प्रेम गली अति साँकरी - 58 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 58

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वह रात मेरे लिए फिर करवटें बदलने की रात थी | मालूम नहीं क्या हो जाता था ?क्यों इतनी हलचल रहती थी?क्यों मन अक्सर उदास, अनमना सा हो जाता था | 

ऐसी चुप्पी क्यों लगी है ज़िंदगी के बावज़ूद, 

क्यों अँधेरों में छिपी है ज़िंदगी के बावज़ूद | 

मुझे बार-बार लगता कि ज़िंदगी मेरे लिए ही क्यों इतनी गुमसुम सी है?यह जानते हुए भी कि कमी मेरी ही है, निर्णय न लेने का साहस क्यों नहीं कर पाती मैं?हम जिन्हें सड़क पार के मुहल्ले का कहते हैं, देखा जाए तो कितने ही परिवार वहाँ ऐसे थे जिन्होंने किसी की परवाह किए बिना अपने रास्ते खुद बना लिए थे | फलानी लड़की अपने प्रेमी के साथ भाग गईं, फ़लाने का लड़का माँ-बाप से बिना पूछे शादी करके किसी लड़की को घर ले आया, कभी भी सुनने में आ जाता लेकिन शायद यही फ़र्क था, बहुत बड़ा फ़र्क जो हम जैसे सो-कॉल्ड ऊँचे परिवारों को कोई भी कदम उठाने ही नहीं देता था, यूँ तो हमारे तथाकथित ऊँचे घरानों में से क्या-क्या बाहर निकलकर आता, आश्चर्य में डाल देता था लेकिन हमारे परिवार को कभी ऐसी बातों में कोई रुचि नहीं रही थी | कला से जुड़ी हमारी अम्मा के भीतर माँ वीणापाणि का चिर निवास था जिसके कारण उनका पूरा जीवन ही समाज के लिए कुछ न कुछ बेहतरी करने में संलग्न रहा था | 

मुझे बहुत बार ऐसा ही लगता कि मैं कर क्या रही हूँ अपनी ज़िंदगी के साथ ?या तो छोड़ दूँ सब, साधु बन जाऊँ लेकिन मन में उठे हुए अहसासों को छोड़ने का साहस नहीं हो जिसमें वह साधु क्या खाक बनेगा? बेकार का नाटक! ! ज़िंदगी नाटक तो है ही, हम उसमें और नाटक करते हैं यानि नाटक में नाटक ! मुझे हँसी भी आती और पीड़ा भी मेरा साथ न छोड़ती | 

ऐसा तो था नहीं कि शीला दीदी और रतनी के बारे में जानकर मुझे खुशी न हुई हो | मैं तो खुद उनके परिवार की परेशानियों से बरसों से बाबस्ता थी और मन से चाहती थी कि उन्हें कभी तो अपने जीवन में सुख के दो क्षण मिलें, चैन से तो जी सकें ये लोग! जानती थी कि अम्मा-पापा भी कितने खुश और रिलेक्स हुए होंगे | यानि---यह बात ठीक है कि ‘एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है! ’पूरे परिवार में एक जगन से, उसकी हरकतों से सबके मन भीतर से कितने टूटे-फूटे हुए थे जैसे किसी मकान का बाहर से तो रंग-रोगन करवा दिया गया हो लेकिन उसकी भीतरी दीवारें, फ़र्श बिलकुल टूटे फूटे हों कि भीतर जाने पर उसकी दीवारों के कभी भी गिर पड़ने का अंदेशा हो | लेकिन अपने बारे में हमेशा ही कन्फ्यूज रही, 

एक सहरा था वो मेरे सामने फैला हुआ, 

जिसमें खोजा है समंदर मैंने सारी उम्र भर ! 

मैं और किसी से नहीं, खुद से ही तो नाराज़ रहती थी | दरअसल, यह खूबसूरत रिश्ता मेरा अपने आप से ही तो था | खुद को न समझना है, न ही बदलने की कोशिश करनी है, न ही निष्कर्ष लेना है तो----?

यह सब सोचते-सोचते अचानक मेरी आँखों के सामने श्रेष्ठ खड़ा हो जाता | उसकी प्रभावित करने वाली बातें, प्रभावित करने वाला व्यवहार और बिंदास व्यक्तित्व कुछ कहता सा तो लगता, कुछ दिल धड़कता सा भी लेकिन मन में पटाखे छूटने से दिल हलकान हो जाता, मेरा मन थक जाता जैसे | इतनी शिद्दत से कुछ नज़र नहीं आ रहा था कि दौड़कर उसे पकड़ लिया जाए | मन की धरती सूखी थी, बंजर सी जिसमें कुछ उगने का इशारा भी नहीं था, और इससे आगे क्या होता?क्या ये बढ़ती उम्र का तकाजा था, अगर था तो उस ओर से मन हट जाना चाहिए था न ! लेकिन—नहीं--! ! 

शीला दीदी की शादी तो आर्यसमाज में रजिस्टर हो ही चुकी थी | सोचा गया रतनी की शादी आर्य समाज के अनुसार हो जाए तो सही रहेगा लेकिन शायद ईसाई लड़के की शादी आर्यसमाज में हो सकेगी या नहीं ? यह बात किसीको पता नहीं थी | 

“क्यों न जेम्स के पुराने नाम ‘जय’ से रतनी और उसके फेरे दिलवाए जा सकें, पूछते हैं कहीं तो बात बन जाएगी—” पापा वैसे भी किसी मुश्किल का रास्ता बनाने में एक्सपर्ट थे | 

पापा ने रास्ता निकाल ही लिया और पंडित जी से मिलकर उन्होंने रतनी के फेरे रविवार को जय (जेम्स)से संस्थान में ही करवा दिए | इस शादी में मौसी, मौसा, उनकी बेटी अंतरा, उसका जर्मन पति बेन और सड़क पार मुहल्ले के कुछ लोग थे | उसी शाम को एक छोटी सी पार्टी रख दी गई और सबको दोनों के विवाहित होने की सूचना मिल गई | सामने सड़क पार मुहल्ले के भी कुछ लोग पार्टी में भी सम्मिलित हुए जो बहुत दिनों से इस परिवार से परिचित थे और जो समझदार थे, जिनके शीला दीदी से अच्छे संबंध थे, वे केवल जगन के कारण दूर ही रहते थे | 

इस परिवार के लिए यह एक बड़ा काम हो गया था, अब जी तो सकेंगे सब अपनी ज़िंदगी, अभी तक तो घिसट रहे थे | अब बात यह थी कि किस स्थान पर मकान के घर बनेंगे ? जेम्स यानि जय ने एक घर दिल्ली के एक सिरे पर ले रखा था, प्रमोद अपनी माँ के साथ दिल्ली के दूसरे सिरे पर रहते थे | वैसे अब दोनों के परिवारों का अब विभाजन तो होना ही था | जो बरसों पहले होना था, वह अब इस समय हो रहा था | 

शादी और पार्टी दोनों में उत्पल, श्रेष्ठ, डॉ.मिसेज़ एंड मि.पाठक, संस्थान के सभी पदाधिकारी व शिक्षक भी आमंत्रित थे | मुझे लगता है आचार्य प्रमेश बर्मन और उनकी बहन को संभवत:विशेष न्योता दिया गया था | ऐसा मुझे महसूस हुआ | प्रमेश की बहन की दृष्टि हर जगह मेरा पीछा कर रही थी | श्रेष्ठ एक शरीफ़, ईमानदार इंसान की तरह डॉ.पाठक के पास बैठा रहा | उत्पल मेरे आगे-पीछे ही घूमता रहा, बिंदास सा---

उसके असिस्टेंट्स वीडियोज़ बना रहे थे, कभी-कभी वह उन्हें कुछ निर्देश देता, फिर मेरे साथ आ खड़ा होता | उसके समीप होने का अहसास मुझे रोमांचित कर रहा था | संस्थान का इतना लंबा-चौड़ा सजा हुआ प्रांगण जैसे सबको अपनी ओर खींच रहा था | 

चौकने की बारी तो तब आई थी जब अचानक ही सुबह-सुबह भाई अमोल, एमिली और उनकी किशोरी बिटिया वीणा ने गार्ड से संस्थान का गेट खुलवाया और शोर मचाते हुए सजे हुए प्रांगण में वीणा चक्कर काटने लगी | अम्मा-पापा तो जैसे निहाल हो उठे थे---

“क्यों ?आपने हमें क्यों नहीं बुलाया था ?”

अम्मा-पापा चुप थे | कितने शॉर्ट नोटिस पर यह शादी की जा रही थी | शायद उन्होंने सोच भी न हो इस बारे में! अगर मेरे विवाह की बात होती तो सोचते भी लेकिन यह भाई तो ऐसे सपरिवार आकर खड़ा हो गया था जैसे इसकी सगी बहनों की शादी हो | इन लोगों ने सबको आश्चर्य में डाल दिया था लेकिन आनंद का माहौल सारे वातावरण में जैसे हास बिखेर गया था | 

भाई ने एमिली के साथ में पंडित जी के कहे अनुसार दोनों का कन्यादान एक भाई की तरह किया | यह बेहतरीन बात हुई | जो लोग बातें बनाने में मज़े ले रहे थे, उनका चौंकना हम सबके चौंकने से बिलकुल ही अलग था, बहुत स्पेशल ! भाई की आँखों में खुशी के आँसू भरे जा रहे थे | 

“बड़े दिनों बाद मैंने ज़िंदगी को अपने घर-आँगन में देखा | ”कितने सालों से ज़िंदगी गुम थी, जैसे शीशे की  बोतल में फँस गई कोई खिलखिलाती कोई कली, जिसके खिलने पर बैन लगा हो |