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बेटी की व्यथा...

आप सब मुझको पहचानते तो होगें ही,लेकिन बिना नाम के कैसें पहचानेगे भला! तो मैं आप सबको बता दूँ,मैं वही हूँ यशोदा की बेटी हूँ,जिसे ना तो मेरे पिता नंद ने बचाया और ना ही पिता वासुदेव ने,दोनों ही मेरे पिता थे लेकिन दोनों ने ही मुझे मिलकर मारा,बेटी थी शायद इसलिए मेरी जरूरत किसी को ना थी,कितने आश्चर्य की बात है ना कि जब मेरा जन्म हुआ तो यशोदा माता निश्चिन्त होकर सोतीं रहीं,उन्हें खबर ही ना थी कि उन्होंने बेटे को जन्म दिया है या बेटी को,संसार ऐसा ही है,बेटे की रक्षा के लिए अक्सर बेटियों को मार दिया गया,युग-युगान्तर से ये प्रथा चली आ रही है,सब हमेशा यही कहते हैं बेटे के लिए कि बेटा जुग-जुग जिओ और राज करो और बेटियों को हरदम यही आशीर्वाद दिया जाता है कि सदा सुहागन रहो,इस आशीर्वाद में भी सबसे बड़ा भेद छुपा है समझने वाले तो समझ ही गए होगें कि तुम्हें उस घर के चिराग के पहले ही बुझना है,बेटों के लिए ना जाने कितनी ही बेटियाँ मारी जातीं हैं,कंस मामा ने मुझे मारा लेकिन उनसे पहले ही मेरे पिता ने मुझे त्यागकर मेरी हत्या कर दी थी,अब सब यही कहेगें कि ये तो विधि का विधान था,लेकिन ये कैसा विधि का विधान था ये तो मेरी समझ से परे है,बेटी हूँ ना समझ अभी तक विकसित नहीं हुई है मेरी,समझदार तो बेटे होते हैं,तभी तो बनाया जाता है उन्हें उत्तराधिकारी,हाँ!तो मेरे पिता ने मुझे निष्ठुरता से कंस मामा के हाथों में सौंप दिया और उन्होंने मुझे पत्थर पर पटककर मार दिया,देवकी माँ रोई थी ,गिड़गिड़ाई थी, बोली थी कंस मामा से कि छोड़ दो बेटी है लेकिन वें नहीं माने उन्होंने मेरी जान लेकर ही दम लिया,मैं तो मर गई लेकिन तुम्हारा बेटा बच गया और बाद में बना जगत-उद्घारक,
मैं तब मरी थी और तब से अब तक मरती चली आ रही हूँ,पहले मरी थी कृष्ण के लिए और अब मरती हूँ किसी सोनू,मोनू और बबलू के लिए,मैं सदैव से बुझती आ रही हूँ,उन कुलदीपकों के लिए ताकि तुम्हारे घर में उजियारा रहे, तुम्हारा कुल बढ़े,वंशबेल चलती रहे,मुझे सिखाया गया हमेशा भाई तो भाग्य लेकर आता है और बहन तो बह जाती है घर से ,तभी शायद बेटी के ब्याह के बाद माता पिता गंगा नहाने जाते हैं,मैं देती रहीं दुआएँ कि भाई सदैव दूधो नहाए,पूतो फले,हमेशा जीता रहे खुश रहे और उधर मरती रही मैं,
मरती रही मैं क्योंकि बेटी थी तुम्हारी,मैं तो भाग्य में यही लिखा कर आई थी और यदि तुम ना मारते पिता तो कोई दुशासन मुझे मारता,भरी सभी में खीचता मेरा वस्त्र और लज्जित करता मुझे या तो फिर मैं भटकती किसी राम के संग वन वन में,या तो कोई लक्ष्मण चौदह सालों के लिए अपनी नींद मुझे दे जाता ताकि वो जागकर अपने भाई की सेवा करता रहे,नहीं तो माण्डवी की भाँति तड़पना पड़ता मुझे भी विरह की आग में पति के समीप होते हुए भी,इसलिए मुझे तो मरना ही था,मुझे ठिकाना मिला पर्वतों पर ,मुझे मथुरा ,गोकुल और द्वारका से दूर रखा गया,लेकिन मैं तब भी सोचती हूँ,क्या मेरे पिता नंद को तनिक भी कष्ट ना हुआ होगा जब उन्होंने मुझे वासुदेव के हाथों में सौंपकर मुझे विदा किया होगा,क्या मेरे पिता नंद रोए ना होगें भीतर ही भीतर,क्या उन्होंने ये नहीं सोचा होगा कि मैं बेटी की ये कैसी विदाई कर रहा हूँ?मैं ऐसे विदा ना करूँगा अपनी बेटी को ,मैं तो इसका कन्यादान करूँगा,इसे ब्याहऊँगा किसी राजकुमार के संग,लेकिन शायद उन्होंने ये नहीं सोचा,
ना जाने माँ यशोदा को कष्ट हुआ होगा या नहीं,वो मेरे लिए तड़पी होगी या नहीं कि मैं देख ना पाई अपनी जन्मी बेटी को,उसे बचा ना पाई और मैं यशोदा की बेटी तब से मरती आई हूँ,सूरदास ने गाई तेरे बेटे की महिमा,लेकिन उन्हें कभी तेरी बेटी का ध्यान ना आया,बस उन्होंने तो मुझे देवी का दर्जा दे दिया और मुक्त हो गए,मैं बची या ना बची,लेकिन तब भी हमेशा यशोदा की ही बेटी कहलाऊँगी,नंद बाबा तुम मारो या दुलारो,मैं तो तभी तुम्हारी बेटी थी और अब भी हमेशा तुम्हारी ही बेटी कहलाऊँगी,क्योंकि बेटी के दुख पिताओं के लिए वैसे नहीं होते जैसे कि बेटो के लिए होते हैं....

समाप्त...
सरोज वर्मा....



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