मुझे इस चर्चा में आनंद आ रहा था।

“मनुष्य जब तक अपने दुराग्रहों से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक वह किसी शाश्वत सत्य को नहीं समझ सकता। शताब्दियों से जमा हो रहे कीचड़ में सना मानवी मन असंख्य सांसारिक मायाभ्रमों से व्याप्त घृणाजनक जीवन से भरपूर है। यहाँ युद्धक्षेत्र की भीषण लड़ाई भी फीकी पड़ जाती है जब मनुष्य पहली बार अपने अन्तःशत्रुओं का विरोध करता है। ये कोई साधारण मरने वाले शत्रु नहीं हैं जिन्हें सुसज्जित सेनाओं की सहायता से काबू में किया जा सके। विषाक्त प्राणघातक अस्त्रों से सुसज्जित ये सर्वव्यापी, अविराम कार्य करनेवाले अन्ध वासनाओं के सिपाही मनुष्य का नींद में भी पीछा करते हुए हम सब को धराशायी कर देने का अवसर खोजते रहते हैं। विचारहीन है वह मनुष्य जो सर्वसामान्य नियति के आगे आत्मसमर्पण कर अपने आदर्शों का गला घोट देता है। क्या उसे नपुंसक, निष्प्राण, मानवजाति पर कलंक के अतिरिक्त और कुछ कहा जा सकता है ?”

“पूज्यवर! क्या विभ्रान्त, किंकर्तव्यविमूढ़ जनसाधारण के लिये आपके मन में कोई सहानुभूति नहीं है? ”

साधु महाराज पलभर के लिये चुप रहे, फिर सीधा उत्तर देना टालकर बोले:
“अदृश्य ईश्वर, जो सारे सद्गुणों का भण्डार है, और दृश्यमान मनुष्य, जिसमें प्रायः एक भी सद्गुण नज़र नहीं आता इन दोनों से एक साथ प्रेम करना प्रायः व्यक्ति को चकरा देता है। परन्तु विलक्षण बुद्धि का सामर्थ्य भी कम नहीं होता। अन्तःकरण का शोध शीघ्र ही सब लोगों के मन की एकता को प्रकट कर देता है– स्वार्थी उद्देश्यों की समानता। कम से कम इस एक अर्थ में मानव की विश्वबंधुता का परिचय मिलता है। अहंकार को पूर्णतः पछाड़ देने वाला यह समानता का आविष्कार मनुष्य के मन में भयचकित विनम्रता उत्पन्न करता है। यह विनम्रता विकसित होते-होते आत्मा की निरामयकारिणी शक्तियों के अनुसन्धान की ओर कोई ध्यान न देनेवाले अपने जातिबांधवों के प्रति सहानुभूति में परिवर्तित हो जाती है।”

“महाराज! सब युगों के सन्त आप ही के समान जगत् के दुःखों से व्याकुल हुए हैं।”

“केवल तुच्छ व्यक्ति ही दूसरों के जीवन के दुःखों के प्रति संवेदनशीलता खो बैठता है क्योंकि वह अपने ही संकीर्ण दुःखों में डूबा रहता है। साधु का उग्र रूप काफी सौम्य हो गया था। जो किसी डॉक्टर द्वारा की जानेवाली चीर-फाड़ की भाँति अपने विचारों की चीरफाड़ कर मन का गहरा परीक्षण करेगा, वही अपने भीतर सबके लिये दया विकसित होती देखेगा। तब उसे अहंकार की नित्य कोलाहलकारी माँगों से मुक्ति मिल जायेगी। ऐसी ही मनोभूमि पर ईश्वर का प्रेम खिलता है। तब वह जीव अपने स्रष्टा की ओर मुड़ता है, किसी और बात के लिये नहीं तो केवल अपनी व्यथा की तड़प में यह पूछने के लिये : ‘क्यों, प्रभु, क्यों ?’ दुःख के मानमर्दनकारी कोड़े खा-खाकर मनुष्य अंततः उस विधाता के समक्ष पहुँच ही जाता है जिसका सौन्दर्य मात्र ही मनुष्य को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिये पर्याप्त है।”

