शाम का समय था,सूरज डूबने वाला था और रामवृक्ष गाँव की पहाड़ी पर स्थित पुराने मंदिर आ पहुँचा था,उसका मन आज बहुत ही खिन्न था,प्रेम में हारा हुआ युवक सिवाय निराश होने के और कर भी क्या सकता है?वो जिस लड़की से प्रेम करता था,उस लड़की ने रामवृक्ष को ठुकरा दिया था और वो अब अपने पिता की पसंद के लड़के से ब्याह करने जा रही थी,आखिरी मुलाकात के वक्त उसने रामवृक्ष से कहा....
"तुम मुझे क्या दे पाओगे जीवन में?मेरे पिता ने जहाँ मेरा रिश्ता तय किया है वो लड़का बहुत ही अमीर है,मुझे वहाँ सारी सुख सुविधाएँ मिलेगीं,उस घर में नौकरों चाकरों की कमी नहीं है,मुझे वहाँ कोई काम भी नहीं करना होगा"
तब रामवृक्ष बोला...
"लेकिन मैं तुमसे प्रेम करता हूँ"
"तुम्हारे प्रेम को लेकर मैं क्या करूँगी?संसार तो धन दौलत से चलता है,तुम अमीर होते तो मैं तुमसे ब्याह कर लेती"
और इतना कहकर वो वहाँ से चली गई और उस लड़की का आज ब्याह है इसलिए रामवृक्ष यहाँ एकान्त में चला आया,वो पहाड़ी पर टहल ही रहा था कि एकाएक उसकी नज़र वृक्ष के नीचे बैठे महात्मा पर पड़ी,जो अभी भी ध्यानमग्न थे,रामवृक्ष ने उन महात्मा का ध्यान टूटने तक इन्तजार किया और जब वें ध्यान से जागे तो उन्होंने अपने पास रामवृक्ष को बैठे पाया तो उससे पूछा....
"कौन हो तुम?और यहाँ क्या कर रहे हो?
तब रामवृक्ष ने उत्तर दिया...
"महात्मा जी! प्रेम में निराश व्यक्ति और कर भी क्या सकता है?आज उसका ब्याह है, गाँव में मन नहीं लग रहा था इसलिए यहाँ एकान्त में चला आया"
तब महात्मा बोलें...
"तो तुम भी प्रेम में निराश होकर यहाँ आए हो"
"तो क्या स्वामी जी!कोई और भी यहाँ प्रेम में निराश होकर आया है"?,रामवृक्ष ने पूछा...
"हाँ",स्वामी जी बोले..
"कहाँ है वो?,मैं उससे मिलना चाहूँगा",रामवृक्ष बोला...
"वो कोई और नहीं मैं हूँ,"स्वामी जी बोले...
"अच्छा!आपने भी किसी से प्रेम किया था क्या?",रामवृक्ष ने पूछा...
तब स्वामी जी बोले...
हाँ!एक ब्याह के निमन्त्रण में मैंने देखा था उसे,उस का नाम सरयू था,वह यौवनमयी ऊषा थी, उसके गुलाबी कपोल,झील सी गहरी आँखें थीं,लम्बे केश थे और उसके अंगो से मकरन्द छलकता था,ब्याह की भीड़भाड़ में मेरी आँखें सदैव उसका पीछा करतीं रहीं,देखते-ही-देखते ब्याह का समापन हो गया, सब लोग अपने-अपने घर चलने की तैयारी करने लगे,परन्तु मेरे पैर नहीं उठ रहे थे,मेरे जाते वक्त सरयू ने मुझसे पूछा...
"राघव!तुम भी जा रहे हो?
"हाँ!जाना पड़ेगा",मैनें कहा...
“अच्छा, तो फिर कब आओगे?”,सरयू ने पूछा...
“क्या पता",मैं बोला...
"ठीक है तो तुम मेरे ब्याह में आना,जो जेठ मास में है",सरयू बोलीं...
ये सुनकर मुझे धक्का सा लगा और फिर मैं चल पड़ा,उस दिन मैं घर ना लौटा,ना जाने कहाँ की ओर चल पड़ा,मैं चला जा रहा था,बस चला जा रहा था, वहाँ पहुँचने पर साँझ हो गयी थीं,मैं किसी घने जंगल की ओर चला आया था ,चारों ओर वनस्थली में साँय-साँय हो रही थी,मैं थका भी था, रात को ठण्ड पड़ने की सम्भावना भी थी,कहाँ रात गुजारूँगा,यही सोच-विचारकर मैं सूखी पत्तियों से झोपड़ी बनाने लगा,लताओ को काटकर छत बना दी, रात का बहुत-सा अंश बीत चुका था, परिश्रम की तुलना में विश्राम नहीं मिला था इसलिए सुबह होने पर आगे बढने की इच्छा ना हुई, झोपड़ी की अधूरी रचना ने मुझे वहीं रोक लिया,जंगल में लकड़ियों की कमी ना थी, पास के नाले की मिट्टी भी चिकनी थी,आगे बढक़र नदी-तट से मुझे नाला ही अच्छा लगा,इसलिए दूसरे दिन से झोपड़ी उजाड़कर अच्छी-सी कोठरी बनाने की धुन लग गई,शिकार से पेट भरता और घर बनाता, कुछ ही दिनों में घर बन गया, जब घर बन चुका, तो मेरा वहाँ से मन उचटने लगा, घर की ममता और उसके प्रति छिपा हुआ अविश्वास दोनों का युद्ध मन में चलने लगा,फिर मैं झोपड़ी को देखकर सन्तोष का जीवन बिताने लगा,कभी मैं झोपड़ी को आँसू की धारा समझता, जिसे निराश प्रेमी अपने आराध्य की याद में आँखों से बहाता तो कभी उसे अपने जीवन की तरह संसार की कठोरता पर छटपटाते हुए देखता,
ऐसे ही मुझे वहाँ रहते लगभग पाँच बरस बीत चुके थे,एक सुबह मेरी नींद खुली,अभी भी हल्का हल्का अँधेरा सा था,मैं नदी की ओर सैर करने निकल पड़ा,अचानक एक शोर सा सुनकर मैं वहीं रूक गया,मैनें देखा कि वहाँ पर एक स्त्री और पुरुष शिला पर लेटे बातें कर रहे थे,मैं वहाँ से निकल ही रहा था कि तब दूर से वो स्त्री बोली....
“जरा सुनिए तो कहीं रहने की जगह मिल जाएगी क्या?"
मैं उन दोनों के नजदीक गया तो वो सरयू थी,लेकिन शायद सरयू ने मुझे नहीं पहचाना था,तब मैनें उन दोनों से कहा...
" नजदीक ही मेरी झोपड़ी है,यदि विश्राम करना हो तो वहीं थोड़ी देर के लिए जगह मिल जायगी”
तब पुरूष बोला...
"चलो सरयू !क्या सोच रही हो,इन्हीं महाशय की झोपड़ी में चलकर विश्राम करते हैं"
मैनें मन में सोचा जिस सरयू के लिए मैं वैरागी बन गया उसने मुझे पहचाना तक नहीं और उसके साथ में शायद ये उसका पति होगा,मैं बाहर रहा और वें दोनों नहा धोकर कुछ फल खाकर झोपड़ी में विश्राम करने लगे, वें दोनों इतने थके थे कि दिन-भर उठने का नाम ना लिया, मैं ने कुछ मछलियाँ पकड़ीं और नमक लगाकर आग में सेंकने डाल दीं,रात का यही भोजन था,कभी जो भूले-भटके यात्री उधर से गुजरते थे तो मुझे उनसे नमक और आटा मिल जाता था,ये उनका मेरी झोपड़ी में रात बिताने का किराया होता था,
पुरुष ने डटकर भोजन किया और मैं कुढ़कर अमलतास के पेड़ के नीचे जल रही आग को सुलगाने लगा,क्योंकि वें दोनों भीतर ही आराम कर रहे थे और मैं बाहर था,सरयू अब चाहे उसकी पत्नी हो पर पहले तो वो मेरी प्रेयसी थी,इसलिए इर्ष्या हो रही थी मुझे,पाँच दिवस होने को आएं थे और वें दोनों अब भी मेरी झोपड़ी में थे,फिर एक रोज सरयू ने अपने हाथों के सोने के कंगन मुझे उतारकर दिए और बोली....
"यहाँ से पाँच कोस पर एक गाँव है,जो हमें रास्ते में मिला था,वहाँ शराब मिलती है तुम्हें कष्ट तो होगा लेकिन क्या तुम उन के लिए ले आओगे,वें शराब के बिना नहीं रह पाते"
मैं उसकी बात सुनकर चुप रहा तो वो बोली....
“राघव!बोलते क्यों नहीं?”
उसके मुँह से अपना नाम सुनकर मैं चौक उठा क्योंकि मैंने अभी तक उन दोनों को अपना नाम नहीं बताया था और उससे बोला...
"तुम मुझे भूली नहीं"
"नहीं!मैं भला तुम्हें कैसें भूल सकती हूँ?",सरयू बोली...
"मैनें सोचा तुम अपने पति के साथ खुश हो तो मुझे भूल गई होगी",मैनें उससे कहा..
तब वो बोली...
"ये मेरा पति नहीं है,उसके साथ ब्याह होने से पहले ही मैं इसके साथ भाग आई,मेरा होने वाला पति गरीब था और ये गाँव के बनिए का अमीर लड़का था तो इसे मैनें अपने रूप के जाल में फँसाया और इसके साथ भाग आई,पाँच सालों से हम साथ हैं,
तब मैनें मन में सोचा....
भयानक स्त्री है ,ये सोचकर मेरा सिर चकराने लगा...
और फिर वो बोली...
"अब मुझे ये भी तंग करने लगा है,जो ये अपने घर से जेवर और धन लेकर मेरे साथ गाँव से आया था,वो भी अब खतम होने को आया है,इसे मेरा यौवन चाहिए था और मुझे इसका धन तो वो एकदूसरे को मिल चुका है,ना मैं इसके काम की रही और ना ये मेरे काम का"
और ये कहकर वो झोपड़ी के भीतर चली गई और मैं यहाँ हवाई हिंडोले में चक्कर खाने लगा और मन में सोचा यही वही स्त्री है मेरे प्रेम की अनमोल निधि जिसकी खातिर मैंने सब त्याग दिया था,मैं कैसा मूर्ख था और उसके कंगन लेकर मैं पाँच कोस दूर गाँव में उस पुरूष के लिए शराब लेने चला गया,शाम तक मैं सारा सामान लेकर लौट आया था,उस दिन सरयू ने स्वादिष्ट मुर्गी और रोटियाँ पकाईं जो हम सभी ने खाईं,उस पुरूष ने शराब बहुत पी ली थी और खाने के बाद वो झोपड़ी में आराम करने लगा और मैं अमलतास के पेड़ के नीचे आग जलाकर बैठा गया और तभी सरयू वहाँ आकर मुझसे बात करने लगी लेकिन मुझे अब ना वो अच्छी लग रही थी और ना उसकी बातें इसलिए मैनें नींद आने का बहाना बनाकर उसे भी झोपड़ी में जाकर आराम करने के को कहा और वो चली गई....
जब सुबह हुई तो मैनें झोपड़ी के भीतर जाकर देखा और वहाँ का दृश्य देखकर मेरी हालत खराब हो गई क्योंकि वहाँ सरयू नहीं थी और उस पुरूष के सीने में छुरा घुपा हुआ था,मैं भी चुपचाप उस झोपड़ी से यहाँ पहाड़ पर चला आया और तब से यही रह रहा हूँ आज सोचता हूँ सरयू के बारें में तो मुझे बड़ी आत्मग्लानि होती है कि एक लड़की थी जिससे मैनें प्रेम किया था वो मेरे प्रेम के लायक ही नहीं थीं,वो किसी के भी प्रेम के लायक नहीं थीं,एक ऐसी लड़की जो प्रेम की नहीं धन की भूखी थी....
समाप्त....
सरोज वर्मा....