हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 23 Shrishti Kelkar द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • स्वयंवधू - 31

    विनाशकारी जन्मदिन भाग 4दाहिने हाथ ज़ंजीर ने वो काली तरल महाश...

  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

श्रेणी
शेयर करे

हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 23

श्री चिम्मनलालजी गोस्वामी

श्रीचिम्मनलाल जी गोस्वामी का जन्म आषाढ़ कृष्ण 9 सं० 1957 (27 जून, 1900) को हुआ था। इनका परिवार धार्मिक संस्कार सम्पन्न था एवं इन्हें बल्लभ-सम्प्रदाय के संस्कार जन्म से ही प्राप्त हुए।

भक्तिमती श्री चन्द्रकला देवी तथा श्री व्रजलालजी गोस्वामी को इनके माता-पिता कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ। सन् 1916 में हाई स्कूल की परीक्षा उतीर्ण करके आप वाराणसी चले आये और क्वीन्स कालेजमें अँग्रेजी, दर्शन शास्त्र तथा संस्कृतका अध्ययन करने लगे। यहाँ पढ़ते समय महामहोपाध्याय पं० श्रीगोपीनाथ जी कविराज का विशेष सामीप्य और संरक्षण मिला क्वीन्स कालेज का अध्ययन पूर्ण करके आपने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सन् 1922 में संस्कृत की एम० ए० परीक्षा प्रथम श्रेणीमें उत्तीर्ण की। तदुपरान्त कुछ समय के लिये आपने महामना पं० श्रीमदनमोहन जी मालवीय के निजी सचिव के रूपमें कार्य किया। वाराणसी से बीकानेर वापस आने के बाद चार वर्ष तक प्रधानाध्यापकके रूपमें कार्य करते रहे। फिर छः वर्षों तक बीकानेर राज्य के राजनैतिक विभागमें कार्य किया और राज्य के प्रधान दीवान आदरणीय श्रीमन्नू भाई शाह के निजी सचिव रहे।

भगवान् के आदेश से भाईजी भगवन्नाम का प्रचार करते हुए सं० 1984 में बीकानेर गये। उसी समय गोस्वामीजीने भाईजी के दर्शन किये और पहली भेंटमें ही उनकी ओर अत्यन्त आकर्षित हो गये। इस प्रथम समागम का उनके मनपर ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा कि स्वाभाविक ही उनके निकट सम्पर्क में कुछ अधिक रहने की प्रबल लालसा जागृत हुई। यह लालसा क्रमशः बढ़ती गयी एवं श्रीगम्भीरचन्द जी दुजारी भी इन्हें बराबर भाईजीके पास रहने की प्रेरणा देते रहे। उनकी चेष्टा से ये छुट्टी लेकर बैसाख शुक्ला 7 सं० 1986 (15 मई, 1929 ) को गोरखपुर पधारे। लगभग डेढ़ महीने भाईजीके पास रहनेका दुर्लभ सुयोग प्राप्त हुआ उस समय गोरखपुरमें साधन-समिति का गठन होकर उसके नियमों का बड़े उत्साह से पालन हो रहा था। ये भी उसमें सम्मिलित होकर दृढतापूर्वक नियमों का पालन करने लगे इस छोटी-सी अवधि में भाईजी के भगवत् सम्बन्धी प्रौढ़-विचारों एवं अनुभवों को जानने तथा उनके भगवन्मय जीवन को अत्यन्त निकट से देखने का अवसर इन्हें प्राप्त हुआ। उनके लोकोत्तर व्यक्तित्व का मनपर ऐसा प्रभाव पड़ा कि दस-पन्द्रह दिन के बाद ही इन्होंने यह निर्णय ले लिया कि सब कुछ छोड़कर भाईजीके चरणोंमें ही रहा जाय और शेष जीवन इन्हीं की छत्रछायामें बिताया जाय। इन्होंने अपनी अभिलाषा आग्रहपूर्वक भाईजीके समक्ष रखी। भाईजीने इन्हें कहा कि आपका मन दृढ़ हो एवं पिताजी आज्ञा दें तो आप 'कल्याण' के सम्पादन विभागमें आ सकते हैं।

यद्यपि ऐसे निर्णय को क्रियान्वित करना कठिन होता है, पर दृढ़ रहने से भगवत् कृपा सहायता करती ही है। वही हुआ और पौष सं० 1989 में ये बीकानेर राज्य का उच्च पद छोड़कर सपत्नीक भाईजी के पास स्थायी रूप से रहने के लिये आ गये।

