जीवन सूत्र 411 ईश्वर के पथ में मोह और आसक्ति छोड़ना है जरूरी
भगवान श्री कृष्ण और जिज्ञासु अर्जुन की चर्चा जारी है।
प्रत्येक कार्य मनुष्य के द्वारा संपन्न होते हैं और अपने- अपने विवेक से सभी लोग कार्य करते हैं।फिर परिणामों में अंतर कहां है? कुछ लोग अपनी इच्छा के अनुसार फल प्राप्त कर लेने के बाद भी संतुष्ट नहीं रहते हैं। वास्तव में उनकी इच्छा सांसारिक पदार्थों को प्राप्त करने को लेकर होती है, जो लगातार एक वस्तु को प्राप्त कर लेने के बाद बढ़ती ही रहती है।
जीवन सूत्र 412 स्वयं पर नियंत्रण प्राप्त करना महत्वपूर्ण
ऐसे में भगवान श्री कृष्ण ने छठे अध्याय में जिसे आत्म संयम योग के नाम से जाना जाता है,यह बताया है कि स्वयं पर नियंत्रण प्राप्त करना अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसका अर्थ है स्वयं को पा लेना। अगर यह कार्य हो गया तो बिना सांसारिक वस्तुओं को प्राप्त किए बिना ही मनुष्य प्रसन्नचित रहता है।उसके चेहरे पर मुस्कुराहट और उसकी हंसी केवल सुख साधनों को प्राप्त करने वाले व्यक्ति की तुलना में कहीं अधिक स्वाभाविक होती है।
जीवन सूत्र 413 ईश्वर के मार्ग पर आडंबर नहीं होना चाहिए
ईश्वर को प्राप्त करने के मार्ग में दिखावा और आडंबर नहीं होना चाहिए। इसे स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण अपने भक्त अर्जुन से कहते हैं:-
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।6/1।।
इसका अर्थ है कि जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है ।केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है।
जीवन सूत्र 414 केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है
संन्यास का सामान्य प्रचलित अर्थ गृहस्थ धर्म का त्याग कर, गेरुआ वस्त्र धारण कर,वन में जाकर तपस्या करने से है, अर्थात जिस व्यक्ति ने अपने परिवार,संबंधों और सांसारिक दायित्वों का त्याग कर दिया हो। सनातन परंपरा के अनुसार संन्यास वाकई एक विशिष्ट स्थिति और अवस्था है। यह एक उच्च कोटि की साधना है जिस तक अत्यंत संकल्पवान और विरला व्यक्ति ही पहुंच सकता है।भगवान कृष्ण एक युग दृष्टा थे।विचारों से भी अत्यंत दूरदर्शी और आधुनिक विचारों और नई सोच का प्रवर्तन करने वाले। उन्होंने मानव जीवन के लिए सरल जीवन जीने, सुखपूर्वक चलने और बिना भ्रम तथा दुविधा के अपने सुनिश्चित कर्म के रास्तों पर चलने के लिए गीता में अनेक सूत्र बताए हैं। गीता के अनेक मार्गो में से एक है- कर्म। भगवान कृष्ण ने भी आडंबर और आसक्ति रहित कर्म करने पर जोर दिया है।
जीवन सूत्र 415 सच्चा संन्यासी बाह्य उपकरणों के त्याग तक ही सीमित नहीं
सच्चा संन्यासी वह है जो गृहस्थ के बाह्य चिह्नों और उपकरणों के त्याग मात्र से कहीं आगे बढ़ता है।अपने कर्मों में आसक्ति न रखकर सहज, सरल कर्म के पथ पर आगे बढ़ता है।जीवन में आने वाले कार्यों तथा दायित्वों को संपन्न करता चलता है।ऐसा व्यक्ति किसी भी संन्यासी और तपस्वी से लेश मात्र भी कम नहीं है। इसीलिए कबीर भी कहते हैं-सहजै सहज समानां।
लोगों की अपनी-अपनी आस्था के अनुसार उपासना पद्धतियां अलग-अलग हैं। एक उपासना पद्धति वाले भी अलग-अलग तरीकों से अपने इष्ट को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। सनातन धर्म में आश्रम व्यवस्था के अंतर्गत ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ और संन्यास ;जीवन के चार चरण हैं। यूं तो मनुष्य अपने जीवन के अलग-अलग पड़ाव में इन अवस्थाओं से गुजरता है,वहीं हर पड़ाव में भी ईश्वर को प्राप्त कर लेने का मार्ग है।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय