{ बाघ स्वामी }“मैंने बाघ स्वामी का पता खोज निकाला है। चलो, कल उनका दर्शन किया जाय।”
यह स्वागतार्थ प्रस्ताव हाईस्कूल के मेरे एक मित्र चण्डी से मिला। अपने संन्यासपूर्व जीवन में केवल अपने नंगे हाथों से बाघों के साथ लड़ने और उन्हें पकड़ने वाले इस सन्त का दर्शन करने के लिये मैं भी उत्सुक था। ऐसे असाधारण साहसिक कार्यों के प्रति बाल सुलभ उत्साह मुझ में भरपूर था।
दूसरे दिन प्रातःकाल बहुत ठण्ड पड़ रही थी, पर मैं चण्डी के साथ अत्यन्त उत्साह और स्फूर्ति के साथ चल पड़ा। कोलकाता के बाहर भवानीपुर में बहुत देर तक व्यर्थ खोज करने के बाद हम ठीक घर पर पहुँच गये। दरवाजे पर लोहे की दो गोलाकार कड़ियाँ लगी हुई थीं। मैंने उन्हें बहुत जोर जोर से खटखटाया उस कर्णकर्कश खड़खड़ाहट को सुनकर भी एक नौकर अन्दर से धीरे-धीरे आरामपूर्वक चलता हुआ हमारी ओर आया। उसकी व्यंग्यात्मक मुस्कान इस बात का द्योतक थी कि शोर मचानेवाले आगन्तुक भी एक सन्त के घर की शांति भंग नहीं कर सकते।
उसकी मौन भर्त्सना को हमने अनुभव किया, पर बैठक में आने के लिये आमन्त्रित किये जाने पर चण्डी और मैं उसके प्रति कृतज्ञ थे। वहाँ लम्बी प्रतीक्षा हम लोगों के मन में शंका-कुशंकाएँ उत्पन्न करने लगी। सत्य की खोज करने वाले के लिये भारत का अलिखित नियम है धैर्य; संत-
महात्मा कभी-कभी जानबूझकर दर्शनार्थी की उत्सुकता की परीक्षा ले सकते हैं। पाश्चात्य डॉक्टर और दन्तचिकित्सक इस मनोवैज्ञानिक कूटनीति का भरपूर प्रयोग करते हैं।
अन्ततः नौकर द्वारा बुलाये जाने पर चण्डी और मैं एक शयनकक्ष मे गये। वहाँ सुविख्यात सोऽहम् स्वामी¹ अपने पलंग पर बैठे हुए थे। उनके भीमकाय शरीर को देखकर हम दोनों के मन पर अद्भुत प्रभाव पड़ा। आँखें फाड़े हम अवाक् उनकी ओर देखते रहे। वैसी विशाल छाती और फुटबाल की तरह बाजुएँ हमने पहले कभी नहीं देखी थीं। अत्यन्त मजबूत, भरी गर्दन पर स्वामीजी का उग्र दिखने वाला परन्तु शांत मुखमण्डल, मूँछ, दाढ़ी और झूलते केशों से सुशोभित था। उनकी काली आंखों में कबूतर एवं
बाघ समान गुणों का मिलाजुला संकेत चमक रहा था। दृढ़ मांसल कटिप्रदेश को घेर कर पहने हुए एक व्याघ्रचर्म के अतिरिक्त उनके शरीर पर और कोई कपड़ा नहीं था।
जब हमारी वाक्शक्ति लौट आयी तब बाघों के साथ लड़ने में उनकी वीरता के प्रति आदरयुक्त विस्मय प्रकट करते हुए मैंने उनका अभिवादन किया।
“क्या आप कृपा करके हमें यह नहीं बतायेंगे कि वन्य पशुओं में सबसे भयंकर रॉयल बंगाल टाइगर को केवल अपने हाथों से परास्त करना कैसे संभव है ?”
“मेरे बच्चों! बाघों के साथ लड़ना मेरे लिये कुछ भी नहीं है।
आवश्यकता पड़ने पर मैं आज भी वह कर सकता हूँ।" वे बच्चों के समान खिलखिलाकर हँसे। “तुम बाघों को बाघ मानते हो; मैं उन्हें मात्र बिल्लियाँ समझता हूँ।”
“स्वामीजी! मैं अपने मन को तो विश्वास दिला सकूँगा कि बाघ बिल्लियाँ मात्र हैं, परन्तु क्या बाघों को मैं वैसा विश्वास करा सकूँगा ?”
“निश्चय ही शक्ति भी आवश्यक है! केवल कोई बच्चा बाघ को घरेलु बिल्ली मान लेगा तो उसे बाघ पर विजय मिल जायेगी यह मानना व्यर्थ है। मेरे शक्तिशाली हाथ शस्त्र के रूप में पर्याप्त हैं।”
उन्होंने हमें अपने साथ आँगन में आने को कहा जहाँ एक दीवार के किनारे पर उन्होंने प्रहार किया। दीवार की एक ईंट टूट कर जमीन पर गिर पड़ी। टूटे हुए दाँत की तरह बनी खाली जगह से आकाश धृष्टतापूर्वक झाँकने लगा। मैं हक्का-बक्का रह गया; सोचने लगा, जो आदमी एक ही
प्रहार से दीवार में चुनी हुई ईंट को गिरा सकता है, वह अवश्य ही बाघों के दाँत भी तोड़ सकता है !
“अनेक लोगों में मेरे समान शारीरिक शक्ति होती है, परन्तु फिर भी उनमें दृढ़ आत्म-विश्वास का अभाव होता है। जो शरीर से तो बलिष्ठ होते हैं परन्तु मन से नहीं, वे जंगल में स्वच्छन्द विचरण करते हिंसक पशु को देखकर ही मूर्च्छित हो सकते हैं। प्राकृतिक परिस्थितियों में वास करने वाला और अपने मूल हिंसक स्वभाव के अनुसार जीने वाला बाघ सर्कस के अफ़ीम खिलाये गये बाघ से अत्यन्त भिन्न होता है!”
“भीम के समान प्रबल शक्तिशाली होते हुए भी अनेक व्यक्ति रॉयल बंगाल टाइगर के प्रचण्ड आक्रमण के सामने अत्यन्त भयभीत और असहाय हो उठते हैं। इस प्रकार बाघ मनुष्य को उसके ही मन की कल्पना में एक साधारण बिल्ली की भयभीत अवस्था के समान स्थिति में डाल देता है। परन्तु जिस मनुष्य में यथावत् बलिष्ठ शरीर के साथ-साथ अत्यन्त दृढ़ निश्चय हो, वह इस परिस्थिति को बाघ पर ही उलट सकता है और उसे यह मानने पर विवश कर सकता है कि वह एक बिल्ली के समान ही आत्मरक्षा में असमर्थ है। कितनी ही बार मैंने यही किया है!”
मैं यह मानने के लिये पूर्णतः तैयार था कि मेरे समक्ष उपस्थित अतिशक्तिशाली पुरुष बाघ को बिल्ली में रूपान्तरित करने में समर्थ थे। वे कुछ उपदेश देने की मनःस्थिति में प्रतीत हुए; चण्डी और मैं आदर के
साथ उनकी बातें सुनने लगे।
“मन ही मांसपेशियों को नियंत्रित करता है। जैसे हथौड़े के आघात की शक्ति उस पर लगाये गये बल पर निर्भर होती है, वैसे ही मनुष्य की शारीरिक शक्ति की अभिव्यक्ति उसकी आक्रामक इच्छाशक्ति की तीव्रता एवं साहस पर निर्भर करती है। मन ही अक्षरशः शरीर का निर्माण करता
है और वही उसे जीवित रखता है। गतजन्मों की प्रवृत्तियों की प्रबलता के अनुसार अच्छे या बुरे स्वभावगुण धीरे धीरे मानव चेतना में उतरते हैं। ये स्वभावगुण आदतों में ढल जाते हैं और ये आदतें फिर एक वांछनीय या अवांछनीय शरीर के रूप में प्रदर्शित होती हैं। बाह्य दुर्बलता की जड़ मन में होती है और आदत से लाचार शरीर मन की अवहेलना करता है इस प्रकार यह कुचक्र चलता जाता है। यदि मालिक नौकर की आज्ञा का पालन करने लगे तो नौकर निरंकुश स्वेच्छाचारी बन जाता है; इसी प्रकार मन भी शरीर की आज्ञाओं का पालन कर-कर के उसका दास
बन जाता है।”
हमारे अनुनय पर यह तेजस्वी स्वामी अपने जीवन के बारे में हमें कुछ बताने के लिये सहमत हो गये।
“बचपन से ही बाघों से लड़ने की महत्वाकांक्षा मेरे मन में थी। मेरी इच्छा शक्तिशाली थी परन्तु देह दुर्बल थी।”
मेरे मुँह से आश्चर्योद्गार फूट पड़ा। यह अविश्वसनीय लगता था कि पृथ्वी का भार उठाने के योग्य कन्धों वाले इस मनुष्य का दुर्बलता के साथ दूर-दूर से भी कभी कोई परिचय रहा हो।
“स्वास्थ्य और शक्ति के चिंतन में अदम्य दृढ़ता द्वारा ही मैंने इस बाधा को दूर करने मे सफलता प्राप्त की। इस प्रभावशाली मानसिक शक्ति की प्रशंसा करने का कारण और भी बढ़ जाता है क्योंकि मैंने देखा है कि रॉयल बंगाल टाइगरों को पराजित करने वाली वस्तुतः यही शक्ति थी।”
“स्वामीजी! क्या आपको लगता है कि मैं भी कभी बाघों के साथ लड़ पाऊँगा ?" यह पहला और अन्तिम अवसर था जब यह विचित्र महत्वाकांक्षा मेरे मन में उठी!
