एक योगी की आत्मकथा - 14 Ira द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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एक योगी की आत्मकथा - 14

{ समाधि-लाभ }

“मैं आ गया हूँ, गुरुजी!” मेरा लज्जित चेहरा मेरे मनोभावों को अधिक स्पष्टता से व्यक्त कर रहा था।

“चलो रसोईघर में चलकर खाने के लिये कुछ देखते हैं।” श्रीयुक्तेश्वरजी का बर्ताव इतना सहज था मानों हम कुछ दिनों के लिये नहीं बल्कि कुछ घंटों के लिये ही अलग रहे हों।

“गुरुदेव! मेरे द्वारा आश्रम के कर्त्तव्यों को अचानक छोड़ कर चले जाने से आपको अवश्य निराशा हुई होगी। मुझे तो लगा था आप मुझ पर क्रोधित होंगे!”

“नहीं, बिलकुल नहीं! क्रोध केवल इच्छा के अवरोध से उत्पन्न होता है। मैं कभी दूसरों से कोई अपेक्षा नहीं रखता, इसलिये उनका कोई भी कार्य मेरी इच्छाओं के विपरीत नहीं हो सकता। मैं अपने किसी स्वार्थ के लिये तुम्हारा उपयोग कभी नहीं करता; मैं तो केवल तुम्हारे सच्चे सुख में ही खुश हूँ।”

“गुरुदेव! दिव्य प्रेम के बारे में मैंने केवल सुना ही था और कुछ धुँधली-सी कल्पना कर सकता था, परन्तु आज आपके देवतास्वरूप उदाहरण में मैं उसका प्रत्यक्ष दर्शन कर रहा हूँ। संसार में तो अपना पुत्र भी यदि पिता को पूर्वसूचना दिये बिना उसका काम छोड़कर चला जाता है तो पिता उसे आसानी से क्षमा नहीं करता। परन्तु आप में क्रोध तो क्या, ज़रा-सी नाराजगी का भी लवलेश मात्र नहीं है, जब कि मेरे कई काम अधूरे छोड़ जाने से आपको भारी असुविधा हुई होगी।”

हम दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में देखा। दोनों के ही नेत्रों में अश्रु भर आये थे। आनन्द की एक लहर ने मुझे निमग्न कर दिया; मुझे यह बोध हो रहा था कि मेरे गुरु के रूप में साक्षात् भगवान मेरे हृदय के प्रेम की सीमित उत्कण्ठाओं को विराट् प्रेम में विस्तारित कर रहे थे।

कुछ दिन बीत जाने के बाद एक दिन सुबह मैं गुरुदेव के खाली बैठक कक्ष में गया। वहाँ ध्यान करने का मेरा विचार था, परन्तु मेरा अवज्ञाकारी मन इस प्रशंसनीय उद्देश्य में सहयोग देने के लिये तैयार नहीं था। विचार ऐसे बिखर रहे थे जैसे किसी शिकारी के आते ही पक्षी बिखर जाते हैं।

“मुकुन्द !” दूर की एक बाल्कनी से श्रीयुक्तेश्वरजी की आवाज़ आयी।

मेरे विचार जितने विद्रोही थे उतना ही विद्रोही अब मैं भी बन गया। “गुरुदेव सदा मुझे ध्यान करने को कहते हैं,” मैं अपने आप से बड़बड़ाया। “उन्हें मालूम है कि मैं यहाँ किसलिये आया हूँ। अब उन्हें मेरे प्रयास में बाधा नहीं डालनी चाहिये।”

उन्होंने फिर मुझे बुलाया; मैं चुप ही बैठा रहा। तीसरी बार जब उन्होंने फिर पुकारा तो उनके स्वर में कठोरता आ गयी थी।

“मैं ध्यान कर रहा हूँ, गुरुजी,” मैं विरोध में चिल्लाया। “मैं जानता हूँ तुम कैसा ध्यान कर रहे हो,” मेरे गुरु ने उधर से कहा, “आँधी में उड़ रहे पत्तों के समान मन से! यहाँ मेरे पास आओ।”

प्रयत्न में विफल रहने और भेद खुल जाने पर मैं खिन्न मन से चुपचाप उनके पास जाकर खड़ा हो गया।

