{ अपने गुरु के आश्रम की कालावधि }
“तुम आ गये!” श्रीयुक्तेश्वरजी ने बरामदे के पीछे स्थित बैठक में बिछे हुए व्याघ्रचर्म पर बैठे-बैठे ही मुझ से कहा। उनका स्वर ठंडा था, ढंग भावशून्य।
“जो गुरुदेव! मैं आपके अनुसरण के लिये आया हूँ।” झुककर मैंने उनका चरणस्पर्श किया।
“परन्तु यह कैसे हो सकता है? तुम तो मेरी इच्छाओं की अवहेलना करते हो।”
“अब ऐसा नहीं होगा, गुरुजी! आप की इच्छा ही मेरा धर्म होगी।”
“तब ठीक है! अब मैं तुम्हारे जीवन का उत्तरदायित्व ले सकता हूँ।”
“मैं स्वेच्छा से अपना सारा भार आपको सौंपता हूँ, गुरुदेव!”
“तो अब मेरा पहला अनुरोध यह है कि तुम अपने परिवार के पास घर लौट जाओ। मैं चाहता हूँ कि तुम कोलकाता जाकर कॉलेज में प्रवेश ले लो। तुम्हारी आगे की पढ़ाई चलती रहनी चाहिये।”
“ठीक है, गुरुदेव!" मैंने अपनी व्याकुलता को छिपा लिया। क्या ये जिद्दी पुस्तकें वर्षों तक मेरा पीछा नहीं छोड़ेंगी? पहले पिताजी, अब श्रीयुक्तेश्वरजी !”
“किसी दिन तुम्हें पाश्चात्य जगत् में जाना होगा। वहाँ के लोग भारत के प्राचीन ज्ञान के प्रति अधिक ग्रहणशील होंगे यदि अपरिचित हिन्दू गुरु के पास विश्वविद्यालय की डिग्री होगी।”
“आप बेहतर जानते हैं, गुरुजी।” मेरी उदासी छँट गयी। पाश्चात्य जगत् का उल्लेख मुझे कुछ उलझनकारी, अगोचर-सा लगा; परन्तु इस समय गुरुदेव को अपने आज्ञापालन से प्रसन्न करने के अवसर का तत्काल उपयोग करना अत्यावश्यक था।
“तुम कोलकाता में पास ही रहोगे; जब भी तुम्हें समय मिले, यहाँ आ जाना।”
“संभव हुआ तो प्रतिदिन आऊँगा, गुरुदेव! अपने जीवन के प्रत्येक पहलू पर मैं आपका अधिकार कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करता हूँ – केवल एक शर्त पर।”
“क्या?”
“कि आप मुझे भगवत्साक्षात्कार कराने का वचन दें!”
एक घंटे तक वाग्युद्ध चलता रहा। गुरुवचन मिथ्या नहीं हो सकता; वह सहज भी नहीं दिया जा सकता। इस वचन में निहित सम्भावनाएँ हैं। इससे पहले कि एक गुरु ईश्वर को प्रकट होने के लिए बाध्य करे, उसका ईश्वर के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होना आवश्यक है। श्रीयुक्तेश्वरजी के ईश्वर के साथ तादात्म्य को मैं जान गया था और उनका शिष्य होने के नाते उनसे यह वचन प्राप्त करने के लिये दृढनिश्चयी था।
"तुम बहुत हठी हो।” इस के पश्चात् करुणापूर्ण निर्णायकता के साथ गुरुदेव की सहमति गूंज उठी :
“तुम्हारी इच्छा ही मेरी इच्छा हो।”
मेरे हृदय से जीवनव्यापी पर्दा हट गया; इधर-उधर अनिश्चित खोज का अब अंत हो गया। मुझे सद्गुरु के चरणों में चिरंतन आश्रय मिल गया था।
“आओ, मैं तुम्हें आश्रम दिखाता हूँ।” गुरुदेव अपने व्याघ्रचर्म के आसन से उठे। इधर-उधर दृष्टिपात करते मैंने दीवार पर टंगी एक तस्वीर देखी जिसे चमेली का हार पहनाया हुआ था।
“लाहिड़ी महाशय!” मैंने साश्चर्य कहा।
“हाँ। मेरे ईश्वरतुल्य गुरु।” श्रीयुक्तेश्वरजी का स्वर आदर से कंपित था। “वे उन सब गुरुओं से कहीं महान थे–एक मनुष्य के रूप में और एक योगी के रूप में भी जिनका जीवन मेरे अन्वेषण की परिसीमा में आया।”
उस सुपरिचित तस्वीर को मैंने मौन प्रणाम किया। मेरी आत्मा की भक्ति उस लोकोत्तर गुरु के लिये वह निकली जिन्होंने मेरे शैशव काल को अपने आशीर्वाद से धन्य करते हुए इस क्षण तक मेरा मार्गदर्शन किया।
गुरुदेव के पीछे-पीछे मैं उस घर और सारे प्रांगण में घूमा भारीभरकम खंभों से युक्त उस विशाल और पुराने आश्रम के बीच में एक आंगन था। बाहर की दीवारों पर काई जम गयी थी; आश्रम परिसर पर निःसंकोच कब्जा किये हुए कबूतर सपाट, धूसर रंग की छत पर फड़फड़ा रहे थे। आश्रम के पिछवाड़े में एक बगीचा था जिसे कटहल, आम और केले के पेड़ों ने सुहावना बनाया हुआ था। इस दोमंजिला भवन के ऊपर के कमरों के कटघरेदार बरामदे बीच में स्थित आँगन को तीन ओर से घेरे थे। नीचे के तल्ले पर एक प्रशस्त हाल था जिसकी ऊँची छत खम्भों पर टिकी हुई थी गुरुदेव ने बताया कि इस कमरे का उपयोग मुख्यतः वार्षिक दुर्गा पूजा उत्सव के लिये होता था। श्रीयुक्तेश्वरजी के बैठक कक्ष में जाने के लिये एक संकरी सीढ़ी थी। इस कक्ष की छोटी सी बाल्कनी से सड़क दीखती थी। आश्रम में साज-सामान सरल था; हर चीज अत्यंत सादी, स्वच्छ और उपयोगी थी। कई पाश्चात्य पद्धति की कुर्सियाँ, बेंच और मेजें भी दिखायी दे रही थी।
गुरुदेव ने मुझे रात को वहीं रहने के लिये निमन्त्रित किया आश्रम में शिक्षा ग्रहण कर रहे दो लड़कों ने रात को भोजन के लिये रस्सेदार सब्जी परोसी।
“गुरुजी! कृपया अपने जीवन के विषय में कुछ बताइये।” उनके व्याघ्रचर्म के पास एक चटाई पर मैं बैठा था। बरामदे से बाहर दिखायी पड़ने वाले मैत्रीपूर्ण तारे अत्यंत समीप लग रहे थे।
“मेरा पारिवारिक नाम प्रियनाथ कड़ार था मेरा जन्म¹ यहीं श्रीरामपुर में हुआ था जहाँ मेरे पिताजी एक धनवान व्यापारी थे। वे ही यह पैतृक मकान छोड़ गए जो अब मेरा आश्रम है। मेरी स्कूली पढ़ाई बहुत कम हुई; मुझे वह धीमी और उथली प्रतीत होती थी। युवावस्था के आरम्भ में मैंने गृहस्थ धर्म का उत्तरदायित्व स्वीकार कर लिया और मेरी एक बेटी है। जिसका विवाह हो चुका है। मेरा प्रौढ़ जीवन लाहिड़ी महाशय के मार्गदर्शन से धन्य हुआ। पत्नी की मृत्यु के पश्चात् मैंने स्वामी परम्परा के के अंतर्गत संन्यास ग्रहण कर लिया और मुझे नया नाम मिला श्रीयुक्तेश्वर²। यही सरल मेरा वृत्तान्त है।”
मेरे उत्सुक चेहरे को देख कर गुरुदेव मुस्काराये सभी जीवनवृत्तान्तों की तरह उनके वृत्तान्त ने भी उनका केवल बाह्य परिचय ही दिया, बिना आंतरिक पुरुष का परिचय दिये।
“गुरुजी! मुझे आपके बचपन की कुछ कहानियाँ सुनने की इच्छा है।”
“कुछ कहानियाँ बताता हूँ और प्रत्येक में निहित नैतिक शिक्षा भी।” इस चेतावनी के साथ श्रीयुक्तेश्वरजी की आँखें हँसी की झलक में चमक उठीं “एक बार मेरी माँ ने एक अंधेरे कमरे में भूत होने की डरावनी कहानी बताकर मुझे डराने की चेष्टा की। मैं तुरन्त वहाँ गया और भूत को न पाकर निराशा प्रकट की। उसके बाद माँ ने मुझे कभी कोई डरावनी कहानी नहीं सुनाई। नैतिक शिक्षा: भय का सामना करो, तब वह तुम्हें सताना बंद कर देगा।
“बचपन की एक अन्य स्मृति है एक पड़ोसी के भद्दे कुत्ते की मेरी चाह की। उस कुत्ते को पाने के लिये मैंने कई सप्ताह तक सारे घर को सिर पर उठा रखा था। उससे कहीं अधिक सुन्दर अनेक कुत्तों के सारे प्रस्ताव जैसे मेरे कानों तक पहुँच ही नहीं पाते थे। नैतिक शिक्षा: मोह अंधा बना देता है; वह इच्छित वस्तु के चारों ओर आकर्षण के काल्पनिक मायाजाल की रचना कर देता है।
“तीसरी कहानी किशोर मन की सुकुमारता से संबंधित है। मैं अपनी माँ को कभी-कभी यह कहते सुनता था कि ‘जो मनुष्य किसी और के मातहत नौकरी स्वीकार कर लेता है वह दास है।’ यह धारणा मेरे मन में इतनी पक्की बैठ गयी कि मैंने विवाह के उपरान्त भी सारी नौकरीयाँ ठुकरा दीं। अपनी पैतृक सम्पत्ति को भूमि के व्यवसाय में लगाकर मैंने अपनी आजीविका चलायी। नैतिक शिक्षा: केवल अच्छी और सकारात्मक शिक्षाएँ ही बच्चों के मन में जानी चाहियें। उनकी प्रारम्भिक धारणाएँ दीर्घ काल तक सुस्पष्ट बनी रहती हैं।”
गुरुदेव प्रशान्त मौन में डूब गये। मध्यरात्रि के आसपास उन्होंने मुझे एक सँकरी खाट सोने के लिये दी। अपने गुरु के आश्रम की छत के नीचे उस पहली रात नींद खूब गाढ़ी और मधुर थी।
श्रीयुक्तेश्वरजी ने दूसरे दिन प्रातःकाल ही मुझे क्रियायोग की दीक्षा देने का निश्चय किया इस प्रविधि की दीक्षा मुझे पहले ही लाहिड़ी महाशय के दो शिष्यों से मिल चुकी थी – पिताजी और मेरे शिक्षक स्वामी केवलानन्दजी। परन्तु गुरुदेव के पास रूपांतर करने की शक्ति थी; उनके स्पर्शमात्र से एक प्रचण्ड ज्योति मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व पर छा गयी मानो करोड़ों सूर्य एक साथ उद्दीप्त हो उठे हों। एक अवर्णनीय आनन्द की बाढ़ ने मेरे हृदय को अंतरतम कोने तक अभिभूत कर दिया।
उसके दूसरे दिन लगभग सायंकाल हो चला था जब मैं आश्रम से जाने के लिये तैयार हो पाया।
“तुम तीस दिन में लौट जाओगे।” जब मैंने कोलकाता के अपने घर के द्वार में प्रवेश किया तो गुरुदेव की भविष्यवाणी भी मेरे साथ थी। “उड़ते पक्षी” के पुनरागमन के बारे में कोई भी व्यंग्य बाण, जिसका मुझे डर था, मेरे किसी सम्बन्धी ने नहीं चलाया।
मैं अपनी छोटी-सी अटारी में गया और उसपर प्रेमभरी दृष्टि दौड़ायी मानों वह कोई जीवन्त उपस्थिति हो। “तुम ध्यान की साक्षी हो और मेरी साधना के अश्रुपात और आँधी-तूफानों की भी। अब मैं अपने दिव्य गुरु के आश्रय में पहुँच गया हूँ।”
“बेटा! आज मैं हम दोनों के लिये ही बहुत खुश हूँ।” पिताजी और मैं शान्त, नीरव सन्ध्या में बैठे थे। “तुम्हें तुम्हारे गुरु मिल गये, जैसे चमत्कारी ढंग से मुझे अपने गुरु मिले थे। लाहिड़ी महाशय का पुण्यहस्त हमारे जीवन की रक्षा कर रहा है। तुम्हारे गुरु कोई दुर्गम हिमालय के सन्त नहीं, बल्कि निकट के ही निकले। मेरी प्रार्थनाएँ स्वीकार हो गयीं तुम्हारी ईश्वर-खोज में तुम्हें मेरी दृष्टि से सदा के लिये ही ओझल नहीं कर दिया गया है।”
पिताजी को इस बात की भी खुशी थी कि मेरी औपचारिक पढ़ाई फिर से आरम्भ होगी; उन्होंने यथोचित व्यवस्था कर दी। दूसरे दिन कोलकाता में निकट ही स्थित स्कॉटिश चर्च कॉलेज में मैंने दाखिला ले लिया।
खुशी के मास तेजी से बीतते गये। मेरे पाठकों ने निश्चय ही यह सही अनुमान लगा लिया होगा कि कॉलेज की कक्षाओं में मैं कम ही दिखायी पड़ता था। श्रीरामपुर आश्रम का आकर्षण दुर्निवार था। मेरी वहाँ नित्य उपस्थिति पर गुरुदेव ने कभी कुछ नहीं कहा। मुझे बड़ी राहत मिली क्योंकि वे शायद ही कभी विद्या के उन दालानों का जिक्र करते थे। सभी को यह पता तो चल ही गया था कि मैं विद्वान या विद्यालंकृत बनने के लिये नहीं बना था, फिर भी हर बार मैं न्यूनतम उत्तीर्णांक प्राप्त करता रहा।
आश्रम में दैनिक जीवन शान्त, सरल रूप से चलता था, उसमें शायद ही कभी कोई परिवर्त्तन होता था। मेरे गुरुदेव ब्रह्मवेला में ही जाग जाते थे। पढ़े-पड़े ही या कभी-कभी बिस्तर पर बैठे हुए वे समाधि³ की अवस्था में प्रवेश कर जाते थे। गुरुदेव कब जागे यह पहचानना अत्यंत सरल थाः जबरदस्त गर्जन करते खर्राटों⁴ का अकस्मात् रूक जाना। एकाध-दो दीर्घ निःश्वास; कभी शरीर की कोई हलचल। फिर श्वासरहितता की निःशब्द अवस्था और वे गहरे समाधि आनन्द में डूब जाते।
इसके बाद नाश्ता नहीं होता था पहले गंगा के किनारे-किनारे लम्बा भ्रमण होता था। मेरे गुरु के साथ वह प्रातः कालीन भ्रमण अभी भी कितने जीवन्त और सुस्पष्ट हैं स्मृति में! स्मृति को सहज पुनरावृत्ति में मैं प्रायः अपने आप को उनके साथ पाता हूँ। प्रातःकाल का सूर्य नदी को उष्ण कर रहा है और ज्ञान के अधिकार से ध्वनित होता उनका स्वर गूँज रहा है।
स्नान और फिर मध्याह्न भोजन। गुरुदेव के दैनिक निर्देशानुसार भोजन तैयार करने का सतर्क कार्य तरुण शिष्यों का था। गुरुदेव शाकाहारी थे। संन्यास लेने से पूर्व वे अंडे और मछली खाते थे। शिष्यों के लिये उनका उपदेश यही रहता था कि अपनी शरीर प्रकृति के अनुसार कोई भी सादा आहार लें।
गुरुदेव बहुत कम खाते थे; प्रायः हल्दी या चुकन्दर अथवा पालक के रस में बने चावल और इस पर थोड़ा भैंस का घी या पिघला हुआ मक्खन या किसी दिन केवल मसूर दाल या पनीर की रस्सेदार सब्जी और उसके साथ कोई तरकारी भोजन के अन्त में वे चावल की खीर के साथ आम, संतरा या फिर कटहल का रस लेते।