गोस्वामीजी का सहयोग पाकर भाईजी को बहुत अधिक प्रसन्नता हुई। समाजमें भगवद्भक्ति एवं भगवन्नाम का प्रचार करने के लिये तथा जन-जीवनमे आध्यात्मिकता एवं नैतिकता की प्रतिष्ठा के लिये बाबूजी सतत प्रयत्नशील थे और इस लक्ष्य की और आगे बढाने के लिये अन्य अनेक साधनों के साथ-साथ सबसे सशक्त सहायिका थी 'कल्याण' मासिक पत्रिका। कल्याण मासिक पत्रिका केवल हिन्दीमें निकलती थी। गोस्वामीजी के शुभागमन से अब अंग्रेजी भाषा की भी एक मासिक पत्रिका निकलने लगी। इसका नाम था ‘कल्याण- कल्पतरु’। 'कल्याण- कल्पतरु' का भी उद्देश्य वही था, जो 'कल्याण' का था, बस, अन्तर केवल भाषा का था। गोस्वामी जी हिन्दी संस्कृत एवं अंग्रेजी के प्रकाण्ड पण्डित थे। इन तीनों भाषाओं के व्याकरणपर गोस्वामीजी का असाधारण अधिकार था।

'कल्याण- कल्पतरु' का प्रकाशन सन् 1934 ई० से प्रारम्भ हुआ था। गोस्वामीजी 'कल्याण- कल्पतरु' के प्रधान सम्पादक तो थे ही, 'कल्याण' हिन्दी मासिक पत्रिकामें भी भाईजीको सहयोग देने लगे और सन् 1939 ई० से 'कल्याण' के सहायक सम्पादक के रूपमें उनका नाम छपने लगा। भाईजी के नित्यलीलामें लीन हो जाने के उपरान्त 'कल्याण' के सम्पादन का कार्यभार गोस्वामी जी पर ही आ गया। अब 'कल्याण' और 'कल्याण- कल्पतरु दोनों पत्रिकाओं का कार्य गोस्वामीजी को सँभालना पड़ता था। गोस्वामीजी के सम्पादकत्वमें 'कल्याण' के तीन विशेषांक प्रकाशित हुए श्रीरामांक, श्रीविष्णु अंक और श्रीगणेशांक। सामग्री और सुसज्जा की दृष्टि से ये तीनों विशेषांक ठीक वैसे ही थे जैसा भाईजी के सम्पादकत्वमें अनेक विशेषांक प्रकाशित होते रहे हैं। गोस्वामीजी के सम्पादकत्वमें भी 'कल्याण' की गौरवमयी परम्परा और आध्यात्मिक गरिमा अक्षुण्ण रही।

भाईजीके महाप्रस्थानके उपरान्त 'कल्याण' के सम्पादन का भार सँभालने पर उन्होंने जो निवेदन लिखा, उसमें उनके हृदय का एक अत्यन्त उज्ज्वल रूप देखने को मिलता है। निवेदनमें उन्होंने लिखा था— परम भागवत श्रीपोद्दारजी के पार्थिव देह त्यागकर नित्यलीलालीन हो जाने से 'कल्याण' के सम्पादन का भार मेरे कंधों पर आ पड़ा है, जिसे वहन करनेमें मैं अपने को सर्वथा अक्षम अनुभव करता हूँ। अबतक तो 'कल्याण' का सारा भार श्रीपोद्दारजी अकेले ही वहन करते थे मेरा नाम तो उन्होंने शीलवश मुझे प्रोत्साहन देने और मेरी सम्मान की वासना को पूर्ण करने के लिये ही अपने गौरवशाली नामके साथ जोड़ दिया था मेरे अन्दर न तो साधना का बल है, न आध्यात्मिक अनुभव है, न त्याग है, न तप है, न दैवी सम्पदा है, न प्रौढ विचार है, न वैसा शास्त्रों का अध्ययन एवं मनन है और न मेरी लेखनीमें ही शक्ति है। ऐसी दशामें 'कल्याण' जैसे पत्र के सम्पादकमें जैसी और जितनी योग्यता होनी चाहिये, उसका मैं अपने अन्दर सर्वथा अभाव देखता हूँ। 'कल्याण' की सेवा का मैं अपने को सर्वथा अनाधिकारी मानता हूँ। पर परम श्रद्धेय भाईजी जैसे परम स्वजन के प्रति अपने कर्तव्य निर्वाह की भावना से 'कल्याण' के कार्य को किसी रूपमें सँभाल रहा हूँ। वास्तवमें 'कल्याण' के कार्य को मैं भाईजी के द्वारा ही किया हुआ अनुभव करता हूँ। पद-पद पर वे अपने चिन्मय रूप से इसकी सँभाल करते हैं, अन्यथा मुझ जैसे अयोग्य, अल्पज्ञ, साधनहीन तुच्छ व्यक्ति द्वारा यह महान् कार्य सम्पन्न होना सर्वथा असम्भव है मैं स्वयं आश्चर्यचकित हूँ कि कैसे क्या कार्य हो जाता है। उनकी पद-पद पर सँभाल को देखते हुए मन को विश्वास नहीं होता कि श्रीभाई जी 'कल्याण' से पृथक् हो गये हैं। मैं तो यह मानता हूँ कि 'कल्याण' उनका है और वे 'कल्याण' के हैं, या यों कहें कि वे 'कल्याण' स्वरूप ही हो गये हैं। हमारा विश्वास ही नहीं, अनुभव है कि श्रीभाई जी परोक्ष रूपमें आज भी 'कल्याण' को सँभाल रहे हैं और इसी कारण इसका कार्य सुचारु रूप से चल रहा है।

श्रीरामचरितमानस के बारेमें अब तो यह बात प्रायः कही सुनी जाती है कि यदि इस ग्रन्थ की रचना का श्रेय गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी को है तो इस ग्रन्थ का नगर-नगर, ग्राम-ग्राम पहुँचाने का श्रेय गीताप्रेस के माध्यम से भाईजी को है। गीताप्रेस से रामचरितमानस को प्रकाशित करने के पहले भाईजी ने मानस पाठ का संशोधन गोस्वामीजी से करवाया। गोस्वामीजी को इस संशोधन कार्य में महत्त्वपूर्ण सहयोग मिला, हिन्दी के विद्वान् श्रीनन्ददुलारे जी बाजपेयी से। फिर स्वयं भाईजी ने मानस का हिन्दीमें अर्थ लिखा । मलीहाबाद स्थित मानसकी प्रति, राजपुर स्थित अयोध्या काण्ड की प्रति, दुलही ग्राम स्थित सुन्दर काण्ड की प्रति श्रावण कुञ्ज (अयोध्या) स्थित बालकाण्ड की प्रति, गोलाघाट (अयोध्या) स्थित मानस की प्रति तथा और भी कुछ प्रतियाँ, इन सभी प्रतियों का तुलनात्मक अध्ययन करके ही गोस्वामीजी ने मानसका पाठ संशुद्ध किया था। आज गीताप्रेस से मानसका जो पाठ प्रकाशित हो रहा है, उसे प्रस्तुत किया गोस्वामीजी के अध्ययनशील व्यक्तित्वने ही।

गोस्वामी जी अनुवाद एवं सम्पादन के कार्य में अधिक व्यस्त रहा करते थे, अतः कई-कई दिन तक के भाई जी से मिल नहीं पाते थे भाईजी के सेवा परायण नित्य परिकर भाई श्रीकृष्णचन्द्रजी ने गोस्वामी जी से कहा– आपको दिनमें कम-से-कम एक बार भाईजी के पास जाना चाहिये। न जाने कितने लोग दूर-दूर के स्थानों से मिलने के लिये आते थे और आप यहाँ रह करके भी बाबूजी से नहीं मिलते ?

गोस्वामीजीने मधुर स्वरमें उत्तर दिया– यदि मैं मिलने जाता हूँ तो कम-से-कम आधा घंटा समय लग ही जायगा। इस आधे घंटे का उपयोग यदि मैं उनके बतलाये हुए कार्य को करनेमें लगाऊँ तो कितना सुन्दर हो ? उनके द्वारा निर्दिष्ट कार्य पहले ही पूरा नहीं हो पाता। यदि मैं प्रतिदिन उनके पास जाने लगूँ तो जाने से उनके कार्य की ही हानि होगी। मैं अपने मन की बात कैसे समझाऊँ ? उनका दर्शन और उनका सामीप्य कौन नहीं चाहता ? उनके दर्शन और संभाषण से मुझे सुख मिलेगा, परंतु इस सुख से अधिक सुखप्रद है उनकी आज्ञा का पालन। मेरी आन्तरिक चाह है कि उनका कार्य पूर्ण हो। गोस्वामीजी के उत्तर को सुनकर भाई श्रीकृष्णचन्द्र मौन हो गये।