“नादान बच्चे! तुम्हें जो चाहिये वह पर्वत तुम्हें नहीं दे सके।”गुरुदेव स्नेह भरे, सांत्वना देते स्वर में बोल रहे थे। उनकी शान्त दृष्टि अथाह बन गयी थी। “तुम्हारे हृदय की लालसा अवश्य पूरी होगी।”

श्रीयुक्तेश्वरजी कदाचित् ही कभी गूढ़ भाषा में बोलते थे; मैं असमंजस में पड़ गया। उन्होंने धीरे से मेरी छाती पर हृदय के ऊपर थपथपाया।

मेरा शरीर निश्चल होकर ज़मीन से चिपक गया; श्वास तेज़ी से फेफड़ो से बाहर खिंच गया, मानो किसी महाकाय चुम्बक ने उसे खींच लिया हो। आत्मा और मन तत्क्षण शरीर के बन्धन से मुक्त हो गये और किसी प्रवाहमान तीक्ष्ण तेज के समान मेरे शरीर के रोम-रोम से बाहर बहने लगे। स्थूल शरीर मृतवत् हो गया; फिर भी अपने तीव्र बोध में मुझे यह भान हो रहा था कि मैं पहले कभी भी पूर्ण रूप से जीवित नहीं था। अपने अस्तित्व का मेरा बोध अब संकुचित रूप से केवल मेरे शरीर तक ही सीमित नहीं था बल्कि मेरे चारों ओर व्याप्त अणु-परमाणुओं में फैल गया था। दूर सड़कों पर चल रहे लोग मेरी अपनी ही सुदूरस्थित परिधि पर चलते प्रतीत हो रहे थे। भूमि की धुँधली पारदर्शिता में पेड़-पौधों की जड़े दिखायी दे रही थीं, उनके अन्दर चल रहे रस प्रवाह का भी मैं स्पष्ट अवलोकन कर रहा था।

आस-पास का पूरा क्षेत्र मेरे सामने अनावृत्त हो गया था। केवल सामने ही देख पाने वाली मेरी साधारण दृष्टि अब चतुर्दिग्दर्शी विशाल मंडलाकार दृष्टि में परिवर्तित हो गयी थी जो सर्वदर्शी भी थी। अपने मस्तक के पीछे से मैं रायघाट लेन में दूर चलते-फिरते लोगों को देख रहा था, और एक श्वेत गाय को भी मैंने वहाँ देखा जो धीरे-धीरे आश्रम की ओर आ रही थी। जब वह आश्रम के खुले द्वार पर पहुँच गयी तो मैंने उसे ऐसे देखा मानो अपनी दो स्थूल आँखों से देखा हो। जब वह आश्रम के अहाते की दीवार के पीछे चली गयी तब भी मैं उसे स्पष्ट देख रहा था।

मेरी विशालदर्शी दृष्टि में दिखने वाली सारी वस्तुएँ तेज़ चलने वाले चलचित्रों की भाँति कंपित और स्पन्दित थीं। मेरा शरीर, गुरुदेव का शरीर, चारों ओर से खम्भों से घिरा आश्रम का चौक, फर्नीचर और फर्श, पेड़पौधे और धूप यदा-कदा उग्रता से स्पन्दित होते, जब तक कि सब कुछ प्रकाश -सागर में विलीन नहीं हो गया; ठीक जैसे पानी भरे गिलास में चीनी डालने के बाद उसे हिलाने से वह पानी में घुल जाती है। सब कुछ अपने में विलीन कर लेने वाला यह प्रकाश बीच-बीच में आकार धारण कर लेता था, फिर वह आकार उसी प्रकाश में विलीन हो जाता था। प्रकाश और स्थूल आकार पर्यायक्रम से एक दूसरे में रूपान्तरित होकर सृष्टि के कार्य-कारण सिद्धान्त को स्पष्ट कर रहे थे।

मेरी आत्मा के शान्त अनंत तट पर सागर के समान आनन्द उमड़ पड़ा। मैंने अनुभव किया कि ईश्वर का स्वरूप अक्षय आनन्द है; उसका शरीर प्रकाश के असंख्य तंतू है। मेरे अन्दर उमड़ती दिव्य ज्योति ने विस्तृत होते-होते नगरों, महाद्वीपों, पृथ्वी, सूर्यमंडल, तारामंडल, नीहारिका-पुंज और अंतरिक्ष में प्रवर्तमान ब्रह्मांडों को अपने में समा लिया। रात में दूर से दिखायी पड़ने वाले प्रकाशमय शहर की भाँति समस्त ब्रह्माण्ड मेरे अस्तित्त्व की अनन्तता में जगमगा रहा था। ब्रह्माण्ड की स्पष्ट रेखांकित परिधि के परे चमकने वाला तीव्र प्रकाश उसके दूरतम किनारों तक पहुँचते-पहुँचते किंचित क्षीण-सा होता जा रहा था; वहाँ मुझे एक स्निग्ध, मृदु तेज दिखायी दे रहा था जिसमें कभी किसी प्रकार की कोई क्षीणता नहीं आ रही थी। वह तेज अवर्णनीय रूप से सूक्ष्म था, नक्षत्र पुंजों के आकार अपेक्षाकृत स्थूल प्रकाश से बने हुए थे।¹

एक शाश्वत उद्गम स्रोत से दिव्य किरणों का प्रसार हो रहा था और वे अवर्णनीय प्रभामंडल से देदीप्यमान आकाशगंगाओं में रूपान्तरित हो रही थीं। बार-बार मैंने सृजनात्मक किरणों को नक्षत्रों में और फिर विस्तृत पारदर्शक ज्वालाओं में रूपान्तरित होते देखा। लयबद्ध प्रत्यावर्तन के द्वारा करोड़ों-करोड़ों विश्व का पारदर्शक तेज में विलय हो गये और फिर वह तेज महाव्योम बन गया।

मुझे यह ज्ञान हुआ कि इस समस्त तेजोब्रह्माण्ड का केन्द्र मेरे हृदय में स्थित अंतर्ज्ञानानुभूति का बिन्दु है। एक प्रकाशकारी ज्योति मेरी नाभि से समस्त ब्रह्माण्ड के प्रत्येक भाग को प्रसारित हो रही थी। परमानन्दमय अमृत मेरे अस्तित्व के कण-कण में पारे के प्रवाह की भांति व्याप्त हो रहा था। ईश्वर की सृजनात्मक ध्वनि को, ब्रह्माण्ड के प्रेरक यंत्र की ध्वनि को मैं ओम्² की झंकार में प्रतिध्वनित होते सुन रहा था।

अचानक श्वास मेरे फेफड़ों में लौट आया। लगभग असह्य निराशा के साथ मैं जान गया कि मेरी विराट् असीमता लुप्त हो गयी थी। फिर एक बार मैं अपमानास्पद देह-पिंजड़े में आबद्ध हो गया था जिसमें ब्रह्म को आसानी से कोई स्थान नहीं मिल सकता। घर से भागे बालक की भाँति मैं अपने विराट् तेजोधाम से भाग आया था और अपने आपको मैंने एक संकीर्ण पार्थिव देह के क्षुद्र पिंजड़े में कैद कर लिया था।

मेरे गुरु मेरे सामने निश्चल खड़े थे। लम्बे समय से मुझे जिस ब्रह्म चैतन्य के अनुभव की उत्कट लालसा थी वह अनुभव उन्होंने मुझे करा दिया था। उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए जैसे ही मैं उनके सामने साष्टांग दण्डवत करने लगा तो रोककर उन्होंने मुझे सीधा खड़ा कर दिया और शान्तभाव से बोले :

“तुम्हें परमानन्द में डूबे नहीं रहना है। तुम्हारे लिये अभी जगत् में बहुत-सा काम करना बाकी है। आओ, बरामदे में पहले झाडू लगाते हैं और फिर गंगा के किनारे-किनारे घूमने जायेंगे।”

मैं एक झाडू लाया। मैं जानता था कि गुरुदेव मुझे संतुलित जीवन की शिक्षा दे रहे थे। शरीर के अपने दैनिक कत्तव्यों का निर्वाह करते हुए आत्मा को विश्वोत्पत्ति के रहस्यों को अपने में समाते हुए विस्तारित होते रहना चाहिए।

बाद में जब श्रीयुक्तेश्वरजी और मैं घूमने निकले तब भी मैं अनिर्वचनीय आनन्द में विभोर था। मैं दोनों के शरीरों को प्राणशक्ति से बने चित्रों के रूप में देख रहा था जो प्रकाश से बनी एक नदी के किनारे किनारे प्रकाश के ही बने एक रास्ते पर चल रहे थे।