अपराह्न में दर्शनार्थी आया करते। एक अविरत धारा बाह्य संसार से शान्त आश्रम के भीतर बहती रहती। गुरुदेव सभी आनेवालों के साथ प्रेम और सौजन्यपूर्ण व्यवहार करते थे। एक सद्गुरु जिसने अपने आप को देह या अहम् नहीं बल्कि सर्वव्यापी आत्मा के रूप में पहचान लिया हो — सभी मनुष्यो में एक अद्भुत समानता देखता है।
संतों की निष्पक्षता ज्ञान में स्थापित होती है। उन पर माया के बदलते चेहरों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अज्ञानी लोगों की समझ को उलझन में डाल देने वाले राग-द्वेष उन्हें छू भी नहीं पाते। श्रीयुक्तेश्वरजी ऐसे लोगों को कोई पृथक महत्व नहीं देते थे जो सत्ताधारी, शक्तिशाली, धनी या विशेष उपलब्धि प्राप्त हों; न ही वे कभी किसी की गरीबी या अनपढ़ता के कारण उपेक्षा करते थे। किसी बच्चे के मुँह से भी वे ज्ञान के वचन आदरपूर्वक सुनते और अवसर पड़ने पर किसी दम्भी पंडित की खुले रूप से उपेक्षा करते।
आठ बजे रात्रिभोजन का समय था जिसमें कभी-कभी देर तक ठहरे हुए अतिथि भी सम्मिलित होते। गुरुदेव अकेले भोजन करने नहीं बैठते थे; कोई भी उनके आश्रम से भूखा या अतृप्त नहीं लौटता था। श्रीयुक्तेश्वरजी अतिथियों के अप्रत्याशित आगमन से न ही कभी घबराते थे, न ही कभी व्यग्र होते थे; उनके युक्तिपूर्ण मार्गदर्शन में शिष्यों द्वारा बनाया गया अल्प भोजन भी महाभोज प्रतीत होता था। परन्तु साथ ही वे मितव्ययी भी थे और अपनी थोड़ी-सी पूँजी से बहुत कुछ कर लेते थे। “अपनी जेब की सीमा में सन्तुष्ट रहो, फिजूलखर्ची तुम्हारे लिये अशान्ति पैदा करेगी।”, वे प्रायः कहते थे। चाहे आश्रम में आतिथ्य सत्कार का कार्य हो या भवन निर्माण या मरम्मत का या कोई भी अन्य व्यावहारिक कार्य हो, हर कार्य की छोटी-से-छोटी बातों में गुरुदेव सृजनात्मक मौलिकता का परिचय देते।
सायंकाल के शान्त समय में प्रायः गुरुदेव प्रवचन करते। अक्षय रत्नभंडार! उनका प्रत्येक शब्द ज्ञान से तराशा होता था। एक अलौकिक आत्म-विश्वास उनके निरुपण में झलकता था; उनका निरुपण अद्वितीय होता था। उनकी तरह बोलने वाला मैंने कभी कोई नहीं देखा। अपने विचारों को शब्दों का परिधान पहनाने से पहले वे उन्हें विवेक के नाजुक तराजू में तोलते थे। सत्य का मूल तत्त्व, सर्वव्यापक भौतिक रूप में भी विद्यमान, उनसे आत्मा के सौरभ की तरह निःसृत होता था। मुझे सदा इस बात का आभास था कि मैं भगवान के जीवन्त विग्रह के सानिध्य में हूँ। उनकी दिव्यता का भार अपने आप मेरे मस्तक को उनके सामने नत कर देता था।
यदि अतिथि यह भाँप जाते कि श्रीयुक्तेश्वरजी अनंत ईश्वर में मग्न हो रहे हैं, तो गुरुदेव तुरन्त उनके साथ वार्तालाप शुरू कर देते। किसी प्रकार का प्रदर्शन करना या अपनी आंतरिक मग्नता की शेखी मारना उन्हें नहीं आता था। ईश्वर के साथ सदा एकरूप, उन्हें ध्यान के लिये अलग से समय निकलने की आवश्यकता नहीं थी। आत्मज्ञानी सिद्धों ने ध्यान की सीढ़ी को पहले ही पीछे छोड़ दिया होता है। “फल आने पर फूल अपने आप झड़ जाता है।” परन्तु शिष्यों के लिये उदाहरण स्थापित करने के लिये सन्तजन प्रायः साधना भजन आदि बाह्य साधनों में जुटे रहते है।
मध्यरात्रि होते-होते मेरे गुरुदेव प्रायः बालसुलभ सहजता के साथ निद्राधीन हो जाते। बिस्तर आदि का कोई महत्त्व नहीं होता। प्रायः वे, बिना किसी तकिये के भी, एक संकीर्ण मेज पर सो जाते जो उनके प्रचलित व्याघ्रचर्म आसन के पीछे रखी होती थी।
तत्त्वज्ञान की चर्चा में पूरी रात कट जाना असामान्य नहीं था; अपनी जिज्ञासा की तीव्रता से कोई भी शिष्य ऐसी चर्चा को आरम्भ करा सकता था। तब मुझे न तो थकान महसूस होती थी, न ही नींद आती थी; गुरुदेव के ओजस्वी शब्द पर्याप्त थे। “ओह! भोर हो गयी। चलो, गंगा किनारे घूमने चलें।” मेरे रात्रिकालीन शिक्षण के कई प्रसंगों का अन्त इस प्रकार होता था।
श्रीयुक्तेश्वरजी के सान्निध्य के प्रारम्भिक कुछ महीनों में ही मुझे एक उपयोगी शिक्षा मिली: “मच्छरों को चालाकी से कैसे मात करें।” मेरे घर में लोग सदा ही मच्छरदानी का उपयोग करते थे। मैं यह देखकर हैरान हुआ कि श्रीरामपुर आश्रम में इस विवेकपूर्ण प्रथा का पालन उसके उल्लंघन के रूप में होता था। तथापि मच्छरों का वहाँ पूरा साम्राज्य था; सिर से पाँव तक मुझे वे काटते रहते थे। गुरुदेव को मुझपर दया आ गयी।
“अपने लिये एक मच्छरदानी खरीद लो और एक मेरे लिये भी।” हँसकर उन्होंने आगे कहा, “तुम यदि केवल अपने लिये ही लाओगे, तो सव मच्छर मुझ पर टूट पड़ेंगे!”
मैंने इस आज्ञा का अतिशय कृतज्ञता के साथ पालन किया। जिस रात मैं श्रीरामपुर में रह जाता, गुरुदेव मच्छरदानियाँ लगाने के लिये अवश्य कहते।
एक रात को जब मच्छर सेना ने हमें घेर रखा था, गुरुदेव सदा की भाँति मच्छरदानी लगाने के लिए कहना भूल गये, मैं व्याकुल होकर मच्छरों की भिनभिन सुन रहा था। बिस्तर पर लेटकर मैंने उन्हें शान्त करने के लिये एक प्रार्थना उनकी दिशा में प्रवाहित कर दी। आधे घंटे बाद गुरुदेव का ध्यान आकर्षित करने के लिये मैंने झूठमूठ ही खाँस कर देखा। मुझे लग रहा था जैसे मच्छरों के दंश से और खासकर उनके रक्तपिपासु उत्सव मनाते हुए उनकी गुनगुनाहट से मैं पागल हो जाऊँगा।
गुरुदेव की ओर से कोई प्रतिक्रियात्मक हलचल नहीं; मैं सतर्कतापूर्वक उनके समीप गया। उनका श्वास नहीं चल रहा था। उन्हें इतने निकट से समाधि अवस्था में देखने का यह मेरा पहला अवसर था;
“इनका ‘हार्टफेल’ तो नहीं हो गया!” मैंने उनकी नाक के नीचे एक आइना रखा; उस पर श्वास की भाँप नहीं पड़ी। पूर्णतया सुनिश्चित करने के लिये मैंने कई मिनटों तक उनका मुँह और नाक अपनी उंगलियों से बन्द करके रखे। उनकी देह ठंडी और निश्चल थी। किंकर्त्तव्यविमूढ़ होकर मैं लोगों को बुलाने के लिये दरवाजे की ओर मुड़ा।
“अच्छा! एक उभरता हुआ प्रयोगकर्ता! मेरी बेचारी नाक!” गुरुदेव का स्वर हास्यकम्पित था। “तुम सोते क्यों नहीं? क्या तुम्हारे लिये सारी दुनिया बदल जायेगी? अपने आप को बदलो, मच्छरों की चेतना से अपने को मुक्त करो।”
चुपचाप मैं अपने बिस्तर पर लौट आया। इसके बाद एक भी मच्छर मेरे पास नहीं फटका। मैं समझ गया कि गुरुदेव केवल मुझे खुश करने के लिये मच्छरदानियाँ लाने के लिये सहमत हो गये थे; उन्हें मच्छरों का कोई डर नहीं था। अपनी योगशक्ति से वे उन्हें काटने से रोक सकते थे; या यदि वे चाहते तो अपनी आंतरिक ध्यान अवस्था में जा सकते थे जिसमें मच्छरों का उन्हें पता ही नहीं चलता।
मैं सोच रहा था: “वे मुझे दिखा रहे थे कि यह वह योगावस्था है जिसे मुझे प्राप्त करने का प्रयास करना होगा।” सच्चा योगी समाधि की पराचेतन अवस्था में जा सकता है और उसी अवस्था में रह सकता है, उन समस्त विक्षेपों के बावजूद जिनका इस धरातल पर कभी अभाव नहीं होता कीटकों की भिनभिनाहट ! परिव्याप्त सूर्यप्रकाश की तीव्रता ! समाधि की प्रथमावस्था (सविकल्प) में साधक बहिर्जगत् के इंद्रियबोध को बंद कर देता है। तब उसे आदि ईडन के भूस्वर्ग से भी कहीं अधिक सुन्दर अंतर्जगत् की ध्वनियों और दृश्यों का प्रतिदान प्राप्त होता है⁵
ये शिक्षाप्रद मच्छर आश्रम में मुझे एक और प्रारम्भिक शिक्षा मिलने का कारण बने। वह सायंकाल का शांत समय था। मेरे गुरुदेव प्राचीन शास्त्रों की अनुपम व्याख्या कर रहे थे। उनके चरणों में मैं सम्पूर्ण शांति में था। एक धृष्ट मच्छर इस रसमय वातावरण में घुस आया और मेरा ध्यान अपनी ओर खींचने लगा। उसने जैसे ही अपनी “विषैली सुई” मेरी जाँघ में घुसायी, मैंने स्वाभाविकतया अपना हाथ प्रतिशोध के लिये ऊपर उठाया। निकटवर्ती प्राणदण्ड स्थगित कर दो ! मुझे पतंजलि के अहिंसा⁶ पर सूत्र की समयानुकूल याद आ गई।
“तुम ने अपना काम पूरा क्यों नहीं किया ?”
“गुरुदेव! क्या आप प्राणहरण का समर्थन करते हैं?”
“नहीं, परन्तु अपने मन में तो तुमने उस पर जानलेवा प्रहार कर ही दिया था।”
“मैं समझा नहीं।”
“अहिंसा से पतंजलि का तात्पर्य था हिंसा की इच्छा को भी त्याग देना।” श्रीयुक्तेश्वरजी के लिये मेरा मन खुली किताब की तरह था। “यह जगत् अहिंसा के अक्षरशः पालन के लिये असुविधाजनक रूप से व्यवस्थित है। मनुष्य हानिकारक जीवों का नाश करने के लिये बाध्य हो सकता है। परन्तु उस के अनुरूप क्रोध या द्वेष को अनुभव करने के लिये वह बाध्य नहीं है। सभी जीवों का मायाजगत् की हवा पर समान रूप से अधिकार है। जो सन्त सृष्टि के रहस्य को जान लेता है वह प्रकृति के असंख्य विस्मयकारी रूपों के साथ तदात्म हो जाता है। हिंसा की भावना को नष्ट कर सभी लोग इस सत्य को समझ सकते हैं।”
“गुरुदेव! क्या हिंसक प्राणी का वध करने के बजाय अपनी बलि दे देनी चाहिये ?”
“नहीं, मानवदेह अमूल्य है। मस्तिष्क और मेरुदण्ड में स्थित चक्रों के कारण क्रमविकास की दृष्टि से मानवदेह सबसे मूल्यवान है। ये चक्र उन्नत साधक को ब्रह्मचैतन्य की उच्चतम स्थितियों को प्राप्त करने और उन्हें अभिव्यक्त करने की क्षमता प्रदान करते हैं। मानवयोनि से निकृष्ट किसी भी योनि के जीव में यह क्षमता नहीं होती। यह सच है कि मनुष्य किसी प्राणी या अन्य किसी जीव को मारने पर बाध्य हो जाता है, तब भी उसे थोड़ा पाप तो लगता ही है। परन्तु पवित्र शास्त्र कहते हैं कि मानवशरीर का व्यर्थ में नाश कर्मसिद्धान्त के नियमों का गम्भीर उल्लंघन है।”
मैंने राहत की साँस ली; सहजात प्रवृत्तियों को शास्त्रमत का भी आधार मिलना, यह बात हमेशा तो नहीं होती।
जहाँ तक मुझे ज्ञात है, गुरुदेव का कभी किसी बाघ या चीते से सामना नहीं हुआ। परन्तु एक अत्यंत विषैले नाग से उनका पाला पड़ा था और उस नाग को उन्होंने अपने प्रेम से वश में किया था। यह घटना पुरी में हुई थी जहाँ गुरुदेव का समुद्र तट पर आश्रम था। गुरुदेव के जीवन के उत्तरकाल में उनका शिष्य बना प्रफुल्ल नाम का एक लड़का उस समय उनके साथ था।
“हम आश्रम के पास बाहर बैठे थे ”, प्रफुल्ल ने मुझे बताया। चार फुट लम्बा, आतंक का मूर्त्तिमान रूप एक नाग पास ही निकला। क्रोध से फन फैलाकर वह तेज़ी से हमारी ही ओर आ रहा था। गुरुदेव उसे देखकर ऐसे मुस्कराये जैसे किसी बच्चे को मुस्कराकर अपने पास बुला रहे हों। श्रीयुक्तेश्वरजी को हाथों से लयबद्ध ताल देते देखकर मैं भयभीत हो उठा।⁷ वे उस भयावह आगन्तुक का स्वागत कर रहे थे! मैं मन ही मन भगवान से उत्कट प्रार्थना करता हुआ चुपचाप खड़ा रहा। नाग गुरुदेव के अत्यंत निकट पहुँच गया था, पर अब वह निश्चल हो गया; ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उनके प्यार से पुचकारने का ढंग देखकर सम्मोहित हो गया था। वह भयानक फन धीरे-धीरे सिकुड़ गया; नाग गुरुदेव के पाँवों के बीच में से होकर झाड़ी में अदृश्य हो गया।
“गुरुदेव क्यों हाथ हिला रहे थे और नाग ने उनके हिलते हाथों पर फन क्यों नहीं मारा, यह बात उस समय मेरी समझ से परे थी। उस घटना से अब मेरी समझ में यह आ गया है कि हमारे गुरुदेव को किसी प्राणी से हानि का भय नहीं है”, प्रफुल्ल ने अपनी कहानी समाप्त करते हुए कहा।
आश्रम में आरम्भ के महीनों में एक दिन अपराह्न में मैंने श्रीयुक्तेश्वरजी की भेदक दृष्टि अपने ऊपर स्थिर पायी ।
“तुम बहुत दुबले-पतले हो, मुकुन्द !”