उक्त साधु और मैं कोलकाता के कालीघाट मन्दिर में वार्तालाप कर रहे थे जहाँ मैं उस मन्दिर का विख्यात सौन्दर्य एवं भव्यता देखने गया था। मन्दिर की अलंकारिक शोभा की ओर हाथ से इशारा करते हुए उस सारे वैभव को साधु ने निष्प्रयोज्य ठहराया।

“ईंटें और गारा हमें कोई श्रवणीय सुर नहीं सुना सकते; केवल अन्तर से उठने वाली आवाज़ से ही हृदय के कपाट खुलते हैं। ”

मन को आकृष्ट करनेवाली धूप का आनंद लेने के लिये हम प्रवेश द्वार की ओर गये जहाँ भक्तों के झुण्डों का आवागमन चल रहा था।

“तुम अभी युवा हो। साधु महाराज कुछ सोचते हुए मेरी ओर देख रहे थे। भारत भी युवा है। प्राचीन ऋषियों ने आध्यात्मिक जीवन शैली के अमिट आदर्श स्थापित किये थे। उनके महान् उपदेश आज के समय और देश के लिये पर्याप्त हैं। उनके अनुशासन नियम न तो आज के लोकाचार के विरुद्ध हैं, न ही ऐसे हैं कि भौतिकवाद की धूर्तता को भी कृत्रिम लगें और इसीलिये आज भी भारत पर उनकी पकड़ मजबूत है। सहस्राब्दियों से लज्जित पंडितगण जितने काल का हिसाब लगा सकते हैं, उससे भी कहीं अधिक काल से संशयशील समय ने वेदों की योग्यता की पुष्टि की है। इन्हें अपनी विरासत के रूप में ग्रहण करो।”

जब मैं इस वाक्पटु साधु से सविनय विदा ले रहा था तब उन्होंने एक अतींद्रिय अनुभूति मुझे बताई :
“यहाँ से जाने के बाद तुम्हें आज एक असाधारण अनुभव होगा।”

मन्दिर के अहाते से बाहर निकल कर मैं निरुद्देश्य यूँ ही चलने लगा। मुड़कर दूसरे एक रास्ते पर बढ़ा ही था कि एक पुराने परिचित से भेंट हो गयी। ये महाशय उन महाभागों में से एक थे जिनकी संभाषण शक्ति समय की ओर कोई ध्यान न देते हुए अनंत काल का आलिंगन करती है।

“मैं तुम्हें जल्दी ही छोड़ दूँगा”, उसने वचन दिया, “यदि तुम जल्दी-जल्दी मुझे हमारे बिछुड़ने के बाद के वर्षों में क्या-क्या हुआ वह सब बता दो।”

“ परस्परविरोधी बातें ! अब तो मुझे जाना ही पड़ेगा। ”

परन्तु उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और थोड़ा-थोड़ा करके मुझसे जानकारी लेने लगा। ये भूखे भेड़िये से कम नहीं है, मैंने कौतुक से मन ही मन सोचा; जितना अधिक मैं बताता जाता था उतना ही अधिक समाचार जानने की उसकी भूख बढ़ती जाती थी। मन ही मन मैं जल्दी छुटकारा पाने का कोई उपाय करने की प्रार्थना माँ काली से करने लगा।

अचानक वह मुझे छोड़कर जाने लगा। मैंने ठंडी साँस ली और उसे वाचालता का ज्वर फिर कहीं चढ़ न आये, इस भय से दुगुनी गति से चलने लगा। अपने पीछे द्रुतगति की पदचाप सुनकर मैंने अपनी गति और बढ़ा दी। मुड़कर पीछे देखने का साहस मुझसे नहीं हुआ। परन्तु एक छलाँग लगाकर वह मेरे साथ हो लिया और आनन्द से उसने मेरा कंधा पकड़ लिया।

“मैं तुम्हें गन्धबाबा के बारे में बताना तो भूल ही गया। वे उस सामने वाले मकान में रहते हैं। कुछ ही गज की दूरी पर स्थित एक मकान की ओर उसने इशारा किया। उनसे अवश्य मिलो; बड़े दिलचस्प आदमी हैं। तुम्हें कोई असाधारण अनुभव हो सकता है। अच्छा! चलता हूँ”, और वह सचमुच चला गया।

कालीघाट मन्दिर में लगभग इन्हीं शब्दों में साधु द्वारा की गयी भविष्यवाणी मेरे मस्तिष्क में कौंध उठी। कौतुहलवश मैं उस मकान के अन्दर गया तो मुझे एक प्रशस्त दालान में ले जाया गया। वहाँ एक मोटे नारंगी रंग के गलीचे पर काफ़ी लोग इधर-उधर बैठे हुए थे, जैसे साधारणतः भारत में बैठते हैं। एक आदरयुक्त फुसफुसाहट मेरे कानों से टकरायी :

“वहाँ जो चीते की खाल पर बैठे हैं, वही गन्धबाबा हैं। वे किसी गन्धहीन फूल में किसी भी फूल की प्राकृतिक सुगन्ध भर सकते हैं या किसी मुरझाये फूल को फिर से ताज़ा कर सकते हैं या किसी मनुष्य की त्वचा से मनोरम सुगन्ध निकलवा सकते हैं।”

मैंने सीधे उस संत की ओर देखा; उनकी दृष्टि भी उसी समय मुझपर स्थिर हुई। वे कृष्णवर्ण और स्थूलकाय थे। उनके चेहरे पर दाढ़ी थी और आँखें बड़ी-बड़ी तथा तेजस्वी थी।

“बेटा! तुम्हें देखकर मैं प्रसन्न हुआ। बोलो तुम्हें क्या चाहिये ? कोई सुगन्ध चाहिये ?”

“किसलिये ?” मुझे उनकी बातें बचकानी-सी लगीं ।

“चमत्कारपूर्ण ढंग से सुगन्ध का आनन्द लेने के लिये।”

“सुगन्ध बनाने के लिये भगवान का उपयोग ?”

“तो उसमें क्या है ? भगवान वैसे भी सुगन्ध तो बनाते ही हैं।”

“जी हाँ! परन्तु वे हर बार ताज़ा सुगन्ध लेने के लिये और लेने के बाद फेंक देने के लिये फूलों की कोमल पँखुड़ियों रूपी शीशियों का निर्माण करते हैं। क्या आप फूलों का निर्माण कर सकते हैं ?”

“हाँ! परन्तु साधारणतः मैं सुगन्ध ही निकालता हूँ।”

“तब तो इत्र के कारखाने बंद हो जायेंगे।”

“मेरी ओर से उन्हें अपना धन्धा करते रहने की अनुमति है ! मेरा अपना उद्देश्य तो केवल ईश्वर की शक्ति दिखाना है।”

“महाराज! क्या ईश्वर की शक्ति का प्रमाण देना आवश्यक है ? क्या वे सकल विश्व में सर्वत्र अपने चमत्कार नहीं कर रहे हैं ?”

“कर रहे हैं, परन्तु उनकी अनन्त सृजनात्मक विविधता में से कुछ तो सृजनात्मकता हमें भी प्रकट करनी चाहिये।”

“यह सिद्धि प्राप्त करने में आपको कितना समय लगा ?”

“बारह वर्ष।”

“दैवी शक्ति से केवल सुगंध बनाने के लिये! हे महात्मन् ! मुझे तो लगता है आपने बारह वर्ष व्यर्थ गँवा दिये। उन सुगंधों के लिये जिन्हें आप किसी भी फूलवाले की दुकान से कुछ ही रुपयों में प्राप्त कर सकते हैं।”

“फूलों की सुगन्ध उनके साथ ही चली जाती है।”

“मृत्यु के साथ भी सुगन्ध चली जाती है। मैं किसी ऐसी सुगन्ध की कामना क्यों करूँ जो केवल शरीर को सुख देती है ?”

“दार्शनिक महाशय! तुमने मेरे मन को प्रसन्न कर दिया। अब अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ाओ। उन्होंने आशीर्वाद-मुद्रा में अपना हाथ उठाया।”

मैं गन्धबाबा से कई गज दूर था; कोई अन्य व्यक्ति भी मेरे इतने निकट नहीं था कि मेरे शरीर का स्पर्श कर सके। मैंने अपना हाथ आगे बढ़ाया जिसे उस योगी ने छुआ तक नहीं।

“कौन-सी सुगंध चाहिये ?”

“गुलाब।”

“तथास्तु।”

मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब मेरी हथेली के मध्य से गुलाब की मधुर सुगंध तीव्रता के साथ निकलने लगी। मैंने मुस्कराते हुए पास ही की एक फूलदानी से एक गंधहीन श्वेत पुष्प निकाल लिया।

“क्या इस गंधहीन फूल में चमेली की सुगन्ध भरी जा सकती है ?”
“तथास्तु।”

तत्क्षण उस फूल से चमेली की सुगन्ध उठी। मैंने चमत्कारी संत का धन्यवाद किया और उनके एक शिष्य के पास जाकर बैठ गया। उस शिष्य ने मुझे बताया कि गंधबाबा ने, जिनका नाम स्वामी विशुद्धानन्द था, तिब्बत के एक योगी से अनेक आश्चर्यजनक सिद्धियाँ प्राप्त कर ली थीं। उसने मुझे यह भी बताया कि उस तिब्बती योगी की आयु एक हजार वर्ष से अधिक थी।

उस महान् गुरु के शिष्य गंधबाबा हमेशा ही केवल साधारण उच्चारण से सुगंध निर्माण नहीं करते जैसा तुमने अभी देखा। शिष्य के बोलने में अपने गुरु के प्रति गर्व प्रकट था। व्यक्ति के स्वभाव के अनुसार वे भिन्न-भिन्न पद्धतियाँ अपनाते हैं। बाबा असामान्य हैं! कोलकाता के अनेक पढ़े-लिखे लोग उनके शिष्य हैं।

मैंने मन ही मन निश्चय किया कि मैं उन शिष्यों की संख्या में अपने को जोड़कर उस संख्या की और अधिक वृद्धि नहीं करूँगा। गुरु का अक्षरशः असामान्य होना मेरे मन के अनुकूल नहीं था। विनम्रता से गंधबाबा का अभिवादन कर मैं वहाँ से निकल पड़ा। घूमते-घूमते घर जाते हुए मैं उस दिन की तीन विविधतापूर्ण घटनाओं के विषय में सोच रहा था।

मैंने जैसे ही घर के द्वार से अन्दर प्रवेश किया, मेरी बहन उमा सामने ही खड़ी थी।

“क्या बात है? आजकल तुम इत्र के बड़े शौकीन बनते जा रहे हो ?”

बिना कुछ बोले मैंने अपना हाथ बढ़ाकर उसे सूँघने का इशारा किया।

“कितनी मोहक गुलाब की सुगन्ध! और यह असाधारण रूप से तीव्र भी है! ”

यह सोचते हुए कि यह तीव्र रूप से असाधारण है, मैंने चुपचाप दैवी रूप से सुगंधित किया गया फूल उसकी नाक के नीचे रखा।

“ओह! चमेली मुझे बहुत पसन्द है!” उसने फूल छीन लिया। जिस फूल के विषय में उसे अच्छी तरह ज्ञात था कि वह गंधहीन होता हैं, उसी फूल में से चमेली की सुगंध आते देखकर, जैसे-जैसे वह उसे सूँघती जाती थी वैसे-वैसे उसके चेहरे पर विनोदी लगनेवाले संभ्रम के भाव प्रकट होते जाते थे। उसकी इस प्रतिक्रिया ने मेरे मन से रहा-सहा सन्देह भी मिटा दिया कि हो सकता है गन्धबाबा ने मुझपर आत्म- सम्मोहन का प्रयोग किया हो जिससे केवल मैं ही सुगन्ध का अनुभव कर सकूँ।

बाद में मुझे अपने एक मित्र अलकानंद से पता चला कि गंधबाबा के पास ऐसी शक्ति भी थी जो यदि संसार के करोड़ों क्षुधा पीड़ितों के पास होती, तो उनकी समस्या हल हो जाती।

“बरद्वान में गंधबाबा के घर में उस समय सैंकडों लोगों में मैं भी उपस्थित था”, अलकानंद ने मुझे बताया। “एक उत्सव था। योगीवर की ख्याति थी कि वे शून्य में से कुछ भी उत्पन्न कर सकते हैं, इसलिये मैंने हँसते हुए उनसे संतरे उत्पन्न करने का अनुरोध किया। वह संतरों का मौसम नहीं था। तत्क्षण ही केले के पत्तों पर जो पूरियाँ परोसी गयी थीं, वे सब फूल उठीं। हर पूरि की पपड़ी के भीतर एक-एक छिला हुआ संतरा आ गया था। मैंने कुछ सहमे-सहमे मन से अपना संतरा खाना शुरू किया, परन्तु वह बड़ा ही स्वादिष्ट था।”

कई वर्षों बाद आत्म-साक्षात्कार के बल से मैं गंधबाबा के चमत्कारों के रहस्य को जान गया। खेद इस बात का है कि वह विधि विश्व के क्षुधार्त मानव-झुण्डों की पहुँच से बाहर है।

मानव को शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध की जो विभिन्न इंद्रियानुभूतियाँ होती हैं, वे इलेक्ट्रोन्स और प्रोटोन्स की स्पन्दनात्मक विविधता के कारण होती हैं। उनके स्पन्दनों को पंचप्राण नियंत्रित करते हैं। ये पंचप्राण आण्विक उर्जाओं से भी सूक्ष्मतर होते हैं और प्रज्ञायुक्त पाँच विशिष्ट संवेदी तन्मात्राओं से युक्त होते हैं।

गंधबाबा कुछ यौगिक प्रक्रियाओं के बल से इस प्राणशक्ति के साथ समरस होकर प्राणकणिकाओं की स्पंदन-रचना में परिवर्तन लाने में और इस प्रकार इच्छित परिणाम प्राप्त करने में समर्थ थे। उनके गन्ध, फल और अन्य चमत्कार केवल सम्मोहन द्वारा उत्पन्न आंतरिक संवेदन नहीं होते थे, बल्कि लौकिक स्पंदनों के वास्तव में मूर्त रूप होते थे।

सम्मोहन विद्या को डाक्टरों द्वारा छोटी-छोटी शल्यक्रियाओं में उन लोगों पर प्रयुक्त किया गया है जिन के लिये बेहोशी की दवाएँ खतरनाक हो सकती हैं। परन्तु जिन पर बार-बार सम्मोहन का प्रयोग किया जाता है। उनके लिये यह हानिकारक होता है। इसका हानिकारक मनोवैज्ञानिक परिणाम कालान्तर में मस्तिष्क की कोशिकाओं की रचना में गड़बड़ उत्पन्न कर देता है। सम्मोहन दूसरे की चेतना के क्षेत्र में अनधिकार प्रवेश है।⁶ इसके अस्थायी आभासों में और ईश्वरानुभूति-सम्पन्न पुरुषों द्वारा किये गये चमत्कारों में कोई समानता नहीं है। ईश्वर में जागृत हुए सच्चे सन्त नित्य सृजन करनेवाले उस विराट स्वप्नद्रष्टा के साथ अपनी इच्छा को मिलाकर इस स्वप्न-सृष्टि में परिवर्तन करते हैं।⁷

गंधबाबा जैसे चमत्कारों का प्रदर्शन करते थे वैसे चमत्कार दिखाने से लोग आकर्षित तो होते हैं, परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से उनका कोई लाभ नहीं होता। मनोरंजन के अतिरिक्त उनका कोई प्रयोजन नहीं होता, अतः ईश्वर की यथार्थ खोज से ये साधक को पथच्युत कर देते हैं।

असाधारण शक्तियों के आडम्बरपूर्ण प्रदर्शन की सिद्धजनों ने निंदा की है। फारस के सन्त अबु सईद ने जल, हवा और अंतरिक्ष पर अपनी चमत्कारी शक्तियों की सत्ता का अभिमान करनेवाले कुछ फकीरों का उपहास किया था।

“मेंढक भी पानी में आराम से रह सकता है!” अबु सईद ने सौम्यता से उपहास करते हुए कहा था। “चील कौए आसानी से हवा में उड़ सकते हैं; शैतान पूर्व में भी है और पश्चिम में भी सच्चा मनुष्य वह है जो समाज में सदाचार का पालन करता हुआ रहता है और क्रय-विक्रय करते हुए भी कभी एक क्षण के लिये भी ईश्वर को नहीं भुलाता!”⁸ एक अन्य अवसर पर इस महान् फारसी संत ने धार्मिक जीवन के विषय में अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया था : “अपने दिमाग में जो कुछ है उसे निकाल देना (स्वार्थनिष्ठ इच्छा-आकांक्षाएँ); हाथ में जो कुछ है उस का मुक्त रूप से दान करना; आपत्तियों के आघात से कभी भी विचलित नहीं होना !

