मंटो--एक बेबाक लेखक... Saroj Verma द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

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मंटो--एक बेबाक लेखक...

मंटो एक वो नाम है,जो कि किसी परिचय या तआरुफ का मोहताज नहीं है, वें एक बेबाक कहानीकार थे, जिनकी कहानियों ने समाज को समय-समय पर आईना दिखाया,इश्क से लेकर देश के बंँटवारे तक मंटो ने अपनी कलम का जादू चलाया, यह विडंबना है कि ज़िंदगी भर अपने लिखे हुए अफसानों के लिए कोर्ट के चक्कर लगाने वाले, मुफ़लिसी में जीने वाले और समाज की नफ़रत झेलने वाले मंटो को आज जाकर पहचान मिली है,जब वें इस दुनिया में नहीं हैं,उन्होंने शोहरत की तरह ही बदनामी कमाई थी और यही उनकी रचनात्मक विलक्षणता की वास्तविक कमाई थी,उन्होंने इंसानी मनोविज्ञान का जैसा नंगा चित्रण अपनी कहानियों में बयांँ किया अगर वो बदनाम न होते तो यह उनकी नाकामयाबी मानी जाती,उनकी कहानियों में मानो लगता है कि सभ्यता और इंसान की बिल्कुल पाश्विक प्रवृत्तियों के बीच जो द्वन्द्व है, उसे उघाड़कर रख दिया गया है,सभ्यता का नकाब ओढ़े इंसानी समाज को चुनौती देती उनकी कहानियांँ बहुत वाजिब थी,जिसके लिए उन्हें कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने पड़े,लेकिन दिलचस्प है कि किसी भी मामले में मंटो को सज़ा नहीं हुई, सिर्फ एक मामले में पाकिस्तान की अदालत ने उन पर जुर्माना लगाया था, इसे भी एक विडंबना ही कहिए कि मंटो सभ्यता और संस्कृति के ठेकेदारों की नज़र में जहां एक तरफ समाज के मुजरिम थे तो वही इसी सभ्य समाज की बनाई गई अदालतों में वो सिर्फ समाज की नंगी सच्चाइयों पर लिखने वाले एक कहानीकार थे.....
मंटो का जन्म 11 मई, 1912 को लुधियाना के पास स्थित समराला में हुआ था, उनके पिता नामी बैरिस्टर थे, जो कि बाद में सेशन जज बन गए थे,मंटो पढ़ाई में काफी होशियार थे, लेकिन उर्दू में थोड़ा उस समय तक उनका हाथ तंग रहा, दो बार भर्ती परीक्षा में फेल होने के बाद उनका दाखिला अमृतसर के मुस्लिम हाई स्कूल में कराया गया,हाई स्कूल में रहते हुए ही उन्होंने अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर एक नाटक मंडली बनाई,इसके बाद उन्होंने एक नाटक के मंचन की तैयारी शुरू की, मंटो के पिता को उनका यह नाटक मंडली और नाटक मंचन करना पसंद नहीं था और जब उनके पिता को इस मंडली के बारे में पता चला तो उन्होंने मंटो का दाखिला हिंदू महासभा कॉलेज में करा दिया,अब पिता ने सोचा था कि मंटो यहां थोड़ा पढ़ाई में ध्यान देंगे, लेकिन मंटो तो बचपन से ही शरारती और जिद्दी थे,उन्होंने यहाँ भी अपनी लेखनी चलानी शुरू कर दी,इसी बीच उनकी पहली कहानी ‘तमाशा’ प्रकाशित हुई,इस बारे में जब मंटो के पिता को पता चला तो वें बहुत नाराज हुए और इस बार उन्होंने मंटो का दाखिला अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में करा दिया, यहांँ पढ़ाई के दौरान उनकी मुलाकात अली सरदार जाफरी से हुई, जाफरी वैसे तो मंटो से एक साल छोटे थे, लेकिन मंटो उन्हें अपना मेंटर मानने लगे थे, अब जाफरी का साथ मिलने के बाद मंटो की एक के बाद एक कहानियांँ प्रकाशित होने लगीं और यहीं से फिर उन्हें साहित्य जगत में एक नई पहचान मिल गई, 1935 में मंटो अलीगढ़ से लाहौर गए, लेकिन वहांँ उनका मन नहीं लगा,वहाँ से वें एक साल बाद ही लौट आए और फिर बॉम्बे(अब मुम्बई) जा पहुंँचे....
