हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 22 Shrishti Kelkar द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 22

नमक सत्याग्रहमें जाने से श्रीसेठ जी ने रोका

बैशाख कृ० १ सं० १९८७ (अप्रैल १९३०) को कानपुर के श्रीगणेश शंकर जी विद्यार्थी सम्पादक 'प्रताप' गोरखपुर पहुँचे। वे नमक सत्याग्रह करने के लिये बाबा राघवदासजी के निमन्त्रण पर पडरौना जा रहे थे। उन दिनों नमक सत्याग्रह जोर से चल रहा था। श्रीभाई जी को गाँधीजी ने लिखा ‘तुम मेरे पास आ जाओ।’ कई मित्रों ने इस सत्याग्रह में सम्मिलित होने के लिये आग्रह किया। श्रीभाईजी की भी इस काममें तन- मन से सहानुभूति थी। वे अपने साथ श्रीगम्भीरचन्द जी दुजारी को लेकर नमक सत्याग्रह में सक्रिय भाग लेने के लिये श्री विद्यार्थीजी के साथ पड़रौना गये। वहाँ पर जोशीले व्याख्यान होकर नमक नीलाम किया गया तो श्रीभाईजी ने भी जरा-सा नमक २५) की बोली देकर खरीदा। इस आन्दोलन में विशेष भाग लेने के लिये उन्होंने श्रीसेठजी से आग्रहपूर्वक प्रार्थना की। भाईजी ने उन्हें लिखा कि मेरे बहुत से मित्र नमक सत्याग्रहमें गिरफ्तार हुए और मैं भी इस सत्याग्रहमें सम्मिलित होना चाहता हूँ, कृपा करके आज्ञा दीजिये। श्रीसेठजी ने तुरन्त तार से उत्तर दिया कि पत्र देखो, सत्याग्रहमें सम्मिलित नहीं होना। श्रीसेठजी ने विस्तृत पत्र से उत्तर दिया जो पुस्तकमें दिये पत्र-संग्रहमें देखा जा सकता है। श्री भाईजी का हृदय अपने पैमीजनों के दुःख से द्रवित था इसलिये उनका मन पूरी तरह बदला नहीं। दस दिन बाद श्रीभाई जी श्री सेठजी के कहने से ऋषिकुल के उत्सवमें सम्मिलित होने चुरू गये। श्रीसेठ जी ने स्पष्ट आज्ञा देकर सत्याग्रहमें सम्मिलित होने से श्रीभाई जी को रोक दिया। श्रीभाई जी विनोदमें कहा करते थे कि श्रीसेठ जी के पास एक ब्रह्मास्त्र था जिसे वे भी जानते थे और मैं भी जानता था। वे उसका प्रयोग बहुत ही कम करते थे पर जब मैं अधिक आग्रह करता और उनके बिलकुल नहीं जँचती तो कह देते– “भैया मैं कहता हूँ इसे नहीं करना चाहिये।; मैं चुप हो जाता और स्वीकार कर लेता। श्री सेठजी के रोक देने से भाईजी राजनीतिमें आगे नहीं बढ़ सके।
चुरू दो तीन दिन रुककर दोनों संत श्री गम्भीरचन्द जी दुजारी के साथ बीकानेर चले गये। वहाँ उन्हीं के घर पर भोजन करके स्थानीय संत श्री लालीमाई जी के यहाँ पधारे। ये बीकानेर के एक उच्चकोटि की संत महिला थी। बीकानेर के स्त्री-समाज की सैकड़ों विधवा बहिनों का उन्होंने जीवन सुखमय बना दिया था। श्रीसेठ जी एवं श्रीभाई जी जब भी बीकानेर पधारते उनसे मिलते थे। श्रीलालीमाई जी की इन दोनोंमें बहुत श्रद्धा थी। श्रीभाई जी एक-दो दिन वहाँ रहकर श्री रामायणांक के लिये चित्र संग्रह आदि के कार्य से रतनगढ़, जयपुर होते हुए दस-बारह दिन बाद गोरखपुर लौटकर रामायणांक के कार्यमें लग गये।

