उजाले की ओर –संस्मरण Pranava Bharti द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर –संस्मरण

स्नेही मित्रों

नमस्कार

आशा है सब आनंद में हैं। मैं थोड़ी सी असहज हूँ। क्यों? आप सबसे साझा करने के लिए आई हूँ। आप सब बरसों से मित्र हैं, सबसे पहले आपसे सलाह लेनी बनती है। इसीलिए सबसे पहले आप सबके साथ संवाद करना उचित लगा | अभी हाल ही की बात है मेरे पास मुझसे काफ़ी छोटी एक युवती आई और उसने मुझसे कहा कि वह हिन्दी में लिखती है अत:मैं उसे बताऊँ, समझाऊँ कि वह कैसे पाठकों के पास तक अपनी बात पहुँचा सकती है | मुझे अच्छा लगा, मेरे अनुसार आज की पीढ़ी हिन्दी लेखन में ज़रा पीछे है, दरअसल पीछे भी क्या, रुचि नहीं लेती है और हम सब ही इस बात से वाकिफ़ हैं कि अँग्रेजी माध्यम में पढ़ने के कारण बच्चों को अँग्रेज़ी में काम करने में अधिक सुविधा होती है लेकिन हम जैसे लोग उन्हें प्रेरित करते रहते हैं कि कितना भी अँग्रेजी में काम करो लेकिन साथही अपनी राष्ट्रभाषा मत भूलो, उसे सम्मान दो अन्यथा वह हमारी खोई हुई बोलियों की तरह कहीं खोने लगेगी और उसे ढूँढने के लिए हमें न जाने कितने प्रयत्न करने होंगे |

मैंने उसे कहा कि वह मातृभारती पर लिखना शुरू कर दे, धीरे-धीरे पाठक जुड़ेंगे लेकिन उसकी इच्छा थी कि उसकी रचनाएँ कागज़ पर छपकर आएँ, इससे उसे अधिक आनंद मिलेगा | मैंने उसे कुछ अच्छी पत्रिकाओं के पते दे दिए | ठीक है, जब हमारे पास यह तकनीक नहीं थी, हम सब भी तो हाथ से लिखते थे और पोस्ट करते थे | जब हमारे सामने वह पत्रिका अथवा पुस्तक आती थी जिसमें हमने चाहे एक छोटी सी रचना ही क्यों न भेजी हो, हमारे दिल की धड़कनें बढ़ने लगती थीं | शुरू-शुरू में तो शायद सबके साथ ऐसा होता ही है |

मैंने उसे बताया कि घर के शिक्षित वातावरण के कारण मेरा लिखना बहुत छोटी उम्र में शुरू हो गया था और जब मैंने लगभग बारह वर्ष जी उम्र में एक छोटा स लेख लिखकर 'धर्मयुग'में भेज दिया और वह न जाने कैसे प्रकाशित हो गया, मैं कैसी बल्लियों उछली थी, मुझे आज भी वह सब याद है |लगभग उन्हीं दिनों न जाने कैसे मेरी एक काफ़ी मैच्योर कविता बनी जिसे मैंने अपनी लेक्चरर माँ को दिखाया | उन्होंने छूटते ही पूछा;

"ये तूने लिखी है ?"

सच में उस समय अम्मा के ऊपर आश्चर्य और दुख दोनों हुए लेकिन वे बहुत खुश थीं बस, उन्हें विश्वास करने में कुछ समय लगा था कि उनकी छोटी सी बिटिया के लेखन में इतनी गंभीरता है कि उसे अच्छे स्तर की पत्रिकाएँ प्रकाशित कर रही हैं | जब मुझे अपने ऊपर विश्वास होने लगा और मैंने लगातार पत्रिकाओं में प्रकाशन हेतु भेजना शुरू किया | मज़े की बात, मेरी रचनाएँ स्वीकृत ही नहीं हुईं | मेरे पास ऐसे बहुत उदाहरण हैं | मैं निराश रहने लगी, इतनी कि लिखना ही छोड़ने की सोचने लगी | तब माँ ने समझाया कि यह सब तो चलता है | कभी प्रकाशित होगी तो कभी वापिस भी आएंगी |फिर उन्हें मठारना होगा और हो सकता है कि फिर उसी पत्रिका में प्रकाशित हो जाए जिसमें से वापिस आई हो |

हाँ, बात कर रही थी उस युवती की जिसको मैंने कई पत्रिकाओं के पते दिए थे | कई महीनों बाद जब वह मेरे पास आई तो बहुत उदास थी |उसने बताया कि किसी भी पत्रिका में से उसकी रचनाओं के प्रकाशन के लिए स्वीकृति नहीं आई थी | अम्मा ने मुझे बहुत ही सुंदर बात बताई थी कि इंसान अपनी कोई पहचान यूं ही नही बना लेता है। इसके लिए वह सम्पूर्ण जीवन एक निश्चित प्रक्रिया से गुजरता है। व्यक्ति को अपनी दिनचर्या में निरंतर कुछ ना कुछ ज्ञान मिलता रहता है। यह ज्ञान ही है जो समझ को सही दिशा में ढालता जाता है और उसका पोषण करता है। अब जैसे-जैसे यह समझ पल-पल जागरूक बनाती है, उसी सांचे में हमारा व्यक्तित्व भी ढलने लगता है।

मान लीजिए, कि किसी को संगीत में रुचि है और वह अपने दिन का ज्यादातर समय संगीत की रियाज ओर धुनों के सृजन में गुजारता है, तो निश्चित ही धीरे धीरे उसके हर काम और बातचीत में उसके संगीत की झलक मिलने लगेगी। जानने वालों में उसकी पहचान एक संगीत साधक के रूप में होने लगेगी।

एक सही पहचान का होना इसीलिए जरूरी है क्योंकि वह हमें तृप्त करती है। जिस समर्पण से हमने अपना जीवन जिया, हमारी पहचान हमे उसी समर्पण से जोड़ देती है।

मैंने उस युवती को बात समझाने का प्रयत्न किया और यह मशवरा भी दिया कि आजकल तो ऑन लाइन लिखने की सुविधा हो गई है अत:वह किसी भी पटल पर लिखना शुरू कर दे |

अगली बार जब वह मुझसे मिली तो बहुत प्रसन्न थी | उसने बताया कि उसने ऑन लाइन लिखना शुरू किया और उसके बाद पत्रिकाओं में भी छप रही है |

यह इसलिए हो सका कि उसने शिद्दत से काम किया और कुछ दिन निराश रहकर फिर अपने मन से निराशा को निकाल फेंका |

मित्रो ! आप सोचिए और बताइए कि जैसे उसके जीवन में यह संभव हो सका, कोई भी अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है | यह केवल लेखन की बात नहीं है, किसी भी रुचि की बात हो सकती है इसलिए कभी दुखी न हों, अरे ! मनुष्य हैं कभी हो भी जाते हैं परेशान ---तो कोई बात नहीं कुछ समय चिंतन करके फिर से अपने क्षेत्र में आ जाइए | देखिए, कैसे आपको सफ़लता मिलती है और आपको भीतरी आनंद प्राप्त होता है |

तो मित्रों, मिलते हैं फिर एक सार्थक विषय के साथ

तब तक के लिए आनंद में रहें, मस्त रहें

मुस्कुराते रहें |

आमीन !

 

आप सबकी मित्र

डॉ . प्रणव भारती