सन् 1959 ई० के आस-पास एक बार बाबा ने गोस्वामीजी के पास एक सन्देश भिजवाया। इस संदेश को सूचना कहना चाहिये। सूचना यह थी कि बीकानेर नरेश महाराजा श्रीगंगासिंहजी का लीला प्रवेश हो गया है। जब गोस्वामीजी बीकानेर के प्रशासन विभागमें कार्य करते थे तो उनका महाराजा श्रीगंगासिंहजी से निकट सम्पर्क रह चुका था। इस सूचना को पाकर गोस्वामीजी को आनन्द हुआ, परंतु आनन्द से अधिक आश्चर्य हुआ । आश्चर्य हुआ यह सोचकर कि उनका निधन तो कई वर्ष पहले हो चुका था और श्रीराधाकृष्ण लीला राज्यमें उनका प्रवेश अब हुआ और यह हुआ तो किस पुण्य अथवा साधना अथवा कृपाके फलस्वरूप हुआ ? गोस्वामीजी को ज्ञात था कि महाराजा श्रीगंगासिंह जी तो राजसी ठाट-बाट के मध्य जीवन व्यतीत करनेवाले मात्र एक श्रेष्ठ हिन्दू नरेश थे। गोस्वामीजीने अपने आश्चर्य को व्यक्त किया तो बाबा ने बतलाया कि महाराजा श्रीगंगासिंहजी को अपनी किसी साधना के फलस्वरूप यह स्थिति प्राप्त नहीं हुई, अपितु यह तो वस्तुतः श्रीपोद्दार महाराज से होने वाले सम्पर्क एवं सम्बन्ध का सुन्दर परिणाम था। इस तथ्य को सुनकर गोस्वामी जी की भाईजी के प्रति आन्तरिक श्रद्धा-भावना कितनी पुष्ट और प्रफुल्ल हुई होगी, यह कल्पना से परे की बात है।

गोस्वामी जी गीताप्रेस से प्रकाशित होने वाले 'कल्याण' और 'कल्याण- कल्पतरु' के सम्पादकीय विभागमें कार्य करते थे, केवल सेवा-भाव से भावित होकर। द्रव्यार्जन का उद्देश्य तो रंचमात्र भी नहीं था। इसके बाद भी गीताप्रेस की ओर से जीवन-निर्वाह के लिये यत्किंचित् मिलता ही था।

गोस्वामीजी का कण्ठ बड़ा सुरीला था। वृद्धावस्थामें भी उनके गायन का लालित्य बना रहा। गीतावाटिकामें प्रायः प्रतिदिन ही बाबूजी का प्रवचन एक घंटे प्रातःकाल हुआ करता था। बाद के वर्षोंमें तो गोस्वामी जी को समय कम मिला करता था, परंतु गीतावाटिका के आरम्भिक वर्षोंमें इस प्रवचनके पूर्व गोस्वामीजी एक भक्ति-पदका गायन किया करते थे। जब तीर्थ-यात्रा-ट्रेन गयी थी, तब उस ट्रेनमें भाईजी के साथ गोस्वामीजी भी गये थे जहाँ-जहाँ ट्रेन पहुँचती थी, वहाँ-वहाँ बाबूजी का स्वागत होता था और उपस्थित भक्तों के मध्य भाईजी को प्रवचन भी देना पड़ता था। वहाँ भी गोस्वामी जी प्रवचन के पूर्व पद गाया करते थे। गोस्वामीजी के सामने प्रलोभन कम नहीं आये सबसे बड़ा प्रलोभन था शंकराचार्य पदका। श्रीजगन्नाथपुरी स्थित श्रीगोवर्धनपीठ के पीठाधिपति अनन्त श्री विभूषित शंकराचार्य पूज्य स्वामी श्रीभारतीकृष्णतीर्थ जी महाराज ने गोस्वामीजी की साधुता और विद्वत्ता से प्रभावित होकर उन्हें अपना उत्तराधिकारी मनोनीत करने की अभिलाषा व्यक्त की।

शंकराचार्य-पद का प्रस्ताव ज्यों ही सामने आया, त्यों ही गोस्वामीजी के अन्तरमें धर्म-संकट की विषम स्थिति उत्पन्न हो गयी। पूज्य श्रीशंकराचार्य जी अपने धर्माचार्य हैं, वे नित्य परम वन्दनीय हैं, ऐसे गौरवपूर्ण शंकराचार्य-पद के लिये चयन उनका कृपा प्रसाद ही है, उनका संकेत मात्र ही आदेश के समकक्ष है और रुचि देखकर इस प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार कर लेना चाहिये था, परंतु गोस्वामीजी ने इस प्रस्ताव को स्वीकार करनेंमें अपनी विवशता व्यक्त कर दी।

गोस्वामीजी की सुदृढ़ धारणा थी कि शंकराचार्य-पद के मूलमें जो आदि-विभूति हैं, उन आदि शंकराचार्य जी द्वारा धर्म-संस्थापन का जो महान् कार्य उस समय हुआ था, वही महान् कार्य इस समय अब भाईजी के द्वारा हो रहा है।धर्म की ग्लानि को दूर करने के लिये एवं सामाजिक प्रश्नोंपर
व्यवस्था देने के लिए जैसा पावन कार्य भाई जी द्वारा हो रहा है इतना ही नहीं, उनके द्वारा जैसे विशाल श्रेष्ठ साहित्यकी सृष्टि हुई है तथा उनकी जैसी महाभावमयी भागवती स्थिति है, उन सबको देखकर यही लगता कि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य जैसे धर्म-संस्थापक आचार्य की, मनु-याज्ञवल्क्य जैसे स्मृतिकार मुनियोंकी, तुलसीदास-सूरदास जैसे महाभक्त कवि एवं चैतन्यमहाप्रभु , वल्लभाचार्य जैसे रसज्ञ महान् विभूतियों की परम्परा में भाईजी भी परिगण्य हैं।

बाबा गोस्वामीजी की आस्थाओं की बड़ी सराहना किया करते थे इस सम्बन्धमें एक बड़ा सरस प्रसंग षोडश गीत को लेकर है। दसवें पद की छठवीं पंक्तिमें नित्य-निकुञ्जेश्वरी श्रीराधा की उक्ति है—
आठों पहर बसे रहते तुम मम मन-मन्दिरमै भगवान।
बाबाके मनमें ऐसा भाव स्फुरित हुआ कि इस पंक्ति में भगवान् शब्द के स्थान पर कोई अन्य शब्द अर्थात ऐश्वर्य भाव से रहित प्रेमिल होता तो पद की भावमयता और भी सरस हो जाती। बाबा की तथा भाईजी, दोनों की ही स्पष्ट मान्यता है कि नित्य निकुजेश्वरी श्रीराधा एवं नित्य-निकुञ्जेश्वर श्रीकृष्ण साक्षात् भगवती - भगवान् हैं, परंतु परम प्रेमके मधुर राज्यमें उनकी यह भगवत्ता प्रसुप्त रहती है। इन परस्पर नित्य परम प्रेमी-प्रेमास्पद युगल का जो परम मधुर प्रेम - सिन्धु है, उस सिन्धुके अतल तलमें उनकी भगवत्ता छिपी रहती है उस भगवान् की अभिव्यक्ति क्वचित् ही होती है और होती है तभी, जब कभी किसी लीला को सम्पन्न करा देनेंमें उस भगवान् की आवश्यकता हो। कभी-कर्म लीला को सम्पन्न करा देने के लिये ही ऐश्वर्य शक्ति भगवत्ता को किंचित् सेवा करने का अवसर मिल जाता है, अन्यथा वह भगवत्ता सर्वथा-सर्वथा प्रसुप्त प्रच्छन्न रहती है षोडश गीत सच्चिन्मय प्रेम-राज्यकी परम सरस वस्तु है, अतः बाबा ने अपनी भावना को समझाते हुए भाईजी से कहा- पंक्ति में 'भगवान' शब्द के स्थान पर यदि कोई अन्य सरस शब्द प्रयुक्त हो तो इस पद की सरसता और भी अधिक समृद्ध हो जायेगी।

भाईजी ने कहा-- आप जैसा कहें, जो भी कहें, मैं वैसा ही कर दूँगा।

बाबा के मनमें भी उस समय जो पंक्ति स्फुरित हुई, वही
पंक्ति बाबा ने बाबूजी को बता दी–
‘आठों पहर सरसते रहते तुम मन सरवरमें रसवान’।

भाईजीने बाबा के सुझाव की बड़ी सराहना की और यह पंक्ति ज्यों-की-त्यों स्वीकार कर ली। पदमें पुरानी पंक्ति के स्थान पर इस नवीन पंक्ति को रख दिया भाई जी इस परिवर्तन से प्रसन्न थे ।

फिर यह बात बाबा ने गोस्वामीजीको बतलायी।
गोस्वामीजी ने विनम्र शब्दोंमें कहा– बाबा ! क्या यह परिवर्तन आवश्यक है ?

