हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 21 Shrishti Kelkar द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 21


मित्रता निभाने का एक और अनुपम उदाहरण
श्री हरिराम शर्मा की एक घटना आप पहले पढ़ चुके हैं। ये रतनगढ़ निवासी थे और बम्बई में भाईजी के मित्र बन गये थे। भाईजी ने इन पर अनेकों बार ऐसे-ऐसे उपकार किये थे, इस प्रकार के संकटों से निवारण किया था कि जिसका बदला वे प्राण न्यौछावर करके भी नहीं चुका सकते थे।
भाईजी की कृपापूर्ण उदारता ही उनकी आजीविका का एक बड़ा अवलम्बन था। परन्तु संग के असर की बलिहारी है। रतनगढ़ जाकर वे कुसंगमें पड़ गये। फाल्गुन सं० १९८५ (मार्च, १९२६) में बीमार पड़कर मरणासन्न हो गये और लोगों के बहकावे में आकर कई व्यक्तियों के सामने भाईजी से दो हजार रुपये हिसाब में लेने बाकी बताये और भाईजी को पत्र भी लिखा। इसके बाद उनकी मृत्यु हो गयी। भाईजी सबको यदि सत्य बात बतलाते तो सब उस पर विश्वास करते, परन्तु हरिराम पर कलंक का टीका लग जाता। भाईजी नहीं चाहते थे कि उनके मित्र को कोई झूठा समझे। रुपयों की छूट उस समय भाईजी के पास थी नहीं, अतः अपनी रतनगढ़ की पैतृक सम्पत्ति बेचकर उसके घर वालों को दो हजार रुपये देने का तय किया। यह बात भाईजी के परम मित्र श्रीरामकृष्ण डालमिया को मालूम हुई। उन्होंने तुरन्त पत्र लिखा कि हरिराम को झूठे हिसाब के रुपये देना एक प्रकार का अन्याय है। और आपको अपनी सम्पत्ति कदापि नहीं बेचनी चाहिये। यह तो आपकी उदारता का सर्वथा दुरुपयोग है, पर भाईजी ने बड़ा नम्र उत्तर दिया कि भैया आज हरिराम संसारमें नहीं है, मैंने उसे अपना मित्र माना था। अब मैं कह दूँगा तो सब लोग उस पर कलंक लगायेंगे कि जिसने आजीवन हरिराम का पालन किया उसी पर हरिराम ने मरते समय असत्य आरोप लगाया। यदि मैं एक ब्राह्मण की तुच्छ सेवा कर दूंगा तो मेरी क्या हानि होगी। लोग मेरी बदनामी ही तो करेंगे सो वह तो मेरी प्रिय वस्तु है। मित्र के कलंक को अपने पर लेने में मुझे सुख मिलेगा। मैंने तो ये रुपये देने का निश्चय कर लिया है।
इस तरह रुपये देने का उदाहरण शायद खोजने पर भी न मिले।

साधन-समिति की स्थापना

उन दिनों भाईजी प्रतिदिन प्रातःकाल सत्संग कराया करते थे। वैशाख शुक्ल ४ सं० १८४ (५ मई, १२७) को भाईजी ने सात-आठ प्रेमीजनों के सामने कहा कि साधकों को साधन करने के लिये कुछ नियम बनाकर उनका पालन करना अत्यावश्यक है। बिना साधन के शान्ति नहीं मिलती। अतः आप लोग तैयार हों तो एक साधन-समिति बनाकर उसके सदस्यों के लिये कुछ नियम बनाये जायँ। नियमों का पालन आदरपूर्वक कड़ाई के साथ किया जाय, जिससे मानव जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति शीघ्र हो।
सब लोग सहर्ष राजी हो गये। परामर्श के बाद पन्द्रह नियम और बारह उपनियम बनाये गये।

