एक योगी की आत्मकथा - 2 Ira द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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एक योगी की आत्मकथा - 2

{ माँ का देहान्त और अलौकिक तावीज }

मेरी माँ की सबसे बड़ी इच्छा मेरे बड़े भाई के विवाह की थी। “अहा ! जब मैं अनन्त की पत्नी का मुख देखूँगी तब मुझे इस धरती पर ही स्वर्ग मिल जायेगा !” इन शब्दों में माँ को अपने वंश को आगे चलाने की प्रबल भारतीय भावना व्यक्त करते मैं प्रायः सुनता था।

अनन्त की सगाई के समय मैं लगभग ग्यारह वर्ष का था । माँ कोलकाता में अत्यंत उल्लास से विवाह की तैयारियों में जुटी हुई थीं । केवल पिताजी और मैं ही उत्तरी भारत में स्थित बरेली में अपने घर में रह गये थे, जहाँ लाहौर में दो वर्ष रहने के बाद पिताजी का स्थानान्तरण हो गया था।

इसके पूर्व मैं अपनी दो बड़ी बहनों रमा और उमा के विवाहों का ठाठबाट देख चुका था, किन्तु घर में सबसे बड़ा पुत्र होने के नाते अनन्त के विवाह की तैयारियाँ तो और भी बड़े स्तर पर हो रही थीं। माँ प्रतिदिन दूर-दूर से कोलकाता पहुँचते सगे-संबंधियों की आवभगत करने में व्यस्त थीं। माँ ने ५०, एमहर्स्ट स्ट्रीट में लिये गये एक नये विशाल घर में उन सबके आरामपूर्वक ठहरने की व्यवस्था की थी । सारी तैयारियाँ पूरी हो चुकीं थीं विवाह भोज के लिये नानाविध व्यंजन, बारात के साथ अनंत को ले जाने के लिये पालकी, रंगबिरंगी बत्तियों की कतारें, गत्ते के विशालकाय हाथी और ऊँट, अंग्रेजी, स्कॉटिश और हिंदुस्तानी बैंडबाजे, पेशेवर गायक तथा नर्तक, विवाह-विधि सम्पन्न कराने के लिये पंडित पुरोहित सब कुछ तैयार था।

मंगलोत्सव के उत्साह से भरे हुए पिताजी और मैं समय पर विवाह के लिये पहुँचने का विचार कर रहे थे। परन्तु उस शुभ दिन से थोड़े ही पहले मैंने एक अमंगलसूचक दृश्य ध्यान में देखा । यह बरेली में अर्द्धरात्रि के समय था । मैं पिताजी के साथ अपने बंगले के बरामदे में सोया हुआ था । पलंग पर लगी मच्छरदानी की विचित्र फड़फड़ाहट की-सी ध्वनि से मेरी नींद खुल गयी। पतली मच्छरदानी के पर्दे खुल गये और मुझे अपनी प्रिय माँ दिखायी पड़ीं।

“अपने पिताजी को जगाओ!” माँ की आवाज केवल एक फुसफुसाहट की तरह लगी। “आज ही भोर को चार बजे यहाँ से चलनेवाली पहली गाड़ी पकड़ो। यदि मुझे देखना चाहते हो तो जल्दी करो!” इसके बाद वह छायामूर्ति अदृश्य हो गयी।

“पिताजी, पिताजी! माँ प्राण त्याग रही हैं।” मेरे आर्त स्वर में व्याप्त भयाकुलता ने उन्हें तत्क्षण जगा दिया। सुबकते हुए मैंने उन्हें सारी घटना सुना दी। अपने स्वभाव के अनुसार इस स्थिति को अस्वीकार करते हुए उन्होंने मुझसे कहाः “ चिन्ता की कोई बात नहीं। यह तुम्हारे मन का भ्रम मात्र है। तुम्हारी माँ बिल्कुल ठीक है। यदि कोई दुःखद समाचार मिल ही गया तो हम लोग कल चल पड़ेंगे।”

“यदि आप अभी तुरन्त नहीं चले तो अपने आप को आप कभी क्षमा नहीं कर पायेंगे !”

तीव्र व्यथा के कारण मेरे मुँह से ये शब्द भी निकल पड़े: “और न ही मैं आपको कभी क्षमा करूँगा!”

विषादपूर्ण प्रातःकाल स्पष्ट सन्देश लेकर आया “माँ गम्भीर रूप से अस्वस्थ विवाह स्थगित; तुरन्त आइये।”

पिताजी और मैं हतबुद्धि होकर निकल पड़े। रास्ते में जहाँ गाड़ी बदलनी पड़ती थी, वहाँ मेरे एक चाचा हम लोगों से मिले। आकार में बड़ी-बड़ी होती जाती एक रेलगाड़ी वज्र-गर्जन के साथ हमारी ओर आ रही थी। आंतरिक क्षुब्धता के कारण अपने आप को गाड़ी के आगे झोंक देने का निश्चय अचानक मेरे मन में उठा। मुझे लगा कि माँ की छत्रछाया से वंचित हो जाने के बाद अब अचानक पूर्णतः उजड़ गये इस संसार को सहने की क्षमता मुझ में नहीं है। मैं माँ से इस संसार में सबसे प्रिय मित्र के रूप में प्यार करता था । उनके सांत्वनादायक काले नयन बचपन की छोटी-छोटी व्यथा-वेदनाओं के समय मेरा एकमात्र आश्रय थे।

“क्या माँ अभी तक जीवित हैं ?” चाचा से एक अंतिम प्रश्न करने के लिये मैं रुक गया।

चाचा को मेरे चेहरे पर छायी अधीरता को भाँप लेने में तनिक भी देर नहीं लगी। “निस्संशय वे जीवित हैं!” पर मुझे उन पर थोड़ा भी विश्वास नहीं हुआ।

हम कोलकाता में घर पहुँचे तो हमें मृत्यु के अचेतन करने वाले रहस्य का सामना करना पड़ा। मैं मृतप्राय सा होकर गिर पड़ा। किसी प्रकार की सांत्वना को मेरे हृदय का स्पर्श भी कर पाने के लिये कई वर्ष लग गये। मेरी आर्त पुकारों ने साक्षात् स्वर्ग के द्वारों को हिला दिया। आखिर जगज्जननी को आना ही पड़ा। उनके स्नेहस्निग्ध शब्दों ने मेरे रिसते घावों को भर दिया:

“वह मैं ही थी जिसने जन्म जन्मांतर में अनेक माताओं की स्नेहवत्सलता के माध्यम से तुम्हारी देखभाल की खोये हुए जिन दो सुन्दर काले नयनों को तुम ढूँढ रहे हो, उन्हें मेरी आँखों में देखो !”

परमप्रिय माँ के श्राद्ध कर्म के बाद शीघ्र ही पिताजी और मैं बरेली लौट आये। अतीत की स्मृति में प्रतिदिन भोर में ही मैं अपने बंगले के सामने स्थित नरम, हरित स्वर्णिम हरियाली को छाया देते खड़े पारिजात वृक्ष की दुःखार्त होकर तीर्थयात्रा करता। कभी-कभी काव्यमय क्षणों में मैं सोचता था कि पारिजात के श्वेत पुष्प अपनी अन्तर्जात भक्ति से हरित तृण वेदी पर अपने आप को बिखेर रहे हैं। ओस बिन्दुओं के साथ अपने अश्रु बिन्दुओं को मिलाते हुए मैं प्रायः उषा से लोकोत्तर, अलौकिक प्रकाश निकलता देखा करता । ईश्वर को पाने की तीव्र कसक से मैं तड़प उठता। हिमालय में चले जाने की प्रबल इच्छा मुझ में जाग उठी।

मेरे एक चचेरे भाई हिमालय की पावन पर्वत श्रेणियों की यात्रा कर हमारे यहाँ बरेली आये। योगियों और स्वामियों* के उस उच्च पर्वत-निवास स्थान की कहानियाँ मैंने उनसे उत्सुकतापूर्वक सुनी।

*( स्वामी शब्द के संस्कृत मूल का अर्थ है, वह जो अपने स्व के साथ या आत्मा के साथ एक हो गया है। (प्रकरण २४ देखें) )

“चलो, हिमालय भाग चलें।” यह प्रस्ताव एक दिन मैंने बरेली में अपने मकान मालिक के पुत्र द्वारका प्रसाद के समक्ष रखा, परन्तु वह ऐसे विचारों से सहमत नहीं था। उसने मेरे इस विचार से मेरे बड़े भाई को अवगत करा दिया जो उसी समय पिताजी से मिलने के लिये वहाँ आये थे । एक छोटे बच्चे की इस अव्यवहारिक योजना को हँसकर टाल देने के बदले अनन्त ने मेरा उपहास करने का निश्चय कर लिया।

“तुम्हारे गेरुए कपड़े कहाँ हैं? उनके बिना तो तुम स्वामी नहीं बन सकते!”

परन्तु उनके इन शब्दों से मैं अबोधगम्य रूप से पुलकित हो उठा। उन शब्दों ने एक स्पष्ट चित्र मेरी दृष्टि के सामने खड़ा कर दिया, कि मैं संन्यासी बन कर भारत-भ्रमण कर रहा हूँ। शायद उन शब्दों ने किसी पूर्वजन्म की स्मृतियों को जगा दिया था। चाहे जो बात हो, पर मुझे यह तो पता चल गया कि प्राचीन संन्यास परम्परा का गेरुआ वस्त्र मैं अत्यंत स्वाभाविक सहजता के साथ धारण कर सकूँगा ।

एक दिन द्वारका के साथ बातचीत करते हुए मैंने अनुभव किया कि हिमस्खलन के समान प्रचण्ड वेग से ईश्वर-प्रेम की धारा मुझ में उतर रही है। इसके फलस्वरूप शब्दों का जो धारा प्रवाह मुझसे बहने लगा उसकी ओर द्वारका का तो विशेष ध्यान नहीं था, पर मैं पूरे मन से अपने आप को सुन रहा था।

उसी दिन दोपहर को मैं हिमालय की तलहटी में स्थित पहाड़ियों में बसे नैनीताल की ओर भाग गया। अनन्त ने भी दृढ़ संकल्प के साथ मेरा पीछा किया और विवश हो कर मुझे दुःखी अंतःकरण के साथ बरेली वापस आना पड़ा। मुझे केवल एक ही तीर्थयात्रा करने की अनुमति थी और वह थी प्रतिदिन प्रातः की पारिजात वृक्ष की तीर्थयात्रा। मेरा हृदय अपनी खोयी हुई दोनों माताओं के लिये मूक रुदन करता रहा– एक मानवी माता, दूसरी जगन्माता ।

माँ के स्वर्गवास से परिवार में जो रिक्तता उत्पन्न हो गयी वह कभी भरी नहीं जा सकती थी। अपने जीवन के लगभग चालीस शेष वर्षों में पिताजी ने दूसरा विवाह नहीं किया। अपने बालवृन्द के माता-पिता की कठिन भूमिका उन्होंने स्वयं ही स्वीकार कर ली और इसके निर्वाह में वे हमारे साथ अधिक कोमल हृदय, अधिक मिलनसार बन गये। शांति और सूझ-बूझ के साथ ही वे विभिन्न पारिवारिक समस्याओं को हल करते । कार्यालय से आने के पश्चात् वे किसी विरक्त की भाँति अपने कक्ष में चले जाते और आनन्दपूर्ण प्रशान्ति में क्रिया योग का अभ्यास करते। माँ के स्वर्गवास के बहुत समय बाद मैंने ऐसी छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखने के लिये एक अंग्रेज़ परिचारिका को रखने का प्रयास किया ताकि पिताजी को कुछ आराम मिल सके। परन्तु पिताजी ने सिर हिला हिला कर अपनी असहमति प्रकट की ।

“तुम्हारी माँ के साथ ही मेरी सेवा का अन्त हो गया।” आजीवन एकपत्नी-परायणता के भाव में उनकी आँखें खो गयीं। “मैं किसी भी अन्य स्त्री की सेवा ग्रहण नहीं करूँगा।”

माँ के गुज़र जाने के १४ महीने बाद मुझे ज्ञात हुआ कि वह मेरे लिये एक महत्वपूर्ण संदेश छोड़ गयी हैं। उनके अंतिम समय अनन्त दा उनके पास उपस्थित थे और उन्होंने उनके शब्दों को लिख लिया था। यद्यपि माँ ने वह संदेश मुझे एक वर्ष में दिये जाने का निर्देश दिया था तथापि मेरे भाई ने उसमें विलम्ब कर दिया था। उन्हें शीघ्र ही माँ द्वारा उनके लिये पसन्द की हुई कन्या से विवाह करने के लिये बरेली से कोलकाता प्रस्थान करना था । एक दिन संध्या को उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया ।

“मुकुन्द ! तुम्हें यह विलक्षण समाचार देने में मैं आनाकानी करता रहा । उनके स्वर में विवशतापूर्ण समर्पण था ।”

“मुझे भय था कि इससे तुम्हारी गृहत्याग की इच्छा और भड़क उठेगी। परन्तु तुम वैसे भी अभी प्रबल ईश्वर प्रेम से ओत-प्रोत हो। अभी हाल ही में जब मैं तुम्हें हिमालय जाते हुए रास्ते से पकड़ लाया, तभी मैंने एक निश्चित संकल्प कर लिया। मुझे किसी भी परिस्थिति में अब अपना पवित्र वचन निभाने में देर नहीं करनी चाहिये।” मेरे भाई ने मुझे एक छोटी-सी डिबिया दी और माँ का सन्देश मुझे सुनाया।

माँ ने कहा था:– “मेरे प्रिय पुत्र मुकुन्द ! मेरे ये शब्द तुम्हारे लिये मेरा अन्तिम आशीर्वाद हैं। अब वह समय आ गया है जब मुझे तुम्हारे जन्म के पश्चात् घटी अलौकिक घटनाओं से तुम्हें अवगत करा देना चाहिये। जब तुम मेरी गोद में एक नन्हे से शिशु मात्र थे, तभी मुझे तुम्हारे निहित मार्ग का पता चल गया था। मैं तब तुम्हें वाराणसी में अपने गुरु के घर ले गयी थी । वहाँ शिष्यों की भीड़ की ओट में लगभग छिपे हुए, मैं ध्यानस्थ लाहिड़ी महाशय को कठिनता से देख पा रही थी।

“तुम्हें थपकियाँ देते-देते मैं मन ही मन प्रार्थना करती जा रही थी कि गुरुदेव को वहाँ हमारी उपस्थिति का ज्ञान हो जाय और वे तुम्हें आशीर्वाद दें। जब मेरी मूक भक्तिपूर्ण प्रार्थना तीव्र हो गयी तब उन्होंने आँखें खोलीं और मुझे पास आने का इशारा किया। सभी लोगों ने मुझे रास्ता दिया; मैंने जाकर उन परमपवित्र चरणकमलों में अपना सिर रखा। लाहिड़ी महाशय ने तुम्हें अपनी गोद में ले लिया और आध्यात्मिक दीक्षा के रूप में तुम्हारे ललाट पर अपना हाथ रखा।

“छोटी माँ ! तुम्हारा पुत्र एक योगी होगा। एक आध्यात्मिक इंजन बनकर वह अनेक आत्माओं को ईश्वर के साम्राज्य में ले जायेगा।”

“सर्वज्ञ गुरुदेव ने मेरी गुप्त प्रार्थना स्वीकार कर ली। यह देखकर मेरा हृदय आनन्द से नाच उठा । तुम्हारे जन्म के कुछ पहले उन्होंने मुझे बताया था कि तुम उनके ही मार्ग पर चलोगे।

“मेरे पुत्र! बाद में तुम्हें जब अद्भुत आलोक के दर्शन का पता भी मुझे और तुम्हारी बड़ी बहन रमा को चल गया था, क्योंकि हम दोनों उस वक्त साथ के कमरे से तुम्हें अपनी शय्या पर निश्चल बैठा देख रही थीं। तुम्हारे छोटे-से मुखमण्डल पर तेज प्रकट हुआ था; जब तुम भगवान को खोजने के लिये हिमालय में जाने की बात कर रहे थे तब तुम्हारी आवाज में अत्यंत दृढ़ निश्चय ध्वनित हो रहा था।

“इन सब माध्यमों से, मेरे पुत्र! मैं समझ गयी थी कि तुम्हारा मार्ग सांसारिक महत्वाकांक्षाओं से दूर है। मेरे जीवन की एक अद्वितीय घटना ने तो इस पर निश्चितता की मुहर लगा दी। वही घटना आज मुझे मृत्युशय्या से यह संदेश तुम्हें देने के लिये विवश कर रही है।

“यह घटना है पंजाब में एक साधु के दर्शन की। जब हमारा परिवार लाहौर में रहता था, तब एक दिन प्रातःकाल नौकर मेरे कमरे में आया, ‘मालकिन ! एक अजीब साधु द्वार पर आया है; कहता है कि उसे “मुकुन्द की माँ से ही मिलना है।”’

“इन सीधे सरल शब्दों से मेरे भीतर कोई तार झंकृत हो उठा। मैं तुरन्त साधु से मिलने बाहर गयी। उनके चरणों में प्रणाम करते समय मैं समझ गयी कि मेरे सामने कोई सच्चा सिद्ध पुरुष खड़ा है।

“उन्होंने कहा: ‘माता ! महान् गुरुजन तुम्हें यह बता देना चाहते हैं कि इस पृथ्वी पर तुम्हारा वास अब अधिक दिन नहीं रहेगा। तुम्हारी अगली बीमारी तुम्हारे लिये अंतिम सिद्ध होगी।’* इसके पश्चात् थोड़ी देर वे मौन रहे। उस मौन के दौरान मैंने कोई भय या संकट नहीं, बल्कि महान् शांति अनुभव की। अंततः वह फिर कहने लगे :

“ ‘तुम्हें अपने पास अमानत के रूप में रखने के लिये चांदी का एक तावीज दिया जायेगा। वह आज मैं तुम्हें नहीं दूँगा। मेरे कथन को सत्य प्रमाणित करने के लिये कल जब तुम ध्यान कर रही होगी तब वह तुम्हारे हाथों में मूर्त रूप धारण कर लेगा। जब तुम्हारे मृत्यु की घड़ी निकट आयेगी तब तुम्हें वह तावीज अपने बड़े बेटे अनन्त को देकर उसे बताना होगा कि एक वर्ष तक वह उस तावीज को अपने पास रखे और तत्पश्चात् उसे तुम्हारे द्वितीय पुत्र को दे। महापुरुषों से प्राप्त उस तावीज के मर्म को मुकुन्द समझ लेगा। उसे वह तावीज तब मिलना चाहिये जब वह सारी सांसारिक आशा-आकांक्षाओं का परित्यागकर प्राणपण से ईश्वर की खोज करने के लिये प्रस्तुत हो रहा हो। जब वह तावीज कुछ वर्षों तक उसके पास रह चुका होगा और जब उसका उद्देश्य पूरा हो चुका होगा, तब वह अपने आप अदृश्य हो जायेगा । गुप्त से अति गुप्त स्थान में भी वह रखा हो, तब भी वह जहाँ से आया था वहीं वापस चला जायेगा।’

*(जब इस सन्देश के माध्यम से मुझे पता चला कि माँ अपने अल्पायु होने की बात को जानती थीं, तब पहली बार मेरी समझ में आया कि क्यों वह अनन्त का विवाह शीघ्रातिशीघ्र करवाना चाहती थीं। यद्यपि विवाह के पूर्व ही उसका देहावसान हो गया, तथापि विवाहोत्सव देखने की उनके मन में स्वाभाविक मातृसुलभ आकांक्षा थी।)

“मैंने उस साधु को भिक्षा अर्पण कर परम भक्तिभाव से नमन किया। भिक्षा ग्रहण न कर, मुझे आशीर्वाद देकर वह चले गये। अगले दिन संध्या को जब मैं हाथ जोड़कर ध्यान में बैठी थी, तब चांदी का एक तावीज मेरी हथेलियों के बीच में प्रकट हो गया, जैसा साधु ने कहा था। उसके शीतल, चिकने स्पर्श से मुझे उसके प्रकट होने का ज्ञान हो गया। मैंने दो वर्षों से अधिक समय तक इसे सावधानीपूर्वक सम्भालकर रखा और अब इसे अनन्त के पास छोड़े जा रही हूँ। मेरे लिये कोई शोक मत करना क्योंकि मुझे मेरे गुरुदेव ईश्वर की गोद में पहुँचा देंगे। अच्छा, मेरे बच्चे ! अब मैं चलती हूँ। जगन्माता तेरी रक्षा करेंगी।”

तावीज मेरे हाथ में आते ही ज्ञान का उज्वल प्रकाश मुझ पर छा गया; अनेक सुप्त स्मृतियाँ जागृत हो उठीं। तावीज गोल, दीखने में कुछ विचित्र-सा और प्राचीन लगता था। उस पर संस्कृत के अक्षर खुदे हुए थे। मैं समझ गया कि इस जन्म के जीवनपथ पर भी अदृश्य रूप से मेरा मार्गदर्शन करनेवाले मेरे पूर्वजन्मों के गुरुओं ने इसे भेजा था। इसका एक और अधिक गहन अभिप्राय भी था; परन्तु तावीज के भीतरी रहस्य का भेद खोल देना उचित नहीं होगा।*

मेरे जीवन की अत्यन्त दुःखद घटनाओं के बीच वह तावीज अन्ततः किस प्रकार अदृश्य हो गया और उसका अदृश्य होना किस प्रकार मेरे लियें गुरुलाभ का सूचक सिद्ध हुआ, इसका वर्णन इस प्रकरण में करने की आवश्यकता नहीं ।

किन्तु हिमालय में जाने की अपनी चेष्टाओं में बार-बार असफल किया गया यह बालक तावीज के पंखों पर सवार होकर प्रतिदिन दूर-दूर तक यात्रा कर लेता था।


*(तावीज अलौकिक रीति से उत्पन्न हुई एक वस्तु थी जिसकी रचना इस प्रकार अदृश्य तत्त्वों से हुई ही उस का इस जगत् से कभी-न-कभी अदृश्य हो जाना अनिवार्य है (प्रकरण ४३ देखें)
तावीज पर एक मंत्र, अर्थात् कई पवित्र शब्द खुदे हुए थे। ध्वनि एवं वाक् अर्थात् मानव वाणी की अंतर्निहित शक्तियों पर जितनी गहरायी से भारत में अनुसंधान किया गया उतना और कहीं भी नहीं किया गया। सारे ब्रह्माण्ड में झंकृत ओम् स्पंदन (बाइबिल का “शब्द” अथवा “अनेक समुद्रों का गर्जन”) में तीन गुण हैं सृष्टि, स्थिति, लय (तैत्तिरीय उपनिषद् १:८ ) । प्रत्येक बार जब मानव किसी भी शब्द का उच्चारण करता है तब वह इन तीन में से किसी एक गुण को कार्यान्वित कर देता है। सभी धर्मशास्त्रों के इस आदेश के पीछे, कि मनुष्य को सदा सत्यवचन ही कहने चाहिये, वही नियम संगत कारण हैं।
तावीज पर खुदे मंत्र में, यदि उसका सही उच्चारण किया जाये, तो आध्यात्मिक दृष्टि से लाभप्रद स्पंदनशक्ति थी। आदर्श रूप से गठित संस्कृत वर्णमाला में पचास वर्ण हैं और प्रत्येक वर्ण का एक सुनिर्दिष्ट, अपरिवर्तनीय उच्चारण है सब ध्वनियों का बोझ उठाने का असफल प्रयास करते छब्बीस अक्षरों की लैटिन मूल से बनी अंग्रेजी वर्णमाला की ध्वनि-प्रतीक विषयक अपर्याप्तता पर जार्ज बर्नाड शॉ ने एक सुविचारित और हास-परिहास से भरपूर निबंध लिखा था। अपनी चिर-परिचित निर्ममता ( “अंग्रेजी भाषा के लिये एक अंग्रेजी वर्णमाला बनाने की खातिर यदि गृहयुद्ध भी हो जाय.... तो भी मुझे उससे दुःख नहीं होगा।” ) के साथ शाँ बयालीस वर्णों वाली वर्णमाला अपनाने का आग्रह करते हैं (न्यू यॉर्क की फ़िलीसॉफिकल लाइब्रेरी की ओर से प्रकाशित विल्सन की 'दी मिरैक्युलस बर्थ ऑफ़ लैंग्वेज' दृष्टव्य)। इस प्रकार की वर्णमाला स्वर-सम्पूर्ण संस्कृत वर्णमाला के निकट पहुँच जायेगी, जिसके पचास वर्णों में गलत उच्चारण की कोई संभावना नहीं है।
सिंधु घाटी में प्राप्त मुहरों ने अनेक विद्वानों को वर्तमान में प्रचलित इस धारणा का परित्याग करने के लिये विवश किया है कि भारतवर्ष ने अपनी संस्कृत वर्णमाला सेमिटिक स्रोतों (दक्षिण-पश्चिम एशिया की प्राचीन संस्कृतियाँ) के आधार पर बनायी। हाल ही में मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में कुछ महान हिन्दू शहरों का उत्खनन किया गया है जिनका अवश्य ही भारत-भूमि पर इतना प्राचीन इतिहास रहा होगा कि वह हमें ऐसे युग में ले जा सके जिसकी केवल धुंधली-सी कल्पना ही की जा सकती है' (सर जॉन मार्शल, मोहनजोदड़ो एण्ड द इन्डस सिविलिज़ेशन, 1931) I
इस पृथ्वी पर सुसंस्कृत मानव के अतिप्राचीन अस्तित्व का हिन्दू सिद्धान्त यदि सत्य है। तो संसार की सबसे प्राचीन भाषा संस्कृत सबसे अधिक परिपूर्ण क्यों है यह स्पष्ट करना भी संभव हो जाता है (प्रकरण १० दृष्टव्य) । एशियाटिक सोसायटी के संस्थापक सर विलियम जोन्स कहते हैं: “संस्कृत भाषा चाहे जितनी प्राचीन हो, पर उसका गठन अत्यन्त अद्भुत् है। वह यूनानी भाषा की अपेक्षा अधिक परिपूर्ण, लैटिन भाषा की अपेक्षा अधिक शब्दबहुल, और इन दोनों भाषाओं की अपेक्षा अधिक परिमार्जित और परिष्कृत है।”
एनसाइक्लोपीडिया अमेरिकाना में लिखा है: “जब से प्राचीन ज्ञानसंपदा के पुनरुद्धार का कार्य शुरू हुआ है, तब से लेकर आज तक संस्कृति के इतिहास में १८ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में की गयी संस्कृत भाषा की (पाश्चात्य विद्वानों द्वारा ) खोज जितनी महत्त्वपूर्ण अन्य कोई घटना नहीं हुई। भाषा-विज्ञान, तुलनात्मक व्याकरण, तुलनात्मक पुराण साहित्य, धर्मविज्ञान ......या तो संस्कृत की खोज के कारण ही अस्तित्व में आये या उसके अध्ययन से अत्यंत प्रभावित हैं।”)