एक योगी की आत्मकथा - 11 Ira द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

एक योगी की आत्मकथा - 11

{ दो अकिंचन बालक वृन्दावन में }

“यदि पिताजी तुम्हें उत्तराधिकार से वंचित कर दें तो कोई अन्याय नहीं होगा, मुकुन्द! कितनी मूर्खता से तुम अपना जीवन व्यर्थ गँवा रहे हो!" ज्येष्ठ भ्राता का हितोपदेश मेरे कानों पर आक्रमण कर रहा था।

जितेन्द्र और मैं ताज़े-ताज़े ( केवल एक वाक्यालंकार! हम थे धूलिधूसरित) रेलगाड़ी से उतरकर अनन्त दा के घर पहुँचे थे जो हाल ही में कोलकाता से स्थानान्तरित होकर इस प्राचीन नगरी आगरा में रहने आये थे। वे सरकारी लोकनिर्माण विभाग (PWD) में सुपरवाइजिंग एकाउण्टेन्ट थे।

“आप को भली भाँति मालूम है अनन्त दा, कि मैं अपने परमपिता से अपना उत्तराधिकार प्राप्त करना चाहता हूँ।”

“पहले पैसा, फिर भगवान! कौन जाने, जीवन अत्यधिक लम्बा भी हो सकता है।”

“पहले भगवान; लक्ष्मी तो उनके अधीन है! कौन कह सकता जीवन अत्यधिक छोटा भी हो सकता है।”

मेरा यह जवाब केवल प्रसंगानुरूप दिया गया प्रत्युत्तर था, इसमें किसी पूर्वाभास का कोई संकेत नहीं था।
[ अफ़सोस ! अनन्त का जीवन सचमुच छोटा साबित हुआ। ]

“लगता है आश्रम में बड़ा ज्ञान पा लिया है तुमने ! पर बनारस तो तुमने छोड़ दिया है!” अनन्त दा की आँखें आत्मतृप्ति के भाव से चमक रही थीं; उन्हें अब भी आशा थी कि वे मेरे पंखों को समेटकर मुझे पारिवारिक घोंसले में सुरक्षित रख पायेंगे ।

“बनारस में मेरा अल्पवास व्यर्थ नहीं हुआ ! मेरा हृदय जिसके लिये तड़प रहा था उसे मैंने वहाँ पा लिया है और आप निश्चिन्त रह सकते हैं कि वह आपके पंडित या उनके सुपुत्र नहीं हैं!”

उस प्रसंग की याद में अनन्त दा भी मेरे साथ हँस पड़े। उन्हें यह स्वीकार करना पड़ा कि बनारस के जिस अन्तर्दर्शी को उन्होंने नियुक्त किया था वह अल्पदर्शी ही सिद्ध हुआ था।
“तो अब तुम्हारा क्या विचार है, मेरे घुमक्कड़ भाई ?”

“जितेन्द्र ने मुझे आगरा आने के लिये मनाया। यहाँ हम ताजमहल की सुन्दरता देखेंगे और उसके बाद हम लोग मेरे नये-नये ही मिले गुरु के पास जायेंगे, जिनका आश्रम श्रीरामपुर में है”, मैंने कहा।

अनन्त ने हमारे रहने की आरामदेह व्यवस्था की। उस दिन शाम को मैं अनन्त को कई बार चिन्तनशील भाव से मुझ पर दृष्टि गड़ाये देखा।

“मैं इस दृष्टि को अच्छी तरह पहचानता हूँ!” मैंने सोचा, “कोई षड्यन्त्र रचा जा रहा है!”