“हाँ।” वे गुस्करा रहे थे। “परन्तु बाघ अनेक प्रकार के होते हैं; कुछ मनुष्य की इच्छा वासनाओं के जंगल में घूमते हैं। पशुओं को अपने प्रहार से बेहोश कर देने से कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं होता। उससे अच्छा यह है कि अपने अंतर में घूमतें उन बाघों को पराजित किया
जाय।”
“स्वामीजी! क्या आप हमें बतायेंगे कि आप हिंसक बाघों को वश में करते-करते हिंसक वासनाओं को वश में कैसे करने लग गये ?”
बाघ स्वामी मौन हो गये। अतीत के दृश्यों को निहारने का प्रयास करती उनकी दृष्टि सुदूर कहीं लग गयी। मैंने भाँप लिया कि उनके मन में मेरे अनुरोध को स्वीकार करें या न करें इस पर थोड़ी उथल-पुथल चल रही थी। अन्त में मन ही मन स्वीकार करके वे मुस्करा उठे ।
“जब मेरी कीर्ति चरमबिन्दु पर पहुँच गयी तब मुझे गर्व का नशा चढ़ गया। मैंने तय किया कि मैं न केवल बाघों से लडूंगा बल्कि लोगों के सामने उनसे विविध करतब भी कराऊँगा। मेरी महत्वाकांक्षा ही यह बन गयी कि मैं हिंसक पशुओं को पालतु जानवरों की तरह बर्ताव करने पर विवश कर दूँगा। मैं सार्वजनिक रूप से अपने करतब दिखाने लगा और उसमें मिलने वाली सफलता से मुझे खुशी भी होने लगी।
“एक दिन शाम को मेरे पिताजी अत्यन्त चिन्तातुर मनःस्थिति में मेरे कमरे में आये।
'' ‘बेटा! मैं तुम्हें सावधान करने आया हूँ। कर्म की चलती चक्की से उत्पन्न होकर आने वाले अमंगलों से मैं तुम्हें बचाना चाहता हूँ।’
“ ‘क्या आप भाग्यवादी हैं पिताजी? अंधविश्वास से क्या मेरी गतिविधियों के शक्तिशाली प्रवाह को अवरुद्ध होने देना चाहिये ?’
“ ‘मैं भाग्यवादी नहीं हूँ, बेटा! परन्तु पवित्र शास्त्रों में कहे गये प्रतिफल के नियम में मेरा विश्वास है। जंगल परिवार में तुम्हारे विरुद्ध आक्रोश व्याप्त है; यह आक्रोश कभी भी तुम्हारी जान के लिये खतरा बनकर सामने आ सकता है।’
“ ‘पिताजी! आप मुझे आश्चर्य में डालते हैं ! बाघ क्या होते हैं आप अच्छी तरह जानते हैं– सुन्दर परन्तु निर्दयी ! कौन जाने, मेरे प्रहार उनके ठोसबुद्धि में शायद कुछ उदारता के विचार भर सकें? उन्हें सभ्य शिष्टाचार सिखाने के लिये ही मैं जंगल-विद्यालय का प्रधानाध्यापक बना हूँ!’
