जीवन सूत्र 341 नौ द्वारों वाला यह शरीर
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है:-
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।5/13।।
इसका अर्थ है,जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ और मन वश में हैं,ऐसा देहधारी संयमी व्यक्ति नौ द्वारों वाले शरीररूपी नगर में सम्पूर्ण कर्मों का मन से त्याग करके अपने आनंदपूर्ण परमात्मा स्वरूपमें स्थित रहता है।
शरीर के 9 द्वार हैं: -दो आँख, दो कान, दो नाक, दो गुप्तेंद्रियाँ, और एक मुख।एक मान्यता है कि दसवां द्वार ब्रह्मरंध्र से होते हुए सिर के शिखा क्षेत्र में है।
सूत्र 342 दसवां द्वार है ईश्वर का
इस दसवें द्वार के खुलने की अनुभूति परमात्मा तत्व से साक्षात्कार में है। हम साधारण मानव जीवन भर इन नौ द्वारों के इर्द-गिर्द केंद्रित रहते हैं।अगर हमारा शरीर एक नगर है तो इसके ये 9 द्वार अर्थात मनुष्य के कार्य व्यापार को संपादित करने वाली इन नौ प्रमुख इंद्रियों का नियंत्रित आचरण हमारे समूचे अस्तित्व और इसकी सकारात्मकता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इंद्रियों के विषय मनुष्य को बार-बार भटकाते हैं और मनुष्य भोग विलास की ओर प्रवृत्त हो जाता है।
जीवन सूत्र 343 शरीर आत्म साधना का आधार
अब हमारा शरीर एक जीवंत नगर है तो यह उजाड़ और निष्क्रिय अवस्था में तो रह नहीं सकता।इसमें आत्म तत्व है जो हमारी चेतना का आधार है।यह विवेक की प्रेरक है और यह हमारी इंद्रियों के कार्य को स्वामी के रूप में नियंत्रित भी करती है।
जीवन सूत्र 344 त्याग का असली मर्म
इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने सारे कार्यों का विवेक पूर्वक विचारकर मन से त्याग करने के लिए कहा है।इसका तात्पर्य है,हम कार्य करते समय जिस आसक्ति और फल की चिंता में डूब जाते हैं, उसके त्याग का होना महत्वपूर्ण है।यह न सिर्फ कार्यों के उचित रीति से करने के लिए आवश्यक है बल्कि इससे नौ द्वारों से ऊपर उठकर उस दसवें द्वार को खोलने में भी सहायता मिलती है। जिस शरीर रूपी नगर को हम अपना समझते हैं, वह तो अपना है ही नहीं।हमारे नगर रूपी शरीर के ये नौ स्थूल द्वार भी यही बताते हैं कि एक दिन यह भौतिक नगर रूपी शरीर भी पूर्णता को प्राप्त हो जाएगा।
जीवन सूत्र 345 आत्मा मुक्त हो, बंदी नहीं
अतः हमारे जीवन काल में इसमें निवास करने वाली आत्मा को अगर वह दसवां द्वार प्राप्त हो गया तो फिर दोबारा जन्म के रूप में एक और किले में एक और बंदी जीवन बिताने की भी आवश्यकता नहीं रहेगी। अब वह मार्ग चुनना हम पर है कि हम वर्तमान जन्म में इस नगर किले के बंदी बन कर अपना जीवन व्यतीत करना चाहेंगे कि आत्म तत्व के अभिमुख होकर इसका राजा बनकर एक गरिमापूर्ण जीवन।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय