एक योगी की आत्मकथा - 3 Ira द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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एक योगी की आत्मकथा - 3

{ द्विशरीरी संत }

“पिताजी! यदि मैं बिना किसी दबाव के घर लौटने का वचन दूँ, तो क्या दर्शन यात्रा के लिये बनारस जा सकता हूँ?”

मेरे यात्रा-प्रेम में पिताजी शायद ही कभी बाधा बनते थे। मेरी किशोरावस्था में भी अनेक शहरों और तीर्थस्थलों की यात्रा करने की अनुमति वे मुझे दे देते थे। साधारणतया मेरे साथ मेरे एक या अधिक मित्र होते। पिताजी द्वारा प्रदत्त प्रथम श्रेणी के पासों पर हम लोग आरामपूर्वक यात्रा करते। हमारे परिवार के खानाबदोश लोगों के लिये पिताजी का रेलवे अधिकारी का पद पूर्णतः संतोषप्रद था।

पिताजी ने मेरे अनुरोध पर यथोचित विचार करने का वचन दिया। दूसरे दिन मुझे अपने पास बुलाकर उन्होंने बरेली से बनारस जाने-आने का एक पास, एक रुपये के कुछ नोट और दो पत्र देते हुए कहा–

“मुझे बनारस के अपने मित्र केदारनाथ बाबू को एक कार्य के विषय में कुछ प्रस्ताव भेजना है। दुर्भाग्यवश उनके पते का कागज़ मैंने कहीं खो दिया है। परन्तु मुझे विश्वास है कि हम दोनों के मित्र स्वामी प्रणवानन्द की सहायता से तुम यह पत्र उन तक पहुँचा सकोगे। स्वामीजी मेरे गुरुभाई हैं, उन्होंने अति उन्नत आध्यात्मिक अवस्था प्राप्त कर ली है। उनके संग से तुम्हें भी लाभ होगा। यह दूसरा पत्र उन्हें तुम्हारा परिचय देगा।”

साथ में यह कहते हुए पिताजी की आँखें चमक उठी: “याद रखो, अब फिर कभी घर से नहीं भागना, समझे!”

अपनी बारह वर्ष की आयु के उत्साह के साथ मैं निकल पड़ा (यद्यपि समय ने नवीन दृश्यों और अपरिचित व्यक्तियों से मुझे मिलने वाले आनंद में अभी भी कोई कमी नहीं आने दी है)। बनारस पहुँचते ही

मैं सीधे स्वामीजी के निवास स्थान की ओर चल पड़ा। सामने का द्वार खुला था, मैं दूसरी मंजिल पर स्थित एक लम्बे हॉलनुमा कमरे में जा पहुँचा। फर्श से कुछ ऊँची उठी हुई एक चौकी पर स्थूलकाय एक व्यक्ति केवल एक अधोवस्त्र धारण किये हुए पद्मासन में बैठे थे। उनके होठों पर शांत, सुन्दर मुस्कान खेल रही थी मेरे अवांछित प्रवेश के संकोच को दूर करने के लिये किसी चिरपरिचित मित्र की भाँति उन्होंने मेरा स्वागत किया।

“बाबा आनन्द।” बालसुलभ आवाज़ में उन्होंने इन शब्दों के साथ मेरा हार्दिक स्वागत किया। मैंने घुटने टेक कर उनका चरणस्पर्श किया।

“क्या आप ही स्वामी प्रणवानंदजी हैं ?”

उन्होंने स्वीकारार्थ सिर हिलाया। “तुम भगवती के बेटे हो ?” इससे पहले कि मुझे अपनी जेब से पिताजी का पत्र निकालने का अवसर भी मिल पाता, उनके शब्द निकल चुके थे। आश्चर्यचकित हो कर मैंने पिताजी का उनके लिये दिया हुआ अपना परिचय पत्र निकालकर उनके हाथ में दिया, जो अब निरर्थक जान पड़ता था।

“तुम्हारे लिये केदारनाथ बाबू को मैं अवश्य ढूँढ निकालूँगा।” संत ने पुनः एक बार अपनी अतीन्द्रिय दृष्टि से मुझे विस्मित कर दिया। तत्पश्चात् उन्होंने पत्र पर एक दृष्टि डाली और मेरे पिताजी के संबंध में कुछ स्नेह भरे उद्गार व्यक्त किये।

“देखो, मुझे दो पेन्शनें मिलती हैं। एक तुम्हारे पिताजी की सिफारिश से, जिनके अधीन मैं रेलवे कार्यालय में काम करता था। दूसरी मेरे परमपिता के अनुग्रह से जिनके लिये मैंने अपने जीवन के सांसारिक कर्त्तव्यों को अन्तःप्रेरणा के अनुसार अपना सर्वोत्तम प्रयास करके पूर्ण कर दिया है।”
मुझे यह कथन अत्यंत गूढ़ लगा। “परमपिता से आपको कैसी पेन्शन मिलती है, स्वामीजी ? वे क्या धन आपकी गोद में डाल देते हैं?”

स्वामीजी हँस पड़े। “पेन्शन से मेरा अभिप्राय है अगाध शान्ति — अनेक वर्षों के गहन ध्यान का पुरस्कार। मुझे अब धन की कभी कोई इच्छा नहीं होती। मेरी अत्यल्प भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है। इस दूसरी पेन्शन का तात्पर्य तुम बाद में समझ जाओगे।”

अचानक वार्तालाप बन्द कर स्वामीजी गम्भीर और निश्चल हो गये। किसी रहस्यमय भाव ने उन्हें आवृत कर लिया। प्रारम्भ में तो उनकी आँखें चमक उठीं जैसे किसी आकर्षक वस्तु को देख रही हों, बाद में निष्प्रभ हो गयीं। मैं उनके इस अचानक मौन से उद्विग्न हो गया; उन्होंने अभी तक मुझे यह नहीं बताया था कि मैं अपने पिताजी के मित्र से कैसे मिल सकूँगा। तनिक बेचैन हो कर मैंने उस खाली कमरे में दृष्टि दौड़ायी जिसमें हम दोनों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। जिस चौकी पर वे बैठे थे, उस के नीचे रखी उनकी काठ की खड़ाऊँ पर मेरी दृष्टि पड़ी।

“छोटे महाशय ! चिन्ता मत करो। जिन से तुम मिलना चाहते हो वे आधे घंटे में यहाँ पहुँच जायेंगे।” योगीवर मेरे मन को पढ़ रहे थे — उस समय यह कोई बड़ी बात भी नहीं लग रही थी !

उन्होंने पुनः गहन मौन धारण कर लिया। जब मेरी घड़ी से मुझे पता चला कि तीस मिनट बीत चुके हैं तब स्वामीजी स्वयं ही उठ गये।

“लगता है केदारनाथ बाबू दरवाज़े के निकट पहुँच गये हैं,” उन्होंने कहा। मैंने सीढ़ियों से किसी के ऊपर आने की आहट सुनी। विस्मित अबोध्यता में मैं अचानक डूब गया; असमंजस में मेरे विचार दौड़ने लगे “बिना किसी संदेशवाहक का उपयोग किये पिताजी के मित्र को यहाँ बुलाना कैसे संभव हो सकता है ? मेरे यहाँ आने के बाद स्वामीजी ने तो मेरे अतिरिक्त किसी से भी बात नहीं की है !”

मैं चुपचाप उठकर कमरे से बाहर आ गया और सीढ़ियाँ उतरने लगा। आधे रास्ते में ही मध्यम कद के एक दुबले-पतले, गौरवर्ण व्यक्ति से मेरी भेंट हुई। वे किसी जल्दी में लग रहे थे।

“क्या आप केदारनाथ बाबू हैं?” मेरी आवाज़ में उत्तेजना स्पष्ट थी।

“हाँ। और तुम भगवती के बेटे हो ना, जो मुझसे मिलने के लिये यहाँ प्रतीक्षा कर रहे हो?” वे मित्रतापूर्ण ढंग से मुस्कराये।


“महाशय! पर आप यहाँ कैसे आये?” उनकी अबोध्य उपस्थिति से मुझे विस्मयकारी रोष का अनुभव हुआ।