“ ‘पिताजी ! कृपया आप मुझे बाघों को पालनेवाला बाघ- पालक मानें, बाघ-हत्यारा नहीं। मेरे ये सत्कर्म मेरा अनिष्ट कैसे कर सकते हैं ? मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे अपने जीवन का मार्ग बदलने की आज्ञा न दें।’ ”
चण्डी और मैं ध्यानपूर्वक सुन रहे थे और अतीत के इस धर्मसंकट को समझ रहे थे। भारत में कोई संतान अपने माता-पिता की इच्छाओं का अनादर नहीं करती। बाघ स्वामी आगे कहते गये :
“निर्विकार मौन में पिताजी ने मेरा स्पष्टीकरण सुना। तदुपरान्त उन्होंने गम्भीरतापूर्वक एक रहस्योद्घाटन किया।”
“ ‘बेटा! तुम मुझे एक संत की अमंगल सूचक भविष्यवाणी दोहराने पर विवश कर रहे हो। कल जब मैं बरामदे में बैठकर नित्य की भाँति अपना ध्यान कर रहा था तब वे मेरे पास आये।
“ ‘मित्रवर! मैं आपके युद्धप्रिय बेटे के लिये एक संदेश लेकर आया हूँ। उससे कहिये कि वह अपनी बर्बर गतिविधियाँ बन्द कर दे। अन्यथा बाघ के साथ उसकी अगली लड़ाई में उसे अनेक दुःसाध्य घाव होंगे जिससे छः महीनों तक वह मरणासन्न अवस्था में पड़ा रहेगा। तब वह अपना पुराना मार्ग छोड़कर संन्यासी बन जायेगा।’ ”
“इस कहानी का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मैंने यही माना कि पिताजी किसी भ्रान्तिग्रसित कट्टरवादी की भ्रान्ति का शिकार हो गये हैं।”
यह कहते हुए बाघस्वामी के हाव-भाव इतने अधीर और ऐसे थे मानों अपनी मूर्खता पर उन्हें क्रोध आ रहा हो। काफी देर तक वे गम्भीर मुद्रा में मौन बैठे रहे जैसे वहाँ हमारी उपस्थिति का उन्हें कोई भान न हो। फिर उन्होंने अकस्मात् ही अपनी कहानी आगे शुरू की, इस बार उनकी आवाज़ में नरमी आ गयी थी।
“पिताजी की चेतावनी के कुछ ही दिन बाद मैं राजधानी कूचबिहार गया। प्राकृतिक सौन्दर्य से भरा यह प्रदेश मेरे लिये नया था और मैं सुखप्रद परिवर्तन की आशा कर रहा था। जैसा हर जगह सदा ही होता था, यहाँ भी सड़कों पर मेरे पीछे-पीछे उत्सुक लोगों की भीड़ चलती रहती थी। उनकी फुसफुसाहट के कुछ अंश कभी-कभी मुझे सुनायी पड़ते थे
:
“ ‘यह वही आदमी है जो जंगली बाघों के साथ लड़ता है।’
“ ‘उसके वे पैर हैं या पेड़ के तने ?’
“ ‘उसका चेहरा तो देखो! वह स्वयं बाघों के राजा का अवतार मालूम होता है!’
