{ प्लवनशील सन्त }
“कल रात एक सभा में मैंने एक योगी को जमीन से कई फुट ऊपर हवा में ठहरे हुए देखा।” मेरा मित्र उपेन्द्र मोहन चौधरी बड़े ही प्रभावशाली ढंग से बोल रहा था।
मैंने उत्साहपूर्ण मुस्कान के साथ कहाः “शायद मैं उनका नाम बता सकता हूँ। कहीं वे अप्पर सर्क्युलर रोड के भादुड़ी महाशय तो नहीं थे?”
उपेन्द्र ने स्वीकृति में सिर हिलाया। यह बात मुझे पहले ही ज्ञात है। यह देखकर उसका चेहरा थोड़ा उतर गया। सन्तों के बारे में मेरी जिज्ञासा से मेरे सभी मित्र भली-भाँति परिचित थे; कोई नयी जानकारी मिलते ही मुझे उनके पीछे लगा देने में उन्हें बड़ा आनन्द आता था।
“ये योगी महाराज मेरे घर के इतने निकट रहते हैं कि मैं प्रायः उनसे मिलने जाता हूँ।” मेरे इस कथन से उपेन्द्र के चेहरे पर उत्सुकता के भाव उमड़ते देख मैंने उसे और भी बातें बताना शुरू किया।
“उनके कई कमाल मैंने देखे हैं। पातंजलि¹ प्रणीत प्राचीन अष्टांग योग के विभिन्न प्राणायाम² विधियों में वे निष्णात हैं। एक बार भादुड़ी महाशय ने मेरे सामने भस्त्रिका प्राणायाम इतने ज़ोर से किया कि लगता था मानो उस कमरे में सचमुच का तूफ़ान आ गया हो ! फिर उन्होंने गर्जन करते श्वासोच्छवास को बंद कर दिया और वे अतिचेतनता ³ (समाधि) की एक उच्च अवस्था में निश्चल बैठे रहे। तूफ़ान के बाद शान्ति का वातावरण इतना प्रभावपूर्ण था कि उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।”
“मैंने सुना है कि वे कभी घर से बाहर नहीं निकलते।” उपेन्द्र के स्वर में कुछ अविश्वसनीयता झलक रही थी।
“वास्तव में यह सच है! विगत बीस वर्षों से वे घर के भीतर ही रहते आये हैं। केवल हमारे पर्व-त्यौहारों के अवसर पर वे स्वयं ही लगाये इस नियम को थोड़ा ढीला करते हैं जब वे अपने ही अहाते में स्थित सामने की पगडंडी तक जाते हैं! वहाँ पर भिखारी जमा हो जाते हैं क्योंकि सन्त भादुड़ी अपने दयार्द हृदय के लिये प्रसिद्ध हैं।”
“गुरुत्वाकर्षण के नियम को ठुकराकर वे हवा में कैसे रह पाते हैं ?”
“कुछ प्राणायामों के अभ्यास से योगियों के शरीर की जड़ता नष्ट हो जाती है। तब उनका शरीर हवा में उठ जाता है या फिर मेंढक की तरह यहाँ से वहाँ फुदकने लगता है। जो सन्त योगाभ्यास नहीं करते, वे भी ईश्वर के प्रति तीव्र भक्ति की अवस्था में हवा में ऊपर उठते पाये गये हैं।”
“इस सन्त के विषय में मैं अधिक जानता चाहता हूँ। क्या तुम उनकी सायंकालीन सभाओं में जाते हो?” उपेन्द्र की आंखें कौतुहल से चमक रही थीं।
“हाँ, मैं प्रायः जाता हूँ। उनके उपदेशों में विद्यमान विनोदपूर्ण चुटकियों और हास-परिहास में मुझे बड़ा मज़ा आता है। कभी-कभी मेरे लंबे अट्टहास से सभा की गंभीरता भंग हो जाती है। भादुड़ी महाशय तो उसका बुरा नहीं मानते किन्तु उनके शिष्य खा जाने वाली नजरों से मेरी ओर देखते हैं!”
उस दिन दोपहर को स्कूल से घर लौटते समय मैं भादुड़ी महाशय के एकान्त निवास के पास से गुजर रहा था तो उनका दर्शन करने की इच्छा हो गयी। जनसाधारण के लिये उनका दर्शन दुर्लभ था। निचली मंजिल पर अकेला रहने वाला उनका एक शिष्य इस बात का ध्यान रखता था कि उनके एकान्त में खलल न पड़े। यह शिष्य कुछ ज़्यादा ही अनुशासनप्रिय व्यक्ति था। उसने मुझ से पूछा कि क्या मैंने भेंट के लिये पहले से समय लिया हुआ है? उसके गुरुदेव उसी समय वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने मुझे अविलम्ब बहिर्गत किये जाने से बचा लिया।
“मुकुन्द जब भी आना चाहे, उसे आने दिया करो।” सन्तवर की आँखें चमक उठीं। “एकान्त का मेरा नियम मेरी अपनी सुविधा के लिये नहीं बल्कि लोगों की सुविधा के लिये है संसारी लोगों को उनके मोहजाल को तहस-नहस कर देने वाली स्पष्टवादिता अच्छी नहीं लगती। सन्त न केवल दुर्लभ हैं, बल्कि वे लोगों को व्याकुल भी कर देते हैं। शास्त्र-पुराणों में भी वे प्रायः जनसाधारण को विह्वल करते पाये जाते हैं।”
मैं भादुड़ी महाशय के पीछे-पीछे ऊपरी मंजिल पर स्थित उनके अत्यन्त सादे कक्ष में जा पहुँचा, जहाँ से वे शायद ही कभी बाहर निकलते थे। संसार की क्षुद्र उत्तेजनाओं के तीव्र गति से नित्य बदलते चित्रों की ओर संतजन प्रायः कोई ध्यान नहीं देते; केवल युग-युगान्तर में स्थिर हुए कालजयी सत्यों पर उनका ध्यान केन्द्रित रहता है। सन्तों के समकालीन लोग केवल उनके संकीर्ण वर्तमान के लोग ही नहीं होते।
“महर्षि! जहाँ तक मैं जानता हूँ, आप पहले ऐसे योगी हैं जो हमेशा घर के अन्दर ही रहते हैं।”
“भगवान कभी-कभी अपने सन्तों को अप्रत्याशित परिस्थितियों में डाल देते हैं, कि कहीं हम यह न सोचें कि हम सन्तों को एक विशिष्ट नियम की चौखट में बिठा सकते हैं।”
आरोग्य और शक्ति से ओतप्रोत अपना शरीर उन्होंने पद्मासन में स्थिर किया। उनकी आयु सत्तर और अस्सी वर्ष के बीच थी, परन्तु आयु या निष्क्रिय जीवन पद्धति का कोई अप्रिय लक्षण उनके शरीर पर नहीं था। उनका सुगठित एवं सीधा शरीर प्रत्येक दृष्टि से आदर्शस्वरूप था। उनका मुखमण्डल पुराणों में वर्णित ऋषियों के समान था— भव्य मस्तक, भरपूर दाढ़ी, शांत आँखें सदैव ईश्वर की सर्वव्यापकता पर स्थिर। वे सदैव दृढ़ता के साथ सीधे बैठते थे।
हम दोनों ध्यानस्थ हो गये। एक घंटे के बाद उनकी सौम्य वाणी ने मुझे जगा दिया।
“तुम प्रायः ध्यान लगाते हो, परन्तु क्या तुम्हें कुछ अनुभव हुआ है?” वे मुझे ध्यान से अधिक ईश्वर से प्रेम करने का स्मरण दिला रहे थे। “साधन को ही साध्य समझ लेने की भूल नहीं करना।”
उन्होंने मुझे कुछ आम दिये। अपने गम्भीर स्वभाव में भी मुझे हमेशा ही आनंदित करने वाली अपनी विनोद बुद्धि को प्रकट करते हुए उन्होंने कहाः ”साधारणतया लोगों को ध्यानयोग से जलयोग (जलपान) अधिक अच्छा लगता है।”
योग के विषय में उनकी इस शब्दक्रीड़ा को सुनकर मैं ठहाके लगाकर हँसने लगा।
“क्या हँसी है तुम्हारी।” वात्सल्यपूर्ण चमक उनकी दृष्टि में प्रकट हुई । उनका अपना चेहरा सदैव गम्भीर ही रहता था, परन्तु उसमें भी परमानन्दभरी मुस्कराहट की झलक होती थी। उनके विशाल कमलनयनों में सदैव एक दिव्य हँसी छिपी होती थी।