वे नियम इस प्रकार थे–
(१) आहार– नमक के सिवा अन्य सब मसालों का त्याग, भोजन अधिक-से-अधिक पाँच वस्तुओं के द्वारा बना होना चाहिये। जैसे आटा या चावल, घृत, दाल, नमक, साग या दूध में से कोई एक वस्तु।
(२) वस्त्र– अपने पहनने के लिये देशी सूत के हाथ से बुने हुए अधिक-से-अधिक चार वस्त्र (लंगोटा और अंगोछा के अतिरिक्त)
(३) जप– प्रतिदिन कुछ भी खाने से पहले तीन माला 'हरे राम' षोडश नाम वाले महामंत्र की अवश्य तथा सोने से पहले कुल १४ माला पूरी कर लें।
(४) सदाचार– क्रोध सर्वथा न करे और क्रोध की कोई क्रिया तो सर्वथा न होने पावे।
(५) ब्रह्मचर्य– अपनी धर्मपत्नीसे एक महीनेमें एक बार से अधिक स्त्री सहवास न करें। पर स्त्री को बुरी दृष्टि से न देखें।
(६) उपासना– नित्यप्रति नियत समय तथा नियत स्थान पर एक घंटे के लिये प्रार्थना में अवश्य उपस्थित हों।
(७) आदेश– समिति के आदेश बिना किसी प्रश्न के अवश्य पालन करें ।
੧. समिति के आदेशानुसार प्रायश्चित करना। ੨. समिति की बात बिना आज्ञा किसीसे प्रकट न करना ।
(८) श्रीमद्भगवद्गीता के एक अध्याय का अर्थ समझते हुए पाठ करना।
(९) सन्ध्या, गायत्री तथा स्वाध्याय नियमपूर्वक करना। संध्या तथा तर्पणमें कम-से-कम आधे घंटे तक एक आसन पर बैठकर श्रद्धा और आदरपूर्वक पंचपात्रों के द्वारा संध्या करना। संध्या प्रातःकाल एवं सायंकाल के उत्तम समय पर ही करना।
(१०) प्रार्थना नित्य प्रति आधे घंटे एकान्त में रहना।
(११) सत्य भाषण– भूतकाल एवं वर्तमान कालके वचन जान करके असत्य न बोलना।
(१२) कम-से-कम पाँच मिनट व्यायाम नित्य करना।
(१३) श्रीभगवान् को सर्वत्र देखने की चेष्टा करना जिन-जिन से व्यवहार करना हो उनमें विशेषरूप से भगवान् को देखना।
(१४) श्रीभगवान् को प्रत्येक पन्द्रह मिनट पर स्मरण और स्मरण होने पर न भूलने की चेष्टा करना।
(१५) नियमों की डायरी नित्यप्रति सोने से पहले भरना।

नियमों के अतिरिक्त उपनियम भी ये थे–
१-दभ न करना
२-मन, वाणी और कर्मसे किसी का अनिष्ट न करना ३-दिल्लगी का त्याग
४-अधिक न बोलना
५-मादक वस्तुओं का त्याग
६-सबसे प्रेम करना
७-जाति, वर्ण, धर्म, देश के विचारों से तथा बीमारी के कारण किसी से घृणा न करना
८-दूसरे के दोष न देखना
९-शारीरिक परिश्रम करना
१०-जहाँ तक बने अपना काम स्वयं करना
११-किसी से सेवा न कराना
१२-नीचे लिखे गये अवसरों में भगवत् स्मरण करना--
प्रातः उठते समय, निद्रा लेते समय, स्नान करते समय, कुल्ला करते समय, भोजन करते समय, जल पीते समय।
बाबू इस समिति के सर्वेसर्वा पू० श्रीसेठजी एवं श्रीभाईजी थे।

इसके प्रमुख सदस्य थे—
श्रीगंगाबाबू, श्रीशुकदेवजी, श्रीघनश्याम, श्रीबिहारी लालजी झुनझुनवाला, पं० लाधूरामजी शर्मा, पं० श्रीचिम्मनलालजी गोस्वामी, श्रीगंभीरचन्दजी दुजारी, श्रीनन्दलालजी जोशी, श्रीशिवकृष्णजी डागा, श्रीरामेश्वरजी बाजोरिया, श्रीरामकृष्णजी काबरा, श्रीमदनलालजी चूड़ीवाला, श्रीईश्वरदासजी डागा, श्रीरामजीदासजी बाजोरिया, श्रीबद्रीदासजी आचार्य, श्रीप्यारेलालजी डागा, श्रीमुरलीधरजी, श्रीवेणीमाधवजी,पं० श्रीगोवर्धनजी शर्मा