भगवान् की लीलाशक्ति द्वारा अयाचित व्यवस्था
श्रीभाईजी अपने प्रवचनमें कई बार कहते कि भगवान् की लीला शक्ति इतनी विलक्षण है कि भगवान् कब, क्या संकल्प करेंगे उसकी सारी व्यवस्था पहले से ही कर देती है जिससे भगवान् का संकल्प और संकल्प पूर्ति एक ही कालमें हो जाते हैं। ऐसे कई उदाहरण श्री भाईजी के जीवन में देखने को मिलते हैं। प्रसंग सन् १९३१ का है। महामना श्री मदनमोहन जी मालवीय से भाईजी का सम्बन्ध बहुत ही निकट का था। बम्बईमें रहते समय उनके लड़कों से भी निकटता हो गई थी। उनके भतीजे श्री कृष्णकान्त मालवीय उस समय नैनी जेलमें थे। वहाँ से उनको बस्ती जेलमें भेजने का आदेश मिला। नैनी से बस्ती जाने का रास्ता गोरखपुर होकर ही है। उन्होंने भाईजी को तार दिया कि दस व्यक्तियों सहित बस्ती जाते हुए गोरखपुर स्टेशनपर शाम को पहुँच रहा हूँ, आप भोजन की व्यवस्था कर दीजियेगा। तार दस बजे करीब गीताप्रेस पहुँच गया। भाईजी उस समय गोरखनाथ मन्दिर के पास बालमुकुन्द जी के छोटे से पुराने बगीचेमें रहते थे। प्रेसवालों ने शाम को तार भाईजी के पास भेजा जब गाड़ी पहुँचनेमें करीब आधा घंटा समय बचा था। तार पढ़कर भाईजी सोचने लगे। खेद हुआ कि जब प्रेसवालो ने तार खोल लिया तो उसी समय तार भेज देते अथवा वहीं बासेमें पूड़ी-साग बनाकर स्टेशन भेज देते। अब आधा घंटेमें न भोजन बन सकता है न कोई सवारी यहाँ मिलती है। फोन उस समय था नहीं। इक्का (तांगे का पूर्वरूप) काफी दूर पैदल चलने के बाद मिलता था। एक बार सोचा पैदल ही स्टेशन चलूँ। भाईजी ने बताया भगवान् से मैंने कोई प्रार्थना नहीं की। सन १९२४ के पहले तो अपने लिये सकाम प्रार्थना या जप करने का काम पड़ा था पर उसके बाद कभी नहीं। सोच-विचारमें थे कि इतनेमें देखते हैं कि सामने से दो इक्के आ रहे हैं। इक्के वहीं आकर रुके। एक व्यक्ति मिठाई, फल, पूड़ी, साग आदि लेकर आया और बोला बाबू बालमुकुन्द जी के यहाँ आज प्रसाद था सो भेजा है। अब सारी व्यवस्था देखकर भाईजी को बड़ा आश्चर्य और प्रसन्नता हुई। सारा समान उन्हीं इक्कोंमें उस व्यक्ति के साथ अपने एक स्वजन को स्टेशन भेज दिया। गाड़ी १५-२० मिनट लेट आई। श्री कृष्णकान्त मालवीय और उनके साथियों ने भरपेट पूड़ी, मिठाई, फल खाये। भाईजी ने कहा देखिये भगवान् कैसे व्यवस्था कर देते हैं। यह सामान सुबह बना होगा या दिनमें बना होगा। अपने यहाँ एक घंटे पहले आ जाता तो सब लोग खा लेते और आधे घंटे बाद आता तो भी उनके काम नहीं आता। तार मिलते ही उसी समय पूड़ी भी, साग भी, मिठाई-फल भी और साथमें इक्के भी सब चीजों की व्यवस्था भगवान्ने ठीक समय पर कर दी। सामान भी इतना कि १०-१२ व्यक्ति भर पेट खा सकें।