इसके बाद वह दिल्ली भी गए, जहांँ पर उन्होंने डेढ़ साल तक आकाशवाणी में काम किया, लेकिन जब वहांँ भी उनका मन नहीं लगा तो वे एक बार फिर बॉम्बे लौट आए, इसके बाद उन्होंने ‘नौकर’, ‘मिर्जा गालिब’, ‘बदनाम’, ‘शिकारी’, ‘आठ दिन’, ‘किसान कन्या’, ‘चल चल रे नौजवान’ और ‘अंतरीन’ जैसी कई फिल्मों की कहानियाँ लिखीं,सआदत हसन मंटो को भला कौन भूल सकता है, मंटो एक ऐसे लेखक रहे हैं जो अपनी कहानियों को लेकर कोर्ट कचहरी के ही चक्कर लगाते रहे,उन्हें बदनाम लेखक कहा गया, लेकिन हकीकत इससे अलग है, खुद मंटो का इस पर कहना था कि अगर आप इन अफ़सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो ये ज़माना नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त है, मंटो की कलम की स्याही से निकले अफसाने और अल्फाज समाज की सच्ची तस्वीर पेश करते हैं......
मंटो के इंतकाल के बाद ही मंटो को सही ढंग से समझने की कोशिश की गई, जब मंटो को दोबारा पढ़ा और महसूस किया गया तो बड़े से बड़ा लेखक भी उनकी लेखनी देखकर दंग रह गया, मंटो को लेकर आज साहित्य प्रेमी जिस सवाल का जवाब ढूंढते हैं उसका जवाब भी मंटो मरने से पहले देकर गए थे, मंटो कहते थे कि......
''ऐसी दुनिया, ऐसे समाज पर मैं हजार - हजार लानत भेजता हूं, जहां ऐसी प्रथा है कि मरने के बाद हर व्यक्ति का चरित्र और उसका व्यक्तित्व लॉन्ड्री में भेजा जाए, जहां से धुलकर, साफ सुथरा होकर वह बाहर आता है और उसे फरिश्तों की कतार में खूंटी पर टांग दिया जाता है''.
मंटो ने अपनी 43 सालों की जिंदगी में 200 से अधिक कहानियां, तीन निबंध संग्रह, नाटक, रेडियो व फिल्म के लिए पटकथाएं लिखीं,भारतीय साहित्य में जिन लोगों ने अपने साहित्य में नारीवाद की शुरुआत की उस लिस्ट में मंटो का भी नाम आता है,मंटो पहले ऐसे लेखक हैं, जिन्होंने सबसे पहले अपनी कहानियों में वैश्याओं की संवेदनाओं को समाज के सामने बेबाकी के साथ रखा,मंटो ने अपनी कहानियों में महिलाओं को इंसान के तौर पर स्वीकार किया,शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी ने एक बार मंटो से प्रभावित होकर कहा था कि मंटो बदनाम सही लेकिन गुमनाम नहीं हैं, खुद मंटो भी इस बात से इत्तेफाक रखते थे, साहित्यकार कमलेश्वर का मानना था कि अपनी कहानियों में विभाजन, दंगों और सांप्रदायिकता पर जितने तीखे कटाक्ष मंटो ने किये उसे देखकर एक ओर तो यकीन नहीं होता है कि कोई कहानीकार इतना साहसी और सच्चा हो सकता है, इतना निर्मम हो सकता है,
लोगों को ये बात जानकर हैरानी होगी कि मंटो उसी विषय में फैल हुए, जिसमें वे सबसे अधिक मशहूर थे यानी उर्दू,मंटो शराब पीने के आदी थे,लेकिन मंटो के बारे में एक बात मशहूर थी कि मंटो चाहे नशे में हो या फिर होश में,वें मंटो ही रहते थे,काली शलवार,बू,ठण्डा गोश्त,धुआँ और ऊपर नीचेदरमियान मंटो की ये वो पांँच कहानियां थीं, जिनको लेकर मंटो पर अश्लीलता के मुकदमे चले,अभिनेता अशोक कुमार की फिल्म 'आठ दिन' में मंटो ने पागल की भूमिका भी निभाई थी,
जब मंटो 1934-1935 में बम्बई आए थे तो सबसे पहले उन्होंने अल्फ़्रेड टॉकीज़ के सामने अरब गली के छोटे-से घर में आठ महीने गुज़ारे थे, जहांँ खटमल ही खटमल थे और जब इसका पता उनकी माँ को चला तो वो रो पड़ी थीं,केनेडी ब्रिज के पास ही ज्योति स्टूडियो हुआ करता था जहाँ सआदत हसन मंटो का दफ़्तर था, यहीं उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म 'किसान कन्या' लिखी थी,मंटो की कहानियों में जिन्ना हॉल, कांग्रेस हॉल, बॉम्बे संगीत कलाकार मंडल (जहाँ तवायफ़ें नाच-गाना किया करती थीं) का ज़िक्र आता है,
मंटो अपने वक्त के खोखलेपन और विसंगतियों को बखूबी पहचानते थे, तभी तो वो कहते थे कि...
"मुझमें जो बुराइयांँ हैं दरअसल वो इस युग की बुराइयांँ हैं, मेरे लिखने में कोई कमी नहीं, जिस कमी को मेरी कमी बताया जाता है वह मौजूदा व्यवस्था की कमी है, मैं हंगामापसंद नहीं हूंँ, मैं उस सभ्यता, समाज और संस्कृति की चोली क्या उतारुंगा जो पहले सी ही नंगी है"....
इसकी वजह है उनकी कहानी के वो विषय जो उस वक्त नागवार थे लेकिन अब इस दौर में आकर कहीं ज्यादा प्रासंगिक लगने लगे हैं, औरत-मर्द के रिश्ते, दंगे और भारत-पाकिस्तान का बंटवारा,वेश्याओं और तवायफों की जिन्दगी जैसे विषय एक अलग ही अंदाज़ में उनकी कहानियों में मौजूद होते थे,उनकी कहानियों की वो औरतें जो उस वक्त भले कितनी ही अजीब लगे लेकिन वे वैसी ही थी जैसी एक औरत सिर्फ एक इंसान के तौर पर हो सकती है, मौजूदा दौर में जब अब स्त्रीवादी लेखन और विचार के कई नए आयाम सामने आ रहे हैं तब मंटो की कहानियों की उन औरतों की खूब याद आ रही है और इसी बहाने मंटो की भी,अपनी कहानी की औरतों के बारे में खुद मंटो कहते हैं कि.....
"मेरे पड़ोस में अगर कोई महिला हर दिन अपने पति से मार खाती है और फिर उसके जूते साफ करती है तो मेरे दिल में उसके लिए जरा भी हमदर्दी पैदा नहीं होती,लेकिन जब मेरे पड़ोस में कोई महिला अपने पति से लड़कर और आत्महत्या की धमकी दे कर सिनेमा देखने चली जाती है और पति को दो घंटे परेशानी में देखता हूंँ तो मुझे उससे हमदर्दी होती है"
मंटो जिस बारीकी के साथ औरत-मर्द के रिश्ते के मनोविज्ञान को समझते थे उससे लगता था कि उनके अंदर एक मर्द के साथ एक औरत भी ज़िंदा थी,उनकी कहानियाँ मन में हलचल और उत्सुकता पैदा करती हैं और अंत में एक करारा तमाचा भी मारती है,,
सआदत हसन मंटो की रचना यात्रा उनकी कहानियों की तरह ही बड़ी ही विचित्रता से भरी हुई है, एक कहानीकार जो जालियांँवाला बाग काण्ड से विक्षुब्ध होकर पहली बार अपनी कहानी लिखने बैठता है वो औरत-मर्द के रिश्तों की उन परतों को उघाड़ने लगता है जहांँ से पूरा समाज ही नंगा दिखाई देने लगता है,मंटो ने ताउम्र मजहबी कट्टरता के खिलाफ लिखा, मजहबी दंगे की वीभत्सता को अपनी कहानियों में यूंँ पेश किया कि आप सन्न रह जाऐगें, उनके लिए मजहब से ज्यादा कीमत इंसानियत की थी,बिल्कुल अपनी कहानियों की औरतों की तरह ही मंटो को भी किसी रूप में ढ़ालना बेहद मुश्किल काम है, बंँटवारे का दर्द हमेशा उन्हें पीड़ा पहुँचाता रहा, 1948 में पाकिस्तान जाने के बाद वो वहांँ सिर्फ सात साल ही जी सके और 1912 में भारत के पूर्वी पंजाब के समराला में पैदा हुए मंटो 1955 में पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब के लाहौर में दफन हो गए....

समाप्त....
सरोज वर्मा....