न तो कालीघाट के निस्पृह महात्मा और न तिब्बत से प्रशिक्षित योगी ही मेरी गुरुप्राप्ति की तीव्र इच्छा को संतुष्ट कर सके। किसी का आध्यात्मिक स्तर पहचानने में मेरे हृदय को शिक्षित करने की आवश्यकता नहीं थी। जब भी किसी सचमुच उदात्त व्यक्तित्व का सामना होता तब वह धन्य-धन्य कर उठता, यह धन्य-धन्य और भी गूँजनेवाली होती क्योंकि यह कभी-कभार ही और वह भी अंतरतम गहराइयों से उठती। अंततः जब अपने गुरु से मेरा साक्षात्कार हुआ, तब उन्होंने केवल उदाहरण की अत्युच्चता के द्वारा ही मुझे सच्चे पुरुष का परिमाण सिखाया।





¹ [बाइबिल सभोपदेशक ३ : १]

² [इस्त्रायल के ईसापूर्व दसवीं शताब्दी के एक पराक्रमी राजा। उन्होंने इतनी विवेकयुक्त बुद्धि और न्यायपूर्ण रीति से राज्य किया कि उनका नाम बुद्धिमानी का समानार्थी बन गया।]

³ ['काली माता' प्रकृति में व्याप्त अक्षय आधार का प्रतीक है। परंपरागत रूप से उन्हें परमसत्ता अर्थात् भगवान शिव की भूमिशायी देह के ऊपर खड़ी चतुर्भुजी स्त्री के रूप में चित्रित किया जाता है, क्योंकि प्रकृति या इस प्रपंचमय विश्व की समस्त क्रियाएँ निर्गुण ब्रह्म से उत्पन्न होती हैं। चार भुजाएँ सृष्टि में निहित द्वैत के मूल आधारभूत गुणों का प्रतिनिधित्व करती हैं — दो कल्याणकारी, दो विनाशकारी।]

⁴ [यूनान की पौराणिक कथाओं में वर्णित इस अतिविशालकाय दैत्य 'स्फिंक्स' को सिंह या कुत्ते के शरीर पर स्त्री के सिर और पंखों के साथ दर्शाया जाता है। यूनान के प्राचीन नगर थीबस के पास प्रत्येक आने-जाने वाले को यह दैत्य एक पहेली प्रस्तुत करता था और जो उसका उत्तर न दे सके, उसे खा जाता था।]

⁵ [जागतिक भ्रम, शाब्दिक अर्थ परिमाप करनेवाली। माया सृष्टि में व्याप्त वह जादुई शक्ति है जिसके कारण अपरिमेय और अविभेद्य में परिमितता और भेदकी विद्यमानता का स्पष्ट आभास होता है।
इमर्सन ने माया पर अंग्रेजी में एक कविता लिखी थी जिसका अर्थ है
माया अभेद्य है, वह जाल पर जाल बुनती जाती है। उसके मोहक चित्रों का कोई अन्त नहीं, एक के उपर एक अपने पर्दों का समूह बना देती है। यह ऐसी जादूगरनी हैं कि धोखा खाने के लिये तरसने वाला मानव इस पर विश्वास कर ही लेता है।]