बाबा ने गोस्वामीजी को अपनी भावना बतलायी, जिस प्रकार उन्होंने भाईजी को बतलाया था। यह बात नहीं कि गोस्वामी जी इस भाव गरिमा को समझ नहीं रहे हों। ऐसी समझ होने के बाद भी अत्यधिक दैन्य के साथ गोस्वामी जी अपने मनकी बात कहने लगे-- बाबा ! मैं आपकी मान्यता तो सर्वांश में स्वीकार करता हूँ पर मेरे मनमें भी एक छोटी बात है अपनी आस्था के अनुसार मैं षोडश गीत को और उसकी शब्दावली को साधारण स्तर की वस्तु नहीं समझता। ये पद मात्र काव्य-रचना नहीं हैं। श्रीभाईजी को भाव-समाधि की स्थितिमें जैसी लीला और जैसे उद्गार उनके दृष्टि पथ पर एवं श्रुति पथ पर आविर्भूत हुए, वे ही किसी अचिन्त्य कृपा से इन पदों की शब्दावली की सीमामें सिमट आये हैं। षोडश गीत का सम्बन्ध उस भाव-समाधि की स्थिति से होने के कारण इनमें किसी प्रकार का संशोधन परिवर्तन मुझे जँच नहीं रहा है। मेरे विचार से मूल पंक्ति को ज्यों-का-त्यों रहने देना चाहिये।

बाबा को गोस्वामीजी के विचार बड़े प्रिय लगे और इन विचारों को बाबा ने हृदय से सम्मान दिया। तदुपरान्त उस दसवें पदमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन की बात समाप्त हो गयी। हाँ, बाबूजी ने इतना अवश्य कर दिया कि बाबा द्वारा बतलायी गयी पंक्ति को एक दूसरा पाठ' के रूपमें स्वीकार कर लिया। यह दूसरा पाठ भी षोडश गीत के दसवें पद के अन्तमें छपा रहता है।

गोस्वामीजी की धोती-कुर्ते की साधारण पोशाक एवं उनके सहज व्यवहार को देखकर कोई यह कल्पना नहीं कर सकता था कि ये संस्कृत, हिन्दी एवं अंग्रेजी के प्रकाण्ड पंडित हैं। इनका सबके साथ सरल एवं निष्कपट व्यवहार था । ऐसा लगता था कि भाईजी के सुमधुर व्यवहार की छाया इन पर भी पड़ी थी। ये आवश्यकता से अधिक नहीं बोलते थे, पर मिलने पर भी सभी से सुख दुःख की बात अवश्य पूछते थे। स्वयं की प्रशंसा इनके मुँहसे कभी नहीं सुनी गयी बल्कि इनके सामने कोई उनकी प्रशंसा करता तो संकोचमें पड़ जाते एवं बड़ी विनम्रता से उसका विरोध कर देते। इनके निकट सम्पर्कमें आने वाले इनके व्यवहार से प्रभावित हो जाते थे

अपने जीवन की अन्तिम अवधिमें गोस्वामी जी पाँच-छः मास बहुत अधिक अस्वस्थ रहे। गीतावाटिका के अति समीप एक मकानमें गोस्वामी जी रहा करते थे। उनकी व्याधि और पीड़ा को देखकर बाबा उन्हें गीतावाटिका ले आये। गीतावाटिकाके जिस भवनमें भाईजी रहा करते थे उसी भवन के, एक कमरेमें गोस्वामीजी को रखा गया। गोस्वामीजी की चिकित्सा एवं सँभाल पूर्ण तत्परता के साथ होने लगी। रुग्ण शय्या पर पड़े हुए गोस्वामीजी का शरीर अत्यधिक कष्ट से पीड़ित था। रुग्ण गोस्वामीजी की चिकित्सा और परिचर्यामें जितना समय और जैसा ध्यान बाबा ने दिया, उसको देखकर विस्मय होता है। इस कष्ट की स्थितिमें भी गोस्वामीजी के अधरों पर एक ही वाक्य था– नाथ ! तुम्हारी ही इच्छा पूर्ण हो।