“तुम तो जानते ही हो गाँवों के नटखट छोकरे किस प्रकार ताजा समाचार पत्र का काम करते हैं! और किस गति से महिलाओं की मौखिक जनसूचना प्रणाली इस घर से उस घर समाचार पहुँचाती है! कुछ ही घंटों में मेरी वहाँ उपस्थिति से सारे शहर में खलबली मच गयी।
“संध्या के समय मैं चुपचाप आराम कर रहा था कि घोड़ों की टापों की ध्वनि सुनायी दी। मैं जिस घर में रुका था उसी के सामने आकर वह ध्वनि रुक गयी। लम्बे कद के पगड़ीधारी पुलिस सिपाहियों का एक दल अन्दर घुस आया।
“मैं अवाक् रह गया। मैंने सोचा, ‘इन पुलिस वालों के लिये कुछ भी संभव है। कहीं वे मेरे लिये पूर्णतया अगम्य किसी बात पर मेरी खिंचाई करने तो नहीं आये हैं ?’ परन्तु उन्होंने अपने सामान्य व्यवहार के विपरीत अत्यंत विनय के साथ मेरा अभिवादन किया।
“ ‘आदरणीय महोदय ! कूचबिहार के युवराज की ओर से आपका स्वागत करने के लिये हमें भेजा गया है! उन्होंने कल प्रातः काल आपको अपने राजप्रासाद में पधारने का आमंत्रण भेजा है।’
“मैं थोड़ी देर इस पर सोचता रहा। किसी अज्ञात कारण से अपनी इस शांत यात्रा में उपस्थित हुए इस विघ्न से तीव्र उद्वेग की भावना मेरे मन में उठ रही थी। परन्तु पुलिस वालों की विनयशीलता ने मेरे हृदय को छू लिया; मैंने निमंत्रण स्वीकार किया।
“दूसरे दिन जिस दासोचित विनम्रता और खुशामद के साथ मुझे अपने द्वार से चार घोड़े जुते हुए शाही कोच तक ले जाया गया उसे देखकर मैं चकित रह गया। एक सेवक तीव्र धूप से मुझे बचाने के लिये एक अलंकृत छाता मेरे ऊपर पकड़े खड़ा रहा। नगर और उसके बाहर के वनक्षेत्र में से सुखद कोच सवारी करते हुए मुझे बड़ा मज़ा आ रहा था। युवराज स्वयं मेरा स्वागत करने के लिये राजप्रासाद के सिंहद्वार पर उपस्थित थे। अपने स्वर्णखचित आसन पर उन्होंने मुझे बैठाया और मुस्कराते हुए स्वयं उससे कम साज-सज्जायुक्त एक आसन पर बैठ गये।
“ ‘यह सब विनम्र सेवा निश्चय ही मुझपर कोई मुसीबत लाने वाली हैं!’ बढ़ते हुए आश्चर्य के साथ मैं सोच रहा था। इधर-उधर की थोड़ी बातें करने के बाद युवराज का उद्देश्य प्रकट हो ही गया।
“ ‘मेरे नगर में अफ़वाह फैली हुई है कि आप केवल अपने नंगे हाथों से जंगली बाघों के साथ लड़ सकते हैं। क्या यह सच है ?’
“ ‘बिल्कुल सच है।’
“ ‘हमें इस पर विश्वास नहीं होता! आप शहरी लोगों के पालिश किये हुए चावल पर पले कोलकाता के बंगाली हैं। कृपया सच-सच बताइये, क्या आप केवल निर्बल, अफ़ीम खिलाये गये बाघों से ही नहीं लड़ते रहे हैं ?’ उनका स्वर उँचा और व्यंग्यभरा था। उनके बोलने के ढंग में उनके प्रांत की शैली की झलक थी।
“उनके उस अपमानजनक प्रश्न का उत्तर देना मैंने आवश्यक नहीं
समझा।”
“ ‘हम हाल ही में पकड़े गये अपने बाघ राजाबेगम ¹ के साथ लड़ने की आपको चुनौती देते हैं। यदि आप उसका सफलतापूर्वक सामना कर सके और उसे जंजीर से बांधकर चेतन अवस्था में उसके पिंजरे से बाहर निकल सके, तो वह रॉयल बंगाल टाइगर आपका हो जायेगा। इसके अतिरिक्त सहस्रावधि रुपये एवं अन्य कई उपहार भी आपको मिलेंगे। और यदि आपने उससे लड़ना अस्वीकार कर दिया तो हम अपने पूरे राज्य में आपको पाखण्डी घोषित कर देंगे!’
“उनके उद्धत शब्द गोलियों की बौछार के समान मुझे लग गये। मैंने गुस्से से उनकी शर्तें स्वीकार कर लीं। उत्तेजना में आसन से आधे उठ खड़े हुए युवराज निष्ठुर मुस्कान के साथ वापस बैठ गये। उनकी वह मुस्कान
देखकर मुझे उन रोमन सम्राटों की याद आयी जिन्हें ईसाइयों को हिंसक पशुओं के साथ लड़ाने में आनन्द आता था। युवराज ने आगे कहा :
“ ‘आपकी लड़ाई आज से एक सप्ताह बाद होगी। हमें खेद है कि हम लड़ाई से पहले बाघ को देखने की अनुमति आपको नहीं दे सकते।’
“ युवराज को कहीं यह भय तो नहीं था कि मैं बाघ पर सम्मोहन विद्या का प्रयोग करूंगा या उसे अफ़ीम खिलाने का प्रयास करूंगा, मैं नहीं जानता।
“मैं राजप्रासाद से चल पड़ा। मजे की बात यह थी कि अब की बार न तो राज छत्र था और न ही वह साजसज्जायुक्त कोच !