उनकी बात ने मेरी दुखती रग को छू लिया। अपनी धँसी हुई आँखें और कृश देह मुझे भी अच्छी नहीं लगती थी। मुझे बचपन से ही अजीर्ण की शिकायत थी। घर में मेरे कमरे में एक पट्टी पर पाचक और बलवर्द्धक औषधियों की अनेकानेक शीशियाँ पड़ी थीं परन्तु किसी से भी मुझे कोई लाभ नहीं हुआ था। कभी-कभी तो मैं मन-ही-मन सोचा करता था क्या इतने दुर्बल शरीर में जीने का भी कोई अर्थ हो सकता है ?
“औषधियों की अपनी सीमाएँ हैं; दिव्य संजीवनी प्राणशक्ति की कोई सीमा नहीं। विश्वास रखो तो तुम स्वस्थ और बलवान हो जाओगे।”
गुरुदेव के शब्दों से मुझे तुरन्त यह विश्वास हो गया कि मैं उनमें निहित सत्य का अपने जीवन में सफल प्रयोग कर सकता हूँ। अन्य कोई भी चिकित्सक (मैंने कई आज़माये थे) मुझमें इतना गहरा विश्वास नहीं जगा सका था।
दिन-प्रतिदिन मेरे स्वास्थ्य और बल में वृद्धि होने लगी। श्रीयुक्तेश्वरजी के गुप्त आशीर्वाद से दो सप्ताहों में मेरा इच्छित वजन मुझे प्राप्त हो गया, जो तब तक अन्य उपायों से प्राप्त करने का मैं व्यर्थ प्रयास करता रहा था। मेरे पेट के सारे विकार सदा के लिये दूर हो गये।
बाद में तो अनेक बार अपने गुरु को दैवी शक्ति द्वारा लोगों को मधुमेह, मिरगी, क्षयरोग और पक्षाघात जैसी बीमारियों से मुक्त करते देखने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ।
“कई वर्ष पहले मैं भी अपना वजन बढ़ाने के लिये आतुर था”, मुझे स्वस्थ करने के थोड़े ही दिन बाद गुरुदेव मुझे बता रहे थे। “एक उग्र बीमारी से उठने के बाद मैं स्वास्थ्यलाभ कर ही रहा था कि वाराणसी में लाहिड़ी महाशय के दर्शन के लिये चला गया।
“मैंने कहा, ‘गुरुदेव! मैं बहुत बीमार था और मेरा वजन बहुत कम हो गया है।’
“ ‘मैं देख रहा हूँ युक्तेश्वर⁸, कि तुमने पहले तो अपने आप को अस्वस्थ कर लिया और अब सोचते हो कि तुम दुबले भी हो गये हो।’
“मुझे जिस उत्तर की आशा थी उससे तो यह उत्तर कहीं हटकर था; परन्तु मेरे गुरुदेव ने मुझे हिम्मत दिलाते हुए आगे कहाः
“ ‘मुझे देखने दो; मुझे विश्वास है कि कल तक तुम्हारा स्वास्थ्य बेहतर हो जायेगा।’
“मेरे श्रद्धालु मन ने यह मान लिया कि उनके शब्द इस बात का संकेत हैं कि वे गुप्त रूप से मुझे स्वस्थ करनेवाले हैं। दूसरे दिन प्रातः काल ही मैं उनके पास पहुँच गया और उल्लास के साथ मैंने कहा, ‘गुरुदेव! आज मुझे कल की अपेक्षा बहुत अच्छा लग रहा है।’
“ ‘सचमुच! आज तुमने अपने आप को शक्ति से भर लिया है।’
“ 'नहीं गुरुदेव!’ मैंने सविनय प्रतिवाद किया। ‘ये तो आप हैं जिन्होंने मुझे स्वस्थ कर दिया है; कई सप्ताहों में आज पहली बार मैं अपने में कुछ शक्ति अनुभव कर रहा हूँ।’
“ ‘हाँ हाँ! तुम्हारी बीमारी तो काफी गम्भीर थी। तुम्हारा शरीर अभी भी काफी दुर्बल है: कॉन कह सकता है, यह कल कैसा रहेगा ?’
“अपनी दुर्बलता के लौट आने की सम्भावना के विचार मात्र से मैं भय से सिहर उठा। दूसरे दिन सुबह मैं मुश्किल से अपने आप को लाहिड़ी महाशय के घर तक घसीट सका।
“ ‘गुरुदेव! मैं फिर बीमार हो गया हूँ।’
“मेरे गुरु की आँखों में शरारत उतर आयी थी। तो फिर एक बार तुमने अपने आप को बीमार बना लिया।’
“मेरा धैर्य समाप्त हो गया। मैंने कहा, ‘गुरुदेव! अब मैं समझ गया हूँ कि दिन-प्रतिदिन आप केवल मेरा मजाक ही उड़ा रहे थे। मेरी समझ में नहीं आता कि मेरी सच्ची बातों पर आपको विश्वास क्यों नहीं होता।’
“ ‘सचमुच, वे केवल तुम्हारे विचार ही हैं जिन्होंने तुम्हें बारी-बारी से दुर्बल और स्वस्थ अनुभव कराया है।’ मेरे गुरु प्रेम से मुझे निहार रहे थे। ‘तुमने देख लिया है कि कैसे तुम्हारा स्वास्थ्य तुम्हारी अवचेतन प्रत्याशाओं के अनुसार बदलता रहा विचार विद्युत्शक्ति या गुरुत्वाकर्षण शक्ति के समान एक शक्ति है। मानव-मन ईश्वर के सर्वशक्तिमान चैतन्य का एक स्फुल्लिंग है। मैं तुम्हें दिखा सकता हूँ कि तुम्हारा शक्तिशाली मन जिस किसी भी बात में तीव्र विश्वास रखेगा, वह तत्क्षण घटित होकर रहेगा।’
“यह जानते हुए कि लाहिड़ी महाशय कभी व्यर्थ बात नहीं करते, मैंने श्रद्धा और कृतज्ञता से भावविभोर होकर उनसे कहा: ‘गुरुदेव ! यदि मैं सोचूँ कि मैं स्वस्थ हूँ और मेरा वजन पूर्ववत् हो गया है तो क्या ऐसा हो जायेगा ?’
“ ‘इसी क्षण भी ऐसा ही है।’ मेरी आँखों में एकाग्रतापूर्वक देखते हुए गुरुदेव ने गम्भीरता से कहा।
“मैंने तत्क्षण न केवल अपनी शक्ति में बल्कि वज़न में भी वृद्धि अनुभव की। लाहिड़ी महाशय पुनः अपने मौन में खो गये। उनके चरणों में कुछ घंटे बैठने के बाद मैं अपनी माँ के घर लौटा, जहाँ काशी जाने पर मैं रुकता था।
“ ‘बेटे! तुम्हें क्या हो गया है? जलशोथ की बीमारी से क्या तुम्हारा शरीर फूल रहा है ?’ माँ को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। मेरा शरीर अब वैसा ही हृष्ट-पुष्ट हो गया था जैसा बीमारी से पहले था।
“मैंने अपना वजन किया तो देखा कि एक दिन में मेरा वज़न पचास पौंड बढ़ गया था और उसके बाद वह वज़न हमेशा के लिये बना रहा। जिन मित्रों और परिचितों ने मेरा क्षीण शरीर देखा था वे आश्चर्य से हतप्रभ रह गये। उनमें से अनेकों ने इस चमत्कार के परिणामस्वरूप अपनी जीवन-दिशा बदल ली और लाहिड़ी महाशय के शिष्य बन गये।
“ईश्वर में सदा जागृत मेरे गुरुदेव जानते थे कि यह संसार और कुछ न होकर केवल स्रष्टा का मूर्तरूप धारण किया हुआ स्वप्न है। लाहिड़ी महाशय को उस दिव्य स्वप्नद्रष्टा के साथ अपनी एकात्मता का पूर्ण भान था, इसलिये वे दृश्य जगत् के स्वप्नाणुओं को प्रकट करने या लुप्त करने या उनमें अपनी इच्छानुसार कोई भी परिवर्तन करने में समर्थ थे।⁹
अन्तमें श्रीयुक्तेश्वरजी ने कहा: “सम्पूर्ण सृष्टि विधि-नियम के अधीन है। बाह्य सृष्टि में कार्यरत नियम, जिनकी खोज वैज्ञानिक कर सकते हैं, प्राकृतिक नियम कहलाते हैं। परन्तु इन नियमों की अपेक्षा सूक्ष्मतर नियम भी हैं जो अन्तश्चेतना के आध्यात्मिक जगत् में कार्यरत हैं। इन नियम-सिद्धान्तों को योग के द्वारा जाना जा सकता है। पदार्थ जगत् के सच्चे स्वरूप को पदार्थविज्ञानी नहीं बल्कि आत्मज्ञानी सिद्ध ही वास्तव में समझता है। इस प्रकार के ज्ञान द्वारा ही ईसा मसीह ने उस नौकर के कान को पुनः जोड़ दिया था, जिसे उनके एक शिष्य ने काट डाला था।”¹⁰
श्रीयुक्तेश्वरजी शास्त्रों की अद्वितीय व्याख्या करते थे। मेरी अनेक सबसे सुखद स्मृतियाँ उनके प्रवचनों के साथ जुड़ी हुई हैं। परन्तु वे अपने विचार-रत्न अवधानता और मूढ़ता की राख में कभी नहीं फेंकते थे। मेरे शरीर की थोड़ी-सी भी बेचैन हलचल या ध्यान की थोड़ी सी भी अवधानता गुरुदेव की शास्त्र व्याख्या को तत्क्षण बंद कराने के लिये काफी थी।
“तुम यहाँ नहीं हो।” एक दिन अपराह्न श्रीयुक्तेश्वरजी ने यह टिप्पणी करते हुए अपना वाक्प्रवाह खंडित कर दिया। सदा की भाँति वे मेरे मनोयोग का निर्ममता से ध्यान रख रहे थे।
“गुरुजी!” मेरे स्वर में विरोध स्पष्ट था। “मैं जरा भी नहीं हिला; मेरी पलकें भी नहीं हिली; आपने जो-जो अभी कहा है, मैं एक-एक शब्द दुहरा सकता हूँ!”
“फिर भी पूर्ण रूप से तुम मेरे साथ नहीं थे। तुम्हारा विरोध करना मुझे यह कहने के लिये विवश कर रहा है कि तुम अपने मन की पृष्ठभूमि में तीन संस्थाओं का निर्माण कर रहे थे। एक थी मैदानी क्षेत्र में एकांत आश्रम, दूसरी एक पहाड़ी के शिखर पर तीसरी एक समुद्र तट पर।”
ये अस्पष्ट विचार लगभग अवचेतन स्तर पर ही मेरे मन में सचमुच चल रहे थे। मैंने क्षमायाचक दृष्टि से उनकी ओर देखा।
“ऐसे गुरु के साथ मैं कर ही क्या सकता हूँ जो यदा-कदा अचानक मेरे मन में उठने वाले विचारों को भी पकड़ लेते हैं ?”
“तुमने स्वयं ही वह अधिकार मुझे दिया है। मैं जिन सूक्ष्म तत्त्वों को समझा रहा हूँ उन्हें तुम पूर्ण मनोयोग के बिना नहीं समझ सकते। जब तक आवश्यक न हो, मैं दूसरों के मन के एकान्त में नहीं झाँकता। मनुष्य को अपने विचारों में गुप्त रूप से विचरण करने का स्वाभाविक अधिकार है। बिन बुलाये तो भगवान भी वहाँ प्रवेश नहीं करते; न ही मैं वह हिम्मत कर सकता हूँ।”
“आपका सदा स्वागत है, गुरुदेव !”
“तुम्हारे ये वास्तु स्वप्न बाद में साकार होंगे। अभी केवल अध्ययन का समय है!”
इस प्रकार मेरे गुरु ने प्रसंगवश ही, अपने सहज ढंग में मेरे जीवन में आनेवाली तीन महत्त्वपूर्ण घटनाओं का अपना पूर्वज्ञान प्रदर्शित कर दिया। किशोरावस्था के प्रारंभ से ही मुझे तीन इमारतों की रहस्यमय झाँकियाँ मिलती थीं जिनमें से प्रत्येक इमारत अलग-अलग परिदृश्य में दिखती थी। श्रीयुक्तेश्वरजी ने जिस क्रम में बताया था, ठीक उसी क्रम में इन तीन दृश्यों ने साकार रूप धारण किया। सर्वप्रथम रांची के एक मैदानी क्षेत्र में मेरे द्वारा स्थापित बालकों के लिये योग विद्यालय की स्थापना, फिर लॉस ऐंजेलिस में एक पहाड़ी पर मेरा अमेरिकी मुख्यालय और उस के बाद विशाल प्रशांत महासागर के तट पर कैलिफोर्निया के एन्सीनीटस में एक आश्रम।
गुरुदेव कभी गर्व के साथ ऐसा नहीं कहते थे कि, “मैं भविष्यवाणी करता हूँ कि अमुक-अमुक घटना होगी!” बल्कि वे संकेत मात्र देतेः “तुम्हें नहीं लगता कि ऐसा हो सकता है ?” परन्तु उनके सादे वक्तव्यों के पीछे भविष्यद्रष्टा की शक्ति छिपी रहती थी। वे एक बार कही हुई बात को कभी वापस नहीं लेते थे, न उसमें कभी कोई परिवर्तन करते थे; उनकी किंचित् ढकी हुई भविष्यवाणी कभी मिथ्या सिद्ध नहीं हुई।
श्रीयुक्तेश्वरजी स्वभाव से मितभाषी, स्पष्टवादी और पूर्णतः आडम्बररहित थे। उनके विचारों में न तो कहीं अस्पष्टता का लवलेश था, न स्वपनिलता का ही कोई अंश। उनके पाँव ज़मीन पर दृढ़ थे, मस्तक स्वर्ग की शांति में स्थिर था। व्यावहारिक स्वभाव के लोग उन्हें अच्छे लगते थे। वे कहते थेः “साधुता का अर्थ भोंदुपन या अकर्मण्यता नहीं है! ईश्वरानुभूतियाँ किसी को अक्षम नहीं बनातीं! चरित्र बल की सक्रिय अभिव्यक्ति तीक्ष्णतम बुद्धि को विकसित करती है।”
मेरे गुरु सूक्ष्म लोकों की चर्चा करना पसन्द नहीं करते थे। पूर्ण सादगी ही “असामान्यता” का एकमात्र लक्षण वनकर उनमें दीख पड़ती थी। वार्तालाप में विस्मयकारी संदर्भ देने से वे बचते थे; कार्यों में अपने सामर्थ्य को मुक्त रूप से अभिव्यक्त करते थे। अनेक तथाकथित गुरु चमत्कारों की चर्चा तो खूब करते थे पर कृति में कुछ नहीं उतार सकते थे: श्रीयुक्तेश्वरजी शायद ही कभी सूक्ष्म नियमों का उल्लेख करते पर गुप्त रूप से अपनी इच्छानुसार उन्हें कार्यान्वित करते।
“आत्मदर्शी पुरुष कभी कोई चमत्कार नहीं करता जब तक उसे अपने अंतर से उसके लिये आज्ञा नहीं मिलती”, गुरुदेव कहते थे। “ईश्वर नहीं चाहते कि उनकी सृष्टि के रहस्यों को यत्र तत्र सर्वत्र प्रकट किया जाय।¹¹ और फिर संसार में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी स्वतन्त्र इच्छाशक्ति का असंक्राम्य अधिकार है। कोई सन्त उस स्वतन्त्रता पर कभी अतिक्रमण नहीं करेगा।”
स्वभावतः ही श्रीयुक्तेश्वरजी का मौन रहना उनकी अनंत ब्रह्म की गहरी अनुभूतियों के कारण था। आत्मसाक्षात्कारविहीन गुरु अनवरत रूप से जिस “ज्ञान" को व्यक्त करने में दिनभर व्यस्त रहते हैं, उसके लिये उनके पास कोई समय नहीं बचता था। हिन्दू शास्त्रों में एक कहावत है: “उथले पुरुषों में छोटे-छोटे विचारों की मछलियाँ खूब खलबली मचाती हैं। सागर समान मन में अन्तःप्रेरणा के महामत्स्य भी शायद ही कोई तरंग उत्पन्न कर पाते हैं।”
मेरे गुरु के आडम्बरहीन, अत्यंत साधारण बाह्य आचरण के कारण उनके समकालीन लोगों में बहुत कम ऐसे थे जो उन्हें अवतारी पुरुष के रूप में पहचान सके थे। वह कहावत कि “जो अपने ज्ञान को छिपा नहीं सकता वह मूर्ख है”, मेरे परमज्ञानी और शांत गुरु पर कभी लागू नहीं हो सकती थी।
यद्यपि श्रीयुक्तेश्वरजी ने भी अन्य मर्त्य लोगों की तरह ही जन्म लिया था, तथापि वे सृष्टि के नियंता के साथ एक बन चुके थे। ईश्वरत्व में मनुष्यत्व के विलयन में गुरुदेव ने कोई दुर्लंघ्य बाधा नहीं पायी। बाद में मेरी समझ में आया कि केवल मनुष्य की आध्यात्मिक प्रयासहीनता के अलावा ऐसी कोई बाधा नहीं होती।
श्रीयुक्तेश्वरजी के पवित्र चरणों का स्पर्श करते समय मैं सदा ही रोमांचित हो उठता था। गुरु का श्रद्धापूर्ण स्पर्श करने से शिष्य आध्यात्मिक शक्ति से परिपूर्ण हो जाता है; एक सूक्ष्म विद्युत्धारा प्रवाहित होती है। शिष्य के मस्तिष्क में विद्यमान अवांछनीय प्रवृत्ति प्रणालियाँ उस प्रवाह में प्रायः भस्म हो जाती हैं; उसकी सांसारिक प्रवृत्तियों के खाँचों में कल्याणप्रद उथलपुथल मच जाती है। कम से कम क्षणभर के लिये ही सही, वह माया के गुप्त पर्दे उठते अनुभव कर सकता है और परमानन्द की सच्चाई की झलक पा सकता है। मैं जब भी अपने गुरु के चरणों पर माथा टेकता था, मेरा सम्पूर्ण शरीर जैसे एक मुक्तिप्रदायक तेज से भर जाता था।
गुरुदेव ने मुझे बतायाः “जब लाहिड़ी महाशय मौन रहते थे तब भी, या किसी ऐसे विषय पर चर्चा कर रहे हों जो पूर्णतः धार्मिक न हो तब भी, मैंने देखा कि उन्होंने मुझ में अगाध ज्ञान का संचार कर दिया है।”
मुझ पर भी श्रीयुक्तेश्वरजी का प्रभाव ऐसा ही पड़ता था। यदि मैं कभी चिंतित या अन्यमनस्क मन से आश्रम में प्रवेश करता तो मेरी मनोवृत्ति अगम्य ढंग से बदल जाती। अपने गुरु के दर्शनमात्र से ही एक प्रकार की सुखद शान्ति मुझ में आ जाती। उनके सान्निध्य में प्रतिदिन आनन्द, शान्ति और ज्ञान का एक नया अनुभव होता था। मैंने उन्हें कभी माया के किसी आकर्षण से ग्रस्त या लोभ, क्रोध अथवा किसी के प्रति मानवी अनुरक्ति की भावना में उत्तेजित नहीं देखा।
“माया का अन्धकार धीरे-धीरे चुपचाप हमारी ओर बढ़ रहा है। आओ, अपने अन्तर में अपने घर की ओर भाग चलें।” शिष्यों को सावधान करने के लिये इन शब्दों द्वारा गुरुदेव नित्य उन्हें क्रियायोग के अभ्यास की आवश्यकता की याद दिलाते थे। कभी-कभी कोई नया शिष्य योगाभ्यास के लिये अपनी योग्यता के बारे में सन्देह प्रकट कर देता था।
“अतीत को भूल जाओ”, श्रीयुक्तेश्वरजी उसे सांत्वना देते हुए कहते। “सभी लोगों का बीता हुआ जीवन अनेक कलंकों से कलुषित है। मनुष्य के आचरण का तब तक कोई भरोसा नहीं होता जब तक वह ईश्वर में अधिष्ठित न हो जाय। भविष्य में सब कुछ सुधर जायेगा यदि तुम अभी से आध्यात्मिक प्रयास शुरू कर दो।”
गुरुदेव के पास आश्रम में सदा ही बाल शिष्य रहते थे। उनकी बौद्धिक और आध्यात्मिक शिक्षा में गुरुदेव को सदा ही रुचि रहती थी। अपने देहत्याग से थोड़े ही दिन पहले भी उन्होंने दो छः साल के बच्चे और एक सोलह साल के नवयुवक को आश्रमवासी शिष्यों के रूप में स्वीकार किया था। अपने अधीन शिष्यों को वे सावधानीपूर्वक शिक्षा देते थे; शिष्य और शिक्षा (जिसमें अनुशासन निहित है) इन दोनों शब्दों का मूल एक ही है और व्यावहारिक स्तर पर दोनों एक दूसरे से संबंधित हैं।
आश्रमवासियों को अपने गुरु के प्रति नितांत प्रेम और आदर था। गुरु की हल्की-सी ताली पर सभी उत्सुकता से उनके पास दौड़ पड़ते थे। जब कभी वे गम्भीर या अन्तर्मुख प्रतीत होते तब कोई भी बातचीत करने का साहस न करता; जब उनकी हँसी गूँज उठती, तब बच्चे भी उन्हें अपने में से ही एक मानते।
श्रीयुक्तेश्वरजी शायद ही कभी किसी को अपना कोई व्यक्तिगत काम करने को कहते, न ही वे कभी किसी शिष्य से कोई सेवा स्वीकार करते यदि वह शिष्य स्वयं अपनी खुशी से वह सेवा करने के लिये आगे न बढ़ा हो। यदि शिष्यगण किसी दिन गुरु के कपड़े धोने का सौभाग्यपूर्ण काम करना भूल जायें तो वे स्वयं ही उन्हें धो लेते थे।
साधारणतया वे स्वामियों के परम्परागत गेरूए कपड़े पहनते थे। घर के अन्दर वे बिना फीते के जूते पहनते जो योगियों की प्रथा के अनुसार व्याघ्रचर्म या मृगचर्म से बनाये जाते थे।
श्रीयुक्तेश्वरजी अंग्रेजी, फ्रेंच, बंगाली और हिन्दी धाराप्रवाह बोलते थे; उनकी संस्कृत भी अच्छी थी। वे अपने शिष्यों को संस्कृत और अँग्रेजी अपनी स्व-आविष्कृत सरल पद्धतियों से बड़े धीरज के साथ सिखाते थे।
गुरुदेव को अपने शरीर की अधिक चिन्ता नहीं थी, परन्तु वे उसके प्रति सावधानी अवश्य बरतते थे। वे कहते थे कि ईश्वर शारीरिक और मानसिक स्वस्थता में अच्छी प्रकार अभिव्यक्त होते हैं। किसी बात में अति करना उन्हें पसन्द नहीं था। एक शिष्य को, जो दीर्घ काल तक उपवास करना चाहता था, मेरे गुरु ने हँसते हुए कहा, “कुत्ते को हड्डी क्यों न डाल दी जाय ?”¹²
श्रीयुक्तेश्वरजी का स्वास्थ्य उत्तम था; मैंने कभी उन्हें अस्वस्थ नहीं देखा¹³ जग-प्रथा का मान रखने के लिये वे अपने शिष्यों को, यदि वे चाहें, तो डॉक्टर के पास जाने देते थे। वे कहते थे, “डॉक्टरों को भौतिक पदार्थों के लिये निर्धारित ईश्वरीय नियमों के अनुसार अपना चिकित्साकार्य करना चाहिये।” पर वे मानसिक शक्ति के द्वारा रोग निवारण की पद्धति को श्रेष्ठ मानते थे और प्राय: कहते रहते थे: “ज्ञान ही सब से बड़ा परिष्कारक है।” वे अपने शिष्यों से कहते थे:
“शरीर एक कपटी मित्र है। उसे उतना ही दो जितना जरुरी है; उससे अधिक नहीं। सुख-दुःख अल्पकालिक होते हैं; जगत् के सभी द्वन्द्वों को शान्तिपूर्वक सहन करो और साथ ही उनके प्रभाव से परे जाने का प्रयास करते रहो। कल्पना ही वह द्वार है जिससे रोग भी प्रवेश करते हैं और रोगनिवारण भी। बीमार होने पर भी बीमारी के अस्तित्त्व में विश्वास मत करो; उपेक्षित अतिथि अपने आप भाग जायेगा!”
अनेक डॉक्टर भी गुरुदेव के शिष्य थे। उनसे गुरुदेव कहते थे, “जिन्होंने शरीर विज्ञान का अध्ययन किया है उन्हें और आगे जाकर आत्म विज्ञान का अनुसन्धान करना चाहिये। शरीर की यन्त्रावली के पीछे एक सूक्ष्म आध्यात्मिक संरचना छिपी हुई है।”¹⁴
श्रीयुक्तेश्वरजी अपने शिष्यों से पौर्वात्य और पाश्चात्य सद्गुणों का संगम बनने के लिये कहते थे। स्वयं उनकी बाह्य आदतें किसी पाश्चात्य संचालक के समान थीं, उनके अंतर में पौर्वात्य लोगों की आध्यात्मिकता कूट-कूट कर भरी हुई थी। वे पश्चिम के प्रगतिशील युक्तिपूर्ण और आरोग्यपूर्ण तौर-तरीकों के प्रशंसक थे, तो पूर्व को शताब्दियों से धन्य करने वाले और उसके चारों ओर आध्यात्मिक तेजोमंडल निर्माण करने वाले धार्मिक आदर्शों के पुजारी भी थे।
अनुशासन मेरे लिये कोई नयी बात नहीं थी; घर में पिताजी अनुशासन में दृढ़ थे, अनंत दा तो प्रायः निष्ठुर हो ही जाते थे। परन्तु श्रीयुक्तेश्वरजी के प्रशिक्षण को 'दारुण' से लेशमात्र भी कम नहीं कहा जा सकता। चाहे तात्कालिक व्यवहार में हो या साधारण आचार के सूक्ष्म अर्थों में हो, मेरे गुरु अपने शिष्यों की छोटी से छोटी गलती की भी खूब आलोचना किया करते थे।
“शिष्टाचार का पालन यदि निष्कपटतापूर्वक न किया जाय तो वह मृत सुन्दर नारी के समान है ”, वे प्रसंग पड़ने पर कहते थे। “सभ्यतारहित स्पष्टवादिता डॉक्टर की छुरी के समान है, जो गुणकारी तो है परन्तु अप्रिय लगती है। सौजन्ययुक्त स्पष्टवादिता लाभदायक भी है और अच्छी भी लगती है।”
गुरुदेव मेरी आध्यात्मिक उन्नति से संतुष्ट लगते थे, क्योंकि उसके बारे में वे शायद ही कभी टिप्पणी करते थे; अन्य बातों में फटकारें सुनना नित्य की बात थी। मेरे मुख्य अपराध होते थे अन्यमनस्कता, बीच-बीच में विषण्णता, शिष्टाचार के कतिपय नियमों का उल्लंघन और कभी-कभी अव्यवस्थितता।
“ज़रा देखो तुम्हारे पिता भगवती की कार्यशैली कितनी सुव्यवस्थित और सुसंतुलित है।”, मेरे गुरु कहा करते थे। श्रीरामपुर आश्रम में जब मैं पहली बार आया था, उसके थोड़े ही दिनों बाद लाहिड़ी महाशय के इन दो शिष्यों की आपस में भेंट हुई थी। पिताजी और गुरुदेव एक-दूसरे के प्रशंसक थे। दोनों ने ही मज़बूत आध्यात्मिकता की नींव पर अपने सुन्दर आध्यात्मिक जीवन का निर्माण किया था जिसका युगयुगान्तर में भी लय नहीं हो सकता।
मैंने अपने बचपन के एक अल्पकालिक शिक्षक से कई गलत शिक्षाएँ ग्रहण कर ली थीं। उन्होंने मुझे बताया था कि एक शिष्य को सांसारिक कर्त्तव्यों को पूरा करने के लिये अति कष्ट करने की आवश्यकता नहीं; जब कभी मैंने अपने कार्यों की उपेक्षा की या उन्हें लापरवाही से सम्पन्न किया, तब किसी ने मुझे कभी डाँटा फटकारा नहीं। मानव स्वभाव को ऐसी शिक्षा आत्मसात् करना बड़ा सरल लगता है। किन्तु गुरुदेव के कठोर अनुशासन में मैं शीघ्र ही उत्तरदायित्वहीनता की सुखद भ्रान्तियों से जाग गया।
“जो लोग इस जगत् के लिये उपयोगी होते हैं, वे किसी दूसरे जगत् की शोभा बनते हैं।”, श्रीयुक्तेश्वरजी ने एक दिन कहा। “जब तक तुम इस धरा की मुक्त हवा का श्वास ले रहे हो तब तक बदले में कृतज्ञतापूर्वक सेवा देना तुम्हारा कर्त्तव्य है। केवल जो समाधि की श्वासरहित अवस्था में प्रतिष्ठित हो गया हो, वही जगत् के कर्त्तव्यों से मुक्त है।” उन्होंने रुक्षता से आगे कहा, “जब तुम उस अंतिम पूर्णता की अवस्था में पहुँच जाओगे, तब मैं तुम्हें उस बारे में सूचित करने में चूकूँगा नहीं।”
मेरे गुरु को किसी प्रकार की घूस से वश में नहीं किया जा सकता था, प्रेम से भी नहीं। मेरी तरह ही जिसने भी स्वेच्छा से उनका शिष्य बनना स्वीकार कर लिया था, उसके प्रति वे कभी किसी प्रकार की नरमी नहीं दिखाते थे। गुरुदेव और मैं चाहे उनके शिष्यों से घिरे हों या अपरिचित लोगों से, या केवल हम दोनों ही साथ-साथ हों, वे सदा ही अपनी बात स्पष्ट शब्दों में कहते और तीव्र फटकार भी लगाते। थोड़ा-सा भी अवधान या थोड़ी-सी भी असंगति होने पर उनकी डाँट-फटकार से बचना असंभव था। अहंभाव पर बार-बार चोट करने वाले इस व्यवहार को सहन करना अत्यन्त कठिन था, परन्तु मैंने भी अपनी प्रत्येक मानसिक ऐंठन को श्रीयुक्तेश्वरजी के द्वारा सीधी करा लेने का अटल प्रण कर लिया था। इस विराट् परिवर्तन को लाने के अथक परिश्रम में जब वे लगे हुए थे, तब अनेक बार मैं उनके अनुशासनरूपी हथौड़े के प्रहार से तिलमिला उठता था।
“तुम्हें यदि मेरी बातें अच्छी नहीं लगती हों तो तुम कभी भी यहाँ से चले जाने के लिये मुक्त हो।”, गुरुदेव मुझसे कहते थे। “मैं तुमसे तुम्हारी उन्नति के अतिरिक्त और किसी चीज की अपेक्षा नहीं रखता। यदि तुम लाभान्वित अनुभव करते हो तो हीं यहाँ रहो।”
मेरे मिथ्याभिमान को तोड़ने वाले जो प्रहार उन्होंने किये, उनके लिये मैं अपरिमित रूप से उनका कृतज्ञ हूँ। कभी-कभी मुझे लगता था कि, लाक्षणिक तौर पर, वे मेरे प्रत्येक रुग्ण दाँत को ढूंढ-ढूंढ कर उखाड़ते जा रहे हैं। इस प्रकार के कठोर झटकों के बिना अहंकार की जड़ को उखाड़ फेंकना कठिन है। अहंकार के जाते ही ईश्वर के अन्दर आने का मार्ग निष्कंटक बन जाता है। अन्यथा स्वार्थ के कारण पत्थर बने हृदयों को भेदकर अन्दर आने का ईश्वर का प्रयास व्यर्थ हो जाता है।
श्रीयुक्तेश्वरजी का अंतर्ज्ञान अन्तर्भेदी था; ऊपर-ऊपर कोई चाहे जो भी कह रहा हो, वे प्रायः उसके अव्यक्त विचारों का उत्तर देते थे। कोई व्यक्ति जिन शब्दों का प्रयोग कर रहा हो उनमें और उनके पीछे विद्यमान वास्तविक विचारों में ज़मीन-आसमान का अंतर हो सकता है। मेरे गुरु कहते थे, “शान्त मन से मनुष्यों के शब्दाडंबर की अस्तव्यस्तता के पीछे छिपे विचारों को पहचानने का प्रयास करो।”
दिव्य अंतर्दृष्टि द्वारा प्रकट किये गये रहस्य सांसारिक कानों को प्रायः कटु लगते हैं; ओछे शिष्यों में गुरुदेव लोकप्रिय नहीं थे। विवेकी, समझदार लोगों में, जो संख्या में सदा ही थोड़े रहते हैं, उनके प्रति गहरी श्रद्धा थी।
मैं विश्वासपूर्वक यह कह सकता हूँ कि श्रीयुक्तेश्वरजी भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय गुरु होते यदि उनकी वाणी इतनी स्पष्ट और कटु आलोचनात्मक न होती।
“जो मुझसे शिक्षा प्राप्त करने मेरे पास आते हैं उनके साथ मैं अत्यंत सख्त होता हूँ।”, उन्होंने मेरे समक्ष स्वीकार किया। “यही मेरा तरीका है। चाहे तो उसे स्वीकार करो या छोड़ दो, मैं कभी समझौता नहीं करता। परन्तु तुम अपने शिष्यों के साथ कहीं अधिक सहृदय रहोगे; वही तुम्हारा तरीका है। मैं केवल कठोरता की अग्नि में तपाकर ही शुद्ध करने का प्रयास करता हूँ; इस अग्नि की तप्तता साधारण सहनशक्ति से परे होती है। प्रेम का सौम्य तरीका भी परिवर्तन ला सकता है। विवेक और ज्ञान के साथ यदि उपयोग किया जाय तो कठोर और कोमल, दोनों ही तरीके समान रूप से प्रभावकारी हैं।” फिर उन्होंने आगे कहा, “तुम्हें विदेशों में जाना पड़ेगा जहाँ अहं पर निर्दय प्रहार पसन्द नहीं किये जाते। वहाँ के लोगों के अनुरूप धैर्य और सहनशीलता के पर्याप्त भण्डार के बिना कोई गुरु पाश्चात्य जगत् में भारत के सन्देश का प्रचार प्रसार नहीं कर सकता।” (यह न बताना ही अच्छा है कि अमेरिका में कितनी बार गुरुदेव के इन शब्दों की याद मेरे मन में ताजा हो उठी!)
मेरे गुरु के अत्यंत स्पष्ट बोलने के कारण इस पृथ्वी पर उनके जीवनकाल में बड़ी संख्या में उनके शिष्य तो नहीं बने, परन्तु उनकी शिक्षाओं का अध्ययन और उनका अभ्यास करने वाले सच्चे शिष्यों की निरन्तर बढ़ती संख्या के माध्यम से उनका ज्ञान आज भी विश्व में जीवित है। सिकन्दर जैसे योद्धा भूमि पर स्वामित्व स्थापित करने की चेष्टा करते हैं: श्रीयुक्तेश्वरजी जैसे सिद्ध पुरुष उससे भी आगे जाकर मनुष्यों की आत्माओं को जीत लेते हैं।
गुरुदेव की यह रीत थी कि वे अपने शिष्यों की साधारण नगण्य त्रुटियों को भी एक प्रकार की अर्थगर्भित गम्भीरता के साथ बताते थे। एक दिन श्रीयुक्तेश्वरजी का दर्शन करने मेरे पिताजी श्रीरामपुर आये। पिताजी को सम्भवतः यह आशा थी कि उन्हें मेरी प्रशंसा सुनने को मिलेगी। मेरी त्रुटियों का लम्बा वर्णन सुनकर वे स्तब्ध हो गये। वे तेजी से मुझसे मिलने आये।
“तुम्हारे गुरु की बातें सुनकर तो मुझे लगता है कि तुम पूरे चौपट हो गये हो!” पिताजी की अवस्था हँसने और रोने के बीच की थी।
इस अवसर पर श्रीयुक्तेश्वरजी के मुझ पर कोप का एकमात्र कारण यह था कि मैं उनके सौम्य संकेत की ओर कोई ध्यान न देकर एक व्यक्ति को अध्यात्म मार्ग पर लाने का प्रयत्न कर रहा था।
संतप्त होकर मैं तेज़ी से गुरुदेव के पास जा पहुँचा। मुझे देखते ही उन्होंने अपनी दृष्टि नीची कर ली जैसे अपने अपराध का उन्हें बोध हो। यह एकमात्र अवसर था जब मैंने उस दिव्य सिंह को अपने सामने विवश पाया। मैंने उस अनूठे क्षण का पूरा लाभ उठाया।
“गुरुदेव! आपने मेरे विस्मयचकित पिताजी के सामने मेरी इतनी निर्दय आलोचना क्यों की? क्या यह उचित था?”
“मैं फिर कभी ऐसा नहीं करूँगा।” श्रीयुक्तेश्वरजी के स्वर में क्षमायाचना थी।
तत्काल मैं निरस्त्र हो गया। उस महान् पुरुष ने कितनी तत्परता से अपनी भूल स्वीकार कर ली! उसके बाद उन्होंने फिर कभी पिताजी की मनःशान्ति तो भंग नहीं की, परन्तु जहाँ चाहे, जब चाहे, मेरी अच्छी खासी खबर लेना उन्होंने जारी रखा।
श्रीयुक्तेश्वरजी के साथ नये शिष्य भी कई बार दूसरों की सांगोपांग आलोचना करने लगते। जैसे गुरु के समान ही ज्ञानी, निर्दोष विवेक की मूर्तियाँ हों ! परन्तु जो आक्रमण करता है उसे अपने बचाव की भी पुरजोर व्यवस्था रखनी चाहिये। गुरुदेव ने जैसे ही उन परछिद्रान्वेषी शिष्यों पर अपने विश्लेषणात्मक तरकश से कुछ एक तीर सब के सामने चला दिये, सब के सब राकेट के समान वहाँ से भाग निकले।
उन भगौडों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए श्रीयुक्तेश्वरजी विनोदपूर्वक कहते थे: “आलोचना के हल्के-से स्पर्श से भी बिदक जानेवाली संवेदनशील आंतरिक दुर्बलताएँ शरीर के उन रोगग्रस्त अंगों के समान हैं जो जरा-सा हाथ लगाने से ही झटका मारकर पीछे हट जाते हैं।”
अनेक शिष्यों के मन में गुरु के बारे में एक पूर्वनिर्धारित कल्पना होती है जिसके आधार पर वे गुरु के शब्दों और कार्यों को आँकते हैं। ऐसे लोगों को प्रायः यह शिकायत रहती थी कि वे श्रीयुक्तेश्वरजी को समझ नहीं पाये।
“और न ही तुम ईश्वर को समझते हो!” एक अवसर पर मैं बरस पड़ा। “तुम यदि एक संत को समझ पाते तो स्वयं सन्त बन जाते!” सृष्टि के अरबों रहस्यों का भेद हम जान नहीं पाये, यहाँ तक कि प्रति क्षण हम जिस हवा का श्वास लेते हैं वह हवा भी हमारे लिये अगम्य है, तब भी कोई यह सोचने का साहस करे कि एक सिद्ध पुरुष के अथाह स्वभाव का ज्ञान उसे तत्क्षण हो जाय ?
अनेकों शिष्य आते रहे और सामान्यतः जाते रहे। जो आसान मार्ग चाहते थे, जिसमें उन्हें आते ही सहानुभूति मिले और उनके गुणों की सुखद सराहना हो, उन्हें श्रीरामपुर आश्रम में निराशा ही हाथ लगती थी। गुरुदेव अपने शिष्यों को आश्रय और अनंतकाल तक संरक्षण एवं मार्गदर्शन देने के लिये तैयार थे, परन्तु अनेक शिष्य संकीर्ण वृत्ति से अपने अहंकार की तृप्ति भी चाहते थे। विनम्रता की अपेक्षा जीवन की असंख्य अवमाननाओं का वरण करके वे आश्रम छोड़कर चले गये। उनकी आध्यात्मिक रुग्णता के लिये श्रीयुक्तेश्वरजी की सूर्य के समान प्रखर ज्ञान किरणें उनके लिए दुस्सह थी। वे अपेक्षाकृत साधारण कोटि के किसी ऐसे गुरु को खोज निकालते जो उन्हें झूठी खुशामदी बातों की छाया प्रदान कर अज्ञान की अशान्त निद्रा में सोने देता।
गुरुदेव के साथ आरम्भ में कुछ महीनों तक मुझे उनकी फटकार का सदा भय लगा रहता था। परन्तु शीघ्र ही मेरी समझ में आ गया कि उनकी यह शाब्दिक चीरफाड़ केवल उन्हीं लोगों पर की जाती थी जिन्होंने मेरे समान ही उनके अनुशासन की माँग की थी। यदि कोई मर्माहत शिष्य प्रतिवाद करता तो श्रीयुक्तेश्वरजी उसका तनिक भी बुरा न मानते हुए मौन हो जाते थे। उनके शब्दों में कभी भी क्रोध नहीं होता था, बल्कि ज्ञान की अलिप्तता होती थी।
गुरुदेव की फटकारों की दिशा कभी आगंतुकों की ओर नहीं होती थी; उनके दोष स्पष्टतः प्रकट हो रहे हों तब भी उनके बारे में वे शायद ही कभी कुछ कहते। परन्तु जो शिष्य उनसे शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे, उनके प्रति श्रीयुक्तेश्वरजी अपना उत्तरदायित्व गम्भीरता से लेते थे। वह गुरु सचमुच बड़ा साहसी है जो अहंकारलिप्त मानवता की अशुद्धियों से भरपूर कच्ची धातु को रूपान्तरित करने का कार्य हाथ में लेता है! माया में किंकर्तव्यविमूढ़ हुए संसार में लड़खड़ाते नेत्रहीन लोगों के प्रति करुणा में ही संत का साहस अधिष्ठित होता है।
जब मैंने अपने आंतरिक रोष को छोड़ दिया तब मैंने देखा कि मुझे मिलनेवाली प्रताड़नाओं में स्पष्ट कमी आयी अत्यंत सूक्ष्म प्रकार से गुरुदेव मेरे प्रति अपेक्षाकृत थोड़े नरम हो गये थे। धीरे-धीरे मैंने मानसिक तर्क-वितर्क तथा अवचेतन¹⁵ निग्रहों की वह प्रत्येक दीवार ढहा दी जिसके पीछे मानव व्यक्तित्व आड़ लेता है। इसका पुरस्कार मुझे यह मिला कि गुरु के साथ अनायास ही मेरा तालमेल बैठ गया। तभी मैंने जाना कि वे दूसरों पर विश्वास करते हैं, उनका ख्याल रखते हैं और मन ही मन प्रेम करते हैं। परन्तु स्नेह का एक शब्द भी कभी उनके मुख से नहीं निकला। भावों को प्रकट करना उनके स्वभाव में नहीं था।
मेरा अपना स्वभाव मुख्यतः भक्तिप्रवण है। पूर्ण ज्ञान की प्रतिमूर्ति, किन्तु प्रत्यक्ष रूप से भक्तिशून्य दिखायी पड़ने वाले अपने गुरु को कठोर आध्यात्मिक गणित की भाषा में बाते करते देखकर मैं शुरू-शुरू में व्याकुल हो उठता था परन्तु ज्यों-ज्यों उनके स्वभाव के साथ मेरा तालमेल बैठता गया, त्यों-त्यों मैंने अनुभव किया कि ईश्वर के प्रति मेरी भक्ति में किसी प्रकार की कमी आने के बदले वृद्धि ही होती गयी। आत्मसाक्षात्कारी गुरु अपने विभिन्न शिष्यों का उनकी प्रकृतियों के झुकाव के अनुसार मार्गदर्शन करने में पूर्ण समर्थ होते हैं।
श्रीयुक्तेश्वरजी के साथ मेरा सम्बन्ध कुछ ऐसा था कि उसमें शब्दों का प्रयोग बहुत कम होता था और फिर भी आंतरिक स्तर पर धाराप्रवाह संवाद चलता रहता था। प्रायः मैं देखता कि मेरे विचारों पर उनके समर्थन की मूक छाप लग चुकी है, जिससे वाणी का कोई प्रयोजन ही नहीं रहता था। उनके चरणों में चुपचाप बैठा मैं अनुभव करता था कि उनकी असीम कृपा शान्तिपूर्वक मेरे सारे अस्तित्व पर वर्षा कर रही है।
अपने कॉलेज जीवन के प्रथम वर्ष की ग्रीष्मकालीन छुट्टियों में गुरुदेव के निष्पक्ष न्याय का एक स्पष्ट उदाहरण मुझे देखने को मिला। अपने गुरु के साथ कुछ महीनों तक निरन्तर समय बिता पाने के इस अवसर की मैं लम्बे समय से प्रतीक्षा कर रहा था।
मेरे उत्साहपूर्ण आगमन पर श्रीयुक्तेश्वरजी प्रसन्न थे । “आश्रम का सारा कार्यभार अब तुम्हें सम्भालना है। तुम्हारा काम होगा अतिथियों का स्वागत करना और अन्य शिष्यों के काम की देखरेख करना।”
इसके पन्द्रह दिन बाद कुमार नाम का पूर्वी बंगाल का एक देहाती लड़का आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने के लिये आकर रहने लगा। अत्यंत बुद्धिमान होने के कारण वह शीघ्र ही गुरुदेव का प्रेमपात्र बन गया। किसी अगम्य कारण से इस नये आश्रमवासी के प्रति श्रीयुक्तेश्वरजी ने अनालोचनात्मक रवैया भी अपनाया था।
कुमार के आश्रम में प्रविष्ट होने के लगभग एक माह बाद गुरुदेव ने मुझे आदेश दिया: “मुकुन्द अब तुम्हारा कार्य कुमार सम्भालेगा। तुम अपना समय झाड़ लगाने और खाना बनाने में लगाओ।”
नेता बनाये जाने से कुमार आश्रम में तानाशाही करने लगा। मूक विद्रोह के रूप में अन्य शिष्य दैनिक परामर्श के लिये मेरे पास ही आते रहे। तीन सप्ताहों तक यही चलता रहा फिर एक दिन मेरे कानों में कुमार और गुरुदेव के बीच चल रहा यह संवाद पड़ा:
“मुकुन्द के कारण मेरे काम में दिक्कत हो रही है।”, कुमार कह रहा था। “आपने आश्रम की देखभाल का काम मुझे सौंपा है, फिर भी अन्य सभी लोग उसी के पास जाते हैं और उसी का कहना मानते हैं।”
“इसीलिये मैंने उसे रसोईघर का और तुम्हें बैठकखाने का काम दिया ताकि तुम्हारी समझ में यह आ सके कि एक योग्य नेता में सेवा करने की इच्छा होती है, अधिकार चलाने की नहीं।” श्रीयुक्तेश्वर का कठोर स्वर कुमार के लिये बिलकुल नया था। “तुम्हें मुकुन्द का पद चाहिये था, परन्तु उसके योग्य बनकर तुम उस पद को सम्भाल नहीं सके। अब अपने पुराने पद पर रसोईये के सहायक के रूप में काम करो।”
गर्व हरण की इस घटना के बाद गुरुदेव ने पुनः कुमार के प्रति अस्वाभाविक तुष्टीकरण की नीति अपना ली। आकर्षण का रहस्य कौन समझ सकता है ? कुमार में श्रीयुक्तेश्वरजी को एक सुन्दर फव्वारा नज़र आ रहा था – परन्तु ऐसा फव्वारा जो अपने गुरुभाइयों के लिये फुहारे नहीं छोड़ता था। यह नया लड़का स्पष्टतया गुरुदेव को सबसे प्रिय हो गया था, परन्तु इससे मैं कभी हतोत्साहित नहीं हुआ। वैयक्तिक स्वभावगत विलक्षणताएँ, जो सिद्ध पुरुषों में भी होती हैं, जीवन के चित्र को विविधरंगी बनाती हैं। छोटी-छोटी बातों का मेरे मन पर प्रभाव नहीं पड़ता। यह मेरे स्वभाव में ही नहीं है। मैं श्रीयुक्तेश्वरजी से बाह्य स्तुति की अपेक्षा कहीं अधिक महान् लाभ पाने का आकांक्षी था।
एक दिन कुमार ने अकारण ही मुझ पर विष उगल दिया; मैं आहत हुआ।
“तुम्हारा दिमाग घमंड से फटने की सीमा तक फूल गया है!” आगे मैंने एक चेतावनी भी जोड़ दी जो अन्तः प्रेरणा से मुझे लगा कि सच होकर रहेगी: “यदि तुमने अपने तौर-तरीकों में सुधार नहीं किया तो किसी दिन इस आश्रम से निकाल दिये जाओगे।”
व्यंग्य की हँसी हँसते हुए कुमार ने मेरे शब्दों को दुहराते हुए गुरुदेव को सुनाया। जो उसी समय वहाँ आ पहुँचे थे। डाँट पड़ने की पूर्ण आशा करते हुए मैं सकपकाकर एक कोने में खड़ा हो गया।
“शायद मुकुन्द ठीक ही कह रहा है।” गुरुदेव के असाधारण रूप से शुष्क शब्द सुनायी दिये।
एक वर्ष बाद कुमार अपने गाँव जाने के लिये निकल पड़ा। उसने श्रीयुक्तेश्वरजी, जो कभी अपने शिष्यों के आने-जाने के मामलों में अधिकारपूर्वक हस्तक्षेप नहीं करते थे, की मौन अस्वीकृति की अवहेलना की। कुछ महीनों के बाद जब वह लौटकर आया तो उसमें एक प्रकार का दुःखद परिवर्तन स्पष्ट दिखायी दे रहा था। तेजस्वी चेहरे का राजसी कुमार अब लुप्त हो गया था। केवल एक साधारण देहाती अब हमारे सामने खड़ा था जिसने कई बुरी आदतें भी अपना ली थीं।
गुरुदेव ने मुझे बुला लिया और भग्न हृदय से मुझसे चर्चा करते रहे कि कुमार अब आश्रम के संन्यास जीवन के योग्य नहीं रहा।
“मुकुन्द ! कल ही कुमार को आश्रम छोड़ कर चले जाने के लिये कहने का काम मैं तुम पर छोड़ता हूँ मैं स्वयं इसे नहीं कर सकता!” श्रीयुक्तेश्वरजी की आँखें भर आयीं परन्तु उन्होंने शीघ्र ही अपने पर काबू पा लिया। “यदि यह लड़का मेरी बात मानता और जाकर अवांछनीय संगति में नहीं पड़ता तो इस हद तक कभी नहीं गिरता। इसने मेरे संरक्षण को ठुकरा दिया है, निर्दय संसार के ही अभी उसका गुरु बने रहने की आवश्यकता है।”
कुमार के चले जाने से मुझे कोई खुशी नहीं हुई। दुःखी अंतःकरण से मैं सोचता रहा कि जिसमें एक सिद्ध पुरुष का प्रेम जीत लेने की शक्ति थी, वह भी कितनी आसानी से संसार के प्रलोभनों में फंस गया। मनुष्य में सुरा और सुन्दरी के उपभोग की नैसर्गिक लालसा रहती है; उनका आनन्द लेने के लिये किसी सूक्ष्म बोधक्षमता की आवश्यकता नहीं रहती। इन्द्रियों की धूर्तता की तुलना सदाबहार करवीर के पौधे के साथ की जा सकती है जिसके गुलाबी पुष्पों से सुगन्ध आती रहती है; पर इसके अंगप्रत्यंग में विष भरा होता है।¹⁶ तृप्ति का धाम तो अंतर में स्थित है, जो उस सुख से दीप्तिमान है जिसे हज़ार बाह्य दिशाओं में अंधों की तरह ढूंढा जा रहा है।
कुमार की तीक्ष्ण बुद्धि की चर्चा करते हुए एक दिन गुरुदेव ने कहाः “तीक्ष्ण बुद्धि एक दुधारी तलवार है। इसका उपयोग अच्छे के लिये भी हो सकता है और बुरे के लिये भी। इस से अज्ञान के फोड़े को चीर डाला जा सकता है या अपनी गर्दन को भी काटा जा सकता है। मन को जब यह स्वीकार हो जाता है कि आध्यात्मिक नियम से बचा नहीं जा सकता, तभी बुद्धि उचित मार्ग पर चलती है।”
मेरे गुरु अपने पुरुष और स्त्री शिष्यों को अपनी सन्तान मानकर उनसे खुल कर मिलते थे। उनकी आत्मा की समानता को जानते हुए वे उनमें कोई भेद नहीं करते थे और कोई पक्षपात नहीं दर्शाते थे।
वे कहते थे: “नींद में किसी को यह पता भी नहीं चलता कि वह पुरुष है या स्त्री। जिस प्रकार स्त्री का वेष धारण कर लेने से कोई पुरुष स्त्री नहीं बन जाता, उसी प्रकार आत्मा स्त्री या पुरुष का रूप धारण कर लेने पर भी अपरिवर्तित ही रहती है। आत्मा ईश्वर का निर्विकार, निर्गुण प्रतिरूप है।”
श्रीयुक्तेश्वरजी नारी को “पुरुष के अधःपतन" का कारण नहीं मानते थे और न कभी नारियों को टालने का प्रयास करते थे। वे कहा करते थे कि नारी को भी पुरुष आकर्षण के प्रलोभन का सामना करना पड़ता है। मैंने एक बार उनसे पूछा कि एक प्राचीन महान् संत ने नारी को “नर्क का द्वार” क्यों कहा है ?
श्रीयुक्तेश्वरजी ने तीखे स्वर में कहा: “नवयुवावस्था में कोई लड़की उसकी मनःशान्ति में बाधक सिद्ध हुई होगी, अन्यथा वह नारी को नहीं बल्कि अपने आत्मसंयम की अपूर्णता को दोष देता।”
यदि किसी आगंतुक ने विकारमयी बातों का संकेत भी देने वाली कोई कहानी आश्रम में बताने की धृष्टता कर ही दी, तो गुरुदेव उसकी ओर से ध्यान हटाकर मौन हो जाते थे। वे शिष्यों से कहते: “सुन्दर चेहरे के उत्तेजक चाबुक के प्रहार अपने ऊपर मत होने दो। इन्द्रियों के दास जगत् का आनन्द कैसे ले सकते हैं? जब वे वासना के कीचड़ में रेंगते रहते हैं तो जगत् के सूक्ष्म रसों का आनन्द उनकी पकड़ में आता ही नहीं। वासनाओं में आसक्त मनुष्य का विवेक खो जाता है, उसे अच्छे-बुरे का भेद भी पता नहीं चलता।”
मायाजनित कामवासना से बचने की इच्छा करने वाले शिष्यों को श्रीयुक्तेश्वरजी से धैर्यपूर्ण एवं समझदारी से ओतप्रोत मार्गदर्शन मिलता था।
वे कहते थे: “जिस प्रकार भूख का एक यथार्थ उद्देश्य है, परन्तु लोलुपता का नहीं, उसी प्रकार काम प्रवृत्ति को भी प्रकृति ने केवल प्रजाति के प्रवर्तन के लिये बनाया है, कभी तृप्त न हो सकने वाली वासनाओं को जगाने के लिये नहीं। अपनी गलत इच्छाओं को अभी ही नष्ट कर दो, अन्यथा स्थूल शरीर छूट जाने के बाद भी सूक्ष्म शरीर में वे तुम्हारे साथ चिपकी रहेंगी। शरीर को रोक पाना भले ही कठिन हो, पर मन में निरन्तर विरोध करते ही रहना चाहिये। यदि प्रलोभन निष्ठुरतापूर्वक तुम पर आक्रमण करे तो साक्षीभाव से उसका विश्लेषण करके अदम्य इच्छाशक्ति के द्वारा उस पर विजय प्राप्त करो। प्रत्येक प्राकृतिक वासना पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
“अपनी शक्तियों को बचा कर रखो। विशाल समुद्र के समान बनो जिसमें इन्द्रियों की सब नदियाँ चुपचाप विलीन होती चली जायें। प्रतिदिन नयी शक्ति के साथ जागती वासनाएँ तुम्हारी आंतरिक शान्ति को सोख लेंगी; ये वासनाएँ जलाशय में बने छिद्रों के समान हैं जो प्राणमूलक जल को विषयासक्ति के रेगिस्तान में नष्ट होने के लिये बहा देते हैं। मनुष्य को बाध्य करने वाला कुवासनाओं का शक्तिशाली आवेग उसके सुख का सबसे बड़ा शत्रु है। आत्म-संयम के सिंह बनकर संसार में विचरण करो। इन्द्रिय-दुर्बलताओं के मेंढकों की लातें खाकर इधर से उधर लुढ़कते मत रहो।”
सच्चा साधक अंततः नैसर्गिक वासनाओं की विवशता से मुक्त हो जाता है। मानवी स्नेह की अपनी आवश्यकता को वह उस ईश्वर की लालसा में बदल देता है जो एकमात्र प्रेम है, क्योंकि वह सर्वव्यापी है।
श्रीयुक्तेश्वरजी की मातुश्री काशी के राणा महल मुहल्ले में रहती थीं जहाँ मैं अपने गुरु से मिलने प्रथम बार गया था। वे करुणामय और दयालु थीं, परन्तु सुनिश्चित मतों की भी थीं। एक दिन मैं उनकी बाल्कनी में खड़ा माँ-बेटे को वार्तालाप करते देख रहा था। अपनी शान्त, तर्कसंगत पद्धति से श्रीयुक्तेश्वरजी उन्हें कोई बात समझाने का प्रयास कर रहे थे। परन्तु वे उसमें सफल होते प्रतीत नहीं हो रहे थे क्योंकि माताजी जोरजोर से सिर हिलाकर विरोध कर रही थीं।
“नहीं, नहीं, मेरे बेटे, अभी तुम चले जाओ! तुम्हारा ज्ञानोपदेश मेरे काम का नहीं है! मैं तुम्हारी शिष्या नहीं हूँ !”
डाँट खाये बालक की तरह श्रीयुक्तेश्वरजी आगे एक भी शब्द मुँह से निकाले बिना चुपचाप वहाँ से हट गये। माँ के अनुचित बर्ताव में भी उनके प्रति श्रीयुक्तेश्वरजी का महान् आदर देखकर मैं गद्गद् हो गया। माताजी उन्हें केवल अपने छोटे से बच्चे के रूप में देख रही थीं, एक ज्ञानी के रूप में नहीं। इस छोटी सी घटना में भी एक मनोज्ञता थी इस में मेरे गुरु के असाधारण स्वभाव पर प्रकाश पड़ रहा था – अन्दर से विनम्र परन्तु बाहर से फौलाद।
एक बार सांसारिक सम्बन्धों को तोड़ लेने के बाद संन्यास धर्म स्वामियों को संसार से किसी प्रकार का सम्बन्ध बनाये रखने की अनुमति नहीं देता। गृहस्थों के लिये अनिवार्य माने जाने वाले परंपरागत पारिवारिक धार्मिक विधि संन्यासी सम्पन्न नहीं कर सकते। फिर भी प्राचीन संन्यासआश्रम का नवनिर्माण करने वाले आदि शंकराचार्य ने इन नियमों की उपेक्षा की थी। अपनी पूज्य और प्रिय माता के स्वर्गवास के बाद उन्होंने हाथ ऊपर उठाकर अग्नि का आह्वान किया और उसमें से प्रकट हुई दिव्य अग्निशिखा से अपनी माता का दाह संस्कार किया।
श्रीयुक्तेश्वरजी ने भी इन नियमों की उपेक्षा की, पर शंकराचार्य से कम चमत्कारी ढंग से। जब उनकी माता का स्वर्गवास हुआ, तब उन्होंने पवित्र गंगातट पर उनकी अन्त्येष्टि की व्यवस्था की और गृहस्थ परम्परा के अनुसार अनेक ब्राह्मणों को भोजन कराया।
शास्त्रों के विधि-निषेध संन्यासियों की संकुचित सम्बन्धों के दायरे से बाहर निकलने में सहायता करने के लिये बनाये गये थे। शंकराचार्य और श्रीयुक्तेश्वरजी ने अपना संपूर्ण अस्तित्व विराट् निराकार ब्रह्म में विलीन कर दिया था; उन्हें अपने बचाव के लिये किसी नियम की आवश्यकता नहीं थी। कभी-कभी सिद्ध पुरुष केवल यह दर्शाने के लिये भी किसी नियम का जान बूझ कर उल्लंघन करते हैं कि उसमें निहित सिद्धान्त नियम से श्रेष्ठ है और सिद्धान्त नियम के बन्धन में नहीं है। इसी प्रकार ईसा मसीह ने विश्राम के दिन भुट्टे तोड़े थे। आलोचना तो होनी ही थी। उन आलोचकों से ईसा ने कहा था: “विश्राम-दिवस मनुष्य के लिये बनाया गया था, मनुष्य विश्राम-दिवस के लिये नहीं।”¹⁶
श्रीयुक्तेश्वरजी शास्त्रों के अतिरिक्त अन्य कोई पुस्तक शायद ही कभी पढ़ते थे। फिर भी वे नवीनतम वैज्ञानिक आविष्कारों तथा ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में हुई प्रगति से सदा ही पूर्ण परिचित¹⁷ रहते थे। वे वार्तालाप में अत्यन्त निपुण थे और आश्रम में आनेवाले अतिथियों के साथ असंख्य विषयों पर विचारों के आदान-प्रदान में अनन्द लेते थे। मेरे गुरु की हाजिरजवाबी और मनःपूर्वक हँसने के उनके ढंग से प्रत्येक चर्चा में जान आ जाती थी। वे प्रायः गम्भीर तो रहते थे, पर कभी उदास नहीं रहते थे। बाइबिल के एक वचन को उद्धृत करते हुए वे कहते थे: “ईश्वर को पाने के लिये मनुष्य को अपना चेहरा विकृत करने की आवश्यकता नहीं। इसे सदा याद रखो कि ईश्वर को पाने का अर्थ होगा सभी दुःखों का अन्त।”
जो अनेकानेक दार्शनिक, प्राध्यापक, वकील और वैज्ञानिक आश्रम में आते रहते थे, उनमें पहली बार आने वाले कई लोग यह सोचकर आते थे कि उनकी मुलाकात किसी रूढ़िवादी धार्मिक व्यक्ति से होने वाली है। यदा-कदा एकाध घमण्डभरी मुस्कान या मनोरंजित सहिष्णुता की उनकी दृष्टि से यही प्रकट होता था कि उन नवागंतुकों को सदाचार के कुछ नीरस उपदेशों के अतिरिक्त और किसी बात की अपेक्षा नहीं थी। श्रीयुक्तेश्वरजी के साथ चर्चा करने के बाद और यह देखने के बाद कि उनके अपने क्षेत्र में भी श्रीयुक्तेश्वरजी का पूर्ण ज्ञान है, वे अनिच्छापूर्वक ही वहाँ से प्रस्थान करते थे।
साधारणतः मेरे गुरुदेव अतिथियों के साथ नम्र और स्नेहपूर्ण बर्ताव करते; वे मन को प्रसन्न करने वाले ढंग से उनका हार्दिक स्वागत करते । परन्तु कट्टर अहंकारियों को कभी-कभी गहरा आघात भी लग ही जाता था। उन्हें गुरुदेव की या तो ठंडी उपेक्षा या फिर उग्र विरोध का सामना करना पड़ता – बर्फ़ या लोहा !
एक बार एक विख्यात रसायनशास्त्री श्रीयुक्तेश्वरजी के साथ तर्कयुद्ध में भिड़ गये। ये महाशय ईश्वर के अस्तित्व को इसलिये स्वीकार नहीं कर रहे थे कि, विज्ञान ईश्वर को खोज निकालने का कोई उपाय ढूंढ नहीं पाया।
“तो आप लोग उस परमशक्ति को अपनी टेस्ट ट्यूब में पृथक् करने में विफल रहे और आपको इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं मिल रहा है !” गुरुदेव की दृष्टि कठोर हो उठी थी। “अब मैं आपको एक नया प्रयोग बताता हूँ: “चौबीस घंटों तक अपने विचारों का परीक्षण कीजिये। तब आपको ईश्वर की अनुपस्थिति पर विस्मय नहीं होगा।”
एक गणमान्य पंडित को भी इसी प्रकार का धक्का लगा। यह तब हुआ जब वे पहली बार आश्रम आये थे। दीवारें गूँज रही थीं जब ये महाशय महाभारत, उपनिषदो¹⁸ और शंकराचार्य के भाष्यों के परिच्छेद पर परिच्छेद सुनाते जा रहे थे।
“मैं आपको सुनने के लिए ही बैठा हूँ।” श्रीयुक्तेश्वरजी के स्वर में ऐसी जिज्ञासा थी जैसे तब तक वहाँ पूर्ण मौन रहा हो। पंडितजी संभ्रम में पड़ गये।
“उद्धरण तो आपने बहुत दे दिये।” मैं अतिथि महोदय से आदरयुक्त दूरी बनाये अपने कोने में पालथी मारकर बैठा था। गुरुदेव के शब्दों से हँसी के मारे मेरे पेट में बल पड़ने लगे। “परन्तु आप अपने वैयक्तिक जीवन से कौन सी मौलिक व्याख्या प्रस्तुत कर सकते हैं ? किस शास्त्र या सूत्र को आपने आत्मसात् कर अपने जीवन में उतारा है? इन त्रिकालाबाधित सत्यों ने आपके स्वभाव में क्या-क्या अच्छे परिवर्तन किये हैं? क्या आप ग्रामोफोन की तरह दूसरे मनुष्यों के शब्दों का केवल यांत्रिक उच्चारण करके संतुष्ट हैं ?”
“मैं हार गया!” पंडितजी की अकुलाहट हास्यप्रद लग रही थी। “मुझे कोई आंतरिक अनुभूति नहीं है।”
जीवन में शायद पहली बार पंडितजी की समझ में आ गया कि पुस्तकीय ज्ञान आध्यात्मिक अनुभूति के अभाव की पूर्ति नहीं कर सकता।
“इन शुष्क विद्याभिमानियों से पठन-पाठन के अति परिश्रम की अत्यधिक गंध आती है।”, गर्वखंडित पंडितजी के वहाँ से चले जाने के बाद गुरुदेव ने कहा। “ये लोग समझते हैं कि बौद्धिक व्यायाम से तत्त्वज्ञान बन जाता है। चाहे बाह्य कृत्यों की अपक्वता हो या अंतर्परिष्कारक अनुशासन हो, इन दोनों से ही इन लोगों के उन्नत विचार सावधानीपूर्वक असंबंधित रहते हैं!”
अन्य अवसरों पर भी गुरुदेव मात्र पुस्तकीय ज्ञान की निःसारता को अपने उपदेशों में व्यक्त करते रहते थे।
“विस्तृत शब्दज्ञान को ही ज्ञान मान लेने की भूल मत करो।”, वे कहते। “यदि एक समय पर एक ही श्लोक को लेकर धीरे-धीरे आत्मसात् किया जाय तो धर्मशास्त्र आंतरिक अनुभूति की जिज्ञासा जगाने में लाभकारी हो सकते हैं। अन्यथा निरन्तर बौद्धिक अध्ययन से मिथ्याभिमान, झूठा संतोष और अपरिपक्व ज्ञान से अधिक कुछ भी प्राप्त नहीं होता।”
शास्त्रों के अध्ययन का अपना एक अनुभव श्रीयुक्तेश्वरजी बताया करते थे। स्थान था पूर्वी बंगाल के एक वन में स्थित आश्रम जहाँ उन्होंने एक विख्यात गुरु श्री डबरु बल्लव की पद्धति का अवलोकन किया। उनकी पद्धति, जो सरल भी थी और साथ ही कठिन भी, प्राचीन भारत में प्रयोग में लाई जाती थी।
डबरु बल्लव ने उस एकान्त तपोवन में अपने शिष्यों को अपने पास बिठा लिया था। पावन श्रीमद्भगवद्गीता की पुस्तकें उनके सामने खुली थीं। वे लोग आधे घंटे तक एक श्लोक को स्थिर दृष्टि से देखते रहे, फिर उन्होंने आँखें बन्द कर लीं। और आधा घंटा बीत गया। अब गुरु ने उस पर संक्षिप्त भाष्य किया। निश्चल अवस्था में उन्होंने फिर से एक घंटे तक ध्यान किया। अंततः गुरु ने कहाः
“अब यह श्लोक तुम लोगों की समझ में आ गया ?”
“जी, गुरुदेव!” शिष्य मंडली में से एक ने यह उत्तर देने का साहस कर लिया।
“नहीं, पूरी तरह से नहीं। उस आध्यात्मिक प्राण को पहचानने की चेष्टा करो जिसने इन शब्दों को शत-शत वर्षों से भारत को नवजीवन प्रदान करने की शक्ति दी है।" फिर एक घंटे तक मौन चिन्तन चला। तत्पश्चात् गुरु ने शिष्यों को छुट्टी दे दी और श्रीयुक्तेश्वरजी की ओर मुड़कर उन्होंने कहाः
“आपको भगवद्गीता का ज्ञान है ?”
“नहीं महाराज, मैं उसे ठीक से समझ नहीं पाया हूँ, यद्यपि मेरे नेत्र और मन कई बार उसके पन्नों को पढ़ चुके हैं।”
“सैंकड़ों लोगों ने आज तक मुझे इससे भिन्न उत्तर दिया!” महात्मा श्रीयुक्तेश्वरजी को आशीर्वाद देने की मुद्रा में मुस्कराये। “यदि शास्त्रसंपदा के बाह्य प्रदर्शन में ही कोई व्यस्त रहे तो अमूल्य रत्नों के लिये अंतर में डुबकी लगाने का समय ही कहां बचता है?”
श्रीयुक्तेश्वरजी स्वयं अपने शिष्यों को भी इसी एकाग्रता की तीव्र पद्धति से अध्ययन कराते थे। ज्ञान आँखों से नहीं, अणु-परमाणुओं से आत्मसात् किया जाता है।”, वे कहते। “जब सत्य का तुम्हारा ज्ञान केवल तुम्हारे दिमाग में न रहकर तुम्हारे सम्पूर्ण अस्तित्त्व में समा जायेगा, तभी तुम उसके अर्थ के बारे में कुछ कह सकते हो।” किसी शिष्य में यह मानने की प्रवृत्ति होती कि ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिये पहले पुस्तकीय ज्ञान होना आवश्यक है तो वे उसका निराकरण करते थे।
“ऋषियों ने केवल एक वाक्य में ऐसा गहन अर्थ भर रखा है कि उस पर भाष्य करने वाले पंडित युग-युगान्तर से उसी में व्यस्त हैं ”, वे कहते। “अंतहीन साहित्यिक वाद-विवाद प्रमादी मन का लक्षण है। इस विचार से अधिक शीघ्रता से मुक्ति दिलाने वाला और क्या हो सकता है कि ‘ईश्वर है’, बल्कि केवल ‘ईश्वर’ ?”
किन्तु मनुष्य इस मूल सरलता की ओर आसानी से नहीं लौटता। बुद्धिवादी का लक्ष्य शायद ही कभी “ईश्वर” होता है, उसे विद्यालंकृत शब्दाडम्बर ही अधिक भाता है। उसका अहंकार इसी में तृप्त हो जाता है कि वह इतने गहन पांडित्य को समझ सकता है।
जिन लोगों में अपने धन-संपत्ति का या सामाजिक मान मर्यादा का अहंभाव होता था, उनके साथ यह सम्भावना सदा ही बनी रहती थी कि गुरुदेव के सान्निध्य में आने पर उनकी विविध संपदाओं में विनम्रता धन भी जुड़ जाय। एक बार पुरी में सागर तट पर स्थित उनके आश्रम में वहाँ के एक मजिस्ट्रेट मिलने आये। यह मजिस्ट्रेट महोदय अपनी निष्ठुरता के लिये जाने जाते थे और हमें आश्रम से बेदखल करना उनके पूर्ण अधिकार में था। मैंने गुरुदेव को इस तथ्य से अवगत कराया। परन्तु गुरुदेव पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मजिस्ट्रेट को कोई विशेष महत्त्व न देकर वे साधारण भाव से बैठे रहे और उनके आने पर उनका स्वागत करने के लिये खड़े भी नहीं हुए।
किंचित् अधीरता के साथ मैं दरवाजे के पास बैठ गया। श्रीयुक्तेश्वरजी ने मुझसे मजिस्ट्रेट के लिये कुर्सी लाने को भी नहीं कहा, अतः उन्हें लकड़ी के एक डिब्बे पर बैठकर ही संतोष करना पड़ा। अपने पद की गरिमा के अनुसार स्वागत किये जाने की उनकी किसी भी आशा की पूर्ति नहीं हुई।
आध्यात्मिक चर्चा आरम्भ हुई। मजिस्ट्रेट महोदय शास्त्रों का अर्थ बताने में गलतियों पर गलतियाँ करते गये और जैसे-जैसे गलतियाँ करते जाते थे वैसे-वैसे उनका क्रोध बढ़ता गया।
“आप जानते हैं कि मैं एम. ए. की परीक्षा में प्रथम आया था?” उनकी बुद्धि जवाब दे चुकी थी पर चिल्लाना उन्हें अब भी आता था।
“मजिस्ट्रेट महोदय, आप भूल रहे हैं कि यह आपकी अदालत का कमरा नहीं ”, गुरुदेव ने शांत भाव से कहा। “आपकी बचकानी बातों से तो यही लगता है कि आपका विद्यार्थी जीवन कोई विशेष प्रतिभावान नहीं रहा। और वैसे भी, युनिवर्सिटी की डिग्री का वैदिक ज्ञान के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। सन्त अकाउण्टंटों की भाँति प्रतिवर्ष समूह में नहीं निकलते।”
कुछ देर तो मजिस्ट्रेट महोदय स्तब्ध रह गये, फिर दिल खोलकर हँसने लगे।
“पहली बार किसी दैवी मजिस्ट्रेट के साथ मेरा सामना हुआ है।”, उन्होंने कहा। बाद में उन्होंने कानूनी शब्दों से भरी भाषा में, जो उनके व्यक्तित्व का एक हिस्सा ही बन चुकी थी, “प्रत्याशी” (probationary) शिष्य के रूप में स्वीकार किये जाने का औपचारिक निवेदन किया।
लाहिड़ी महाशय की तरह ही श्रीयुक्तेश्वरजी ने भी अनेक अवसरों पर संन्यास ग्रहण के इच्छुक “अपरिपक्व” शिष्यों को उससे परावृत्त किया। ये दोनों ही गुरु कहते थे, “ईश्वरानुभूति का अभाव होते हुए भी गेरुआ वस्त्र धारण करने का अर्थ समाज को ठगना है। त्याग के इन बाह्य प्रतीकों का विचार मत करो जो तुममें झूठा अहंकार उत्पन्न करके तुम्हारी हानि कर सकते हैं। तुम्हारी स्थिर दैनिक आध्यात्मिक प्रगति के अलावा और किसी बात का कोई महत्त्व नहीं है; और उसके लिये क्रियायोग का उपयोग करो।
किसी व्यक्ति को योग्य या अयोग्य ठहराने के लिये संतजन एक ही अचल मापदण्ड को अपनाते हैं जो संसार के नित्य बदलते रहते मापदण्डों से सर्वथा भिन्न है। स्वयं अपनी दृष्टि में भी इतनी बहुरंगी रहनेवाली मानवजाति संतों की दृष्टि में केवल दो वर्गों में विभाजित होती है – अज्ञानीजन जिन्हें ईश्वर की तलाश नहीं, और ज्ञानीजन जो ईश्वर की तलाश में रत हैं।
मेरे गुरु अपनी जमीन-जायदाद से सम्बन्धित प्रत्येक छोटी-छोटी बात की भी देखभाल स्वयं करते थे। भिन्न-भिन्न अवसरों पर विश्वासघाती लोगों ने गुरुदेव की पैतृक जमीन-जायदाद पर कब्जा कर लेने का प्रयास किया था। उन सब को श्रीयुक्तेश्वरजी ने दृढ़तापूर्वक, यहाँ तक कि उनके विरुद्ध मुकदमे भी दायर करके, मात दे दी। इन सब दुःखदायी अनुभवों से उन्हें इसलिये गुजरना पड़ता था कि वे भिक्षाजीवी गुरु नहीं बनना चाहते थे, न ही वे अपने शिष्यों पर बोझ बनना चाहते थे।
आर्थिक स्वतन्त्रता भी एक कारण थी कि मेरे प्रखर स्पष्टवक्ता गुरु कूटनीति के छल-कपट से पूर्णतया अनभिज्ञ थे। उन गुरुओं के विपरीत, जिन्हें उनका भार वहन करने वाले दाताओं के अहंभाव को सन्तुष्ट करना पड़ता है, मेरे गुरु दूसरों के धनैश्वर्य के प्रत्यक्ष या सूक्ष्म, किसी प्रकार के प्रभाव में नहीं आते थे। मैंने उन्हें किसी से किसी भी काम के लिये पैसा माँगते या उसका संकेत भी करते कभी नहीं सुना। उनके आश्रम की शिक्षा सभी शिष्यों के लिये निःशुल्क थी।
एक बार श्रीरामपुर आश्रम में सम्मन देने के लिये अदालत का एक कर्मचारी आया। कन्हाई नाम का एक शिष्य और मैं उसे गुरुदेव के पास ले गये।
श्रीयुक्तेश्वरजी के प्रति उस कर्मचारी का रवैया अपमानजनक था। “आपकी भलाई अब इसी में है कि आप अपने इस आश्रम की छाया से बाहर निकलकर जरा अदालत की सत्यनिष्ठ हवा खाएँ।” उसने अपमानसूचक स्वर में कहा।
मैं अपने आप पर काबू नहीं रख सका। “इसके आगे यदि गुस्ताखी का एक भी शब्द तुम्हारे मुँह से निकला तो तुम अभी यहीं धूल चाटते नजर आओगे!” मैं उसी इरादे से उसकी ओर बढ़ने लगा।
कन्हाई भी उस कर्मचारी पर चिल्ला रहा था: “अरे दुष्ट! तुम्हारी यह हिम्मत कि तुम अपनी दुष्टता को इस पवित्र आश्रम में भी ले आये ?”
किन्तु गुरुदेव उस कर्मचारी के रक्षक बनकर उसके सामने खड़े हो गये। “अकारण उत्तेजित होने की आवश्यकता नहीं। यह आदमी केवल अपने कर्तव्य का पालन कर रहा है।”
वह कर्मचारी इन विभिन्न प्रकारों से होते अपने स्वागत को देखकर चकित रह गया और आदरपूर्वक क्षमा माँगकर वहाँ से द्रुतगति से चलता बना।
बड़ा आश्चर्यजनक था यह देखना कि एक उग्र इच्छाशक्ति वाला सिद्धपुरुष, अन्दर से इतना शांत-शीतल भी रह सकता था। वेदों में सन्त के विषय में दी गयी परिभाषा श्रीयुक्तेश्वरजी पर सटीक बैठती थी: “वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि ।” अर्थात्, जहाँ दया का प्रश्न है वहाँ फूलों से भी कोमल; जहाँ सिद्धान्तों का प्रश्न है वहाँ वज्र से भी कठोर।
इस संसार में सदा ही ऐसे लोग होते हैं जो ब्राउनिंग के शब्दों में “स्वयं अन्धेरे में रहने के कारण प्रकाश को सहन नहीं कर सकते।” कभी-कभी कोई आदमी आकर अपनी किसी काल्पनिक शिकायत पर श्रीयुक्तेश्वरजी को भला-बुरा कह देता। मेरे स्थितप्रज्ञ गुरु नम्रता से उसके द्वारा की जा रही अपनी निंदा सुनते और अन्दर ही अन्दर अपना विश्लेषण करते जाते, यह देखने के लिये कि वह जो दोषारोपण कर रहा है उसमें कहीं कोई सत्य का अंश तो नहीं! ऐसे प्रसंग गुरुदेव की अप्रतिम उक्तियों का मुझे स्मरण करा देते: “कुछ लोग दूसरों के सिर काटकर स्वयं ऊँचा बनने का प्रयास करते हैं!”
साधु-सन्तों की अचल शांति उपदेशों से कहीं अधिक प्रभावकारी होती है। “जिसका अपने क्रोध पर नियंत्रण हो वह महाबलवान से अधिक बलवान है; जिसने अपने आप को जीत लिया हो वह राज्य विजेता से बड़ा विजेता है।”¹⁹
अनेक बार मेरे मन में यह विचार आता कि यदि मेरे तेजस्वी गुरु का मन ख्याति या सांसारिक उपलब्धियों पर केन्द्रित हो जाता तो वे आसानी से सम्राट या विश्व को थर्रा देने वाले योद्धा बन सकते थे। परन्तु इसके बदले उन्होंने क्रोध और अहंकार के उन आंतरिक दुर्गों को ध्वंस करना पसन्द किया जिनके पतन में मनुष्य की चरम उपलब्धि निहित है।
¹ [श्रीयुक्तेश्वरजी का जन्म 10 मई 1855 को हुआ था।]
² [युक्तेश्वर का अर्थ है ईश्वर में युक्त या एकाकार। गिरि प्राचीन दशनामी स्वामी परम्परा में से एक नाम या पदवी है।]
³ [शब्दशः "साथ-साथ लक्षित करना।” समाधि एक परमानन्दमय पराचेतन अवस्था है जिसमें योगी को अपनी आत्मा और परमात्मा के ऐक्य का ज्ञान होता है। ]
⁴ [शरीरशास्त्रविदों के अनुसार खर्राट भरना सम्पूर्ण विश्रांति का लक्षण है।]
⁵ [योगी की सर्वव्यापी शक्तिया, जिनसे वह बाहेन्द्रियों के बिना ही रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द की अनुभूति कर लेता है, का वर्णन तैत्तिरीय अरण्यक में आता है। उस में कहा गया है, “अंधे ने मांती में छिद्र किया; अंगुलिहीन ने उसमें धागा पिरोया; ग्रीवाहीन (गर्दनरहित) ने गले में पहना और जिह्वाहीन ने उसकी प्रशंसा की।”]
⁶ ['अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्न्निध वैरत्यागः।' (पतंजलि योगदर्शन २:३५) अर्थात् अहिंसा में प्रतिष्ठित हो जाने पर योगी के निकट सभी प्राणी वैर का त्याग कर देते हैं।]
⁷ [नाग अपनी पहुँच के अन्दर किसी भी हिलती चीज पर विद्युत् गति से फन मारता है। अधिकांश मामलों में सम्पूर्णतः निश्चल हो जाना ही उससे रक्षा का एकमात्र उपाय होता है।]
⁸ [लाहिड्डी महाशय ने वास्तव में उनको "प्रिय" (गुरुदेव का नाम) कहा था, युक्तेश्वर नहीं "युक्तेश्वर" नाम गुरुदेव ने लाहिड़ी महाशय के जीवनोपरान्त संन्याम ग्रहण करते समय लिया था। यहाँ और इस पुस्तक में कुछ अन्य स्थानों पर "युक्तेश्वर" नाम जानबूझकर डाला गया है ताकि पाठवगण दो नामों के कारण उलझन में न पड़े।]
⁹ [“तुम्हें जिस किसी भी वस्तु की इच्छा हो, उसके लिये जब प्रार्थना करोगे, और विश्वास रखोगे कि वह तुम्हें मिल जायेगी तो सचमुच वह तुम्हें मिल ही जायेगी।”– मरकुस 11:24 (बाइबिल)। ईश्वर में एकात्म हुए सिद्ध पुरुष अपनी दैवी उपलब्धियों को अपने उन्नत शिष्यों में संचारित करने में समर्थ होते हैं, जैसे इस अवसर पर लाहिड़ी महाशय ने श्रीयुक्तेश्वरजी के साथ किया।]
¹⁰ [“और उनमें से एक ने धर्मगुरु के नौकर पर प्रहार किया और उसका दाहिना कान काट दिया। तब ईसा मसीह ने कहा कि तुम इतना सहन कर लो और उन्होंने उसके कान को स्पर्श किया और उसे अच्छा कर दिया। लुका 22:50-51 (बाइबिल)।]
¹¹ [“जो पवित्र है उसे कुत्तों को मत दो, न ही कभी अपने मोती सूअरों के सामने फेंको, कि कहीं वे उन्हें अपने पाँवों में रौंद न दें और फिर पलटकर तुम्हे ही न फाड़ डालें।”– मनी 7:6 (बाइबिल)।]
¹² [गुरुदेव देहशुद्धि की आदर्श प्राकृतिक प्रणाली के रूप में उपवास की उपयोगिता को मानते थे, पर उक्त शिष्य अपने शरीर को लेकर कुछ ज्यादा ही चिंतित था।]
¹³ [एक बार वे कश्मीर में अस्वस्थ हुए थे, पर उस समय मैं उनके पास नहीं था (प्रकरण 21 दृष्टव्य)।]
¹⁴ [शरीर विज्ञान में नोबेल पुरस्कार में पुरस्कृत एक साहसी डॉक्टर चार्ल्स राबर्ट रिशे ने लिखा है: “अध्यात्म विद्या को अभी तक आधिकारिक तौर पर विज्ञान के रूप में मान्यता नहीं मिली है, परन्तु यह मिलकर रहेंगी। एडिनबर्ग में एक सौ शरीर विज्ञानियों के समक्ष मैंने दृढतापूर्वक यह प्रतिपादन किया था कि हमारी पंचेन्द्रियाँ ही मात्र हमारे ज्ञान के साधन नहीं हैं, कभी-कभी सत्य का आंशिक ज्ञान अन्य मार्गों में हमारी बुद्धि में पहुँच जाता है। कोई वस्तुस्थिति क्वचित् ही ध्यान में आती है तो इसका अर्थ यह तो नहीं कि उसका अस्तित्व ही नहीं है। किसी विषय का अध्ययन यदि कठिन है तो क्या केवल उसी कारण से उसे समझा ही न जाय? जिन लोगों ने अध्यात्म विद्या को गृढ़ विद्या कहकर गाली-गलीच कर के उसका विरोध किया है उन्हें भी एक दिन अपने आप पर वैसी ही लज्जा आयेगी जैसी रसायनशास्त्र को पारसमणि की खोज के समान मानकर उसका विरोध करनेवालों को आयी थी। जहाँ तक सिद्धान्तों का प्रश्न है, तो केवल लव्हाइजिए, क्लॉड बर्नाड और पाश्चर के सिद्धान्त ही लागू होते हैं – कि हर जगह, हर समय प्रयोगात्मकता में व्यस्त रहो। इस नये विज्ञान को मेरा अभिवादन, जो मानव विचारधारा की दिशा को बदलने वाला है।”]
¹⁵ [इजरायल एच. लेविन्थल ने न्यूयार्क में अपने एक भाषण में कहा था: “हमारे चेतन और अवचेतन अस्तित्व के ऊपर हमारा एक अधिचेतन अस्तित्व भी है। अनेक वर्षों पूर्व अंग्रेज मानसशास्त्री एफ. डब्लू. एच. मायर्स ने कहा था कि ‘हमारे अस्तित्व की गहरायी में एक कचरे का ढ़ेर भी है और एक खजाना भी।’ मानव स्वभाव के अवचेतन पहलु पर ही अपना सारा अनुसन्धान केन्द्रित करने वाले मानसशास्त्र के विपरीत अब अधिचेतन मन का अध्ययन करने वाला नया मानसशास्त्र अपना ध्यान 'खजाने पर उस एक मात्र क्षेत्र पर केन्द्रित कर रहा है जिसमें मनुष्यों के महान्, निःस्वार्थ और वीरतापूर्ण कार्यों का स्पष्टीकरण मिल सकता है।]
¹⁶ [“शंकराचार्य ने लिखा है “जागृतावस्था में मनुष्य इन्द्रिय सुखों के उपभोग के लिये असंख्य आवास प्रयास करता है जब सारी इन्द्रियाँ थक जाती हैं तो वह सामने जो सुख उपस्थित है। उसे भी भूलकर सो जाता है ताकि अपने स्व-भाव में अपनी आत्मा में, विश्रांति का आनन्द ले सके। इस प्रकार इन्द्रियातीत आनन्द सहज सुलभ है और इन्द्रिय सुख से, जिसकी परिणति सदा दुःख में ही होती है, कहीं अधिक श्रेष्ठ है।”]
¹⁶ मरकुस 2:27 (बाइबिल)।
¹⁷ [गुरुदेव जब चाहते, किसी भी मनुष्य के मन के साथ तार मिला सकते थे (पतंजल योगसूत्र, 3:19 में वर्णित एक यौगिक शक्तिः "प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम् ")। मानव- रेडियो के रूप में उनकी शक्ति और विचारों के स्वरूप का वर्णन १५वें प्रकरण में किया गया है।]
¹⁸ [चार वेदों में कुछ विशिष्ट स्थानों पर आने वाले उपनिषद या वेदान्त (शब्दशः वेदों का अन्त) ऐसे तात्त्विक सारांश हैं जिनसे हिन्दू धर्म का सिद्धान्तीय आधार बना है। शोपेनहायेर ने इनके गहन, मौलिक और उदात्त विचारों की अत्यधिक प्रशंसा की और कहाः “वेदों तक पहुँच (पाश्चात्य अनुवादों के माध्यम से) मेरी दृष्टि में गत सभी शताब्दियों के ऊपर इस शताब्दी की सबसे महान् उपलब्धि है।”]
¹⁹ [नीतिवचन 16:32 (बाइबिल)।]