गोस्वामीजी की भीषण रुग्णता को देखकर बाबा ने कहना आरम्भ कर दिया था कि अब चलाचली का मेला है और गोस्वामी जी अधिक नहीं रह पायेंगे। एक बार परिचर्या-रत व्यक्तियों को ऐसा लगा कि गोस्वामी जी सम्भवतः करवट बदलना चाहते हैं अथवा बोलकर कुछ कहना चाहते हैं। उन व्यक्तियों ने पूछा– आप क्या चाहते हैं ?

उनसे गोस्वामीजीने कहा–मैं कुछ नहीं चाहूँ, बस, यही चाहता हूँ।

असह्य वेदना के होते हुए भी गोस्वामीजी ने यह नहीं कहा कि उन्हें औषधि अथवा उपचार की आवश्यकता है। कष्ट की अधिकता को देखकर यदि कोई सहानुभूति दिखलाता तो गोस्वामीजी यही कहा करते थे– प्रभुका प्रत्येक विधान मंगलमय है। इस रुग्णतामें भी प्रभु का मंगल स्पर्श क्रियाशील है और उसी का अनुभव होता रहता है।

गोस्वामीजी ने एक स्थान पर स्वयं लिखा है— मेरा श्रीभाईजी के साथ चालीस वर्ष से ऊपर का सम्पर्क, मेरे जीवन की एक अमूल्य निधि है, जो मुझे अपने जन्मार्जित सुकृतों के फलस्वरूप उन्हीं की अहैतुकी कृपासे अनायास प्राप्त हुई थी। इस अवधिमें उन्होंने जैसा अद्भुत स्नेह दिया और जिस प्रकार मेरा लाड रखा, उसे शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। उनके इस ऋण से मैं जन्म-जन्मान्तरमें भी उऋण नहीं हो सकता और न होना चाहता हूँ। भव सरिता की प्रबल धारामें बहते हुए मुझ पामर को उन्होंने अपनी सहज कृपा से उबार लिया और भगवत् कृपा का अधिकारी बना दिया। मेरी त्रुटियों की ओर कभी ध्यान नहीं दिया और मेरे द्वारा उन्हीं की प्रेरणासे हुए तनिक-से भी अनुकूल आचरण की भूरि-भूरि प्रशंसा की। वे मेरे बड़े भाई, सखा एवं स्वामी ही नहीं, मेरे पथ-प्रदर्शक, जीवन-सर्वस्व थे और हैं। उनकी स्मृति मात्रसे हृदय भर आता है। बस, शेष जीवन श्रीभाई जी और उनके अपने श्रीराधामाधव की स्मृतिमें बीत जाय, यही अभिलाषा है।

गोस्वामीजी रुग्ण शय्या पर पड़े-पड़े ही कमरेकी खिड़की से जब-तब भाईजी की पावन समाधि का दर्शन कर लिया करते थे। यह समाधि इत्र मिश्रित पीत-मिट्टी से पुती रहती है महाप्रस्थान करने के कुछ दिनों पूर्व गोस्वामीजीने समीपस्थ स्वजनों के समक्ष अपनी अन्तिम अभिलाषा व्यक्त करते हुए कहा -- मेरे जीवनधन श्रीभाईजी की पावन समाधि पर जो पीली मिट्टी पुती हुई है, वह मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण के पीत दुकूल का प्रतीक है तथा मेरे प्राणवल्लभ की पावन स्मृति को सतत सजीव बनाये रहती है। मेरे शवका अन्तिम स्नान उस पवित्र मिट्टीको धोकर एकत्रित किये गये जल से ही करवाया जाये।

सं० 2031 वि० बैशाख मासके शुक्ल पक्षकी अनन्त चतुर्दशी तिथि (5 मई 1974) के दिन गोस्वामीजी के जीवनका पटाक्षेप हो गया। गोस्वामीजी इस भूतलपर लगभग 74 वर्ष रहे।

इनके कोई सन्तान नहीं थी कुछ समय बाद इनकी धर्मपत्नीका बीकानेरमें देहान्त हो गया ।