अगले सप्ताह भर में मैं आगामी अग्निपरीक्षा के लिये अपने मन और शरीर, दोनों को विधिवत् तैयार करता रहा। अपने नौकर द्वारा मुझे विलक्षण कहानियाँ सुनने को मिल रही थीं। पिताजी के पास संत ने जो भीषण भविष्यवाणी की थी वह किसी प्रकार लोगों में फैल गयी और फैलते-फैलते बढ़ती गयी। अनेक भोले-भाले ग्रामीणों का विश्वास था कि एक दुष्ट आत्मा ने देवताओं के शाप के कारण बाघ का जन्म लिया था जो रात
विभिन्न आसुरी रूप धारण करती है, परन्तु दिन में फिर से बाघ बनकर रहती है। लोगों का अनुमान था कि यह वही आसुरी बाघ है जिसे मेरा गर्व हनन करने के लिये भेजा गया है।
“एक अन्य कल्पना यह थी कि बाघों की अपने देवता से की गयी प्रार्थनाओं का उत्तर राजाबेगम के रूप में आ गया है। समग्र व्याघ्र जाति के लिये इतना मानहानिकारक ठहरे इस धृष्ट दोपाये ( मुझे ) को दण्डित करने के लिये उसे नियत किया गया है। एक लोम-दन्तविहीन मानव नख-दन्त युक्त, शक्तिशाली पादयुक्त बाघ को चुनौती देने का दुस्साहस करे! लोग यह भी कह रहे थे कि सभी अवमानित बाघों के द्वेष ने मिलकर इतना जोर पकड़ लिया है कि बाघों का मानमर्दन करनेवाले इस अभिमानी पुरुष का पतन कराने के लिये वह ज़ोर अब सूक्ष्म नियमों को कार्यान्वित कर रहा है।
“मेरे नौकर ने मुझे आगे बताया कि युवराज स्वयं मानव और पशु के बीच होनेवाले इस द्वन्द्व के व्यवस्थापन का कार्यभार संभाल रहे थे। उन्होंने स्वयं अपनी देखरेख में हज़ारों लोगों के बैठने योग्य एक ऐसे विशाल तंबू का निर्माण कराया जो आंधी-तूफान में भी सुरक्षित खड़ा रह सके। उस तंबू के मध्य में लोहे के एक विशाल पिंजरे में राजाबेगम को रखा गया था। इस पिंजरे के बाहर सुरक्षा का एक और घेरा था। राजाबेगम निरन्तर खून जमा देनेवाली भयंकर गर्जनाएँ करता जा रहा था। उसकी क्षुधाग्नि और क्रोधाग्नि दोनों को भड़काने के लिये उसे बहुत कम खाना दिया जा रहा था। शायद युवराज को आशा थी कि मैं उसका पुरस्कारस्वरूप भोजन बनूँगा !
“डंका बजा-बजाकर नगर और आस-पास के इलाके में इस अद्वितीय द्वन्द्व की जो घोषणा की जा रही थी, उसे सुनकर लोगों ने भारी संख्या में उत्सुकतापूर्वक टिकटें खरीदीं। द्वन्द्व के दिन सीटों की कमी के कारण सैंकड़ों लोगों को लौटा दिया गया। कई लोग तंबू की दरारों में से अन्दर घुस आये, या गैलरी के नीचे जहाँ भी जगह मिली वहीं खड़े हो गये।”
जैसे-जैसे बाघ स्वामी की कथा चरमसीमा की ओर बढ़ रही थी, वैसे-वैसे मेरी उत्तेजना भी बढ़ती गयी; चण्डी भी मंत्रमुग्ध होकर अवाक् बैठा था।
“राजाबेगम की कान फाड़ देने वाली गर्जनाओं के और भयभीत दर्शकों के कोलाहल के बीच मैंने शान्त मन से तंबू में प्रवेश किया। लंगोट के अतिरिक्त मेरे शरीर पर और कोई कपड़ा नहीं था। मैंने सुरक्षात्मक घेरे के दरवाजे का कुंडा सरकाकर उसे खोला और अन्दर जाकर अपने पीछे शांत मन से दरवाज़े को बंद कर लिया। बाघ को रक्त की गन्ध लग गयी। उछलकर धड़ाम से लोहे की छड़ों से टकराने की ध्वनि के साथ उसने मेरा भीषण स्वागत किया। करुणार्द्र भय से दर्शकों में सन्नाटा छा गया; उस अति उग्र बाघ के सामने मैं निरीह मेमना लग रहा था।
“पलक झपकते ही मैं उसके पिंजरे में घुस गया; परन्तु जैसे ही मैंने दरवाजा बन्द किया, राजाबेगम उछलकर सीधा मेरे ऊपर आ गया। मेरा दाहिना हाथ बुरी तरह क्षत-विक्षत हो गया। बाघ के लिये परम स्वादिष्ट मानव-रक्त की प्रचण्ड धाराएँ गिरने लगीं। संत की भविष्यवाणी सत्य होने के आसार नज़र आने लगे।