“वह ईश्वर का चैतन्य ही है जो सृष्टि में विद्यमान प्रत्येक रूपआकार और प्रत्येक शक्ति का पोषण करता है और उसे आधार देता है; फिर भी वह स्वयं स्पन्दनशील प्रतिभासिक सृष्टि से परे परमानन्दमय असृष्ट महाशून्य में इन सबसे पृथक्, अलिप्त रहता है,” ³ गुरुदेव समझा रहे थे। “जो लोग इस भूलोक में आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर लेते हैं वे भी इस प्रकार का द्विविध जीवन जीते हैं। विवेक और निष्ठा के साथ जगत् में अपना कार्य करते हुए भी वे अपने आंतरिक परमानन्द में निमग्न रहते हैं।

“ईश्वर ने अपने अस्तित्व के असीम आनन्द से ही सब मनुष्यों की सृष्टि की है। यद्यपि वे शरीर में कष्टप्रद रूप से आबद्ध हैं, फिर भी ईश्वर यह अपेक्षा करता है कि उसकी प्रतिमूर्ति स्वरूप बने मानव इन्द्रियबोध से उत्पन्न सीमित व्यक्तित्व से ऊपर उठ कर उसके साथ पुनः एकात्म स्थापित कर लें।”

इस विश्व-रूप दर्शन से मुझे कई स्थायी शिक्षाएँ मिलीं। प्रतिदिन अपनी चित्तवृत्तियों का निरोध कर मैं इस भ्रमात्मक धारणा से मुक्त हो सकता था कि मेरा शरीर स्थूल भूमि पर चलने-फिरने वाला एक हाड़मांस का पिण्ड मात्र है। मैंने देखा कि श्वास और चंचल मन ऐसे तूफानों के समान हैं जो प्रकाश सागर को आलोड़ित कर उसमें पृथ्वी, आकाश, मानव, प्राणी, पक्षी, वृक्ष आदि भौतिक आकारों की लहरें उत्पन्न करतें हैं। इन तूफानों को शान्त किये बिना उस अनन्त परमतत्त्व की एकमात्र अखण्ड प्रकाश के रूप में अनुभूति नहीं की जा सकती।

जब-जब मैंने इन दो प्राकृतिक तूफानों को शान्त किया, तब-तब मैंने सृष्टि की असंख्य उत्ताल तरंगों को उस प्रकाश-सागर में ठीक उसी प्रकार विलीन होते देखा, जिस प्रकार समुद्र की लहरें तूफान के थम जाने के बाद शान्त होकर विलीन हो जाती हैं।

गुरु तभी विश्व - चैतन्य का यह अनुभव अपने शिष्य को प्रदान करता है, जब उसने ध्यान-धारणा द्वारा अपने मन को इतना सुदृढ़ बना लिया हो कि वह इन विराट् दृश्यों को देखकर घबरा न जाय। केवल बौद्धिक इच्छा या खुले दिमाग का होना ही इसके लिये पर्याप्त नहीं है। योग साधना और भक्ति द्वारा चेतना की समुचित रूप से उन्नति द्वारा ही साधक सर्वव्यापकता के मुक्तिदायी आघात को सहन करने के योग्य बनता है।

सच्चे भक्त को यह दिव्य अनुभव अवश्य होता है। उसकी अत्यंत तीव्र लालसा ईश्वर को इस प्रकार खींचने लगती है कि ईश्वर उसका प्रतिकार नहीं कर सकता। उस चुम्बकीय उत्कंठा से सृष्टिपति विराट् दर्शन के रूप में साधक की चेतना की सीमा में खिंच आते हैं।

कई वर्षों बाद मैंने “समाधि” नाम से निम्नलिखित कविता लिखी जिसमें मैंने समाधि की महिमा की एक झाँकी प्रस्तुत करने का प्रयास किया था: ⁴

अदृश्य हो गये प्रकाश और छाया के पर्दे सारे,
दुःख का लवलेश भी कहीं नहीं रहा,
मिट गये क्षणभंगुर सुखों के बोध सारे,
नष्ट हो गयी इन्द्रियों की धुँधली मृग मरीचिका
प्रेम, घृणा, स्वास्थ्य, रोग, जन्म, मृत्युः
द्वैत के पर्दे पर खेलती ये सारी मिथ्या परछाइयाँ लुप्त हो गयीं।
माया का तूफान थम गया
गहन अंतर्ज्ञान की जादुई छड़ी से।
वर्तमान, भूत, भविष्य, कुछ भी नहीं रहा अब मेरे लिये, अब तो केवल मैं ही मैं हूँ सदा सर्वदा फैलता सबमें, सब ओर।
ग्रह, तारे, निहारिकापुंज, पृथ्वी,
महाप्रलय के ज्वालामुखियों के विस्फोट,
सृष्टि की ढलाई की धधकती भट्ठी,
नीरव क्ष-किरणों के हिमनद, ज्वलन्त विद्युत् अणुओं की बाढ़,
अतीत में हुए, वर्तमान में जी रहे, भविष्य में होने वाले सब मनुष्यों के विचार, घास तक का प्रत्येक पत्ता, मैं स्वयं, समस्त मानवजाति,
सृष्टि का प्रत्येक कण,
काम, क्रोध, लोभ, अच्छा, बुरा, मोक्ष, मुक्ति,
इन सब को मैंने निगल लिया
और ये सब मेरे एकमात्र विराट् अस्तित्व के रुधिर का महासागर बन गये।
भीतर ही भीतर सुलगते आनन्द ने, जो ध्यान में प्रायः सुलग उठता,
मेरे अश्रुपूर्ण नेत्रों को रुद्ध कर दिया,
और भड़क उठा परमानन्द के शोलों के रूप में,
और स्वाहा कर लिया मेरे अश्रुओं को, मेरे शरीर को, मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व को।
ब्रह्म मुझमें समा गया, मैं ब्रह्म में समा गया,
ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय सब एक हो गये!
शांत, अखंड रोमांच, सदा के लिये जीती-जागती नित्य नवीन शांति।
समस्त आशा और कल्पनाओं से परे आनन्द देने वाला समाधि का परमानन्द !
नहीं यह कोई अचेत अवस्था
या मानसिक बेहोशी जिसमें से स्वेच्छा से लौटा न जा सके,
बल्कि समाधि तो मेरी चेतना के विस्तार को
मर्त्य देह की सीमाओं से परे ले जाती है।
अनंतता की दूरतम परिधि तक
जहाँ ब्रह्मसागर बना मैं
अपने छोटे-से अहं रूप को अपने में ही तैरता देखता हूँ ।
अणुओं की सरसराहट सुनायी देती है,
निस्तेज पृथ्वी, पहाड़ पर्वत, घाटियाँ,
पल भर में सब गल कर तरल बन गये!
सागर- प्रवाह नीहारिकाओं की धुन्ध में बदल गये!
इस धुन्ध पर प्रणव की फुंकार आयी,
और उसने उस धुन्ध के तुषारों पर छाये पर्दे उठा दिये,
ज्योतिर्मय अणु-परमाणुओं के सागर महासागर दृष्टि के
सामने अनावृत हो गये, जब तक ओम् के ब्रह्मनाद से सब स्थूल तर आलोक
आखिर सर्वव्याप्त परमानन्द की शाश्वत किरणों में विलीन न हो गये।
आनन्द से मैं आया था, आनन्द के लिये मैं जीता हूँ,
पवित्र आनन्द में मैं विलीन हो जाता हूँ।
मन का सागर बना मैं सृष्टि की सारी तरंगों को पीता हूँ। उठ गये चार पर्दे जड़, तरल, वायु एवं प्रकाश के।
कण-कण में विद्यमान मैं अपने विराट् स्वरूप में विलीन होता हूँ !
चली गयी सदा के लिये मर्त्य स्मृति की अस्थिर, फरफराती परछाइयाँ;
निरभ्र है मेरे मन का आकाश अब– नीचे, ऊपर, आगे-पीछे;
अनंतता और मैं एकरूप बनी एक ही किरण हैं अब ।
हँसी का एक नन्हा-सा बुलबुला मैं;
अब बन गया हूँ सागर हर्षोल्लास का स्वयं ।

श्रीयुक्तेश्वरजी ने मुझे यह दिव्य आनन्दपूर्ण अनुभव अपनी इच्छानुसार जब चाहे प्राप्त करने का और जिनकी अंतर्ज्ञान प्रणाली पर्याप्त रूप से विकसित हो गयी हो, ऐसे लोगों को भी इसे प्रदान करने का तरीका सिखाया।

इस प्रथम अनुभव के बाद कई महीनों तक मैं इस परमानन्दमय एकात्मता की अवस्था में तल्लीन रहा और प्रतिदिन यह बात मेरी समझ में आती रही कि उपनिषदों में ईश्वर को रस स्वरूप . ‘रसौ वै स:’⁵ क्यों कहा गया है। परन्तु एक दिन सुबह मैं एक समस्या लेकर गुरुदेव के पास गया।

“मैं जानना चाहता हूँ, गुरुदेव ! मुझे ईश्वर प्राप्ति कब होगी ?”

“तुम्हें ईश्वर प्राप्ति हो चुकी है।”

“जी नहीं, गुरुदेव! मुझे तो ऐसा नहीं लगता !” मेरे गुरु मुस्करा रहे थे। “मुझे विश्वास है कि तुम सृष्टि के किसी जीवाणुरहित साफ सुथरे कोने में सिंहासन पर विराजमान किसी पूजनीय व्यक्ति को ईश्वर नहीं मान रहे हो! तथापि मैं यह भी देख रहा हूँ कि तुम्हारी ऐसी कल्पना है कि चमत्कारी शक्तियों का किसी के पास होना ही इस बात का प्रमाण है कि उसने ईश्वर को प्राप्त कर लिया है। नहीं, ऐसा नहीं है। किसी को पूरे ब्रह्माण्ड को नियन्त्रित करने की शक्ति मिल सकती है परन्तु फिर भी ईश्वर उसकी पहुँच से दूर रह सकता है। आध्यात्मिक उन्नति को बाह्य शक्तियों के प्रदर्शन से नहीं मापा जा सकता, बल्कि उसका मापदण्ड केवल यह है कि ध्यान में वह आनन्द की कितनी गहरायी में उतरता है।”

“नित्यनवीन आनन्द ही ईश्वर है। वह अक्षय है; वर्षों पर वर्ष जैसेजैंसे तुम ध्यान करते जाओगे, वैसे-वैसे वह अनन्त युक्तियों से तुम्हें मोहित करता ही रहेगा। तुम्हारे जैसे भक्त, जिन्हें ईश्वर का मार्ग मिल जाता है, स्वप्न में भी कभी ईश्वर के स्थान पर दूसरे किसी सुख की प्राप्ति की कल्पना नहीं कर सकते । ईश्वर तुलना या प्रतिस्पर्धा से भी परे बेजोड़ विमोहक है।

“इहलौकिक सुखों से हम कितनी जल्दी ऊब जाते हैं ! भौतिक सुखों की कामनाओं का अन्त नहीं है; मनुष्य कभी पूर्ण तृप्त नहीं होता और एक के बाद दूसरे लक्ष्य के पीछे दौड़ता ही रहता है। सुख के लिये वह जिस ‘कुछ और’ की खोज करता रहता है वह ‘कुछ और’ ईश्वर ही है और केवल वही शाश्वत आनन्द प्रदान कर सकता है।

“बाह्य इच्छाएँ हमें अभ्यन्तर के 'स्वर्ग' से बाहर खींच लाती हैं; वे मिथ्या आनन्द देती हैं जो आत्मिक आनन्द का छद्म आभास मात्र है। खोया हुआ आन्तरिक स्वर्ग दिव्य ध्यान के द्वारा शीघ्र ही पुनः प्राप्त किया जा सकता है। ईश्वर अकल्पित नित्य नूतनता है, अतः हम कभी उससे ऊब नहीं सकते। जो परमानन्द अनन्त काल तक सदा के लिये आह्लादक विविधताओं से भरा हो उससे क्या कभी किसी का मन भर सकता है ?”

“अब मेरी समझ में आया गुरुदेव, कि सन्तों ने ईश्वर को अगाध क्यों कहा है। अमर जीवन भी ईश्वर को समझने के लिये पर्याप्त नहीं है।”

“यह सच है, किन्तु वह निकटसम्बन्धी और प्रियजन भी है। जब क्रियायोग द्वारा मन इन्द्रियजन्य विकारों से रहित हो जाता है, तब ध्यान ईश्वर का दुहरा प्रमाण प्रस्तुत कर देता है। नित्य - नवीन आनन्द उसके अस्तित्व का प्रमाण है, जो हमारे प्रत्येक अणु को भी उसकी प्रतीति करा
देता है। और ध्यान में हमारी प्रत्येक समस्या के लिये ईश्वर का तत्क्षण मार्गदर्शन, उसका समुचित प्रत्युत्तर, भी मिलता है।”

“गुरुजी! आपने मेरी समस्या का निराकरण कर दिया।” मैं कृतज्ञतापूर्वक मुस्कराया। “अब मैं यह जान गया हूँ कि मैंने ईश्वर को पा लिया है, क्योंकि जब कभी कार्यशीलता के बीच ध्यान का आनन्द मेरे सुप्त मन में लौट आता है, तब प्रत्येक कार्य में यहाँ तक कि उससे सम्बन्धित छोटी से छोटी बात में भी, सही दिशा अपनाने का सूक्ष्म मार्गदर्शन मुझे मिलता रहता है।”

“ईश्वर की इच्छा का ज्ञान कैसे किया जाता है यह जब तक हमें पता नहीं चलता, तब तक मानव जीवन दुःखों से ग्रस्त रहता है। उसकी इच्छा की ‘सही दिशा’ भी प्रायः अहंमन्य बुद्धि के लिये चकरा देने वाली होती है,” गुरुदेव ने कहा।

“केवल ईश्वर ही अचूक मार्गदर्शन देता है; आखिर वह नहीं तो और कौन सृष्टि का भार वहन कर रहा है ?”


¹[ प्रकाश के सृष्टि का मूल तत्त्व होने का स्पष्टीकरण 30वें प्रकरण में दिया गया है।]

² [ प्रारम्भ में केवल शब्द था और शब्द ईश्वर के पास था और शब्द ही ईश्वर था। – यूहन्ना 1:1 (बाइबिल)।]

³ [“ईश्वर स्वयं किसी का न्याय नहीं करता। उसने यह कार्य अपने 'पुत्र' को सौंप रखा है।”– यूहन्ना 5:22 (बाइबिल)। “किसी मानव ने ईश्वर को कभी नहीं देखा है, उसे केवल उसके 'पुत्र' ने ही देखा है जो उसके हृदय में रहता है और पुत्र ने ही संसार को उसकी जानकारी दी।” – यूहन्ना 1:18 (बाइबिल)। “ईश्वर ने ईसामसीह के माध्यम से ही सृष्टि की रचना की” – इफिसियों 3:9 (बाइबिल)। “जो मुझ में विश्वास करेगा वह भी ऐसे सब कार्य करेगा जो मैं करता हूँ और इससे बड़े कार्य भी करेगा क्योंकि मैं अपने पिता के पास ही जाता हूँ। –यूहन्ना 14:12 (बाइबिल)। “सुखदाता, जो पवित्रात्मा है, जिसे मेरे पिता मेरे नाम से भेजेंगे, तुम्हें सारी बातें सिखा देगा और मैंने जो कुछ कहा है वह सारी बातें तुम्हें याद दिला देगा।” – यूहन्ना 14:26 (बाइबिल)।
बाइबिल के ये वचन ईश्वर के तीन स्वरूपों— परमपिता, पुत्र और पवित्रात्मा (हिन्दू शास्त्रों के सत्-तत्-ओम्) की ओर संकेत करते हैं। परमपितारूप ईश्वर वह परमतत्त्व है जो अव्यक्त है और स्पन्दनात्मक सृष्टि के परे है। पुत्ररूप ईश्वर स्पन्दनात्मक सृष्टि में स्थित क्राईस्ट-चैतन्य या कृष्णचैतन्य (ब्रह्मा या कूटस्थ चैतन्य) है; यह कूटस्थ-चैतन्य ही अव्यक्त अनंत परमतत्त्व का “एकमात्र पुत्र" या एकमात्र प्रतिबिम्ब है। इस सर्वव्यापी कूटस्थ चैतन्य की बाह्य अभिव्यक्ति, उसका "साक्षी" (प्रकाशितवाक्य 3:14, बाइबिल) ओम् या शब्द या पवित्रात्मा है: अदृश्य ईश्वरीय शक्ति, एकमात्र कर्त्ता, सृष्टि की स्थिति की स्पन्दन के माध्यम से बनाये रखने वाली एकमात्र कारक और क्रियात्मक शक्ति इस परमानन्दमय 'सुखदाता' ओम् को ध्यान में सुना जाता है और वह साधक को अंतिम सत्य का ज्ञान करा देता है। इस प्रकार यह "सारी बातें याद दिला देता है।"

⁴ [ परमहंस योगानन्द जी ने यह कविता अंग्रेजी में लिखी थी। यहाँ पर उसका अनुवाद दिया जा रहा है।]

⁵ [ तैत्तिरीयोपनिषद 2-7-1]