साधन समिति का नित्य कार्यक्रम होता था। सभी लोग १० मिनट गीता जी के ११वें अध्याय के ३६-४६ श्लोकों की प्रार्थना करते थे। इसके बाद श्रीभाईजीका प्रवचन होता था। उसके बाद श्रीभाईजी की रचित ‘हे स्वामी ! अनन्य अवलम्बन, हे मेरे जीवन आधार’ —(पद- रत्नाकर, सं० १४७) यह प्रार्थना होती थी।

इसके बाद श्रीभाई जी अकेले बोलकर श्रीभगवान् की आर्त प्रार्थना करते। अन्य सभी लोग उन्हीं के शब्दोंके अनुसार अपने मन को बनाने की चेष्टा करते।
इस प्रकार श्रीभाईजी की प्रार्थना का ऐसा प्रभाव हुआ कि साधन समिति के सदस्यो का सहसा थोड़े ही दिनों में एक प्रकार से सचमुच जीवन का लक्ष्य ही बदल गया। ऐसे-ऐसे उत्तम नियम समिति के प्रत्येक सदस्य अक्षरशः श्रद्धापूर्वक पालन करने की चेष्टा करते। थोड़े से नियम भंग पर कठोर-से-कठोर दण्ड सहर्ष स्वीकार कर लेते। एक दिन सभी लोग करीब आधा मिनटकी देरसे समितिमें पहुँचे। उसके प्रायश्चितके लिये सबने एक
दिन उपवास किया ।
श्रीभाईजी स्वयं उपर्युक्त नियमों का खूब कड़ाई के साथ पालन करते थे। अतः सभी अन्य सदस्यों को नियम पालन करनेमें बहुत उत्साह होता था।
गीताप्रेस द्वारा जो इतना बड़ा कार्य हुआ--सभी क्षेत्रोंमें आज इसका सम्मान है। इसमें इन सभी व्यक्तियों की त्याग, तपस्या एवं निष्ठापूर्वक लगन ने अद्भुत कार्य किया। गीताप्रेस प्रासाद के ये सभी नींवके पत्थर रहे हैं।

पुत्री का जन्म
बम्बईमें सं० १९७७ (जुलाई, १९२०) के श्रावण मासमें रामदेई बाई को प्रथम पुत्र की प्राप्ति हुई थी पर लगभग अठारह-उन्नीस मास के पश्चात ही वह भगवान् के धाम में पहुँच गया। भगवान् को भाईजी को अभी गृहस्थाश्रम में रखकर ही अपना कार्य कराना था। अतः मार्गशीर्ष कृष्ण ६ सं० १९८६ (२२ नवम्बर, १९२९) को प्रातः ब्राह्ममुहूर्तमें कन्या का जन्म हुआ, जिसका नाम सावित्री रखा गया। भाईजी जिस स्थितिमें थे, उनकी सन्तानमें विशेषता होना स्वाभाविक ही था।

प्रयाग कुम्भ के गीता-ज्ञान-यज्ञमें
कुम्भ के समय तीर्थराज प्रयागमें लाखों लोग दूर-दूर से एकत्रित होते हैं। गीताप्रेस का जो आज इतना विशालरूप है विश्व के प्रत्येक कोनेमें जहाँ भी हिन्दू निवास करते हैं, वहाँ अधिकांश घरमें गीताप्रेस की पुस्तकें देखने को मिलेगी। इतने व्यापक प्रचार-प्रसार के पीछे भाईजी का अथक परिश्रम रहा है।
गुजरात के प्रसिद्ध संत श्रीअखण्डानन्द जी महाराज (सस्तु साहित्य मण्डल के स्थापक) गोरखपुर भाईजी से मिलने आये। उन्होंने माघ सं० १८८६ वि० में प्रयागमें होनेवाले १२ वर्षीय कुंभमें गीताप्रेस द्वारा 'गीता-ज्ञान-यज्ञ' करने की प्रार्थना की। उस कार्य के खर्चके लिये उन्होंने भाईजी को एक अच्छी राशि स्वीकार करने की प्रार्थना की। गीताप्रेस के व्यापक प्रचार के लिये भाईजी ने यह भार स्वीकार किया। भगवन्नाम-प्रचार का बहुत सुन्दर अवसर देखकर वहाँ ‘गीता-ज्ञान-यज्ञ’ का आयोजन श्रीसेठ जी के परमर्श से किया गया। वे स्वयं भी पधारे एवं भाईजी भी पौष शुक्ल १३ सं० १९८६ (१३ जनवरी, १९३०) को श्री गम्भीरचन्द जी दुजारी के साथ वहाँ पहुँचे। इसका शुभारम्भ पं० मदनमोहन मालवीय के कर-कमलों द्वारा हुआ। सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ पं० विष्णु दिगम्बर जी भी पधारे थे, इनके द्वारा रात्रि के समय सुमधुर कीर्तन होता। प्रातःकाल काशीके विद्वान् श्रीमदनमोहनजी शास्त्री श्रीमद्भागवत की कथा करते एवं दिन में श्रीसेठजी का प्रवचन होता। भाईजी के भी ओजस्वी प्रवचन होते ही रहते थे। गीता प्रदर्शनी का भी आयोजन किया गया था। पं० जवाहरलाल नेहरू की माता श्रीमती स्वरूपरानी नियमित रूप से सम्मिलित होती थी। एक महीने तक यह आयोजन सफलतापूर्वक चलता रहा।

हिंदी-साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन गोरखपुर में
फाल्गुन शुक्ल १ सं० १९८६ (१ मार्च, १९३०) से अखिल भारतीय हिन्दी-साहित्य सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन गोरखपुरमें प्रारम्भ हुआ। भाईजी के मित्र एवं प्रेमी विद्वानों ने उनके साथ ही टूटे-फूटे खपरैल के मकानमें गोरखनाथ मन्दिर के पास ठहरना स्वीकार किया। इनमें मुख्य थे श्रीबनारसीदास जी चतुर्वेदी, श्रीनरोत्तम जी एवं ठाकुर शिवमूर्ति सिंह आदि। भाईजी ने उनकी सेवा का भार श्रीरामदास जी बाजोरिया को दिया जिन्होंने अपनी सेवा-आतिथ्य-सत्कार से सबको आप्यायित कर दिया। श्री बनारसीदास चतुर्वेदी तो इनकी सेवा से इतने उल्लसित हुए कि बादमें उन्होंने भाईजी को लिखा कि यदि कोई सेवा का कालेज खुले तो श्री रामजीदास बाजोरिया को उसका प्रिंसिपल नियुक्त किया जाय।

उपराम की वृत्ति की प्रबलता
बम्बई छोड़कर भाई जी गोरखपुर आये थे इस आशा से कि कुछ महीनोंमें 'कल्याण' की व्यवस्था ठीक करके फिर गंगातट पर एकान्त सेवन करना है। पर भगवान् को जगत् के सामने एक नया आदर्श रखना था कि सेवा कार्योंमें पूर्ण व्यस्त रहते हुए भी पूर्ण रूपेण लीलामें कैसे अवस्थित रहा जा सकता है। 'कल्याण' और गीताप्रेस का कार्य दिन दूना रात चौगुना बढ रहा था और इसके साथ ही बढ़ रही थी भाईजी की व्यस्तता भी। चारों ओर की परिस्थितियों के दबाव के कारण भाईजी को एक मिनट के लिये भी अवकाश नहीं था। सब होते हुए भी भाईजी की एकान्त सेवन की आन्तरिक इच्छा ज्यों-की-त्यों बनी हुई थी। 'भक्तांक' विशेषांक का कार्य पूरा करके भाईजी ने मनमें गंगातट पर जाने का विचार कर लिया और श्रीसेठजी से अनुमति लेने बाँकुड़ा गये। उनको अपने मन की सारी स्थिति समझाकर 'कल्याण' एवं गीताप्रेस का कार्य दूसरे को सँभलाने की आग्रहपूर्वक अनुमति माँगी, परन्तु श्रीसेठजी ने समझा दिया कि यह कार्य भगवान् का अपना कार्य है, इससे जगत् को बड़ा लाभ होगा। अभी तक तुम्हारे जैसा व्यक्ति तैयार नहीं हुआ है, अतः अभी तुम्हें इससे उपराम नहीं होना चाहिये। भाईजी ने अपनी इच्छा को दबाकर उनकी बात का आदर किया, पर उत्कंठा तीव्र होती गयी, अतः श्रीसेठजी को पुनः पत्र लिखा। जिसका उत्तर श्रीसेठजी ने पौष शुक्ल ४ सं० १९८६ (४ जनवरी, १९३०) को बाँकुड़ा से लिखा– 'तुमने लिखा मेरे द्वारा अधिक दिन काम होना कठिन-सा है। सो भगवान्की इच्छा और उनकी आज्ञा होने से कुछ भी कठिन नहीं है। तुमने लिखा कई दिन से मन उपराम रहता है सो ठीक है। 'कल्याण' का 'रामायणांक' बंद करने से क्या लाभ है ?......... तुम्हारे जाने के विषयमें मैं क्या लिखूँ ? मुझे तो 'प्रेस' और 'कल्याण' से संसारमें बहुत लाभ दीख रहा है। मेरी बुद्धि के अनुसार तो तुम्हें गोरखपुरमें ही एकान्तमें रहकर काम देखना चाहिये।....... यदि मेरा और तुम्हारा प्रयाग जाना हो जाय तो वहाँ पर एकान्तमें सब बातें की जा सकती हैं।