“इस प्रकार की गम्भीर चोट मुझे जीवन में पहली बार आयी थी, पर मैं तुरन्त उससे संभल गया। रक्तरंजित अँगुलियों को लंगोट में घुसाकर मैंने उन्हें छिपा लिया और बायें हाथ से एक हड्डी-तोड़ प्रहार बाघ पर किया। बाघ लड़खड़ाकर पीछे हट गया, पिंजरे के अंत तक पीछे गया, फिर पलटकर अत्यंत गुस्से के साथ पुनः मुझ पर झपटा। मेरे सुविख्यात मुष्टि शासन के प्रहार उसके सिर पर बरसने लगे ।
“ परन्तु राजाबेगम को रक्त का जो स्वाद लग गया था, उसने दीर्घकाल तक शराब से वंचित रहने वाले शराबी के जैसे शराब का पहला घूँट उन्मत्त कर देता है, उसी प्रकार उन्मत्त कर दिया था। बीच-बीच में कान बैठा देने वाली दहाड़ें मारते हुए उसके आक्रमणों की उग्रता बढ़ती ही जा रही थी। उसके दाँतों और नखों के आगे मेरा केवल एक हाथ से बचाव करना अपर्याप्त पड़ रहा था और मेरी आत्मरक्षा-प्रणालि अभेद्य नहीं रह पा रही थी। परन्तु मैं भी तिलमिलाने वाले प्रहार उस पर करता गया। दोनों ही रक्तरंजित होकर जीवन मरण का युद्ध लड़ रहे थे। पिंजरे में कोलाहल था, चारों दिशाओं में रक्त के छींटे उड़ रहे थे, बाघ के गले से पीड़ा और खूनी प्राण-पिपासा के चीत्कार फूट रहे थे।
“ ‘गोली चलाओ! बाघ को मार डालो!’ दर्शक चीख रहे थे। मानव और पशु इतनी तेज़ गति से हिल रहे थे कि एक सिपाही की गोली भी निशाना चूक गयी। मैंने अपनी सारी संकल्पशक्ति एकत्र की और भीषण गर्जन के साथ उसके मस्तक पर एक अंतिम खोपड़ी तोड़ प्रहार किया। बाघ गिर गया और ठण्डा होकर पड़ा रहा।
“पालतु बिल्ली की भाँति!” मैं बीच में ही बोल पड़ा।
स्वामी जी खिलखिलाकर हँस पड़े, फिर उन्होंने तन्मय कर देने वाली अपनी कहानी को आगे बताना शुरू किया।
“आखिर राजाबेगम पराजित हो ही गया। उसका रहा सहा राजगर्व भी चूर-चूर हो गया: अपने विदीर्ण, रक्तरंजित हाथों से मैंने उसका जबड़ा खोला और एक नाट्यपूर्ण क्षण के लिये उस खुले मृत्युद्वार में अपना सिर रखा जंजीर के लिये इधर-उधर देखा और जमीन पर पड़े जजीरों के ढेर में से एक ज़ंजीर खींचकर उससे बाघ की गर्दन पिंजरे की छड़ों के साथ बाँध दी। विजयोल्लास में मैं दरवाजे की ओर चलने लगा।
“परन्तु वह मूर्त्तिमान शैतान राजाबेगम ! उसकी कल्पित आसुरी उत्पत्ति के अनुरूप ही वह जीवट था! एक ही विस्मयकारी झटके के साथ जंजीर तोड़कर वह मेरी पीठ पर झपट पड़ा। मेरा कंधा उसके जबड़े में फँसा हुआ था और ऐसी स्थिति में मैं जोर से नीचे गिरा। परन्तु पलक झपलते ही मैंने उसे अपने नीचे धर दबोचा। निष्ठुर प्रहारों के आघातों से वह अर्द्ध-मूर्छित हो गया। इस बार मैंने उसे अधिक सावधानीपूर्वक बाँध दिया। धीरे-धीरे मैं पिंजरे से बाहर निकला।
“फिर से चारों तरफ चीख-पुकार सुनायी दी, इस बार वह हर्षोल्लास की थी। भीड़ की चीख-पुकार की हर्षध्वनि जैसे एक ही विराट गले से निकल रही थी। मैं भीषण रूप से घायल तो हो गया था परन्तु फिर भी मैंने द्वन्द्व की तीनों शर्तें पूरी कर दी थी– बाघ को अचेत करना, उसे जंजीर से बाँधना और बिना किसी प्रकार की सहायता लिये पिंजरे से बाहर आना। इसके अलावा मैंने उस हिंसक पशु को इस तरह घायल और भयभीत कर दिया था कि मेरे सिर का अप्रतिम पुरस्कार अपने मुख में पाकर भी उसकी ओर उसने कोई ध्यान नहीं दिया !