⁶ [पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों द्वारा किया गया चेतना का अनुसंधान अधिकतः अवचेतन मन तथा उन मानस रोगों तक ही सीमित हैं जिनका उपचार मनश्चिकित्सा एवं मनोविश्लेषण द्वारा किया जाता है। सुव्यवस्थित मानसिक अवस्थाओं की उत्पत्ति एवं उनके मूलभूत गठन में तथा उनकी भावनात्मक एवं संकल्पविषयक अभिव्यक्तियों के विषय में किया गया अनुसंधान लगभग नहीं के बराबर है, वस्तुतः यही मूलभूत विषय हैं और इनकी उपेक्षा भारतीय दर्शन में नहीं की गयो। सांख्य और योग दर्शनों में सुव्यवस्थित मानसिक परिवर्तनों के विभिन्न सम्बन्धों तथा बुद्धि, अहंकार और मानस के स्वतन्त्र विशिष्ट कार्यों का सुनिश्चित वर्गीकरण किया गया है।]

⁷ [सृष्टि अपने कण-कण में प्रतिनिधित है। एक लुप्त तत्त्व से ही सब बना है। ओस बिन्दु में सृष्टि गोलाकार बन जाती है... सर्वव्यापकता का सच्चा अर्थ यह है कि शैवाल के प्रत्येक अंकुर में और मकड़ी के प्रत्येक जाल में भी ईश्वर अपनी सम्पूर्णता के साथ विद्यमान है। इमर्सन, कम्पनमेशन में। ]

⁸ [क्रय-विक्रय करते हुए भी कभी एक क्षण के लिये भी ईश्वर को नहीं भुलाना! इम आदर्श के पीछे भाव यह है कि व्यक्ति जो भी कार्य कर रहा हो उसमें उसका मन लगा होना चाहिये। कुछ पाश्चात्य लेखक कहते हैं कि हिन्दू जीवन-दर्शन साहसहीन पलायन का अकर्मण्यता एवं समाजघाती निवृत्ति का मार्ग है। वास्तव में मानव जीवन के लिये वेदों की चतुर्वर्गाश्रम व्यवस्था ही लोक समाज के लिये संतुलित व्यवस्था है जिसमें मनुष्य का आधा जीवन अध्ययन और गृहस्थ धर्म के पालन के लिये तथा शेष आधा जीवन चिंतन एवं ध्यानाभ्यास के लिये निर्दिष्ट है।
परमात्मा में स्थिर होने के लिये एकान्तवास आवश्यक है, परन्तु जिन्होंने यह स्थिरता प्राप्त कर ली है वे तदोपरान्त जगत् की सेवा करने के लिये वापस लौट आते हैं। जो सन्तजन बाह्य स्तर पर कोई कार्य नहीं करते, वे भी अपने विचारों एवं पवित्र स्पंदनों द्वारा जगत् का आत्मज्ञानहीन मनुष्यों द्वारा अथक किये गये लोकोपकारी कार्यों से कहीं अधिक बढ़कर हित करते हैं। महात्माजन अपने-अपने ढंग से और प्रायः कड़वे विरोध को झेलकर, अपने समकालीन लोगों को प्रेरित करने तथा उन्नत करने का निःस्वार्थ प्रयास करते रहते हैं। हिंदुओं का कोई भी आदर्श, चाहे वह धार्मिक हो या सामाजिक, केवल नकारात्मक नहीं है। यहाँ तक कि अहिंसा भी, जिसे महाभारत में सकल धर्म या पूर्ण धर्म कहा गया है, केवल नकारात्मक आज्ञा नहीं बल्कि उसमें निहित इस धारणा के कारण एक सकारात्मक आज्ञा है कि जो दूसरों को सहायता नहीं करता वह किसी न किसी रूप में उनका अनिष्ट (हिंसा) करता है।

श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ३, ४-८) यह स्पष्ट करती है कि कर्म करना मानव की प्रकृति में निहित है। आलस्य भी और कुछ न होकर केवल “अनिष्ट कर्म” है।
न कर्मणामनारम्भात्रैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्रुते।
न च सत्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ ४ ॥

मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को प्राप्त होता है और न ही कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि को प्राप्त होता है।
न हि कक्षित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ ५ ॥

निःसन्देह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता; क्योंकि सारा मनुष्यसमुदाय प्रकृतिजनित गुणों के अधीन हुआ कर्म करने के लिये बाध्य किया जाता है।
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ ६ ॥

जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मनसे उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है।
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ ७ ॥
किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥ ८ ॥

तुम शास्त्रविहित कर्म करो; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ हैं तथा कर्म न करने से तो तुम्हारा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।]