प्रयागमें जब दोनों मिले तथा सारी व्यवस्था ठीक करके माघ कृष्ण ३० सं० १९८६ (२९ जनवरी, १९३०) को जब श्रीसेठ जी बाँकुड़ा जाने वाले थे तो एकान्तमें भाईजी ने अपनी हार्दिक लालसा उनके सामने रखी। श्रीसेठजी ने बहुत प्रेम से कहा कि मेरे तो गोरखपुर के महान् कार्य को छोड़कर कहीं जाने की बिलकुल नहीं जँचती है। तुम्हारा इतना आग्रह है तो तुम्हारी प्रबल इच्छा को रोकना उचित न समझकर कुछ दिनों के लिये तुम्हें छुट्टी दी जा सकती है, पर 'रामायणांक' के सम्पादन की जिम्मेदारी तुम्हारी है, तुम चाहे जहाँ रहकर कर सकते हो।
भाईजी और श्रीसेठजी का यह प्रेमका सम्बन्ध न जाने कितनों जन्मों से चला आ रहा था। इसका पूरा ज्ञान तो उसी को होता है, जिसे उनके पूर्व जन्मोंका पता हो। भाईजी ने तो ऐसे रहस्यों को कभी खोला नहीं, परन्तु एक बार पूज्य बाबा ने बताया कि पहले के एक जन्ममें श्रीसेठ जी पिता थे और भाईजी उनके पुत्र। भाईजी उनकी बात का पूरा आदर करते थे और एकान्त सेवन की बात टल जाती।
श्रीसेठजी को इन्होंने फिर पत्र लिखा कि मेरा शीघ्र ही चित्रकूट जाने का मन है। भाईजी को श्रीसेठजीका फाल्गुन कृष्ण १ सं० १९८६ (१४ जनवरी, १९३०) का लिखा पत्र मिला जिसमें लिखा था–
फाल्गुन शुक्ल (मार्च १९३०) में तुम्हारा चित्रकूट जाने का मन लिखा तथा मेरे से सलाह पूछी सो 'प्रेस' का काम देखनेके लिये तुमको गोरखपुर रखने का विचार नहीं है। प्रयागमें अपने एकान्तमें पूरी बातें नहीं हो सकीं।........ विशेष हर्ज न हो तो होली बाद (चित्रकूट) जा सकते हो। फाल्गुन सुदीमें ऋषिकेश जाते समय तुमसे पुनः इस सम्बन्धमें निश्चय करनेका विचार है।
इसी तरह भाईजी आग्रह करते रहे और श्रीसेठजी उसे स्थगित करते गये। इस तरह का पत्राचार और मिलनेका आग्रह वर्षों तक चलता ही रहा। अत्यधिक आग्रह होनेपर कुछ दिन एकान्त सेवन के लिये कहीं चले जाते, पर भगवान् को इनके माध्यमसे जो लीला करानी थी उसके लिये इन्हें फिर प्रपंचमें ले आते।