शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 28 Praveen kumrawat द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 28

[ छत्रपति शिवाजी महाराज के विदेशियों की दृष्टि में? ]

ऑबकॅरे नामक फ्रांसीसी यात्री ने सन 1670 में भारत-भ्रमण किया था। अपने ग्रंथ 'व्हॉएस इंडीज ओरिएंटेल' में उसने अपने अनुभव प्रस्तुत किये हैं। यह यात्रा-वर्णन सन 1699 में पेरिस से प्रकाशित हुआ। उसमे से लिये गए कुछ उद्धरण―
“शिवाजी ने किसी एक शहर को जीत लिया, ऐसा समाचार आता ही है कि तुरंत दूसरे समाचार का पता चलता है कि शिवाजी ने उस प्रदेश के आखिरी छोर पर आक्रमण किया है।”
“वह केवल चपल नही है, बल्कि वह जुलियस सीजर के जैसा दयालु एवं उदार भी है इसलिए जिन पर वह जीत हासिल करता है, वे भी उससे प्रभावित हो जाते हैं। उसमें वही शूरता और गतिशीलता हैं, जो स्वीडन के गस्टावस एडॉल्फस में थी।”
“सीजर को स्पेन में जो सफलता मिली, उसके लिए कहा जाता था कि ‘वह आया, उसने देखा और वह जीत गया।’ ठीक यही बात शिवाजी महाराज के बारे में कही जा सकती है।”
“उसने बार-बार बहुमूल्य चीजें जप्त करके अपने खजाने में सोना, चाँदी, हीरे, मोती, माणिक आदि भारी मात्रा में एकत्र कर लिये थे। खजाने की शक्ति ने उसकी सेना को शक्तिशाली बना दिया था। सेना के बल पर वह अपनी योजनाएँ आसानी से पूर्ण कर सकता था।”
“वह एलेक्जेंडर (सिकंदर) से कम कुशल नही हैं। उसकी गति इतनी तेज़ है कि लगता हैं, उसकी सेना पंख लगाकर उड़ती हैं। जयसिंह को सौंपे गए किले उसने आठ महीनों में वापस छीन लिये थें। शिवाजी दूसरा सर्टोरीअस हैं। सैनिक दाँवपेंच एवं युक्तियाँ लड़ाने में वह हॉनिबॉल से कम नहीं है।”
“वह मैजिनी की तरह हमेशा अपने ध्येय को सामने रखता है। गैरीबाल्डी जैसी दृढ़ता उसमें है। वह विलियम द ऑरेंज के जैसा देशभक्त, दृढ़-निश्चयी एवं निडर हैं। उसने महाराष्ट्र के लिए वह सब किया, जो फ्रेडरिक द ग्रेट ने जर्मनी के लिए किया एवं एलेक्जेंडर द ग्रेट (सिकंदर) ने मैसेडोनिया के लिए किया।”

शिवाजी महाराज की चपलता एवं आश्चर्यजनक विशेषताओ के बारे में ग्वार्दा ने इस प्रकार उल्लेख किया हैं―
“शिवाजी एक ही समय में अलग-अलग जगहों पर आक्रमण करता हैं। सभी को आश्चर्य होता हैं कि क्या वह कोई जादूगर हैं या वह बनावटी शिवाजी को भेजता हैं। क्या कोई भूत उसके बदले में कार्य करता हैं?”

नाटककार हेनरी ऑक्सिन्डेन ने अपनी विशिष्ट शैली में कहा हैं—
“शिवाजी अपनी लूटमार के लिए कुप्रसिद्ध है, लेकिन कुप्रसिद्धि में ही उसकी सुप्रसिद्धि का कीर्तिमान है। सब कहते हैं कि शिवाजी के पंख लगे हुए हैं, जिनसे वह उड़ सकता है ! अगर नहीं, तो फिर वह उतनी दूर-दूर के अलग-अलग स्थानों पर एक-साथ कैसे नजर आता हैं?”

ग्वार्दा ने कबूल किया है कि “शिवाजी ने अत्यंत अल्प समय में इतना ऊँचा स्थान हासिल कर लिया है कि लोग हैरत में पड़ गए हैं। प्रजा शिवाजी से खुश एवं संतुष्ट है, क्योंकि वह न्याय करते समय पक्षपात नहीं करता और सबको समान दृष्टि से देखता हैं। उसकी मशहूरी इतनी बड़ी-चढ़ी है कि संपूर्ण भारत एक ओर तो उसका आदर करता है और दूसरी ओर उससे डरता भी हैं!”

बार्थलेमी कैरे ने अपने द्वि-खंडी ग्रंथ 'व्हायेज द इंडी ओरिएंटल' में कबूल किया हैं कि “मराठों का अधिनायक शिवाजी न केवल अपनी प्रजा एवं अधिकारियों के लिए आदरणीय व प्रशंसनीय है, बल्कि उसके प्रतिस्पर्धी भी इस बात को स्वीकार करते हैं।”

‘शिवाजी का इतिहास’ ग्रंथ के प्रारंभ में दृढ़ता से कहा गया है, “शिवाजी पूर्वी देशों का सबसे साहसी योद्धा हैं। वह न केवल अत्यंत तीव्र गति से आक्रमण करता हैं, बल्कि उसमें अनेक उत्कृष्ट गुण भी हैं। वह स्वीडन के एडॉल्फस गस्टावस की तुलना में कतई कम नहीं हैं। उसमें असीम उदारता हैं। लूटी गई बहुमूल्य वस्तुओं को वह जरूरतमंद लोगों के लिए लूटा भी देता हैं इसलिए जब वह आक्रमण या लूटमार करता है, तब ये ही गुण उसके लिये निर्णायक सिद्ध होते हैं।” उसी में आगे कहा है, “शिवाजी की शूरता और साहस एक बाढ़ आई हुई नदी के समान है, जो अपनी चपेट में आनेवाली सारी चीजों को बहा ले जाती हैं।”

सन 1672 में बार्थलेमी कैरे दूसरी बार भारत आया, ताकि ‘शिवाजी का इतिहास’ ग्रंथ का दूसरा भाग लिख सके। इस दूसरे भाग में चौल के सूबेदार ने शिवाजी का जो वर्णन किया है, उसका आधार लेते हुए उसने लिखा हैं―
“शिवाजी का प्रदेश शिवाजी ही जीत सकता था। उसके जैसा दूसरा कोई नहीं है। इस प्रदेश पर आधिपत्य शिवाजी के भाग्य में था। उसने सैनिको के कार्य का एवं सेनापतियों के कर्तव्य का सूक्ष्म अध्ययन किया हैं।”
“इसी तरह उसने दुर्ग-शास्त्र एवं विज्ञान का भी गहराई से अध्ययन किया है। उसका ज्ञान किसी भी अभियंता के ज्ञान से अधिक है, कम नहीं। भूगोल और नक्शानवीसी में वह इतना होशियार है कि न केवल शहरों और गाँवो के, बल्कि झाड़ियों के भी नक्शे उसने तैयार करवा लिये हैं।”
“मित्रता करने में शिवाजी अत्यंत कुशल हैं। उनकी मित्र-मंडली इतनी समृद्ध है कि जैसे कभी भी खाली न होने वाला खजाना। उनके मित्र पल-पल के समाचार उन्हें दिया करते हैं।”
अपने मंतव्य के अंत मे बार्थलेमी कैरे कहता है, “बहादुरों को बहादुरी के फल मिलते ही हैं। महान व्यक्ति के लिए शत्रु के होंठों से भी प्रशंसा के ही उद्गार निकलते हैं। यह बात शिवाजी के बारे में तो बिल्कुल ही सत्य है।”

यूरोपियन इतिहासकार डेनिस किंकेड ने कहा है,
“किसी भी राज्य के कल्याण के लिए संपत्ति की आवश्यकता होती है। शिवाजी को भी अपने स्वराज्य के कल्याण के लिए संपत्ति चाहिए थी इसलिए मेरी नज़र में शिवाजी महाराज लुटेरे नहीं थे, बल्कि महान विद्रोही व क्रांतिकारी थे।”

जॉन फ्रांसिस गामेली करेरी नामक इटालियन यात्री ने लिखा हैं―
“यह शिवाजी, जिसे प्रजा अपना राजा कहती है, एक ही समय में बलशाली मुगलों एवं पुर्तगीजों से लड़ाई छेड़ सकता है।”
“इसके पास 50,000 घुड़सवार और इससे भी ज्यादा पैदल सेना है। ये सैनिक मुगलों से अधिक सक्षम हैं, क्योंकि ये सिर्फ एक रोटी के आधार पर सारा दिन लड़ सकते हैं। मुगलो की छावनी में बीवियाँ, नर्तकियाँ, सारा परिवार, अत्यधिक मात्रा में अनाज और ऐशोआराम के साधन साथ रहते थे। मुगलो की सेना एक चलते-फिरते शहर जैसी ही प्रतीत होती थी।”
“चौल से लेकर गोवा के सम्पूर्ण सागर-तट का स्वामी शिवाजी है।”

पुर्तगीज इतिहासकार परेन ने शिवाजी के बारे में जो कहा है, वह उसकी निजी राय नहीं, बल्कि तमाम पुर्तगीजों की राय है। उसमें शिवाजी का वर्णन इस प्रकार किया गया है―
“गहन एवं अद्भुत अध्ययनशील, खुशमिज़ाज, साहसी, प्रेमी, भाग्यशाली, एक भटका हुआ सरदार, आकर्षित करनेवाली तेज़ नजर, प्रेमपूर्वक वार्तालाप करने वाला, सौजन्यपूर्ण स्वभाव, सिकंदर के समान शरणागति स्वीकार करने वाले के साथ उदारता का व्यवहार करने वाला, शीघ्र निर्णय-शक्ति, सीजर की तरह सभी दिशाओं में अपना परचम लहराने की इच्छा रखने वाला, दृढ़-निश्चय, अनुशासन प्रेमी, कुशल पैंतरेबाज़, दूरदर्शी, ममतामयी राजनीति में कुशल, संगठन में कुशल; दिल्ली के मुगल, बीजापुर के तुर्को के अलावा पुर्तगीजों, डच, अंग्रेज एवं फ्रेंच प्रतिस्पर्धियों के साथ चतुराई से राजनीति करने में समर्थ... ये सारी क्षमताएँ थीं शिवाजी महाराज में।”

पाकिस्तान की पाठ्य पुस्तक में शिवाजी महाराज:
माध्यमिक शाला की उस पुस्तक का नाम था ‘अ न्यू हिस्ट्री ऑफ इंडो-पाकिस्तान।’, लेखक थे के. अली। इस पुस्तक के ‘औरंगजेब आलमगीर’ प्रकरण का अंग्रेजी से मराठी अनुवाद ‘लोकसत्ता’ दैनिक के ‘लोकमुद्रा’ परिशिष्ट में रविवार, 9 मई, 2004 के दिन प्रकाशित हुआ था, जिसकी हिंदी में प्रस्तुति इस प्रकार है—
“शिवाजी महाराज उत्तम प्रशासक थे। उन्होंने अपने राज्य कार्य को सुव्यवस्थित किया था। उन्होंने आठ मंत्रियों का ‘अष्टप्रधान मंडल’ बनाया था। सुचारु संचालन के लिए राज्य के तीन विभाग किए गए थे। प्रत्येक विभाग पर सक्षम अधिकारी नियुक्त किया गया था। प्रत्येक विभाग स्वचालित शैली में कार्य करता था। न्याय व्यवस्था का कार्य न्यायाधीश अथवा मुख्य न्यायमूर्ति देखा करते। टोडरमल एवं मलिक अंबर ने जमीन-महसूल वसूल करने के लिए प्रभावी नियम बनाए थे। जमीन की पूरी जाँच-पड़ताल करने के बाद ही लागू किया जाता था। संपूर्ण उत्पादन का पाँचवाँ हिस्सा करके रूप में ले लिया जाता था। सैनिक खर्च के लिए चौथाई हिस्सा लिया जाता। सरदेशमुखी का वसूली अलग से होती।
“शिवाजी महाराज ने एक कार्य सक्षम एवं तत्पर सेना तैयार करके उसे अनुशासित किया। इस सेना में घुड़सवारों और पैदल योद्धाओं का समावेश था।
“भ्रष्टाचार पर नियंत्रण रखने के लिए शिवाजी महाराज ने जागीर देने की पद्धति बंद करके सैनिकों को नियमित वेतन देना शुरू किया वेतन उन्हें नकद राशि के रूप में दिया जाता था। शिवाजी ने एक बड़ी नौसेना तैयार की, जिससे मराठा सैन्य शक्ति बहुत बढ़ गई। सार यह कि शिवाजी महाराज का प्रशासन कार्यक्षम एवं प्रगतिशील था।
“शिवाजी महाराज का भारत के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने छोटी सी जागीर से शुरू करके अपने बलबूते पर स्वतंत्र राज्य का निर्माण किया। उन्होंने तत्कालीन मराठा समाज में राष्ट्र भावना के बीज बोए और एक नई जन-चेतना का निर्माण किया। वे स्वयं सनातन हिंदू धर्म में विश्वास रखते थे, किंतु वे कट्टर नहीं थे। उनमें प्रखर सहिष्णुता थी। अन्य धर्मों के लिए उनमें हार्दिक आदर की भावना थी। स्त्रियों को उन्होंने हमेशा विशेष सम्मान दिया। उन्होंने हिंदू धर्म की प्रतिष्ठा बढ़ाई। उनके कार्य अत्यंत साहसिक, रचनात्मक एवं बुद्धि-आधारित होते थे। शिवाजी महाराज के लिए सहज ही कहा जा सकता है कि वे भारत के अलौकिक व्यक्तियों में से एक थे।”

श्रीमती इंदिरा गांधी के शब्दों में शिवाजी:
“मेरे विचार से शिवाजी महाराज को संसार के महान व्यक्तियों में गिना जाना चाहिए। हमारा राष्ट्र गुलामी की जंजीरों से जकड़ा हुआ था इसलिए हमारे देश के महान व्यक्तियों की संसार के इतिहास में उपेक्षा की गई; चाहे वे व्यक्ति भारतीय समाज मे कितनी ही ऊँचाई पर विराजमान हुए। निश्चित है कि शिवाजी महाराज यदि किसी यूरोपियन देश में जन्मे होते तो उनकी स्तुति के स्तंभ ऊँचे आकाश को छू रहे होते। संसार के कोने-कोने में उनकी जय-जयकार हुई होती। ऐसा भी कहा गया होता कि उन्होंने अंधकार में डूबे समग्र संसार को प्रकाशमान कर दिया।”
(मूल अंग्रेजी/'लोकराज्य', अप्रैल 1985)