“आज सब कुछ रहस्यमय लग रहा है! एक घंटे से भी कम समय पहले मैंने गंगास्नान समाप्त किया ही था कि स्वामी प्रणवानन्दजी मेरे पास पहुँच गये। मैं सोच भी नहीं सकता कि उन्हें कैसे पता चला कि मैं उस समय वहाँ था।
“ ‘भगवती का बेटा मेरे घर में तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है,’ उन्होंने कहा। ‘क्या तुम मेरे साथ चलोगे ?’ मैं खुशी से तैयार हुआ। हम लोग हाथ में हाथ डालकर चलने लगे, किन्तु खड़ाऊँ पहनने के बावजूद भी स्वामीजी आश्चर्यजनक ढंग से मुझे पीछे छोड़कर आगे निकल गये, हालांकि मैं ये मजबूत जूते पहने हुए था।

“फिर प्रणवानन्दजी ने अकस्मात् रुककर मुझ से पूछा : ‘मेरे घर पहुँचने में तुम्हें कितना समय लगेगा ?’
“ ‘लगभग आधा घंटा।’

“ ‘मुझे अभी कुछ और काम है।’ उन्होंने एक रहस्यमय दृष्टि मुझ पर डाली। ‘अब मुझे तुम्हें पीछे छोड़कर जाना होगा। तुम सीधे मेरे घर पहुँच जाओ जहाँ मैं और भगवती का बेटा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।’

“मैं उनसे कुछ कह सकूँ इससे पहले ही वे तेज़ी से मेरे पास से निकल गये और भीड़ में अदृश्य हो गये। जितना तेज़ चल सकता था उतना तेज चलकर यहाँ पहुँचा हूँ।”

केदारनाथ बाबू के इस कथन से मैं और भी हतबुद्धि हो गया। मैंने पूछा कि वे स्वामीजी को कब से जानते थे।

“पिछले वर्ष तो हमारी कुछ मुलाकातें हुई थीं, पर हाल में कभी भेंट नहीं हुई। आज पुनः स्नानघाट पर उनसे मिलकर मुझे बहुत खुशी हुई।”

“मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा है। मेरा दिमाग तो नहीं फिर रहा है ? क्या आप उनसे मनः दृष्टि में मिले थे, या वास्तव में देखा था, उनके हाथ का स्पर्श किया था और उनकी पदचाप सुनी थी ?”

“तुम कहना क्या चाहते हो?” गुस्से से उनका चेहरा तमतमा गया। “मैं तुम से झूठ नहीं बोल रहा हूँ। क्या तुम यह नहीं समझ पा रहे हो कि केवल स्वामीजी के द्वारा ही तो मुझे पता चल सकता था कि तुम यहाँ मेरी प्रतीक्षा कर रहे हो ?”

“पर यह देखिये, मैं एक घंटा पहले यहाँ आया और तब से अब तक स्वामी प्रणवानंदजी एक क्षण के लिये भी मेरी दृष्टि से ओझल नहीं हुए।” मैंने सारी कहानी उन्हें सुना दी और स्वामीजी और मेरे बीच का वार्तालाप भी उनके सामने दुहरा दिया।

उनकी आँखें फैल गयीं। “हम लोग इस भौतिक युग में जी रहे हैं या स्वप्न देख रहे हैं? मैंने अपने जीवन में कभी भी इस प्रकार का चमत्कार देख पाने की आशा नहीं की थी। मैं तो समझता था यह स्वामीजी केवल एक साधारण मनुष्य हैं, और अब देखता हूँ कि ये एक और शरीर भी धारण कर सकते हैं, उसके द्वारा काम भी कर सकते हैं! हम दोनों ने साथ-साथ ही स्वामीजी के कमरे में प्रवेश किया।” केदारनाथ बाबू ने चौकी के नीचे पड़ी खड़ाऊँ की ओर इशारा किया।

“देखो! ये वही खड़ाऊँ हैं जो स्वामीजी ने घाट पर पहनी हुई थीं,” उन्होंने फुसफुसाकर कहा। “उन्होंने केवल एक अधोवस्त्र पहन रखा था जैसा उन्होंने अभी पहन रखा है।”

