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शादी में महाराज का, ड्राइवर का पूरा परिवार आया था | संस्थान में काम करने वाले कोई दो-चार तो थे नहीं एक लंबी पंक्ति थी | सबको बड़े प्रेम व आदर से निमंत्रण दिए गए थे | पापा, अम्मा ने शीला दीदी-प्रमोद, रतनी-जय, दोनों बच्चे दिव्य और डॉली, इनके अलावा प्रमोद की माता जी सबके लिए कपड़े मँगवाए थे | कितने गिफ्ट्स मँगवाकर शीला दीदी और रतनी को दिए गए कि सब भौंचक रह गए | लोगों के पास पैसा होता है लेकिन इतने बड़े दिल कहाँ होते हैं जो अपने परिवार की तरह खुलकर खर्च करें | अभी तो जगन के बाद पापा का कितना पैसा खर्च हुआ था लेकिन अम्मा, पापा को इसका बिलकुल भी अफ़सोस नहीं था | दोनों के लिए जो पार्टी दी गई थी, वह भी लोगों को आश्चर्य में डाल देने के लिए काफ़ी थी |
और तो और भाई अमोल एमिली के साथ जाकर जो गिफ्ट्स लेकर आए उन्हें देखकर तो सबकी आँखें खुली की खुली रह गईं | सबकी आँखों में एक ही प्रश्न भरा था, दूसरों पर इतना खर्च हो रहा है तो जब अमी की यानि मेरी शादी होगी तो उसमें तो आसमान ही सिर पर उठा लेंगे ये लोग !
भाई की बिटिया वीणा खूब गोरी, खूबसूरत थी | समय ही नहीं था वरना संस्थान में अपना सिलाई का कक्ष था जिसमें इतने दर्जी और कारीगर थे, वे विवाह में पहनने के लिए खूबसूरत लहंगे या जो भी किसी को चाहिए था, बना देते | लेकिन अभी तो संभव ही नहीं था, इस सबका काम तो रतनी संभालती थी, वह इतने दिनों से थी नहीं और अब तो उसके अपने ही फ़ंक्शंस होने थे, उसके लिए अभी वह सब देखना कैसे संभव हो सकता था ? इसके लिए पापा ने अपनी पहचान वालों के रेडीमेट व्यापारियों के जैसे बिल्डिंग को छोड़कर पूरे शो-रूम्स ही उठवाकर संस्थान में मँगवा लिए थे | अम्मा-पापा खुद कपड़ों के चयन के लिए उनके साथ बैठे | वे जानते थे कि यह परिवार कभी भी अपनी चादर से बाहर पैर नहीं पसारेगा | पैसा पापा का था तो क्या था | वे सभी पापा-अम्मा की प्यार भरी दरियादली के नीचे अपने को दबता हुआ महसूस करते थे |
चटक लाल रंग के लंहगे में सजी, बालों में गजरे लटकाए एमिली और वीणा कितनी खूबसूरत लग रही थीं | अम्मा बार-बार वारी-वारी जा रही थीं और पापा एक तरफ़ खुशी से फूल रहे थे तो दूसरी ओर सबसे नज़र बचाकर मुझ पर निगाह मार लेते | उनके मुँह से निकली हुई लंबी साँस को मैंने शादी के बीच कई बार महसूस किया था |
“तुम भी कोई नई साड़ी खरीद लेतीं | ” अम्मा ने जब मुझसे पूछा, मुझे हँसी आ गई | कपड़े पहने जाते नहीं थे, जाने कितनी साड़ियों की तह भी नहीं खुली थी | मैंने वही अपनी पसंद की हल्के ज़री बॉर्डर वाली सफ़ेद सिल्क पहनी, अम्मा को शायद मेरे लिए कुछ अच्छा नहीं लगा | उनके मन में भी तो मुझे एक नवविवाहिता की तरह सजा हुआ देखने की स्वाभाविक इच्छा करवटें बदलती रहती थी |
“अम्मा ! देखिए, आप कितने दिनों से कह रही थीं कि मैं अपना पर्ल और डायमंड का सैट नहीं पहनती | इस साड़ी पर देखिए कितना सुंदर लग रहा है | ”मैंने उन्हें जानबूझकर दिखाया | उन्हें कुछ तो खुशी मिलेगी, मैं जानती थी | उन्होंने मेरे लिए न जाने कितने सैट बनवाकर रखे थे | जो नई चीज़ पसंद आई, वह बनवा ली |
अम्मा ने मुझे अपने अंक में भींच लिया कि वीणा रानी फुदकती हुई आईं और अम्मा की गोदी में सवार हो गईं | इतनी छोटी तो अब वह भी नहीं रही थी, किशोरी हो चुकी थी लेकिन दादी-दादा का लाड़ तो कम ही मिल पाता था उसे इसलिए जब भी मौका मिलता अम्मा के चिपट जाती | कोई नहीं कह सकता था कि वह एक गोद ली हुई बच्ची थी | एमिली बहुत अच्छी इंसान थी, बहुत अच्छी पत्नी, मित्र, माँ और हाँ बहू भी | अम्मा-पापा को उसने कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि वह भारतीय नहीं है | हर रिश्ते को न्याय देना बहुत बड़ी बात है | सब एमिली के गुणों से प्रसन्न थे |
अगर वीणा न आती तो अम्मा न जाने मुझसे कितने सवाल कर लेतीं, कोई और साड़ी क्यों नहीं खरीदी?रंगीन साड़ी क्यों नहीं पहनी?जब पार्लर से ब्यूटीशियन्स शीला दीदी और रतनी का शृंगार करने आई थीं तब भी मुझे बुलाया गया था लेकिन मैंने बहाना लगाकर टाल दिया था |
मैं जानती थी कि मेरा व्यक्तित्व प्रभावित करता था। कितने लड़कों ने मुझे कॉलेज के समय से प्रपोज़ किया था, आज भी कितने प्रपोजल्स मेरे सामने आते लेकिन जब मेरे भाग्य में ही नहीं था तब---वैसे पता नहीं भाग्य क्या होता है लेकिन मैं खाली तो महसूस करती थी अपने आपको---छोटी सी ज़िंदगी के कितने महत्वपूर्ण साल निकाल दिए थे मैंने |
शादी में महाराज के पूरे परिवार के साथ उनका बेटा रमेश भी कॉलेज से छुट्टी लेकर आ गया था | जब पहले आया था और मैंने उसे अपने कमरे में बातें करने के लिए बुलाया था तब उसने मुझे बातों बातों में एक इशारा भर दिया था | मैं सोच रही थी कि उससे उस बारे में बात करूंगी लेकिन इतने लोगों के बीच में समय ही नहीं मिल पा रहा था |
विवाह के बाद भी संस्थान में इन दोनों का बने रहना बहुत जरूरी था इसीलिए घर की व्यवस्था ऐसे करनी आवश्यक थी कि संस्थान का काम बखूबी चलता रहे | तय यह हुआ कि रतनी और जय इसी फ़्लैट में रहेंगे जो दादी ने शीला दीदी को खरीदवाया था |
शीला दीदी के कंधों पर संस्थान की लगभग सारी ज़िम्मेदारी थी इसलिए उनको भी पास ही रहना था | प्रमोद शुक्ल अपनी माँ के साथ काफ़ी दूर रहते थे | मुश्किल ही नहीं, असंभव था इतनी दूर से शीला दीदी का हर रोज़ संस्थान पहुँच पाना |
प्रमोद की माता जी बहुत सरल, सहज और स्थिति को समझने वाली महिला थीं | उन्होंने खुद ही सुझाव दिया कि जिसमें अभी रहते हैं, उस घर को निकालकर यहीं पास ही में कोई फ़्लैट ले लिया जाय | प्रमोद के लिए उनका ऑफ़िस बीच में पड़ता था | पहले प्रमोद शीला दीदी के साथ उनके स्कूल में ही थे किन्तु अब लगभग पाँचेक वर्षों से उन्होंने एक प्राइवेट फ़र्म में काम करना शुरू कर दिया था जहाँ उनका पहले से बेहतर स्टेट्स हो गया था | अत:निर्णय ले लिया गया कि पास ही कोई फ़्लैट ले लिया जाएगा |