“वे पत्र सुदूर स्थित अमेरिका से आये हैं।” उन्होंने मेज पर पड़े अनेक मोटे-मोटे लिफ़ाफ़ों की ओर संकेत किया। “वहाँ की कुछ सोसाइटियों के साथ, जिनके सदस्य योगशास्त्र में रुचि रखते हैं, मैं पत्रव्यवहार करता हूँ। वे कोलंबस से बेहतर दिशाज्ञान के साथ भारत की नये सिरे से खोज कर रहे हैं। उनकी सहायता करने में मुझे खुशी होती है। दिन के उजाले की तरह योगशास्त्र का ज्ञान भी उन सब के लिये है जो इसे प्राप्त करने के इच्छुक हैं।
“जिसे मानव की मुक्ति के लिये ऋषियों ने अनिवार्य समझा है उसे पाश्चात्य लोगों के लिये हल्का करने की आवश्यकता नहीं है। बाह्य अनुभव भिन्न होते हुए भी सबकी आत्मा एक समान ही है, और जब तक योग का कुछ न कुछ अभ्यास नहीं किया जाता, तब तक न ही पाश्चात्य और न ही पौर्वात्य लोग उन्नति कर सकते हैं।”
उन्होंने अपनी शांत दृष्टि मुझ पर स्थिर की। मेरी समझ में तब यह नहीं आया कि उनके वक्तव्य में भविष्यवाणीयुक्त मार्गदर्शन छिपा हुआ था। वह तो केवल अब, जब मैं ये शब्द लिख रहा हूँ, उनके द्वारा प्रायः दिये गये संकेतों का पूर्ण अर्थ मेरी समझ में आ रहा है कि मैं किसी दिन भारत की शिक्षाओं को अमेरिका ले जाऊँगा।
“महर्षि! मैं चाहता हूँ कि आप जगत् के कल्याण के लिये योगशास्त्र पर एक पुस्तक लिखें।”
“मैं शिष्यों को तैयार कर रहा हूँ। वे स्वयं और उनके शिष्यों की श्रृंखला जीवन्त पुस्तकों का काम करेंगे जो समय के स्वाभाविक क्षय और टीकाकारों की अस्वाभाविक टीकाओं से अछूते रहेंगे।”
संध्याकाल को उनके शिष्यों के आने तक मैं अकेला ही उनके साथ रहा। शिष्यों के आने के बाद भादुड़ी महाशय ने अपना अद्वितीय प्रवचन शुरू किया। शांत बाढ़ की तरह अपने श्रोताओं के मन के कूड़े-करकट को बहा ले जाकर वे उन्हें ईश्वर की ओर ले चले। विशुद्ध बंगाली में वे हृदयस्पर्शी दृष्टान्त देते जा रहे थे।
उस दिन भादुड़ी महाशय संत संगति को पाने के लिये अपने राजसी जीवन का त्याग करने वाली मध्ययुगीन राजपूत रानी मीराबाई के जीवन से संबंधित कुछ दार्शनिक तत्त्वों को समझा रहे थे। एक बार एक महान् संन्यासी सनातन गोस्वामी ने मीराबाई से मिलने से इसलिये इन्कार कर
दिया कि वे स्त्री थीं। उत्तर में मीराबाई ने जो कुछ कहा उसे सुनकर गोस्वामी विनम्र बनकर उनके चरणों में नत हो गये।
“महात्माजी से कहो”, मीराबाई ने कहा, “कि मैं नहीं जानती थी कि सृष्टि में ईश्वर के अतिरिक्त और भी कोई पुरुष है। क्या हम सब उनके सामने स्त्रियाँ नहीं हैं ?” (शास्त्रों का एक सिद्धान्त यह है कि केवल ईश्वर ही एकमात्र सृजनक्षम पुरुष तत्त्व है, उसकी सृष्टि तो केवल निष्क्रिय माया है।)
मीराबाई ने भक्तिरस से ओतप्रोत अनेक पदों की रचना की है जो आज भी भारत में प्रेम और श्रद्धा के साथ गाये जाते हैं। उनमें से एक है:
साधन करना चाहि रे मनवा, भजन करना चाहि।
प्रेम लगाना चाहि रे मनवा, प्रीत लगाना चाहि ॥
नीर नहन से हरि मिले, तो जल जन्तु होई ।
फल- मूल खाकर हरि मिले, तो बादूर बंदराई ॥
तुलसी पूजनेसे हरि मिले, तो मैं पूजु तुलसी झाड़ ।
पत्थर पूजनेसे हरि मिले, तो मैं पूजु पहाड़ ॥
तृणभक्षण से हरि मिले, तो बहुत मृगी अजा।
स्त्री छोड़न से हरि मिले, तो बहुत मिले खोजा ॥