केदारनाथ बाबू ने जब स्वामीजी के चरणों में प्रणाम किया तो स्वामीजी मेरी ओर देखते हुए विनोदपूर्ण ढंग से मुस्कराये।

“तुम इस सब से इतने स्तम्भित क्यों हो? दृश्य जगत् की सूक्ष्म एकता सच्चे योगियों से छिपी नहीं रहती। मैं सुदूर कोलकाता में रहने वाले अपने शिष्यों के सामने क्षणभर में प्रकट होकर उनसे वार्तालाप कर सकता हूँ। वे भी इसी प्रकार स्थूल जगत् की प्रत्येक बाधा को अपनी इच्छानुसार पार कर सकते हैं। ”

शायद मेरे बाल हृदय में आध्यात्मिक उत्साह जगाने के उद्देश्य से ही स्वामीजी अपने दूरश्रवण और दूरदर्शन ¹ के योगबल के बारे में मुझे बताने के लिये राजी हुए। परन्तु उत्साह के बदले मुझे विस्मययुक्त भय का अनुभव हुआ। चूँकि मेरी ईश्वर-खोज एक विशिष्ट गुरु श्रीयुक्तेश्वरजी के मार्गदर्शन में ही होनी तय थी, जिनसे मैं अभी मिला भी नहीं था, अतः प्रणवानंदजी को अपना गुरु मानने की कोई प्रवृत्ति मेरे मन में नहीं उठी। मैंने यह सोचते हुए उनकी ओर सशंकित मन से देखा कि मेरे सामने बैठे हुए वे स्वयं ही थे, या उनका प्रतिरूप था?

स्वामीजी ने मेरी ओर आत्मज्ञानोदय कराने वाली दृष्टि से देखते हुए तथा अपने गुरु महाराज के विषय में कुछ प्रेरणादायक बातें बताते हुए मेरी अशान्ति दूर करने की चेष्टा की। जितने योगियों को मैं जानता हूँ उन सब में लाहिड़ी महाशय सबसे महान् योगी थे। वे नरदेह में साक्षात् ईश्वर थे।

मैंने मन ही मन सोचा कि जब शिष्य भी इच्छामात्र से एक और रक्त-मांस का शरीर धारण कर सकता है, तब उसके गुरु के लिये कौन सा चमत्कार करना असम्भव होगा ?

गुरु की सहायता कितनी अमूल्य होती है, वह सुनो। मैं गुरुदेव के एक अन्य शिष्य के साथ नित्य रात को आठ घण्टे ध्यान किया करता था। दिन में हम दोनों रेलवे कार्यालय में काम करते थे। क्लर्क के कार्य निर्वाह में कठिनाई होते देख पूरा समय ईश-चिंतन में लगाने की मेरी इच्छा हुई। आठ वर्ष तक आधी रात मैं ध्यान में ही बिताता था। इस साधना के अद्भुत् परिणाम मुझे प्राप्त होते थे, गहरी आध्यात्मिक अनुभूतियों से मन
में ज्ञान का प्रकाश फैलता था। परन्तु उस अनंत परमतत्त्व और मेरे बीच सदैव एक झीना पर्दा बना रहता था। अतिमानवी एकाग्रता और निष्ठा के साथ प्रयास करते रहने पर भी मैंने पाया कि परम निर्विघ्न एकात्मता से मैं वंचित हूँ। एक दिन सायंकाल मैं लाहिड़ी महाशय की सेवा में उपस्थित हुआ और मध्यस्थता के लिये मैंने उनसे प्रार्थना की। हठपूर्वक सारी रात मैं उनसे आग्रह करता रहा।

“करुणासागर गुरुदेव! मेरी आत्मा इतनी तड़प रही है कि मैं उस प्राणप्रिय परमप्रेमी के प्रत्यक्ष दर्शन बिना अब और जीवित नहीं रह सकता।”

“तो मैं क्या कर सकता हूँ? तुम्हें अधिक गहराई से ध्यान करना पड़ेगा।”

“मैं आप से प्रार्थना करता हूँ, हे प्रभु, मेरे स्वामी! मैं आपको अपने समक्ष इस भौतिक शरीर में प्रकट देख रहा हूँ; मुझे आशीर्वाद दीजिये कि आपके अनन्त स्वरूप में मैं आपके दर्शन कर सकूँ !'”

लाहिड़ी महाशय ने आशीर्वाद मुद्रा में हाथ उठाते हुए कहा– “तुम अब जाकर ध्यान करो। मैंने तुम्हारे लिये ब्रह्मा² से प्रार्थना कर दी है।”

अपरिमित आनन्द से उल्लसित होकर मैं घर लौटा। उस रात ध्यान में मुझे अपने जीवन के ज्वलंत चरम लक्ष्य की प्राप्ति हो गयी। अब मुझे निरन्तर वह आध्यात्मिक पेन्शन मिल रही है। उस दिन से फिर कभी वह आनन्द पूर्ण स्रष्टा माया के किसी परदे के पीछे छिपकर मेरी दृष्टि से ओझल नहीं हुआ।

प्रणवानन्दजी का मुखमण्डल दिव्य तेज से दमक रहा था। एक अलौकिक शांति मेरे हृदय में प्रविष्ट हुई; सारा भय नष्ट हो गया। फिर स्वामीजी ने और एक गुप्त बात मुझे बतायी।

कुछ महीनों बाद मैं फिर लाहिड़ी महाशय के चरणों में उपस्थित हुआ और उनके असीम वरदान के लिये कृतज्ञता प्रकट करने का मैंने प्रयास किया। फिर मैंने दूसरी एक बात छेड़ी।

“दयानिधान गुरुदेव! मैं अब ऑफिस में काम नहीं कर सकता। कृपा करके मुझे मुक्त कर दीजिये। ब्रह्म मुझे निरन्तर मदमस्त बनाये रखता
है।”

“अपनी कंपनी से पेन्शन के लिये अर्जी करो।”

“इतने अल्पकाल की नौकरी के बाद मैं पेन्शन के लिये क्या कारण बता सकूँगा?”

“जो मन में आये वही बता दो।”

अगले दिन मैंने पेन्शन के लिये आवेदन दे दिया। डाक्टर ने समयपूर्व पेन्शन के लिये कारण पूछा।

काम करते समय मेरी रीढ़ में मुझ पर काबू करनेवाली कोई अत्यधिक तीव्र संवेदना उठती है। वह पूरे शरीर में फैल जाती है और फिर मैं अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करने में असमर्थ हो जाता हूँ।³

और कोई प्रश्न किये बिना डॉक्टर ने पेन्शन के लिये मेरे पक्ष में बहुत अच्छी सिफारिश लिख दी और मुझे शीघ्र ही पेन्शन मिल गयी। मैं जानता हूँ कि डॉक्टर और तुम्हारे पिता सहित सब संबंधित रेलवे अधिकारियों के माध्यम से लाहिड़ी महाशय की दैवी इच्छा ही कार्य कर रही थी। उन लोगों ने लाहिड़ी महाशय के दैवी निर्देश का अपने आप ही पालन किया और मुझे अखण्ड ईश-चिंतन के लिये मुक्त कर दिया।

इस असाधारण रहस्योद्घाटन के उपरान्त स्वामी प्रणवानन्दजी दीर्घकाल तक मौन रहे। जब मैं भक्तिभाव से उनका चरणस्पर्श कर उनसे जाने के लिये अनुमति माँग रहा था, तब उन्होंने आशीर्वाद दियाः

“तुम्हारा जीवन संन्यास और योगमार्ग के लिये है। तुम्हारे पिताजी और तुम्हारे साथ मेरी फिर एक बार भेंट होगी।” अनेक वर्षों के उपरान्त ये दोनों ही भविष्यवाणियाँ सत्य सिद्ध हुईं। ⁴

छाते जा रहे अन्धकार में केदारनाथ बाबू मेरे साथ-साथ चल रहे थे। मैंने उन्हें पिताजी का पत्र दिया जो उन्होंने सड़क पर लगी रोशनी के प्रकाश में पढ़ा।

“तुम्हारे पिताजी ने इस में अपनी रेलवे कंपनी के कोलकाता कार्यालय में मुझे एक पद ग्रहण करने का प्रस्ताव दिया है। स्वामी प्रणवानन्दजी को मिलनेवाली पेन्शनों में से कम से कम एक पेन्शन का अधिकारी हो पाना कितना सुखद होता! परन्तु यह असम्भव है; मैं बनारस छोड़ कर नहीं जा सकता। खेद है कि एक साथ दो शरीर धारण करने का मेरा समय अभी नहीं आया है!”


¹ [योगियों ने आध्यात्मिक विज्ञान के द्वारा जो नियम ढूँढ निकाले उन्हीं नियमों की वैधता की पुष्टि आज भौतिक विज्ञान अपने ढंग से कर रहा है। उदाहरणार्थ २६ नवम्बर १९३४ को रॉयल युनिवर्सिटी ऑफ रोम में मनुष्य की दूर-दर्शन शक्ति का प्रदर्शन किया गया था। स्नायविक मनोविज्ञान (Neuro-Psychology) के प्राध्यापक डा. ज्यूसेप्प कैलिगैरिस ने एक व्यक्ति के शरीर के कतिपय स्थानों पर दबाव दिया और उस व्यक्ति ने दीवार की दूसरी ओर अवस्थित व्यक्तियों और वस्तुओं का सूक्ष्मातिसूक्ष्म सारा विवरण बता दिया। डा. कॅलिगैरिस ने उपस्थित प्राध्यापकों को बताया कि यदि त्वचा के कतिपय स्थान विशेषों की विक्षोभित किया जाय तो व्यक्ति की इन्द्रियातीत अनुभूति प्राप्त हो जाती है, जिससे वह उन सब वस्तुओं की देख सकता है जिन्हें वह अन्यथा नहीं देख सकता। दीवार के उस पार की वस्तुओं को देखने में सक्षम बनाने के लिये डा. कैलिगैरिस ने निर्धारित व्यक्ति के वक्षस्थल के दाहिनी ओर एक स्थान विशेष पर पन्द्रह मिनट तक दबाव दिया। डा. कैलिगैरिस ने कहा कि जब शरीर के कतिपय विशिष्ट स्थानों की विक्षोभित किया जाता है, तो सम्बन्धित व्यक्ति कितनी भी दूर स्थित किसी भी वस्तु को देख सकता है, चाहे उसने उस वस्तु को पहले कभी देखा हो या न देखा हो।]

² [स्रष्टा रूप में ईश्वर; संस्कृत बृह से व्युत्पन्न जिसका अर्थ है विस्तारित होना ।]

³ [गहन ध्यान में परमतत्त्व की पहली अनुभूति मेरुदण्ड में होती हैं और तत्पश्चात् मस्तिष्क में होती हैं। प्रचण्ड धारा के समान चेतना में उतरता परमानंद साधक को पूर्णतः विभोर कर देता है, परन्तु बाह्य स्तर पर उसकी अभिव्यक्तियों को नियंत्रित करना योगी सीख लेता है।
हमारी इस भेंट के समय प्रणवानंदजी पूर्ण सिद्ध महात्मा थे। परन्तु उनके व्यावसायिक जीवन के अंतिम दिनों की बात कई वर्षों पहले की है; उस समय वे निर्विकल्प समाधि की अपरिवर्तनीय अवस्था में अधिष्ठित नहीं हुए थे। चेतना की उस परिपूर्ण एवं स्थितप्रज्ञ अवस्था में योगी को इस जगत् में अपने किसी भी कर्तव्य को करने में कोई कठिनाई नहीं होती।
अवकाश ग्रहण करने के उपरान्त स्वामी प्रणवानन्दजी ने प्रणवगीता नाम से श्रीमद्भगवद्गीता की एक अत्यंत गहन ज्ञानयुक्त टीका लिखी, जो बंगाली एवं हिन्दी में उपलब्ध
है।
एक से अधिक शरीरों में एक साथ प्रकट होने की शक्ति एक सिद्धि है जिसका उल्लेख पतंजलि के योगसूत्र में है (इस पुस्तक का प्रकरण २४ द्रष्टव्य)। एक साथ विभिन्न स्थानों पर प्रकट होने की घटनाएँ युगयुगान्तर से अनेक सन्तों के जीवन में प्रदर्शित हुई हैं।]

⁴ [प्रकरण २७ द्रष्टव्य ।]