Ek Yogi ki Aatmkatha - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

एक योगी की आत्मकथा - 1

{ मेरे माता-पिता एवं मेरा बचपन }

परम सत्य की खोज और उसके साथ जुड़ा गुरु-शिष्य संबंध प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है।

इस खोज के मेरे अपने मार्ग ने मुझे एक भगवत्स्वरूप सिद्ध पुरुष के पास पहुँचा दिया जिनका सुघड़ जीवन युग-युगान्तर का आदर्श बनने के लिये ही तराशा हुआ था । वे उन महान विभूतियों में से एक थे जो भारत का सच्चा वैभव रहे हैं। ऐसे सिद्धजनों ने ही हर पीढ़ी में अवतरित हो कर अपने देश को प्राचीन मिश्र (Egypt) एवं बेबीलोन (Babylon) के समान दुर्गति को प्राप्त होने से बचाया है।

मुझे याद आता है, मेरे शैशव काल में पिछले जन्म की घटनाओं की स्मृतियाँ मेरे स्मृतिपटल पर उभर रही थीं, तथापि ये स्मृतियाँ उन घटनाओं के घटित होने के क्रम के अनुसार नहीं थीं। बहुत पहले के एक जन्म की स्पष्ट स्मृतियाँ मुझ में जागती थीं जब मैं हिमालय में रहनेवाला एक योगी था। अतीत की इन झाँकियों ने किसी अज्ञात कड़ी से जुड़कर मुझे भविष्य की भी झलक दिखायी।

शिशु अवस्था की असहाय के अवमाननाओं की स्मृति मुझमें अभी भी बनी हुई है। चल-फिर पाने में और अपनी भावनाओं को मुक्त रूप से व्यक्त कर पाने में असमर्थ होने के कारण मैं विक्षुब्ध रहता था। अपने शरीर की अक्षमताओं का भान होते ही प्रार्थना की लहरें मेरे भीतर उठने लगती थीं। मेरे व्याकुल भाव अनेक भाषाओं के शब्दों में मेरे मन में व्यक्त होते थे। विविध भाषाओं के आंतरिक संभ्रम के बीच मैं धीरे-धीरे अपने लोगों के बंगाली शब्द सुनने का अभ्यस्त होता गया। यह थी शिशु मस्तिष्क की मन बहलाने की सीमा, जिसे बड़े लोग केवल खिलौनों और अंगूठा चूसने तक ही सीमित मानते हैं !


इस मानसिक विक्षुब्धता और मेरा साथ न देनेवाले शरीर के कारण कई बार मैं झल्लाकर आकुलता से रो पड़ता था । मेरी आकुलता पर परिवार में सबको होने वाला विस्मय मुझे याद है। सुखद स्मृतियाँ भी अनेक हैं : मेरी माँ का दुलार और तुतलाने तथा लड़खड़ा के चलने के मेरे आरम्भिक प्रयास। इन आरम्भिक सफलताओं को सामान्यतः जल्दी ही भुला दिया जाता है, परन्तु फिर भी ये आत्मविश्वास की स्वाभाविक आधार शिलाएँ होती हैं।

मेरी इन सुदूरगामी स्मृतियों का होना कोई अपूर्व बात नहीं है। अनेक योगियों के विषय में ज्ञात है कि उन्होंने जन्म-मृत्यु के नाटकीय अवस्था परिवर्तन में भी अपने आत्मबोध को बनाए रखा। यदि मनुष्य केवल शरीर होता तो निःसंशय उसकी मृत्यु के साथ ही उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता। किन्तु यदि युग-युगान्तर से सिद्ध महात्माओं ने सत्य प्रतिपादित किया है तो मानव मूलतः अशरीरी, सर्वव्यापी आत्मा है।

शैशवावस्था की सुस्पष्ट स्मृतियों का होना विलक्षण तो है किन्तु ऐसी घटनाएँ अति दुर्लभ भी नहीं। अनेक देशों में यात्रा करते हुए मैंने अनेक सत्यनिष्ठ स्त्री-पुरुषों के मुख से उनकी शैशवावस्था की स्मृतियाँ सुनी हैं।

मेरा जन्म पूर्वोत्तर भारत में हिमालय पर्वत श्रेणी के निकट स्थित गोरखपुर में ५ जनवरी १८९३ ई. को हुआ था। वहीं मेरे जीवन के पहले आठ वर्ष व्यतीत हुए थे। हम आठ बच्चे थे : चार भाई और चार बहनें। मैं मुकुन्दलाल घोष,* भाइयों में दूसरा और माता-पिता की चौथी सन्तान था।

*(१९१५ में जब मैं संन्यास की प्राचीन स्वामी परंपरा में शामिल हो गया तब मेरा नाम बदलकर योगानन्द हो गया। १९३५ में मेरे गुरु ने मुझे परमहंस की उच्चतर संन्यास उपाधि प्रदान की (प्रकरण २४ और ४२ देखें)।)

मेरे माता-पिता बंगाली क्षत्रिय थे। दोनों ही सन्त प्रकृति के थे। उनके शांत एवं शालीन दाम्पत्य प्रेम में कभी कोई अनर्थक व्यवहार व्यक्त नहीं हुआ। माता-पिता के बीच आपसी सामंजस्य चारों ओर चलने वाले आठ नन्हें जीवों के कोलाहल का शान्त केन्द्र था।

मेरे पिता श्री भगवतीचरण घोष स्वभाव से दयालु, गंभीर और कभी-कभी कठोर थे। उनसे अत्यंत प्यार करते हुए भी हम बच्चे उनसे आदरयुक्त दूरी बनाये रखते थे। वे असाधारण गणितज्ञ और तर्कशास्त्रवेत्ता थे तथा मुख्यतः अपनी बुद्धि से ही काम लेते थे। किन्तु माँ तो स्नेह की देवी थीं और हमें केवल प्रेम के द्वारा ही सिखाती थीं। माँ के देहान्त के पश्चात् पिताजी अपनी आंतरिक कोमलता अधिक स्पष्ट रूप से व्यक्त करने लगे। तब मैंने देखा कि उनकी आँखों में प्रायः मेरी माँ की आँखों की झलक दिखायी पड़ती थी।

माँ के सान्निध्य में हम बच्चों का बचपन में ही धर्मग्रन्थों के साथ कटु-मधुर परिचय हो गया। अनुशासन की आवश्यकता पड़ने पर माँ रामायण और महाभारत से प्रसंगोचित कहानियाँ हमें सुनाती थीं। ऐसे अवसरों पर डाँट और शिक्षा, दोनों ही साथ-साथ चलते थे।

पिताजी के प्रति आदर के प्रतीक स्वरूप कार्यालय से उनके घर आने पर उनका स्वागत करने के लिये शाम में माँ हम बच्चों को कपड़े आदि पहनाकर ध्यानपूर्वक तैयार करती । पिताजी भारत की तत्कालीन बड़ी कंपनियों में से एक, बंगाल-नागपुर रेलवे (बी. एन. आर.) में उपाध्यक्ष (Vice-President) के समकक्ष पद पर कार्यरत थे। यात्रा उनके कार्य का एक हिस्सा थी; हमारा परिवार मेरे बाल्यकाल में अनेक शहरों में रहा।

माँ गरीबों की सहायता के लिये सदा तत्पर रहती थी। पिताजी भी इस मामले में करुणापूर्ण दृष्टिकोण रखते थे परन्तु अपनी आर्थिक सीमा के अन्दर ही व्यय करना पसन्द करते थे। एक बार पंद्रह दिनों में माँ ने गरीबों को खिलाने में पिताजी की मासिक आय से अधिक रकम खर्च कर दी।

इस पर पिताजी ने माँ से कहा: “मैं तुम से केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि कृपा करके अपना दानधर्म तुम उचित सीमा के अन्दर करो।” माँ को अपने पति की यह सौम्य उलाहना भी व्यथाजनक लगी। बच्चों को किसी प्रकार के मतभेद का कोई आभास दिये बिना माँ ने एक घोड़ागाड़ी मँगवायी।

“नमस्कार! मैं अपने मायके जा रही हूँ।” प्राचीन धमकी !

हम लोग चकित होकर विलाप करने लगे। उसी समय संयोगवश हमारे मामा वहाँ आ गये। उन्होंने पिताजी के कान में फुसफुसाकर धीरे से कोई परामर्श दिया, निःसंशय सदियों से चला आ रहा कोई उपाय। पिताजी के कुछ संधिजनक स्पष्टीकरण के बाद माँ ने खुशी-खुशी घोड़ागाड़ी लौटा दी। अपने माता-पिता के बीच मेरे द्वारा देखे गए एकमात्र विवाद का इस प्रकार अंत हुआ। परन्तु एक विशेष संवाद मुझे याद आता है।

“कृपया अभी-अभी घर पर आयी एक असहाय महिला को देने के लिये मुझे दस रुपये दीजिये।” माँ की मुस्कराहट में मनाने की अपनी एक शक्ति थी।

“दस किसलिये ? एक रुपया काफी है।” पिताजी ने इसके साथ एक औचित्य-समर्थन भी जोड़ दिया– “जब मेरे पिताजी और दादा-दादी की अचानक मृत्यु हो गयी तब मैंने गरीबी को पहली बार अनुभव किया। मीलों चलकर स्कूल जाने से पहले मेरा नाश्ता होता था केवल एक छोटा केला। कॉलेज पहुँचने तक मेरी अवस्था इतनी बुरी हो गई कि मैंने एक धनी न्यायाधीश से मासिक एक रुपये की सहायता के लिये प्रार्थना की। उसने यह कहते हुए मना कर दिया कि एक रुपया भी मूल्यवान होता है।”

“उस एक रुपये के मना किये जाने की आपको कितनी कड़वी याद है !” माँ के हृदय से तत्काल तर्क उभरा। “क्या आप चाहते हैं कि यह महिला भी आपके द्वारा इन दस रुपयों को मना किये जाने की वैसी ही दुःखद स्मृति अपने मन में रखें जिनकी उसे तीव्र आवश्यकता है ?”

“तुम जीती!” पराभूत पति की सनातन भाव भंगिमा के साथ पिताजी ने अपना बटुआ खोला और कहा– “यह लो दस रूपये का नोट। उस महिला को यह मेरी शुभकामनाओं सहित दे दो।”

किसी भी नये प्रस्ताव पर पहले “नहीं” कह देना पिताजी का स्वभाव था। इतनी सहजता से माँ की सहानुभूति जगाने वाली उस अपरिचिता के प्रति पिताजी का रवैया उनकी स्वभावगत सतर्कता का एक उदाहरण था। तत्क्षण कोई बात स्वीकार कर लेने में अनिच्छा वस्तुतः “सोच-विचार के बाद निर्णय” के सिद्धान्त का पालन मात्र हैं। मैंने सदा ही देखा कि पिताजी उचित और संतुलित निर्णय लेते थे। यदि मैं अपने अनेकानेक अनुरोधों के पक्ष में एक-दो अच्छे तर्क प्रस्तुत कर देता, तो वे सदा ही मेरी इच्छा पूरी कर देते चाहे वह इच्छा छुट्टियों में भ्रमण यात्रा की हो या नयी मोटरसाइकिल की।

अपने बच्चों के बाल्यकाल में पिताजी अनुशासन में उनके साथ दृढ़ता बरतते थे, परन्तु स्वयं किसी वैरागी की तरह सरल, सात्विक जीवन व्यतीत करते थे। उदाहरणार्थ, वे कभी थियेटर नहीं गये, बल्कि विभिन्न आध्यात्मिक साधनाओं में और भगवद्गीता पढ़ने में ही उन्हें आनन्द आता था। उन्होंने सारे सुखोपभोगों का त्याग कर दिया था, यहाँ तक कि वे जूतों की एक जोड़ी का भी तब तक प्रयोग करते थे जब तक कि वह बिल्कुल ही प्रयोग न करने योग्य न हो जाय। मोटर कारें साधारण चलन में आ जाने के बाद उनके बेटों ने कारें खरीद लीं, परन्तु पिताजी प्रतिदिन अपने ऑफिस जाने के लिये ट्रामगाड़ी की सवारी में ही सन्तुष्ट रहे।

सत्ता या वर्चस्व प्राप्त करने के लिये धनसंचय करने में पिताजी को कोई रुचि नहीं थी। कोलकाता अर्बन बैंक का गठन करने के बाद स्वयं अपने लाभ के लिये उसके शेयर रखने से उन्होंने इन्कार कर दिया। उनकी इच्छा तो अपने अतिरिक्त समय में केवल अपने नागरिक कर्तव्य का निर्वाह करने की थी।

पिताजी के पेंशन लेकर सेवानिवृत्त होने के कई वर्षों बाद बंगाल-नागपुर रेलवे के बही खातों की जाँच करने के लिये इंग्लैण्ड से एक एकाउन्टेन्ट महोदय भारत आये विस्मित जाँच अधिकारी ने देखा कि पिताजी ने उचित समय पर अदा न किये गये किसी बोनस के लिये कभी कोई आवेदन नहीं किया था।

उन्होंने कंपनी को बताया “इन्होंने अकेले तीन आदमियों के बराबर काम किया है। पिछली क्षतिपूर्तिस्वरूप इनका १ लाख २५ हजार रुपया कंपनी से निकलता है।” कंपनी के कोषाध्यक्ष ने उक्त रकम का चेक पिताजी को भेज दिया। पर मेरे पिताजी ने इस घटना को इतना नगण्य माना कि वे परिवार को इसकी सूचना देना भी भूल गये। बहुत बाद में मेरे सबसे छोटे भाई विष्णुने बैंक द्वारा दिये गये विवरण में इतनी बड़ी धनराशि जमा देखकर पिताजी से इसके बारे में पूछा था।

“भौतिक लाभ में इतना उल्लासित क्यों हों ?” पिताजी ने कहा। “समभाव को जिसने अपना लक्ष्य बना लिया हो वह न तो किसी लाभ से उल्लासित होता है न ही किसी हानि से दुःखी। वह जानता है कि मनुष्य इस संसार में खाली हाथ आता है और खाली हाथ ही जाता है।”

अपने वैवाहिक जीवन में पदार्पण करने के शीघ्र बाद ही मेरे माता-पिता एक महान् गुरु, बनारस के लाहिड़ी महाशय के शिष्य हो गये। इस सम्पर्क से पिताजी के पहले से ही विरक्त स्वभाव को और बल मिला। माँ ने एक बार मेरी सबसे बड़ी बहन रोमा को एक उल्लेखनीय बात बतायी– “तुम्हारे पिताजी और मैं संतान प्राप्ति के लिये वर्ष में मात्र एक बार पति-पत्नी के रूप में साथ सोते हैं।”

पिताजी लाहिड़ी महाशय से अविनाश बाबू के माध्यम से मिले थे। अविनाश बाबू बंगाल-नागपुर रेलवे के एक कर्मचारी थे । गोरखपुर में मेरे बचपन में अविनाश बाबू मुझे अनेक भारतीय संतों की मन को तल्लीन कर देने वाली कहानियाँ सुनाया करते थे। वे सदा अपने गुरु की श्रेष्ठतर महिमा के विषय में श्रद्धापूर्वक कुछ-न-कुछ कहकर ही अपनी कहानी समाप्त करते थे।

“तुमने कभी सुना है, किन असाधारण परिस्थितियों में तुम्हारे पिताजी लाहिड़ी महाशय के शिष्य बने थे ?” गर्मियों के मौसम में एक अलसाये दिन मैं और अविनाश बाबू मेरे घर के अहाते में बैठे थे तब उन्होंने मेरी उत्सुकता जगाने वाला यह प्रश्न मुझसे किया। मैंने आशा भरी मुस्कुराहट के साथ ना में सिर हिलाया।

तुम्हारे जन्म से कई वर्ष पहले मैंने अपने वरिष्ठ अधिकारी, अर्थात् तुम्हारे पिताजी से अपने गुरु का दर्शन करने बनारस जाने के लिये एक सप्ताह की छुट्टी देने की याचना की। पर तुम्हारे पिताजी ने मेरी इच्छा का उपहास किया।

उन्होंने कहा– “क्या तुम धार्मिक कट्टरवादी बनना चाहते हो? यदि जीवन में आगे बढ़ना चाहते हो तो अपने काम पर ध्यान दो।”

झाड़ियों में से गुजरती एक पगडंडी से उस दिन उदास मन लिए मैं घर जा रहा था कि पालकी पर सवार तुम्हारे पिताजी से मेरी मुलाकात हो गयी। उन्होंने पालकी और नौकरों को विदा कर दिया और मेरे साथ चलने लगे। मुझे सान्त्वना देने के लिये वे सांसारिक सफलता के लिये प्रयास करने के लाभ मुझे समझाने लगे। पर मैं उनकी बातें बेमन होकर सुन रहा था। मेरा हृदय बार-बार यही पुकार रहा था– “लाहिड़ी महाशय ! मैं आपके दर्शन के बिना जी नहीं सकता !”

हम लोग चलते-चलते एक सुनसान मैदान के किनारे पहुँच गये, जहाँ सांध्यकालीन सूर्य की किरणें लहराती ऊँची जगंली घास पर चमक रही थीं। हम लोग उस मनोरम दृश्य को देखने के लिये रुक गये। वहाँ उस मैदान में, हम से कुछ ही गज की दूरी पर मेरे महान गुरु अकस्मात् प्रकट हो गये।*

(सिद्ध महात्माओं की चमत्कारी शक्तियों का स्पष्टीकरण 30 वें प्रकरण 'चमत्कारों का नियम’ में दिया गया है।)

उनका स्वर वातावरण में गूँज उठा “भगवती ! तुम अपने कर्मचारी के प्रति अत्यन्त कठोर हो!” इसके साथ ही वे जिस रहस्यमय ढंग से प्रकट हुए थे, उसी रहस्यमय ढंग से अंतर्धान हो गये। मैं ज़मीन पर घुटने टेककर ‘लाहिड़ी महाशय! लाहिड़ी महाशय!’ पुकार रहा था। कुछ क्षणों के लिये तुम्हारे पिताजी स्तम्भित हो गये।

“अविनाश! मैं न केवल तुम्हें छुट्टी दे रहा हूँ, बल्कि वाराणसी जाने के लिये मैं स्वयं भी छुट्टी ले रहा हूँ। तुम्हारी सहायता करने के लिये जब चाहे अपनी इच्छा के अनुसार प्रकट होने की शक्ति रखनेवाले इन महान् लाहिड़ी महाशय के दर्शन मुझे करने ही होंगे। मैं अपनी पत्नी को भी साथ लूँगा और इन महान गुरु से प्रार्थना करूँगा कि वे हमें अपने आध्यात्मिक पथ में दीक्षित करें। क्या तुम हम दोनों को उनके पास ले चलोगे ?”

‘अवश्य!’ अपनी प्रार्थना के इस चमत्कारपूर्ण उत्तर को पाकर और घटनाओं के इतने शीघ्र अनुकूल मोड़ लेने पर मेरा मन आनन्द से गद्गद् हो उठा था।

अगले दिन शाम को तुम्हारे माता-पिता और मैं रेलगाड़ी से वाराणसी के लिये चल पड़े। अगले दिन हम लोग वहाँ पहुँचे तो कुछ दूर तक घोड़ा गाड़ी से गये, और फिर तंग गलियों में से चलते हुए मेरे गुरु के घर पहुँचे। उनका घर आसानी से दिखायी नहीं पड़ता था। उनकी छोटी-सी बैठक में प्रवेश करने पर वहाँ हमेशा की तरह पद्मासन में बैठे हुए गुरुदेव को हमने प्रणाम किया। उन्होंने अपनी हृदयवेधी आँखें झपकाई और उन्हें तुम्हारे पिताजी पर स्थिर कर दिया। “भगवती ! तुम अपने कर्मचारी के प्रति अत्यन्त कठोर हो !” दो दिन पहले घास भरे मैदान में
हुए वही शब्द उन्होंने फिर से दोहराये। फिर उन्होंने आगे कहा : “ मुझे खुशी है कि तुमने अविनाश को आने की अनुमति दी और साथ में तुम भी अपनी पत्नी को साथ लेकर यहाँ आ गये।”

तुम्हारे माता-पिता को अत्यन्त आनन्द हुआ कि गुरुदेव ने उन्हें क्रियायोग* की दीक्षा दी। उस पवित्र दर्शन के अविस्मरणीय दिन से ही तुम्हारे पिताजी और मैं गुरुभाई के रिश्ते से घनिष्ठ मित्र रहे हैं। लाहिड़ी महाशय ने तुम्हारे जन्म में विशेष रुचि दिखायी थी। तुम्हारा जीवन निश्चय ही स्वयं उनके जीवन के साथ जुड़ा रहेगा; गुरुदेव का आशीर्वाद कभी निष्फल नहीं होता।

* (लाहिड़ी महाशय द्वारा सिखायी गयी एक यौगिक विधि जिसके द्वारा इंद्रियों की चंचलता शांत हो जाती है और इससे मनुष्य के ब्रह्मचैतन्य के साथ अधिकाधिक एकरूप होने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।)

मेरे जन्म के थोड़े ही दिन बाद लाहिड़ी महाशय ने इस जगत् से प्रस्थान कर लिया। पिताजी का जहाँ-जहाँ भी स्थानान्तरण होता था, वहाँ- वहाँ लाहिड़ी महाशय की एक सुन्दर अलंकृत फ्रेम में सजी हुई फोटो हमारे पूजा घर में देवताओं के चित्रों और मूर्तियों के साथ विराजमान रहती थी। लगभग रोज़ ही सुबह और शाम को माँ और मैं उस पूजा वेदी के सामने ध्यान लगाकर बैठते थे और चंदनसिक्त पुष्प अर्पण करते थे। धूप और गुग्गुल के साथ-साथ अपनी संयुक्त भक्ति द्वारा हम उस ईश्वरत्व की पूजा करते थे, जो लाहिड़ी महाशय में पूर्णतः अभिव्यक्त हुआ था।

उनकी उस फोटो का मेरे जीवन पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा। जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया वैसे-वैसे मेरे मन में उस महान गुरु का विचार अधिक दृढ़ होता गया । ध्यान में प्रायः मैं देखता कि उनकी छवि उस छोटे से फ्रेम से बाहर आ गयी है और जीवित रूप धारण कर मेरे सामने बैठ गयी है । जब मैं उनके ज्योतिर्मय शरीर के चरणों का स्पर्श करने का प्रयास करता, तब वे बदल कर पुनः चित्र बन जाते। जब मैंने बाल्यावस्था से किशोरावस्था में प्रवेश किया तो मैंने देखा कि फ्रेम में जकड़ी लाहिड़ी महाशय की छोटी-सी छवि मेरे मन में जीवित, ज्ञान-प्रदायिनी उपस्थिति बन कर विराजमान हो चुकी है। किसी उलझन या परीक्षा की घड़ी में मैं प्रायः उनसे प्रार्थना करता और अपने अन्तर में उनका सांत्वनादायक मार्गदर्शन पाता।

पहले-पहले तो मुझे दुःख होता था कि वे शारीरिक रूप में जीवित नहीं थे। किंतु जैसे-जैसे मुझे उनकी गुप्त सर्वव्यापकता का पता चलता गया, वैसे-वैसे मेरा दुःख कम होता गया। अपने उन शिष्यों को, जो उनके दर्शन के लिये अति लालायित रहते थे, वे प्रायः लिखा करते थे– “जब मैं सदा तुम्हारे कूटस्थ (दिव्य दृष्टि) की पहुँच में हूँ तो मेरे अस्थि-मांस को देखने के लिये आने की क्या आवश्यकता है ?”

लगभग ८ वर्ष की आयु में मुझे लाहिड़ी महाशय की फोटो के माध्यम से चमत्कारी स्वास्थ्य लाभ का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। इस अनुभव ने मेरे प्रेम को और भी अधिक उत्कट कर दिया। जब मैं बंगाल के इच्छापुर में अपने पारिवारिक घर में रह रहा था, तब मुझे हैजा हो गया। मेरे बचने की कोई आशा नहीं रही। डॉक्टर कुछ भी नहीं कर पा रहे थे। मेरे बिस्तर के पास बैठी माँ ने भावविह्वलता के अतिरेक के साथ मेरे सिर के ऊपर टंगी लाहिड़ी महाशय की फोटो की ओर देखने का मुझे इशारा किया।

“उन्हें मन ही मन प्रणाम करो!” वे जानती थीं कि प्रणाम करने के लिये हाथ उठाने की शक्ति मुझ में नहीं बची थी। “यदि तुम सचमुच अपनी भक्ति प्रकट करोगे और अपने अन्तर में उनका चरणस्पर्श करोगे, तो तुम्हें जीवनदान मिल जायेगा !”

मैंने उनकी फोटो की ओर देखा तो वहाँ आँखें चौंधियाने वाला प्रखर प्रकाश दिखायी पड़ा जिसने मेरे शरीर और पूरे कमरे को अपने में समा लिया। मेरी मिचलाहट और अन्य अनियंत्रणीय लक्षण समाप्त हो गये; मैं स्वस्थ हो गया। तत्क्षण ही मुझ में इतनी शक्ति आ गयी कि अपने गुरु में अपार श्रद्धा रखने वाली माँ का मैंने झुककर चरणस्पर्श किया। माँ बार-बार उस छोटी-सी फोटो पर अपना माथा टेक रही थी।

“हे सर्वव्यापी गुरुदेव ! मैं आपकी कृतज्ञ हूँ कि आपके आलोक ने मेरे पुत्र को अच्छा कर दिया !”

मैं समझ गया कि उन्होंने भी उस तेजोमय ज्योति का दर्शन किया था जिसकी महिमा से मैं उस साधारणतया प्राणघातक साबित होने वाली बीमारी से एकाएक अच्छा हो गया था।

मेरे पास जो कुछ भी अनमोल चीजें हैं, उनमें एक वह फोटो भी है। स्वयं लाहिड़ी महाशय द्वारा पिताजी को दी गयी यह फोटो एक पवित्र स्पंदन से युक्त है। इस फोटो के पीछे भी एक चमत्कारिक कहानी है। मैंने यह कहानी पिताजी के गुरुभाई कालीकुमार राय से सुनी थी।

ऐसा प्रतीत होता है कि लाहिड़ी महाशय को अपनी फोटो खिंचवाना अच्छा नहीं लगता था। एक बार उनके विरोध के बावजूद उनकी और उनके कई शिष्यों की, जिनमें कालीकुमार राय भी शामिल थे, एक सामूहिक फोटो खींची गयी। पर उस समय फोटोग्राफर के आश्चर्य की सीमा न रही जब उसने देखा कि उस फोटो में सब शिष्यों के चित्र तो एकदम स्पष्ट दिखायी दे रहे थे, परन्तु बीच में, जहाँ उसने लाहिड़ी महाशय का चित्र होने की सार्थक आशा की थी, कोई आकृति नहीं थी; वह स्थान बिल्कुल खाली था। इस विस्मयकारी घटना पर खूब चर्चा हुई।

एक शिष्य गंगाधर बाबू ने, जो एक कुशल फोटोग्राफर थे, डींग मारी कि लाहिड़ी महाशय चाहे जो कर लें, वे उनकी फोटो अवश्य खींच सकते हैं। अगले दिन प्रातःकाल जब गुरुदेव लकड़ी की बैंच पर पद्मासन में बैठे थे और उनके पीछे एक कपड़े का पर्दा भी लगा दिया गया था, तब गंगाधर बाबू अपने साज-सामान के साथ वहाँ पहुँच गये। सफलता के लिये सारी सावधानियाँ बरतते हुए उन्होंने उत्कंठापूर्वक बारह फोटो खींचीं। किंतु शीघ्र ही उन्हें दिखायी पड़ा कि हर प्लेट पर लकड़ी की बैंच और पर्दे का चित्र तो स्पष्ट हैं, पर गुरुदेव की आकृति का पुनः कहीं पता नहीं।

गंगाधर बाबू का अभिमान चूर-चूर हो गया । अश्रु बहाते हुए वे दौड़े-दौड़े लाहिड़ी महाशय के पास पहुँचे। कई घण्टों के बाद लाहिड़ी महाशय ने इस सारगर्भित वाक्य के साथ अपना मौन तोड़ा: “मैं ब्रह्म हूँ। क्या तुम्हारा कैमरा सर्वव्यापी अगोचर का चित्र खींच सकता है ?”

गंगाधर बाबू ने कहाः “मैं देख रहा हूँ कि नहीं खींच सकता ! परन्तु हे सर्वज्ञ गुरुदेव ! आपके देहमन्दिर की एक फोटो प्राप्त करने की बहुत इच्छा हैं। मेरी दृष्टि संकुचित रही है। आज तक मैं यह नहीं समझ पाया था कि आपमें ब्रह्म पूर्ण रूप से वास करता है।”

“फिर कल सुबह आओ। मैं तुम्हारे कैमरे के सामने बैठकर फोटो खिंचवा लूंगा।”

पुनः फोटोग्राफर ने अपना कैमरा फोकस किया। इस बार अगोचर रहस्यमयता के आवरण से रहित उस पवित्र महापुरुष की आकृति प्लेट पर स्पष्ट रूप से उभर आयी। गुरुदेव ने इसके बाद कभी अपनी कोई फोटो नहीं खिंचवायी; कम से कम मैंने नहीं देखी।

वही फोटो इस पुस्तक में छपी हैं।* सांचे में ढली लाहिड़ी महाशय की मुखाकृति से कुछ पता नहीं चल पाता कि वे किस कुल वंश के थे। उनकी रहस्यमय मुस्कान में ईश्वर साक्षात्कार के आनंद की कुछ-कुछ झलक दिखायी देती है। बाह्य जगत् में नाममात्र की रुचि का संकेत देती उनकी अर्धोन्मीलित आँखें आंतरिक परमानंद का संकेत करती हुई आधी बंद भी हैं। इस जगत् के क्षुद्र प्रलोभनों से अलिप्त वे आध्यात्मिक सहायता के लिये अपने पास आनेवाले जिज्ञासुओं की आध्यात्मिक समस्याओं के प्रति सतत पूर्ण जागरूक रहते थे।