दूध पीवन से हरि मिले, तो बहुत वत्स बाला।
मीरा कहे बिना प्रेम से न मिले नन्दलाला ॥
भादुड़ी महाशय जहाँ यौगिक आसन में बैठते थे, वहीं उनके पास पड़ीं उनकी खड़ाऊँ पर कई शिष्य प्रणामी रख देते थे। भारत में प्रचलित इस श्रद्धापूर्ण चढ़ावे का अर्थ है कि शिष्य अपनी भौतिक सम्पदा गुरु के चरणों में अर्पित कर रहा है। कृतज्ञ मित्रों के रूप में प्रभु ही अपने भक्तों की देखभाल करते रहते हैं।
“गुरुदेव आप महान् हैं!” उस पितामहतुल्य ऋषि से विदा लेते समय उनकी ओर भक्तिपूर्ण दृष्टि से देखते हुए एक शिष्य ने कहा। “आपने ईश्वर को पाने के लिये और हमें ज्ञान देने के लिये अपनी संपत्ति, आराम आदि सब कुछ त्याग दिया!” यह सर्वविदित था कि भादुड़ी महाशय ने बचपन में ही विशाल पैतृक संपत्ति को त्याग दिया था, जब उन्होंने अनन्यभाव से योगमार्ग में पदार्पण किया।
“तुम ठीक उल्टी बात बोल रहे हो!” भादुड़ी महाशय के मुखारविंद पर भर्त्सना के अत्यंत सौम्य भाव प्रकट हुए। “मैंने तो अंतहीन आनन्द का विराट साम्राज्य प्राप्त करने के लिये कुछ थोड़े-से रुपये और कुछ तुच्छ सुख-विलासों को छोड़ दिया। फिर मैंने कोई त्याग कहाँ किया है ? और उस निधि को बाँटने में जो आनन्द मिल सकता है, उसका मुझे ज्ञान है। इसे क्या त्याग कहा जा सकता है ? अल्पदृष्टिवाले सांसारिकजन ही वास्तव में सच्चे त्यागी हैं! वे अद्वितीय दिव्य संपत्ति को संसार के मुट्ठीभर तुच्छ खिलौनों के लिये त्याग देते हैं!”
त्याग की इस लोकविरुद्ध व्याख्या को सुनकर मेरी हँसी छूट गयी, जिसमें किसी भी भिक्षुक सन्त को तो कुबेर का मुकुट पहनाया जाता है। और धनगर्भित करोड़पतियों को अनभिज्ञ शहीद बना दिया जाता है।
“विधि का विधान हमारे भविष्य की योजना किसी भी बीमा कंपनी से अधिक अच्छी तरह बनाता है।” उनके ये निष्कर्षात्मक शब्द उनकी अपनी श्रद्धा का अनुभवसिद्ध धर्म था। “आज संसार बाह्य सुरक्षा में ही विश्वास करने वाले बेचैन लोगों से भरा हुआ है। उनके कटु विचार उनके ललाटों पर अंकित घावचिह्नों के समान हैं। जिसने हमारे प्रथम श्वास के साथ ही हमारे लिये हवा और दूध की व्यवस्था कर दी वह भगवान अपने भक्तों की दिन-प्रतिदिन की व्यवस्था करना भी जानता है।”
स्कूल से छुट्टी होते ही इन सन्त के द्वार की तीर्थयात्रा करने का क्रम मैंने जारी रखा। आंतरिक उत्साह के साथ वे अनुभव-लाभ में मेरी सहायता करते रहे। एक दिन वे मेरे घर से दूर राममोहन राय रोड पर रहने के लिये चले गये। उनके श्रद्धालु शिष्यों ने उनके लिये वहाँ नागेन्द्र मठ ⁴ नाम से एक नया आश्रम बना दिया था।
यहाँ मेरी कहानी अचानक कई वर्ष आगे निकल जाती है, फिर भी भादुड़ी महाशय के मुझ से कहे गये अंतिम शब्दों का उल्लेख मैं यहाँ करना चाहता हूँ। पश्चिम की ओर प्रस्थान करने से कुछ पहले मैं उनके दर्शन करने गया और आशीर्वाद पाने के लिये मैंने उनके चरणों पर सिर रखा।
“बेटा! अमेरिका जाओ। युगयुगान्तर की भारत की महिमा को अपनी ढाल के रूप में ले जाओ। विजय तुम्हारे ललाट पर लिखी हुई है; उस देश के भले लोग तुम्हारा हृदयपूर्वक स्वागत करेंगे।”
¹ योगशास्त्र के प्रथम व्याख्याकार।
² श्वास के नियमन द्वारा प्राणशक्ति को नियंत्रित करने की पद्धतियाँ भस्त्रिका (धौंकनी ) प्राणायाम मन को स्थिर करता है।