सुबह जल्दी ही हम नाश्ता करने बैठे तब षड्यन्त्र का रहस्योद्घाटन भी हो गया।

“तो तुम्हें पिताजी की सम्पत्ति के आधार की कोई आवश्यकता नहीं लगती।” कल की बातचीत का सूत्र फिर पकड़ते हुए अनन्त ने निष्कपट दृष्टि से कहा ।

“मुझे यह बोध है कि मैं ईश्वर पर निर्भर हूँ।”

“बातें करना आसान है! जीवन ने अब तक तुम्हारी सुरक्षा की है। यदि तुम्हें भोजन और आश्रय के लिये उसी ईश्वर के अदृश्य हाथ पर निर्भर रहना पड़ता तो तुम्हारी क्या दशा होती ? शीघ्र ही तुम सड़कों पर भीख माँगते फिरते।”

“कदापि नहीं ! ईश्वर को छोड़कर किसी पथिक से कोई आशा मैं कदापि न करता! भगवान अपने भक्त के लिये भिक्षापात्र के अलावा भी हज़ार अन्य उपाय कर सकते हैं।”

“और अधिक वाग्विलास ! यदि मैं यह कहूँ कि तुम अपने जिस तत्त्वज्ञान के बारे में इतनी डींग मार रहे हो उसे इस मूर्त्त जगत् में आजमाया जाय, तो ?”
“तो मैं तुरन्त स्वीकार कर लूँगा! आप क्या ईश्वर को कल्पना-जगत् तक ही सीमित मानते हैं ?”

“पता चल जायेगा। आज तुम्हें ऐसा अवसर मिलेगा कि तुम मेरे दृष्टिकोण को और भी अधिक विस्तारित करोगे या फिर कम-से-कम उस का समर्थन तो तुम्हें करना ही पड़ेगा।” अनन्त दा वातावरण में गम्भीरता को बढ़ाने के लिये थोड़ी देर रुके, फिर गम्भीरतापूर्वक धीरे-धीरे बोलने लगे :

“मेरा यह प्रस्ताव है कि मैं तुम्हें और तुम्हारे गुरुभाई जितेन्द्र को अभी सुबह निकट ही स्थित वृन्दावन भेजूँ। तुम दोनों अपने साथ एक भी रूपया नहीं ले जाओगे; तुम भिक्षा नहीं माँगोगे– न अन्न की, न पैसे की। तुम किसी को भी अपनी परिस्थिति से अवगत नहीं कराओगे; तुम भोजन से वंचित नहीं रहोगे; और तुम वृन्दावन में फंस कर नहीं रहोगे। यदि आज रात बारह बजे तक इनमें से किसी भी शर्त को तोड़े बिना तुम दोनों मेरे बंगले पर लौट आओ तो मैं आगरा में सबसे अधिक विस्मयचकित मनुष्य होऊँगा !”

“मुझे यह चुनौती स्वीकार है।” मेरे शब्दों में भी और मेरे हृदय में भी कोई हिचकिचाहट नहीं थी। ईश्वर की तत्काल कृपा की कृतज्ञतापूर्ण स्मृतियाँ मेरे मन में कौंध गयीं : लाहिड़ी महाशय की तस्वीर के सामने प्रार्थना करने से प्राणघातक हैज़े से मेरी मुक्ति, लाहौर में छत पर मुझे दो पतंगों का लीलामय ढंग से उपहार दिया जाना; बरेली में घोर निराशा के बीच सही अवसर पर ताबीज़ का मेरे पास आना बनारस में पंडित के आँगन के बाहर से साधु द्वारा निर्णायक सन्देश का दिया जाना; जगज्जननी माँ का दर्शन और उनकी दिव्य प्रेमवाणी: जगज्जननी द्वारा मेरी छोटी से छोटी परेशानियों को भी मास्टर महाशय के माध्यम से हटाया जाना; हाईस्कूल की अंतिम परीक्षा उत्तीर्ण करने में अंतिम क्षण में किया गया मेरा मार्गदर्शन ; और सर्वोच्च वरदान, मेरे जीवन भर के सपनों की धुंध से प्रकट हुए मेरे जीते-जागते गुरुदेव! मैं कभी भी यह मानने के लिये तैयार नहीं होता कि मेरा “तत्त्वज्ञान” संसार की किसी भी कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा , चाहे वह कसौटी कितनी ही कठोर क्यों न हो!

“तुम्हारी यह अनुकूलता सराहनीय है। मैं अभी तुरन्त ही तुम लोगों को रेलगाड़ी पर बिठा देता हूँ।”, अनन्त ने कहा।

वे आश्चर्यचकित जितेन्द्र की ओर मुड़े। “तुम्हें भी इस के साथ जाना होगा – एक गवाह के रूप में , और इस पर आनेवाली आपदाओं में, जिसकी सम्भावना अधिक है, एक सहभागी के रूप में! ”

आधे घंटे के बाद जितेन्द्र के और मेरे हाथ में आगरा से वृन्दावन के टिकट आ गये। स्टेशन के एक एकान्त भाग में जाकर हम ने अनन्त को अपनी तलाशी लेने दी। अनन्त दा शीघ्र ही आश्वस्त हो गये कि हम कोई छिपा खज़ाना अपने साथ नहीं ले जा रहे थे ; जो छिपाना आवश्यक था उससे अधिक हमारी सादी धोतियों में कुछ भी नहीं छिपा हुआ था।

जैसे ही विश्वास ने वित्त प्रबंध के महत्वपूर्ण क्षेत्र पर आक्रमण किया तो मेरे मित्र ने विचलित स्वर में कहा, “अनन्त दा, आप सुरक्षा की दृष्टि से मुझे एक-दो रुपये देकर रखिये। तब मैं किसी संकट की घड़ी में आप को तार दे सकूंगा।”

“जितेन्द्र!” तीव्र स्वर में मैंने उसकी भर्त्सना की। “यदि तुम आखरी उपाय के तौर पर कोई पैसा अपने साथ लोगे तो मैं इस परीक्षा में नहीं आऊँगा।”

“सिक्कों की खनक में दिलासा देने की कोई शक्ति होती है।” मेरी कठोर दृष्टि को देखते हुए जितेन्द्र इससे अधिक कुछ नहीं बोला।

“मुकुन्द ! मैं निष्ठर नहीं हूँ।” कोमलता की हल्की सी झलक अनन्त के स्वर में आ गयी थी। संभव है कि उनका अन्तःकरण उन्हें धिक्कार रहा था – शायद दो अकिंचन बालकों को एक अपरिचित शहर में भेजने के लिये; या फिर ईश्वर में उनकी अपनी अनास्था के लिये। “यदि संयोगवश या भगवान की कृपा से तुम इस वृन्दावन परीक्षा में सफल हो गये, तो मैं तुम से मुझे अपना शिष्य बनाकर दीक्षा देने का निवेदन करूँगा।”

इस असामान्य परिस्थिति में उनके द्वारा की गयी प्रतिज्ञा में एक विसंगति थी। भारतीय परिवार में बड़ा भाई अपने छोटे भाईयों के आगे नतमस्तक नहीं होता; बल्कि पिता के बाद उसी को परिवार में तत्सम सम्मान मिलता है और सब उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं। परन्तु इस विषय में मेरे कुछ कहने के लिये समय नहीं था; हमारी गाड़ी छूटने वाली थी।

गाड़ी दौड़ती जा रही थी और जितेन्द्र उदास होकर खामोश बैठा था। आखिर हरकत में आते हुए वह मेरी ओर झुका और एक नाजुक स्थान पर पीड़ाजनक चुटकी काटते हुए बोलाः

“मुझे तो कोई लक्षण दिखायी नहीं दे रहे कि भगवान हमारे अगले भोजन की कोई व्यवस्था करने वाले हैं!”

“चुप रहो, संशयात्मा! भगवान हमारे साथ हैं और हमारी सारी व्यवस्था कर रहे हैं।”

“क्या तुम उनसे जरा जल्दी कराने की भी व्यवस्था कर सकते हो ? अपने आगे की परिस्थिति के विचार से ही मैं भूख से अधमरा हुआ जा रहा हूँ। मैं बनारस से ताज महल देखने के लिये चला था, अपने मकबरे मैं में प्रवेश करने के लिये नहीं !”

“अब खुश हो जाओ जितेन्द्र! हम आज वृन्दावन के पवित्र स्थानों का पहली बार दर्शन करने जा रहे हैं न? मुझे तो इस विचार से ही गहरा आनन्द हो रहा है कि भगवान श्रीकृष्ण की पदधूलि से पुनीत उस भूमि पर आज हम चलेंगे।”

हमारे डिब्बे का दरवाज़ा खुला और दो सज्जन अन्दर आकर बैठ गये। अगले ही स्टेशन पर हमें उतरना था।

“बच्चों, वृन्दावन में क्या कोई तुम्हारी जान-पहचान का है ?” मेरे सामने बैठा हुआ अपरिचित व्यक्ति हममें आश्चर्यजनक रुचि ले रहा था।

“आपको इससे प्रयोजन ?” बेरुखेपन से मैंने अपनी दृष्टि घुमा ली।

“शायद तुम लोग चित्तचोर के सम्मोहन में अपने परिवारों से भागे जा रहे हो। मैं स्वयं भक्तिप्रधान प्रकृति का मनुष्य हूँ। मैं इसे अपना कर्त्तव्य मानता हूँ कि इस असह्य गर्मी में मैं तुम लोगों के रहने-खाने की व्यवस्था करूँ।”

“नहीं, महोदय! हमें अकेला छोड़ दीजिये। यह आपकी बड़ी कृपा है; परन्तु हमें घर से भागे हुए समझने में आप भूल कर रहे हैं।”

इसके आगे कोई वार्तालाप नहीं हुआ, गाड़ी स्टेशन पर पहुँचकर रुक चुकी थी। जितेन्द्र और मैं प्लेटफार्म पर उतरे तो हमारे संयोग से सहयात्री बने सज्जनों ने हमारे हाथ थाम कर एक घोड़ागाड़ी को बुलाया।

हम एक भव्य, वैभवशाली आश्रम के सामने उतरे जिसके चारों ओर सुन्दर बाग-बागीचा था और सदाबहार वृक्ष थे। हमें ले आने वाले सज्जन स्पष्टतया यहाँ भलीभांति परिचित थे; कुछ भी कहे बिना एक मुस्कराता लड़का हमें बैठकखाने में ले गया। शीघ्र ही वहाँ एक शालीन, सौम्यदर्शना प्रौढ़ महिला आ पहुँचीं।

“गौरी माँ, राजकुमार तो नहीं आ सके।” दो में से एक सज्जन ने आश्रमवासी महिला से कहा, “अन्तिम क्षण में उन्हें अपना कार्यक्रम बदलना पड़ा। इस के लिये उन्होंने खेद व्यक्त किया है। परन्तु हम दूसरे दो अतिथियों को ले आये हैं। जैसे ही गाड़ी में हमारी मुलाकात हुई, मैं इनकी ओर खिंच गया। मुझे ये कृष्णभक्त प्रतीत हुए।”

“अच्छा, बच्चों ! हम चलते हैं। भगवान ने चाहा तो फिर मुलाकात होगी”, दोनों सज्जनों ने दरवाजे की ओर जाते हुए कहा।

“यहाँ तुम दोनों का स्वागत है।” गौरी माँ ममतामयी ढंग से मुस्करायीं। “तुम्हारे आगमन का आज से अधिक अच्छा दिन दूसरा कोई न होता। आज इस आश्रम के दो आश्रयदाता राजकुमार यहाँ आने वाले थे। कितने खेद की बात होती यदि मेरे बनाए पकवान को सराहने वाला कोई न होता!”

इन मधुर शब्दों का जितेन्द्र पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा उसकी आँखों से अश्रुधाराएँ बहने लगीं। वृन्दावन में जिस “आगे की परिस्थिति” का उसे भय था वह तो राजसी सत्कार में बदल रही थी; आकस्मिक रूप से इतने बड़े परिवर्तन के साथ अपने मन का मेल बिठाना उसकी क्षमता से बाहर हो रहा था। गौरी माँ ने कौतूहल से उसकी ओर देखा पर कहा कुछ नहीं; शायद वे किशोर प्रवृत्तियों से परिचित थीं।

भोजन का बुलावा आ गया; गौरी माँ हमें एक बरामदे में ले गयीं जहाँ भोजन किया जाता था। वह बरामदा नाना प्रकार के व्यंजनों की सुगन्ध से महक रहा था। फिर वे साथ ही में लगे रसोईघर में चली गयीं।

मैं इस क्षण के बारे में पहले से ही विचार कर रहा था। जितेन्द्र के शरीर पर योग्य स्थान चुनकर मैंने उसे वहाँ उतनी ही जोर से पीड़ाजनक चुटकी काटी जितनी जोर से उसने गाड़ी में मुझे काटी थी।

“संशयात्मा! भगवान व्यवस्था करते हैं जल्दी से भी!”

गौरी माँ एक पंखा लेकर लौट आयीं। हम अलंकृत ऊनी आसनों पर बैठे थे और वे हमें भारतीय पद्धति के अनुसार पंखा झलती रहीं। आश्रमवासी शिष्य कुछ तीस-एक व्यंजनों को परोसते आ-जा रहे थे। उसे “भोजन” कहने से “राजसी भोज” कहना अधिक युक्तिसंगत होगा। इस धरातल पर जन्म लेने से लेकर अब तक न जितेन्द्र ने और न मैंने कभी ऐसे व्यंजन चखे थे।

“ये व्यंजन तो सचमुच राजकुमारों के ही योग्य हैं, पूज्य माताजी! आपके राजसी आश्रयदाताओं को इतने स्वादिष्ट भोजन से अधिक क्या महत्त्वपूर्ण लगा, मैं कल्पना ही नहीं कर सकता। आपने हमें जीवनभर के लिये एक स्मृति प्रदान कर दी है।”

अनन्त की शर्त से मुँह बन्द किये जाने के कारण हम उस करुणामयी, भद्र नारी से यह भी नहीं कह सकते थे कि हमारे धन्यवाद का दोहरा महत्त्व था। कम से कम हमारे हृदय की सच्चाई उन उद्गारों में सुस्पष्ट थी। हम उनके आशीर्वाद और आश्रम में पुनः आने के निमंत्रण के साथ वहाँ से चल पड़े।

बाहर धधकती धूप थी। जितेन्द्र और मैं आश्रम के फाटक के पास स्थित एक विशाल कदम्ब वृक्ष की छाया में जाकर खड़े हो गये। वहाँ पहुँचते ही जितेन्द्र के मुँह से तीव्र शब्दबाण चलने लगे; वह फिर एक बार शंकाव्यथित हो उठा था।

“तुम ने अच्छी मुसीबत में फंसा दिया है आज मुझे! हमारा यह भोजन तो केवल एक संयोग था! हम दोनों के पास एक भी पैसा तो है नहीं, इस शहर का दृश्यावलोकन कैसे करेंगे? और सबसे बड़ी बात तो यह है कि बिना पैसे के तुम मुझे अनन्त के घर तक वापस कैसे ले जाने वाले हो ?”

“तुम भगवान को जल्दी ही भूल जाते हो, अब तुम्हारा पेट जो भर गया है!” मेरे शब्दों में कटुता तो नहीं थी पर आरोप अवश्य था। मनुष्य के मन में दैवी कृपा की स्मृति कितनी अल्पकालिक होती है! ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है जिसकी कोई न कोई प्रार्थना कभी न कभी पूरी न हुई हो।

“तुम्हारे जैसे पागल का साथ देने का दुस्साहस करके मैंने जो भूल की है, उसे मैं कभी नहीं भूल सकूँगा!”

“शांत हो जाओ, जितेन्द्र! जिस भगवान ने हमें खाना खिलाया वही हमें वृन्दावन का दर्शन भी कराएँगे और आगरा वापस भी ले जाएँगे।”

इतने में एक क्षीणकाय युवक हमारी ओर तेजी से आता दिखायी पड़ा। उसी कदम्ब वृक्ष के नीचे आकर उसने मेरे सामने शीश झुकाया।

“प्रिय मित्र, आप और आपके साथी निश्चय ही यहाँ नये हैं। आइये, मैं आपकी अगवानी और पथप्रदर्शन करता हूँ।”

किसी भारतीय का चेहरा पीला पड़ना वस्तुतः शायद ही कभी संभव हो सकता है, परन्तु जितेन्द्र का रंग अकस्मात् उड़ गया। मैंने उस प्रस्ताव को नम्रता से अस्वीकार कर दिया।

“निश्चय ही आप मुझे भगा नहीं रहे हैं ?” उस अजनबी के चेहरे पर उभरे व्यग्रता के भाव अन्य किसी भी परिस्थिति में हँसी ले आते।

“क्यों नहीं ?”

“आप मेरे गुरु हैं।" विश्वास से भरी उसकी आँखें मेरी आँखों में जिज्ञासापूर्वक झाँकने लगीं। “मेरी मध्याह-उपासना के दौरान परमकृपालु भगवान श्रीकृष्ण मेरी अंतर्दृष्टि में प्रकट हुए। उन्होंने इसी वृक्ष के नीचे मुझे दो असहाय आकृतियाँ दिखायीं। उनमें से एक आप का ही चेहरा था, मेरे गुरुदेव! मैंने यह चेहरा प्रायः ध्यान में देखा है। आप यदि मेरी सेवा स्वीकार करें तो कितना आनन्द होगा मुझे!”

“मुझे भी आनन्द हुआ है कि तुमने मुझे ढूंढ निकाला। न तो भगवान ने, न ही मनुष्य ने हमारा परित्याग किया है!” यूँ तो अपने सामने के उत्सुक चेहरे की ओर देखकर मुस्कराता हुआ मैं निश्चल खड़ा था; तथापि एक आन्तरिक प्रणाम ने मुझे प्रभु के चरणों में डाल दिया।

“प्रिय मित्रों क्या आप लोग मेरे घर पधारकर उसकी शोभा नहीं बढ़ायेंगे ?”

“यह तुम्हारी बड़ी दया है; परन्तु हम ऐसा नहीं कर सकते। पहले ही हम आगरा में मेरे भाई के अतिथि हैं।”

“कम-से-कम मुझे आपके साथ वृन्दावन घूमने की स्मृतियाँ देते जाइये।”

मैं सहर्ष तैयार हो गया। उस युवक ने, जिसने अपना नाम प्रताप चटर्जी बताया, एक घोड़ागाड़ी रुकवायी। हम लोगों ने मदनमोहन मन्दिर और कुछ अन्य कृष्ण मन्दिरों में जाकर दर्शन किये। हमारा मन्दिर दर्शन समाप्त होने से पहले ही रात हो गयी।

“क्षमा कीजिये मैं थोड़ा सन्देश¹ ले आता हूँ।” प्रताप रेलवे स्टेशन के नजदीक एक दुकान में चला गया। जितेन्द्र और मैं उस चौड़ी सड़क पर, जो उस समय कुछ ठण्डक के कारण भीड़ से भर गयी थी, टहलने लगे। हमारे उस मित्र ने कुछ समय तो लिया परन्तु जब आया तो वह अनेक मिठाईयों के उपहार लेकर आया।

“कृपया मुझे इतना पुण्य कमाने दीजिये।” प्रताप ने अनुरोधपूर्ण ढंग से मुस्कराते हुए एक रुपये के नोटों का एक बंडल और आगरा के दो टिकट जो उसने अभी-अभी खरीदे थे, हमारे सामने बढ़ा दिये।

मेरी स्वीकृति में श्रद्धा भगवान के अदृश्य हाथ के लिये थी। अनन्त ने उनका इतना उपहास किया था, पर फिर भी क्या भगवान ने हमें अपनी आवश्यकता से कहीं अधिक नहीं दे दिया था ?

हमने स्टेशन पर एक एकान्त स्थान ढूँढ निकाला।

“प्रताप, अब मैं तुम्हें आधुनिक युग के सबसे महान योगी लाहिड़ी महाशय के क्रिया योग में दीक्षित करूँगा। उनकी यह साधना प्रविधि ही अब तुम्हारी गुरु होगी।”

आधे घंटे में दीक्षा समाप्त हुई। “क्रिया अब तुम्हारी चिंतामणि² है।”, मैंने नये शिष्य से कहा। “जैसा कि तुमने अभी देखा, यह प्रविधि अत्यंत सरल है और इस में मनुष्य के आध्यात्मिक विकास की गति बढ़ाने की प्रक्रिया निहित है। हिन्दू शास्त्र कहते हैं कि जन्म लेने वाली आत्मा को माया से मुक्त होने के लिये दस लाख वर्ष लगते हैं। यह प्राकृतिक अवधि क्रिया योग के अभ्यास से बहुत घट जाती है। जैसे पौधे की विकास गति को उसकी प्राकृतिक गति से कहीं अधिक बढ़ाया जा सकता है, जैसा कि सर जगदीशचंद्र बोस ने प्रदर्शित कर दिया है, वैसे ही मनुष्य के मनोवैज्ञानिक विकास की गति को भी वैज्ञानिक तरीके से बढ़ाया जा सकता है। निष्ठापूर्वक साधना करो, तुम समस्त गुरुओं के गुरु के पास पहुँच जाओगे।”

“इस चिर इच्छित यौगिक कुंजी को पाकर मैं जैसे दूसरे लोकों में पहुँच गया हूँ।” प्रताप ने गम्भीर होकर विचारपूर्वक कहा। “मेरे इन्द्रियबन्धनों से उद्धार करने वाला इसका प्रभाव मुझे उच्चतर अनुभूतियों के लिये मुक्त कर देगा अंतर्दृष्टि में आज भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन मेरे परममंगल का ही द्योतक है।”

हम थोड़ी देर शांत बैठे रहे, फिर धीरे-धीरे स्टेशन की ओर चलने लगे। जब मैं गाड़ी में चढ़ रहा था तो मैं तो आनन्द से भरा था पर जितेन्द्र के लिये आज आँसू बहाने का ही दिन था। प्रताप से प्रेमपूर्ण विदा लेते समय मेरे दोनों ही साथियों के गले से दबी हुई सिसकियाँ निकल रही थीं। इस यात्रा में जितेन्द्र फिर एक बार गहरे दुःख में डूबा हुआ था; इस बार अपनी खातिर नहीं, बल्कि अपने विरूद्ध

“मेरा विश्वास कितना उथला है; मेरा हृदय पत्थर बना हुआ था। अब फिर कभी मैं भगवान के संरक्षण के प्रति सन्देह नहीं करूँगा।”

मध्यरात्रि होने को थी। अकिंचन अवस्था में भेजे उन दो बालकों ने अनन्त के शयनकक्ष में प्रवेश किया। जैसा कि उन्होंने बातों-बातों में यूँही कह दिया था, उनका विस्मयचकित चेहरा अब देखते ही बनता था। मैंने चुपचाप एक टेबल पर रुपये के नोटों की वर्षा कर दी।

“जितेन्द्र! सच-सच बताओ!” अनंत दा मजाक करने के अंदाज़ में बोले। “इस लड़के ने रास्ते में किसी को लूटा है न?”

परन्तु जैसे-जैसे यात्रा की कहानी खुलती गयी, मेरे भाई शांत होकर फिर गम्भीर हो गये।

“माँग और पूर्ति का नियम जैसे मैंने सोचा था उससे कहीं अधिक सूक्ष्म स्तर पर कार्य करता है।” अनन्त एक ऐसे आध्यात्मिक उत्साह के साथ बोल रहे थे जो उनमें पहले कभी दृष्टिगोचर नहीं हुआ था। “तिजोरियों और इस संसार की सामान्य चीजों के संचय के प्रति तुम्हारी उदासीनता को आज पहली बार मैं समझ पा रहा हूँ।”

रात बहुत बीत गयी थी, तब भी अनंत दा ने आग्रह किया कि उन्हें उसी समय क्रियायोग की दीक्षा³ दी जाय। "गुरु" मुकुन्द को एक ही रात में दो-दो अनचाहे "शिष्यों" की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेनी पड़ी।

दूसरे दिन प्रातःकाल का जलपान एक ऐसे मधुर और मिलनसार वातावरण में सम्पन्न हुआ, जिसका पहले दिन नितान्त अभाव था।

मैं जितेन्द्र की ओर देखकर मुस्कराया “तुम ताजमहल देखने से वंचित नहीं रहोगे। श्रीरामपुर के लिये निकलने से पहले हम उसे देखने चलते हैं।”

अनंत से विदा लेकर मेरा मित्र और मैं शीघ्र ही आगरा के गौरव ताजमहल के सामने पहुँचे। सूर्य की किरणों में चमकते श्वेत संगमरमर से बना ताजमहल शुद्ध अनुपातसंगति का मूर्तिमान रूप है। काले, घने सरु के वृक्ष, चमकदार हरियाली और प्रशान्त जलाशय का दृश्यपट उसके श्रृंगार को पूर्ण कर देता है। अत्यंत बारीक नक्काशी की रत्नजड़ित जालियों से बना भीतरी भाग अति सुन्दर है। भूरे तथा बैंगनी रंग के संगमरमर से बना अत्यंत नाजुक बेलबूटा अति सुन्दर है। गुम्बज की रोशनी शहंशाह शाहजहाँ और उसकी सल्तनत एवं दिल की मलिका मुमताज महल की कब्रों पर पड़ती है।

अब दृश्यावलोकन बहुत हो गया! मैं अपने गुरु के पास जाने के लिये आतुर हो रहा था। शीघ्र ही जितेन्द्र और मैं रेलगाड़ी से दक्षिण दिशा में बंगाल की ओर जा रहे थे।

“मुकुन्द! मैंने कई महीनों से अपने परिवार जनों को नहीं देखा है। मैंने अपना इरादा बदल दिया है; शायद फिर कभी मैं तुम्हारे गुरु से मिलने श्रीरामपुर आऊँगा।”

मेरे मित्र ने जिसे सौम्य भाषा में अस्थिरचित्त कहा जा सकता है, कोलकाता में मेरा साथ छोड़ दिया। मैं एक लोकल ट्रेन पकड़कर शीघ्र ही कोलकाता के उत्तर में बारह मील पर स्थित श्रीरामपुर पहुँच गया।

जैसे ही मुझे यह एहसास हुआ कि बनारस में गुरुदेव से मिले ठीक अठ्ठाईस दिन बीत गये थे, विस्मय से मेरा हृदय धड़कने लगा। “तुम चार सप्ताह में मेरे पास आ जाओगे!” और आज मैं धड़कते हृदय से रायघाट लेन में उनके आँगन में खड़ा था। आज पहली बार मैंने उस आश्रम में प्रवेश किया था जहाँ मैं अपने जीवन के अगले दस वर्षों के सर्वोत्तम अंश भारत के ज्ञानावतार के साथ बिताने वाला था।


¹ [बंगाली पैड़ा।]

² [सारे अभिष्टो की पूर्ति करनेवाली एक तथाकथित मणि: यह भगवान का एक नाम भी है।]

³ [आध्यात्मिक व्रतग्रहण। संस्कृत के ‘दीक्ष’ मे निष्पन्न इस शब्द का अर्थ है व्रत ग्रहण करना।]