अनाथ बालक को आश्रय
सन् १९३१ की बात है। एक दिन एक व्यक्ति दुःख की स्थितिमें गीता प्रेस आया। उसकी पत्नी का देहान्त हो गया था। उसके १४ साल का बालक जिसका नाम आनन्द मण्डोलिया और एक बालिका थी ८ साल की। घरमें और कोई था नहीं जो बच्चों को सँभाल सके। बच्चों को अकेला छोड़कर वह आजीविका के लिये कहीं जा नहीं सकता था। गीताप्रेस की प्रतिष्ठा उस समय दूर-दूर तक फैल चुकी थी। और कोई आश्रय न देखकर वह गोरखपुर आया और गीताप्रेस जाकर सारी स्थिति बताकर बच्चों को वहाँ आश्रय देने की प्रार्थना की। कार्यकर्ताओं ने साफ अस्वीकार कर दिया कि गीताप्रेस कोई धर्मशाला या अनाथालय नहीं है। हम यहाँ बच्चों को नहीं रख सकते। आप किसी अनाथालयमें भर्ती करा दीजिए। वह बेचारा दुःखी होकर स्टेशन चला गया। भाईजी को जब इस बात का पता लगा तो उन्होंने तत्काल स्टेशन अपना आदमी भेजकर उनको अपने निवास-स्थान पर बुला लिया। उस व्यक्ति ने वही प्रार्थना की कि आप कुछ दिनों तक बच्चों को रख लें तो मैं अपनी आजीविका का प्रबन्ध कर सकूँ। भाईजी ने बड़े प्रेम से उत्साहपूर्वक दोनों बच्चों को अपने पास रख लिया। वह व्यक्ति प्रसन्नता से बच्चों को छोड़कर चला गया। बच्चे कुछ अधिक चंचल थे। अतः उदण्डता करते रहते थे। गीताप्रेसमें सबके सामने भाईजी ने कहा कि क्या गीताप्रेस केवल बड़े-बड़े भक्तों के चरित्र और पुस्तके छापने वाली मशीनों का नाम है क्या ? क्या किसी के दुःखमें सहायता करना हमारा कर्तव्य नहीं है। इसी तरह आगे भी कई बार भाईजी ने ऐसे दुःखी-अनाथ व्यक्तियों को आश्रय दिया।

व्रज-भ्रमण
‘श्रीकृष्णांक’ की तैयारी करने के उद्देश्य से भाईजी अपने परिवार एवं बारह परिकरों के साथ चैत्र शुक्ल ९ सं० १९८८ (२० मार्च, १९३१) को व्रजयात्रा के लिये रवाना होकर अलीगढमें संकीर्तनमें सम्मिलित होते हुए वृन्दावन पहुँचे। वहाँ तीन दिन निवास करके प्रधान-प्रधान मन्दिरों के दर्शन किये और फोटो लेनेकी व्यवस्था की। प्रमुख संतों के दर्शन, वार्तालाप किया। फिर मथुरा आये एवं 'श्रीकृष्णांक' के लिये सामग्री संग्रह करने की व्यवस्था की। इसके साथ ही श्रीनन्दगाँव, बरसाना, राधाकुण्ड, कुसुम-सरोवर, गोवर्धन आदि सभी प्रमुख स्थलोंका भ्रमण किया।
लौटते समय काजिमाबादमें 'गीता-ज्ञान-यज्ञ' में सम्मिलित हुए और श्रीहरिबाबा, श्रीभोलेबाबा, श्रीअच्युतमुनि जी आदि संतों से मिले। सत्संगमें भाईजी ने नाम-महिमा के सम्बन्धमें विशेष प्रवचन दिया एवं अपने अनुभव
भी बताये।
बैशाख शुक्ल ५ सं० १९८८ (२३ अप्रैल, १९३१) को भाईजी ऋषिकेश पहुँचे और वहाँ तीन-चार दिन सत्संग की मंदाकिनीमें बाढ़ आ गयी। वहाँ से श्रीउड़ियाबाबा से मिलने काजिमाबाद पहुँचे। इस तरह भ्रमण करते हुए ज्येष्ठ कृष्ण ५ सं० १९८८ (७ मई, १९३१) को गोरखपुर पहुँचकर 'श्रीकृष्णांक' के सम्पादनमें व्यस्त हो गये।

