गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 126 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 126


जीवन सूत्र 321 कार्य करते हुए भी उससे अप्रभावित रहना


गीता में भगवान श्री कृष्ण ने वीर अर्जुन से कहा है: -

नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् । पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ।5/8।

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ।5/9।

इसका अर्थ है:- हे अर्जुन!तत्त्वको जाननेवाला योगी तो देखता हुआ,सुनता हुआ,स्पर्श करता हुआ,सूँघता हुआ,भोजन करता हुआ,गमन करता हुआ,सोता हुआ,श्वास लेता हुआ,बोलता हुआ,त्यागता हुआ,ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और बंद करता हुआ भी यही मानता है कि मैं कुछ भी नहीं करता बल्कि ये सब इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में व्यवहार कर रही हैं।


जीवन सूत्र 322 कर्तापन का करें त्याग

भगवान श्री कृष्ण ने इस श्लोक में कर्तापन के त्याग का निर्देश दिया है।कर्तापन का भाव आसानी से नहीं छूटता।कर्तापन में एक वैयक्तिकता होती है।एक व्यक्ति के रूप में उत्तरदायित्व का बोध रहता है और किसी कार्य को पूरा कर लेने के बाद अपने अहम की संतुष्टि भी होती है कि मैंने यह कार्य कर लिया है। इस श्लोक में मनुष्य की अनेक चेष्टाओं का वर्णन किया गया है,जिसमें मनुष्य सीधे तौर पर संबद्ध रहता है और फिर भी उसे अपने मन में यह भाव लाना है कि यह सारे कार्य वह नहीं कर रहा है।


जीवन सूत्र 323 सृष्टि में है स्वचालित कार्य व्यवस्था



श्लोक में वर्णित यह अवस्था स्वचालित कार्य संपन्न होते रहने की व्यवस्था है।ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि मनुष्य की अपनी निर्णय शक्ति का महत्व कहां रह जाता है?जब सारे कार्य स्वत: संपन्न हो रहे हैं,तो इसमें उसकी भूमिका क्या है?वास्तव में ऐसे कार्यों का कर्ता स्वयं होते हुए भी अपने को विनीत भाव से यह मान लेना कि ये सारे कार्य वह नहीं कर रहा है, इन कर्मों के फल से निर्लिप्त रहने का एक बड़ा आधार है।जिम्मेदारी व्यक्ति की है।


जीवन सूत्र 324 कार्य स्वयं के लिए नहीं, स्वयं के द्वारा ईश्वर के लिए करें



सारे प्रयास उसके हैं। बस भाव यह रखना है कि वह यह कार्य स्वयं अपने लिए नहीं कर रहा है।वह ईश्वरीय इच्छा से कर रहा है।यह भाव लाने के लिए आवश्यक है कि हम सारे कर्मों को ईश्वर को अर्पित कर दें।


जीवन सूत्र 325 आप ईश्वर तत्व से अलग नहीं



हमने स्वयं को ईश्वर तत्व से अलग मान रखा है इसलिए जहां भोगों को ग्रहण करने की बारी आती है हम चूक जाते हैं। हम अभीष्ट चीज को ग्रहण करने में आनंद ढूंढते हैं और यहीं पर निजपन के शिकार हो जाते हैं। अब सारे कर्मों को ईश्वर को समर्पित करने में वैयक्तिकता खंडित हो रही है,तो इसका दूसरा पहलू और बड़ा लाभ भी तो है।जब चीजें हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाएं, जब कार्य हमारे मनमाफिक न हो रहा हो,जब लगातार असफलता हाथ लग रही हो;ऐसे में सब कुछ हरि की इच्छा से हो रहा है,यह वाक्य सबसे बड़ा संबल प्रदान करता है।भोगों के ग्रहण में क्षणिक आनंद भाव छोड़ने के अभ्यास के बिना भोगों के त्याग से मिलने वाले उस महाआनंद की ओर बढ़ा नहीं जा सकता है।

(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय