जीवन सूत्र 356 सभी लोगों में उस ईश्वर को देखने का कार्य
जीवन सूत्र 356 सभी लोगों में उस ईश्वर को देखने का कार्य
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में वीर अर्जुन से कहा है:-
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।5/18।।
इसका अर्थ है,ज्ञानी महापुरुष विद्या और विनम्र व्यवहार वाले ब्राह्मण में,गाय,हाथी;कुत्ते एवं मृत्यु पश्चात अंतिम संस्कार कर्म में सहायता करने में सेवारत व्यक्ति में भी समान रूप से ईश्वर को देखने वाले होते हैं।
ज्ञानी व्यक्ति समदर्शी होता है। उसके मन में किसी भी तरह से भेद नहीं होता।उसका व्यवहार राजा से हो,तब भी वही और एक आम नागरिक से हो तब भी वही।
जीवन सूत्र 357 कण कण में है ईश्वर
वह तो प्रत्येक व्यक्ति के भीतर उसी आत्म तत्व को देखता है,जो सृष्टि के कण-कण में है।वह किसी काम को छोटा बड़ा नहीं मानता।वह तथाकथित श्रेष्ठ कार्य करने वाले और तथाकथित अशुभ काल के दौरान कार्य करने वाले व्यक्ति में कोई भेद नहीं देखता।
जीवन सूत्र 358 घृणा के बदले लोगों से करें समान व्यवहार
वास्तव में हमारा व्यवहार सभी लोगों से एक समान नहीं रहता।इस तरह के व्यवहार के दो आयाम हो सकते हैं।अगर हम किसी व्यक्ति के आंतरिक गुणों,उसके परिश्रम, उसके दृष्टिकोण के आधार पर उसे महत्व दे रहे हैं तब तो अच्छा है।
जीवन सूत्र 359 बाहरी चकाचौंध से ना करें किसी का मूल्यांकन
अगर हम किसी व्यक्ति के बाहरी चकाचौंध उसके धन,उसकी प्रतिष्ठा या उसके अन्य प्रदर्शन गुणों को देखकर उससे अच्छा व्यवहार कर रहे हैं, तो यह पूरी तरह से गलत है।आधुनिक लोकतंत्र के युग में तो सभी मनुष्यों को वैसे भी समान अधिकार प्राप्त हैं।
सूत्र 360 किसी को परखने में लें समय
समदर्शी व्यवहार रखना तब कठिन हो जाता है,जब हमारे पास किसी व्यक्ति का मूल्यांकन करने के लिए समय नहीं रहता। यहीं पर विवेक रखने की आवश्यकता है अन्यथा हम केवल किसी व्यक्ति की बाह्य मुखाकृति और उसके प्रस्तुतिकरण से ही कोई धारणा बना बैठते हैं। यूं भी थोड़े समय की भेंट में किसी व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व के संबंध में केवल अंदाजा लगाया जा सकता है।उसकी पुष्टि तो व्यवहार में अधिक समय व्यतीत करने पर ही हो सकती है।
इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण भेदभाव पूर्ण व्यवहार करने का स्पष्ट निषेध करते हैं। स्वयं श्री कृष्ण अपने जीवन में सभी लोगों से समान व्यवहार करने और जनसाधारण को महत्व देने के प्रबल पक्षधर रहे हैं। दुर्योधन के महल के 56 भोगों को अस्वीकार कर विदुर की कुटिया में ठहरने और शाक भाजी खा कर तृप्त हो जाने वाले श्री कृष्ण अन्य लोगों को भी यही संदेश देते हैं।हम अपने संपर्क में आने वाले लोगों से समदर्शिता का व्यवहार करके स्वयं अपनी भी आत्म शुद्धि कर रहे होते हैं।
जीवन सूत्र 360 शालीन भाषा का करें उपयोग
सभी व्यक्ति का आत्मसम्मान होता है।अतः समाज के तथाकथित सबसे निचले स्तर पर सेवा का कार्य कर रहे व्यक्ति से भी शालीन भाषा का व्यवहार होना चाहिए क्योंकि उसके भीतर भी वही आत्मा है,जो हममें है।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में वीर अर्जुन से कहा है:-
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।5/18।।
इसका अर्थ है,ज्ञानी महापुरुष विद्या और विनम्र व्यवहार वाले ब्राह्मण में,गाय,हाथी;कुत्ते एवं मृत्यु पश्चात अंतिम संस्कार कर्म में सहायता करने में सेवारत व्यक्ति में भी समान रूप से ईश्वर को देखने वाले होते हैं।
ज्ञानी व्यक्ति समदर्शी होता है। उसके मन में किसी भी तरह से भेद नहीं होता।उसका व्यवहार राजा से हो,तब भी वही और एक आम नागरिक से हो तब भी वही।
जीवन सूत्र 357 कण कण में है ईश्वर
वह तो प्रत्येक व्यक्ति के भीतर उसी आत्म तत्व को देखता है,जो सृष्टि के कण-कण में है।वह किसी काम को छोटा बड़ा नहीं मानता।वह तथाकथित श्रेष्ठ कार्य करने वाले और तथाकथित अशुभ काल के दौरान कार्य करने वाले व्यक्ति में कोई भेद नहीं देखता।
जीवन सूत्र 358 घृणा के बदले लोगों से करें समान व्यवहार
वास्तव में हमारा व्यवहार सभी लोगों से एक समान नहीं रहता।इस तरह के व्यवहार के दो आयाम हो सकते हैं।अगर हम किसी व्यक्ति के आंतरिक गुणों,उसके परिश्रम, उसके दृष्टिकोण के आधार पर उसे महत्व दे रहे हैं तब तो अच्छा है।
जीवन सूत्र 359 बाहरी चकाचौंध से ना करें किसी का मूल्यांकन
अगर हम किसी व्यक्ति के बाहरी चकाचौंध उसके धन,उसकी प्रतिष्ठा या उसके अन्य प्रदर्शन गुणों को देखकर उससे अच्छा व्यवहार कर रहे हैं, तो यह पूरी तरह से गलत है।आधुनिक लोकतंत्र के युग में तो सभी मनुष्यों को वैसे भी समान अधिकार प्राप्त हैं।
सूत्र 360 किसी को परखने में लें समय
समदर्शी व्यवहार रखना तब कठिन हो जाता है,जब हमारे पास किसी व्यक्ति का मूल्यांकन करने के लिए समय नहीं रहता। यहीं पर विवेक रखने की आवश्यकता है अन्यथा हम केवल किसी व्यक्ति की बाह्य मुखाकृति और उसके प्रस्तुतिकरण से ही कोई धारणा बना बैठते हैं। यूं भी थोड़े समय की भेंट में किसी व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व के संबंध में केवल अंदाजा लगाया जा सकता है।उसकी पुष्टि तो व्यवहार में अधिक समय व्यतीत करने पर ही हो सकती है।
इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण भेदभाव पूर्ण व्यवहार करने का स्पष्ट निषेध करते हैं। स्वयं श्री कृष्ण अपने जीवन में सभी लोगों से समान व्यवहार करने और जनसाधारण को महत्व देने के प्रबल पक्षधर रहे हैं। दुर्योधन के महल के 56 भोगों को अस्वीकार कर विदुर की कुटिया में ठहरने और शाक भाजी खा कर तृप्त हो जाने वाले श्री कृष्ण अन्य लोगों को भी यही संदेश देते हैं।हम अपने संपर्क में आने वाले लोगों से समदर्शिता का व्यवहार करके स्वयं अपनी भी आत्म शुद्धि कर रहे होते हैं।
जीवन सूत्र 360 शालीन भाषा का करें उपयोग
सभी व्यक्ति का आत्मसम्मान होता है।अतः समाज के तथाकथित सबसे निचले स्तर पर सेवा का कार्य कर रहे व्यक्ति से भी शालीन भाषा का व्यवहार होना चाहिए क्योंकि उसके भीतर भी वही आत्मा है,जो हममें है।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय