सोई तकदीर की मलिकाएँ - 55 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 55

 

55

 

 

कम्मेआना पहुँचते पहुँचते दिन ढलने लगा था । बस से उतरते ही सुभाष को अपने दो चार दोस्त मित्र मिल गये तो वह वहीं रुक कर उनसे बातें करने लगा । जयकौर ने उसे वहाँ मस्त देखा तो अकेली ही घर की ओर चल पङी । कदम आगे बढाती थी पर पैर मानो पीछे जा रहे थे । एक एक पैर मन भर का हो गया लगता था । एक महीने से थोङे दिन ऊपर हो गये उसका ब्याह हुए , अगर इसे ब्याह मानें तो , पर अब तक उसके मायके से न तो कोई उसे लेने आया , न झूठ को ही सही , किसी ने उसे बुलवा भेजा । पहली बार भी वह बिना बुलाए ही सरदार के साथ आई थी और चाय पीकर थोङी देर में ही संधवा लौट गई थी । तब शादी को दो ही दिन हुए थे । और आज एक बार फिर वह उस घर में जा रही थी , जहाँ उसका जन्म हुआ था , बचपन बीता था । वह घर जहाँ अब उसके माँ बाप नहीं थे । वह घर जो अब उसके भाइयों का या स्पष्ट कहें तो उसकी भाभियों का था । इस बार वह सरदार के बिना आई थी और दो दिन रहने का सोच कर आई थी । देखो इस बार दोनों भाभियों का व्यवहार कैसा रहता है । कहीं उसने यहाँ आकर कोई गल्ती तो नहीं कर दी । सोच में डूबी हुई वह अपनी गली में घुसी तो कई परिचितों को विस्मय हुआ । पारो ताई तो सीधे सीधे पूछ ही बैठी - जयकौरे ऐसे पैदल चली आ रही है ? सब ठीक तो है ? तेरा दूल्हा कहाँ है ?वह नहीं आया तेरे साथ ?
सब ठीक है ताई । बिल्कुल ठीक । तू सुना , तेरा हाल कैसा है ?
और पारो के उत्तर का इंतजार किए बिना वह आगे बढ गई । अब चंद ही कदमों पर उसका अपना घर था । उसने देखा - घर के बाहर गली में उसकी दोनों भाभियां बच्चों समेत खङी उसे आते हुए देख रही थी । पक्का गली के बच्चों ने उसे आते देख लिया था और शरण की बीबी को उसके आने की सूचना दे दी थी । वरना उसकी भाभियां यों गली में कभी खङी नहीं होती । दोनों देवरानी जेठानी विस्मय से जयकौर को आते हुए देख रही थी । जयकौर बस स्टैंड से पैदल सामान उठाए आते आते थक कर चूर हो चुकी थी । उसके होंठ प्यास से सूख रहे थे ।
भाभियों को देखते ही जयकौर के सयंम का बांध टूट गया । वह दौङकर उनके गले लग गई । इतने दिनों से सहेज कर रखे आँसू बह निकले । दोनों भाभियों ने आँखों ही आँखों एक दूसरे को देखा – क्या हुआ बीबी ? इस तरह क्यों रो रही है ?
पराहुने से लङाई तो नहीं कर आई ?
घर में सब ठीक है न ।
कोई परेशानी तो नहीं ।
जयकौर का गला भरा हुआ था । वह बोल नहीं पाई । उसने भाभियों की किसी भी बात का जवाब नहीं दिया । बस आँचल के छोर से अपने आँसू पोंछती रही । दोनों भाभियाँ जल्दी से जल्दी सच जानने को उत्सुक हो रही थी । तभी पङोस की जसमेल भाभी बोली – अरे सब कुछ यहीं पूछ लोगी क्या । लङकी को अंदर तो लेकर चलो । बेचारी इतना सफर करके आई है । उसे जरा सांस तो लेने दो ।
और वह जयकौर का हाथ पकङ कर भीतर ले गई और चारपाई पर बैठा दिया । अंग्रेज कौर ने मटके से पानी का गिलास भरा और जयकौर को पकङा दिया । जयकौर एक ही सांस में सारा गिलास खाली कर गई ।
हाँ अब बताओ । आज अचानक बिना बताए यूं अकेले चली आई । सरदार कहाँ है ।
अरे अरे घबराओ मत । लङ कर नहीं आई हूँ । वह तो सुभाष अपने घर आ रहा था तो मैंने सोचा , मैं भी तुम लोगों से मिल आऊँ । बच्चों की बङी याद आ रही थी ।
कहते कहते उसने बच्चों के कपङों वाले लिफाफे भाभी को पकङा दिए । सुंदर रैडीमेड कपङे देख कर सबके चेहरे खिल उठे । दोनों भाभियां अपने सारे सवाल भूल गई ।बच्चों ने समवेत स्वर में कहा – ससश्री काल बुआ और कपङे पहन कर देखने के लिए लिफाफे उठाए कमरे में भाग गये ।
पारो को ध्यान आया कि इतनी देर से जयकौर को किसी ने खाने के लिए छोङ पानी भी नहीं पूछा तो बोली – बीबी तू बैठ , मैं तेरे लिए लस्सी ले आऊं । तू पिएगी न ।
शिंदर कौर ने मौका संभाला – तू क्यों तकलीफ करेगी बहन । रब की मेहर से घर में दूध भी है , लस्सी भी । मैं लाती हूँ । और वह कङे वाले गिलास में कढा हुआ दूध और कटोरी में गुङ ले आई । दूध देख कर जयकौर को याद आया कि आज सुबह से उसने कुछ नहीं खाया है । दूध पीकर और गुङ खाकर उसे थोङी तसल्ली हुई । भाभी कोई रोटी पङी है तो दे दे । घर से खाकर चली थी पर दोबारा बङी भूख लग पङी है ।
गाँव में जयकौर के आने की खबर आँधी की तरह फैल गई थी । हर उम्र की औरतें , बच्चे उसे देखने चले आए थे और जयकौर के घेर कर खङे थे ।
अंग्रेज कौर ने मौके की नजाकत को देखते हुए कहा – ले बीबी तू सुबह की रोटी क्यों खाएगी । मैं ताजा दो फुलके उतार देती हूँ ।
रहने दे भाभी । डेढ दो घंटे बाद तो सबकी रोटी बननी ही है । मैं तब सबके साथ खा लूंगी ।
अंग्रेज ने तवा चढा दिया था । छिंदर अपने चौंके से लौकी की मलाई डली सब्जी और चटनी ले आई । जयकौर ने रोटी खा ली । रोटी का समय होने वाला था । उससे पहले पशुओं को दोहना था । चारा सानी करना था तो गाँव की औरतें अपने अपने घर चली गयी । बच्चे नये कपङे पहन कर फूले नहीं समा रहे थे । अंग्रेज कौर ने टोका – नये कपङे मैले मत करो । उतारो इन्हे । मेला देखने जाओगे उस दिन पहन लेना ।
बच्चे सुनी अनसुनी करके बाहर खेलने दौङ गये ।
पहने रहने दो भाभी । मेले में तो अभी ढाई महीने पङे हैं । तब तक और खरीद लेंगे ।
तब तक छिंदर दूध में पत्ती डाल कर चाय बना लाई थी । जयकौर ने अपने पहने कपङे और गहने देखे । उसकी यही भाभियां उसके दिन भर खटने के बावजूद उसके रोटी खाते समय कितनी चिखचिख किया करती थी और आज उसकी सेवा हो रही थी । सच कहते हैं बुजुर्ग – माया तेरे तीन नाम । परसी परसा परसराम ।
चाय पीकर वह पंखे के सामने लेट गयी और तुरंत उसकी आँख लग गई । उसकी नींद तब खुली जब चरण उसे यहाँ सोता देख कर बीबी से पूछ रहा था – ये यहां इस तरह अकेली क्यों आई है । अंग्रेज उसे धीरे बोलने के लिए कह रही थी ।
वह उठी और उठ कर भाई के पास चली आई । उसे उठ कर आया देख चरण सकपका गया ।
सतश्री अकाल भाई । कब आया ।
बस अभी अभी । तू कैसी है । हमें बुलवा लिया होता , हम लेने आ जाते ।
मैंने सोचा फसल की कटाई में बिजी होंगे तो खुद ही चली आई ।
तब तक बच्चे चले आए – पापा देखो बुआ मेरे लिए पैंट शर्ट लाई है । मेरे लिए भी ।
और मेरे लिए फ्राक और ये गुङिया ।
वाह जी ये तो बहुत अच्छे हैं । जयकौर तूने इतना खर्चा कर दिया ।
कोई न भाई । भाभी मैं अभी आई ।
जयकौर गली में निकल आई ।

 

बाकी फिर ...