* (फोटो विभाग में पृष्ठ 9 देखें फोटो विभाग में ही श्री श्री लाहिड़ी महाशय का हाथ से बनाया गया चित्र पृष्ठ 10 पर देखें। 1935-36 में जब परमहंस योगानन्द जी भारत आये थे, तब उन्होंने एक बंगाली चित्रकार से अपने निर्देशानुसार यह चित्र मूल फोटो के अनुसार बनवाया और बाद में इसे योगदा सत्संग सेल्फ-रियलाइजेशन फ़ेलोशिप के प्रकाशनों में प्रयुक्त करने के लिये निर्धारित किया। माऊण्ट वाशिंगटन में वह चित्र परमहंस जी के कमरे में दीवार पर टांग कर रखा गया है। (प्रकाशक की टिप्पणी))

गुरुदेव के चित्र की महिमा से स्वास्थ्यलाभ करने के थोड़े दिन बाद ही मुझे एक प्रभावकारी दिव्य दर्शन हुआ। एक दिन प्रातः अपने बिछौने पर बैठा मैं एक गहन दिवास्वप्न में डूब गया।

“बंद आँखों के अन्धकार के पीछे क्या है ?” यह अनुसंधानात्मक विचार बड़े वेग से मेरे मन में उभर आया। तत्क्षण ही मेरी अंतर्दृष्टि के सामने प्रखर प्रकाश कौंध गया। मेरे ललाट में विस्तीर्ण दीप्तिमान पट पर पर्वत गुफाओं में ध्यानस्थ बैठे सन्तों की आकृतियाँ छोटे-छोटे चलचित्रों की भाँति प्रकट होने लगी।

“आप लोग कौन हैं ?” मैंने उच्च स्वर में पूछा।

“हम हिमालय के योगी हैं।” इस दिव्य उत्तर का आनंद वर्णनातीत था; मेरा हृदय पुलकित हो उठा।

“आह! मैं भी हिमालय में आकर आपके जैसा बनना चाहता हूँ !” दृश्य अंतर्धान हो गया, परन्तु रजत किरणें मण्डलाकार में अनंत की ओर विस्तृत होतो गईं।

“यह अद्भुत् आलोक क्या है ?”

“मैं ईश्वर हूँ। मैं प्रकाश हूँ।” यह ध्वनि बादलों की सौम्य बुदबुदाहट जैसी थी।

“मैं आपके साथ एकाकार होना चाहता हूँ !”

यद्यपि वह ईश्वरीय आनन्द क्रमशः क्षीण होता गया, पर उससे मैं ब्रह्म की स्थायी खोज की विरासत प्राप्त करने में सफल हुआ। “ईश्वर शाश्वत, नित्य नवीन आनंद है!” यह स्मृति मेरे हृदयपटल पर इस अनुभव के बाद लम्बे समय तक बनी रही।

बचपन की एक अन्य स्मृति असाधारण है, और उल्लेखनीय भी है, क्योंकि उसका चिह्न आज भी मेरे हाथ पर है। एक दिन प्रातः समय मैं और मेरी बड़ी बहन उमा अपने गोरखपुर के घर के अहाते में नीम के पेड़ के नीचे बैठे थे। आस-पास के तोतों को नीम के पके फल खाते मैं निहार रहा था और बीच में जो समय मिलता उस में उमा दीदी मुझे बंगाली की पहली पुस्तक पढ़ने में मदद कर रही थीं।

उमा दीदी ने अपने पैर पर फोड़ा होने की बात बतायी, और वह उस पर लगाने के लिये मरहम की एक डिबिया ले आयी। मैंने उस में से थोड़ा मरहम लेकर अपने हाथ पर लगा लिया।

तुम निरोग हाथ पर मरहम क्यों लगा रहे हो ?

“बात ऐसी है दीदी, मुझे लग रहा है कि कल मुझे यहाँ फोड़ा होने वाला है।”

“चल, झूठा कहीं का!”

“दीदी, जब तक तुम कल सुबह क्या होता है यह देख नहीं लेतीं, तब तक मुझे झूठा नहीं कह सकतीं।” मुझे क्रोध आ गया।

उमा पर उसका कोई असर नहीं पड़ा और उसने तीन बार अपने व्यंग्य को दोहराया। एक दृढ़ निश्चय मेरी आवाज़ में ध्वनित होने लगा जब मैंने धीरे-धीरे कहना शुरू किया:

“मैं अपनी इच्छाशक्ति के बल के साथ कहता हूँ कि कल मेरे हाथ पर इसी जगह एक काफी बड़ा फोड़ा निकल आयेगा; और तुम्हारा फोड़ा सूज कर दुगुना हो जायेगा।”

सुबह मेरे हाथ पर एक बहुत बड़ा फोड़ा निकल आया और उमा का फोड़ा आकार में दुगुना हो गया। मेरी बहन चीखती हुई माँ के पास भागी। “माँ! मुकुन्द जादू टोना करना सीख गया है !” माँ ने गम्भीर होकर मुझ से कहा कि हानि करने के लिये मैं शब्द-शक्ति का प्रयोग कभी न करूँ।

मैंने माँ का वह उपदेश सदा ही याद रखा है और उसका पालन किया है। मेरे फोड़े का इलाज चीरे से हुआ। डॉक्टर के चीरे से बना चिह्न आज भी वर्तमान है। मेरे दाहिने हाथ पर मनुष्य के शब्द की शक्ति का नित्य स्मरण दिलाता हुआ यह चिह्न स्मारक के रूप में विद्यमान है।

गहरी एकाग्रता के साथ उमा को कहे गये उन साधारण एवं प्रकटतः हानिरहित प्रतीत होनेवाले शब्दों में बम के सदृश विस्फोट कर निश्चित परिणाम उत्पन्न करने की (यद्यपि परिणाम हानिकर थे ) पर्याप्त शक्ति निहित थी। बाद में मेरी समझ में आया कि किसी के जीवन को संकट से बचाने के लिये वाणी की विस्फोटक स्पंदन-शक्ति का सदुपयोग किया जा सकता है और इस प्रकार बिना चिह्न या कष्ट रहित शल्य चिकित्सा की जा सकती है।*

*(ध्वनि की अनन्त क्षमताएँ सृजनात्मक शब्द या ओम् से उद्भूत होती हैं। ओम् ही सब अणुशक्तियों के मूल में स्थित विराट स्पंदनशक्ति है। स्पष्ट अनुभूति और गहरी एकाग्रता के साथ उच्चरित किसी भी शब्द में मूर्त होने की शक्ति होती है। प्रेरणाप्रद शब्दों का बार-बार स्वर से या मौन उच्चारण मनश्चिकित्सा की विभिन्न पद्धतियों में प्रभावकारी पाया गया है इसका रहस्य मन की स्पंदन-गति को बढ़ाने में निहित हैं।)

हमारा परिवार पंजाब के लाहौर शहर में स्थानांतरित हुआ। वहाँ मैंने देवी काली के रूप में जगन्माता का एक चित्र प्राप्त किया। हमारे घर की बाल्कनी में इस चित्र का अनौपचारिक मन्दिर बना। मेरे मन में अनायास ही यह निश्चित विश्वास पैदा हो गया कि उस पवित्र स्थान पर की गयी मेरी किसी भी प्रार्थना को पूर्ति का ताज पहना दिया जायेगा। एक दिन वहाँ उमा के साथ खड़ा होकर मैं दो लड़कों को दो घरों की छतों पर पतंग उड़ाते देख रहा था। इन दोनों घरों और हमारे घर के बीच एक बहुत ही संकरी गली थी।

“तुम आज इतने चुप क्यों हो?” उमा ने खेल-खेल में मुझे धक्का देकर पूछा।

“मैं यह सोच रहा हूँ कि कितनी अद्भुत बात है कि मैं जो भी माँगता हूँ, जगन्माता मुझे दे देती हैं।”

“मैं समझती हूँ वह तुम्हें वे दोनों पतंगें भी दे देंगी!” मेरी बहन उपहास की हँसी हँसते हुए बोली।

“क्यों नहीं ?” मैंने उन पतंगों को पाने के लिये मौन प्रार्थना शुरू कर दी।

भारत में धागों पर मांजा (गोंद और शीशे का चूर्ण) लगाकर पतंगों का खेल खेला जाता है। प्रत्येक पतंग उड़ानेवाला अपने प्रतिद्वन्द्वी की पतंग काटने का प्रयास करता है। कटी हुई पतंग छतों के ऊपर से जाती है, तब उसे पकड़ने में बड़ा मजा आता है। उमा और मैं ऐसी बाल्कनी में खड़े थे जिसके ऊपर छत थी और दोनों ओर दीवारें भी थीं, इसलिये किसी कटी पतंग का हमारे हाथ आना असम्भव प्रतीत होता था, क्योंकि स्वाभाविक तौर पर उसका धागा छत के ऊपर ही लटकता हुआ आगे निकल जाता।

गली के उस पार पतंग उड़ानेवालों ने अपना खेल शुरू किया। एक धागा कट गया; तत्क्षण ही पतंग मेरी दिशा में लपकी अचानक हवा बन्द हो जाने के कारण वह पतंग एक क्षण के लिये स्थिर हो गयी और इसी बीच उसका धागा सामने वाले घर के ऊपर उगे नागफनी के एक पौधे में उलझ गया। मेरे पकड़ने के लिये एक पूरा फंदा बन गया। मैंने यह पुरस्कार उमा को सौंप दिया।

“यह तो केवल एक असाधारण संयोग था, न कि तुम्हारी प्रार्थना का उत्तर। यदि वह दूसरी पतंग भी तुम्हारे पास आ जाये, तो मैं मानूँगी।”

दीदी की काली आँखों से उनके शब्दों की अपेक्षा कहीं अधिक विस्मय प्रकट हो रहा था। मैंने तीव्रता से अपनी प्रार्थनाएं जारी रखीं। उस दूसरे पतंग उड़ानेवाले के जोर से झटका मारने के कारण उसका धागा भी टूट गया। हवा में नाचती हुई पतंग मेरी ओर आने लगी। मेरे सहायक नागफनी के पौधे ने फिर से धागे को उलझाकर आवश्यक फंदा बना दिया ताकि मैं उसे पकड़ सकूँ। मैंने अपना यह दूसरा पुरस्कार भी उमा को भेंट कर दिया।

“सचमुच जगन्माता तुम्हारी प्रार्थना सुनती हैं! यह सब मेरे लिये विलक्षण है!” दीदी भयभीत मृगशावक की भाँति भाग गयी।


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