“मेरे घावों का प्राथमिक उपचार करने के बाद मेरा सम्मान किया गया और मुझे पुष्पहार पहनाये गये। मेरे चरणों में स्वर्ण मुहरों की वर्षा की गयी। असाधारण रूप से विशाल और वैसे ही क्रूर बाघ पर मेरी विजय की अन्तहीन चर्चाएं चारों ओर से सुनायी दे रही थीं। वचन के अनुसार राजाबेगम मुझे दे दिया गया, परन्तु मुझे कोई हर्ष नहीं हुआ। मेरे हृदय में
आध्यात्मिक परिवर्तन आ गया था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि पिंजरे से बाहर निकलने के साथ ही मैंने संसार में अपनी महत्वाकांक्षाओं का द्वार भी बंद कर दिया था।
“उसके बाद का कुछ समय अत्यंत वेदना और मनस्ताप में बीता। रक्त में विष फैलने के कारण छः महीनों तक मैं मरणासन्न अवस्था में पड़ा रहा। कूचबिहार छोड़ने योग्य ठीक होते ही मैं अपने गाँव लौट आया।
“ ‘अब मैं जान गया हूँ कि जिन साधु ने सावधानी का विवेकपूर्ण इशारा दिया था वही मेरे गुरु हैं,’ एक दिन विनम्रतापूर्वक मैंने पिताजी से कहा। ‘काश! मैं किसी प्रकार उन्हें ढूँढ पाता !’ मेरी लालसा सच्ची थी, क्योंकि एक दिन वही संत बिना किसी सूचना के हमारे घर पधारे।
“ ‘बाघों का दमन बहुत हो गया।’ शांत अधिकारपूर्ण वाणी में वे बोल रहे थे। ‘मेरे साथ आओ; मैं तुम्हें मानव मन के जंगलों में विचरने वाले अज्ञान के पशुओं का दमन करना सिखाऊँगा। तुम्हें दर्शकों की आदत हो गयी है; अब योगाभ्यास में तुम्हारी रोमांचक पारंगति से झूम उठने वाले देवता तुम्हारे दर्शक होंगे!’
“मेरे गुरु ने मुझे आध्यात्मिक मार्ग की दीक्षा दी। मेरी आत्मा के दीर्घकाल तक अप्रयुक्त रहने से मोर्चा लगे, खोलने में कठिन द्वार उन्होंने खोल दिये। शीघ्र ही एक दूसरे का हाथ थामे, मेरी साधना के लिये हम दोनों हिमालय की ओर चल पड़े।”
अपने तूफ़ानी जीवन की एक झलक हमें दिखाने के लिये कृतज्ञ होकर चण्डी और मैंने स्वामीजी के चरणों में प्रणाम किया। मुझे और मेरे मित्र को लगा कि बैठक में उपेक्षा में की गयी लम्बी प्रतीक्षा का हमें भरपूर प्रतिफल मिला !
¹ [सोऽहम् स्वामी उनका संन्यास नाम था। लोग उन्हें बाघ
स्वामी ही कहते थे]
² [राजाबेगम: उस बाघ में बाघ और वाघिन दोनों की हिंसता मौजूद होने के कारण उसे यह नाम दिया गया था।]