स्वामी विशुद्धानन्दजी से भेंट
स्वामी विशुद्धानन्द जी महामहोपाध्याय पं० गोपीनाथ जी कविराज के गुरु थे। इनकी उन दिनों अध्यात्मिक जगत्में बड़ी ख्याति थी। भाईजी भी उनसे मिलने के लिये चैत्र कृष्ण १ सं० १९८८ (२३ मार्च, १९३२) को काशी गये। वे चमत्कार दिखाने के लिये बहुत प्रसिद्ध थे। सत्संग के बाद भाईजी का परिचय हुआ। उन्होंने भाईजी से कहा– कुछ कहिये। भाईजी ने कोई अन्य चमत्कार दिखाने के लिये न कहकर, भगवान् श्रीकृष्ण के दिव्य अंग सुगन्ध की अनुभूति और उनके दर्शन कराने के लिये कहा। यह सुनकर 'गंधी बाबा' (वे इसी नाम से प्रसिद्ध थे) हँसे। थोड़ी देरमें कमरा दिव्य-सुगन्ध से भर गया। उपस्थित श्रद्धालुओं ने ऐसी दिव्य-सुगन्ध का अनुभव कभी नहीं किया था। फिर भाईजी से बोले– मेरे नेत्रों की ओर देखो। भाईजी को उनके नेत्रोंमें श्रीकृष्ण के दर्शन होने लगे। थोड़ी देर बाद उन्होंने पूछा– अब इस खेल को बन्द कर दूँ ? भाईजी ने हाथ जोड़े और कहा– जैसा आप ठीक समझे। कुछ ही देर बाद नेत्रोंमें श्रीकृष्ण के दर्शन बन्द हो गये एवं कमरे की दिव्य सुगन्ध भी समाप्त हो गयी।

श्री हरिबाबा के बाँध के उत्सवमें
फाल्गुन कृष्ण ७ सं० १९९० (६ फरवरी, १९३४) को प्रातःकाल सन्त श्रीहरिबाबा अचानक भाईजी के निवास स्थान पर बिना पूर्व सूचना के पधारे। उन्होंने आकर बतलाया- बाँध पर कई वर्षों से होली पर वृहत्संकीर्तन उत्सव हुआ करता था। परन्तु जैसा लाभ होना चाहिये, वैसा दृष्टिगत न होने से तीन-चार वर्षो से वह उत्सव बन्द कर दिया गया था। जबसे संकीर्तन बन्द हुआ, तभी से आस-पास के गाँवोंमें नाना प्रकार के उपद्रव होने लगे। बहुतसे लोग व्याकुल होकर मेरे पास आये और पहले जैसा संकीर्तन-उत्सव प्रतिवर्ष आयोजन करने की प्रार्थना करने लगे। फिर उड़िया बाबा से इस विषयमें आज्ञा माँगी तो उन्होंने कहा कि संकीर्तन उत्सव अवश्य होना चाहिये। उसी दिन बाँधपर जाकर मैंने दिनमें बारह घण्टे का अखण्ड संकीर्तन प्रारम्भ करा दिया एवं आगामी फाल्गुन शुक्ल १-१५ तक (१४ फरवरी, १९३४) चौबीस घंटे अखण्ड संकीर्तन करने का निश्चय हुआ है। अधिक-से-अधिक संत-महात्माओं को इस उत्सवमें पधारने की प्रार्थना करने के लिये मैं प्रयाग होता हुआ यहाँ आपसे और श्रीसेठजी से प्रार्थना करने आया हूँ। आप अत्यधिक व्यस्त रहते हैं, अतः पत्र से प्रार्थना न करके आपकी निश्चित स्वीकृति लेने के लिये स्वयं आया हूँ। भाईजी ने अत्यन्त प्रेम से उनका आदर सत्कार किया फिर दिनमें उनके साथ श्रीसेठजी के पास जाकर सारी बातें कही। श्रीसेठजी ने कहा– अस्वस्थता के कारण मेरा आना तो संदेहास्पद है, पर भाईजी विचार रख लेंगे।
फाल्गुन के शुक्ल १२ सं० १९९० (२६ फरवरी, १९३४) को भाईजी अपने प्रेमीजनों सहित बाँध उत्सवमें सम्मिलित होने गये। अगले दिन ब्रह्ममुहूर्तमें साढ़े चार बजे भाईजी संकीर्तनमें सम्मिलित हुए। हरिबाबा उन्मत्त अवस्थामें खड़े होकर नृत्य करते हुए संकीर्तन करते थे, जिससे सभीको अद्भुत आनन्द मिलता था। वहाँसे भाईजी श्रीउड़ियाबाबा, श्रीनागाबाबा, श्रीशिवानन्दजी, श्रीकृष्णानन्दजी, श्रीभोलेबाबा, श्रीप्रभुदत्तजी ब्रह्मचारी आदि संतोंसे मिले। भाईजी उस उत्सवमें तीन-चार दिन सम्मिलित हुए एवं नाम-जप, कीर्तनकी महिमा पर उनके बड़े प्रभावोत्पादक प्रवचन हुए। चैत्र कृष्ण ३ सं० १९९० (४ मार्च, १९३४) को प्रातः गोरखपुर लौट आये।