³ फ्रांस के सबसे अच्छे और विश्वविख्यात सोरबोन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ज्यूल-बुआ ने १९२८ में कहा था कि फ्रांसीसी मनोवैज्ञानिकों ने अतिचेतनता (Superconsciousness) का अनुसंधान कर उसे मान्यता प्रदान की है जो अपनी भव्यता में फ्रॉयड की अवचेतन मन (Subconscious mind) की धारणा के ठीक विपरीत है, और जिसमें ऐसी क्षमताएँ हैं जो मनुष्य को सचमुच मानव, न कि केवल श्रेष्ठतर प्राणी, बनाती हैं। इस फ्रांसीसी विद्वान ने स्पष्ट किया कि उच्चतर चेतना की जागृति कुइज्म (Coueism) या सम्मोहनविद्या का प्रकार नहीं है। दार्शनिक दृष्टि से अतिचेतन मन का अस्तित्व पुरातन काल से ही मान्य किया गया है, वस्तुतः इसे ही इमर्सन ने परमात्मा (Over- Soul) कहा है; किन्तु विज्ञान क्षेत्र में इसे मान्यता अभी मिली है।
“दी ओवर सोल” में इमर्सन ने लिखा है मनुष्य उस मंदिर का अग्रभाग है जिसमें समस्त ज्ञान और जो जो अच्छा है, वह सब अवस्थित है। जिसे हम साधारण अर्थ में मनुष्य कहते हैं, जो खाता, पीता, पौधे लगाता, गिनती करता मनुष्य है, अर्थात् जिस रूप में हम मनुष्य को जानते हैं उसमें वह मनुष्य के सच्चे स्वरूप का प्रतिनिधित्व नहीं करता वरन् मिथ्या स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है। हम उसका आदर नहीं करते, परन्तु आत्मा, जिसका वह अंग है उसे यदि वह अपने व्यवहार में प्रकट होने दे, तो हम अपने आप उसके सामने नतमस्तक हो जायेंगे ..... हमारा एक पहलु आध्यात्मिक प्रकृति के लिये, ईश्वर के सकल गुणों के लिये सदैव खुला रहता है।
⁴ उनका पूरा नाम नागेन्द्रनाथ भादुड़ी था। ईसाई जगत के प्लवनशील सन्तों में एक थे १७वीं शताब्दी के कृपर्टिनो के सन्त जोसेफ अनेक प्रत्यक्षदर्शियों ने उनके चमत्कारों की साक्षी दी।
संत जोसेफ़ इस संसार में अन्यमनस्क रहते थे जो वस्तुतः ईश्वर में अनन्यमनस्कता के कारण था। जिस मठ में वे रहते थे वहाँ के अन्य संन्यासी उन्हें भोजन परोसने का काम कभी नहीं करने देते थे, कि कहीं भोजन के बर्तनों के साथ ही वे छत तक ऊपर न उठ जायें। किसी भी समय दीर्घकाल तक जमीन पर रहने में अक्षम होने के कारण ये संत इस संसार के किसी भी कर्त्तव्य की पूर्ति के लिये सचमुच अयोग्य थे। किसी पवित्र मूर्ति का दर्शनमात्र भी संत जोसेफ़ को सीधी उड़ान भरने की अवस्था में ले जाने के लिये पर्याप्त था, तब एक पत्थर के और दूसरे हाडमांस के ऐसे दो सन्तों को ऊपर हवा में साथ-साथ घूमते देखा जा सकता था।
अविला की संत टेरेसा, जिनकी आत्मा अत्यंत उन्नत थी, को शरीर का ऊँचा उठना आपत्तिजनक लगता था। संगठन कार्य के भारी उत्तरदायित्वों के कारण इन शारीरिक उत्थानात्मक अनुभवों को रोकने का उन्होंने काफी असफल प्रयास किया। जब प्रभु कुछ और ही चाहते हैं, तब ये छोटी-छोटी सावधानियाँ केवल निष्फल होती हैं, उन्होंने लिखा। स्पेन के अल्बा नामक स्थान के गिरजाघर में रखे संत टेरेसा के पार्थिव शरीर में चार शताब्दियों बीत जाने के बाद भी अभी तक कोई हास प्रक्रिया प्रदर्शित नहीं हुई है। उनकी देह से फूलों की महक आती है। यह स्थान अगणित चमत्कारों का साक्षी रहा है।