जीवन सूत्र 266 ज्ञान संसार की पवित्रतम वस्तु
भगवान श्री कृष्ण ने गीता उपदेश में अर्जुन से कहा है: -
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।4/38।
इसका अर्थ है, इस लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला,नि:संदेह कुछ भी नहीं है। कर्मयोग का अभ्यास करने वाला व्यक्ति इस ज्ञान को स्वयं ही समय के अनुसार आत्मा में प्राप्त कर लेता है।
जीवन सूत्र 267 ज्ञानी का पुनर्जन्म नहीं होता
भगवान श्री कृष्ण ने ज्ञान को संसार की पवित्रतम वस्तु कहा है। ज्ञान की महत्ता बताते हुए महाभारत के शांति पर्व में महर्षि वेदव्यास ने लिखा है कि जैसे आग में भुने हुए बीज नहीं उग, उसी प्रकार ज्ञान रूपी अग्नि से अविद्या आदि सभी क्लेशों के जल जाने पर जीवात्मा को फिर इस संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता।
जीवन सूत्र 268 दुविधा दूर करने में ज्ञान ही सहायक
यह ज्ञान ही है जो हमें मोह - माया, संशय भ्रम दुविधा और अनिर्णय की स्थिति से बाहर निकालकर उचित निर्णय लेने में सहायक होता है।भगवान श्री कृष्ण की बातों से अर्जुन के ज्ञान चक्षु खुल गए और वे स्पष्ट देखने लगे थे। इस श्लोक से कुछ विशेष बातें स्पष्ट होती हैं।कर्मरत रहने पर और ईश्वर के प्रति योग अभिमुख दृष्टिकोण रखने पर एक अवस्था आने पर आत्मा में स्वयं ही ज्ञान का उदय हो जाता है। ज्ञान और कर्म अन्योन्याश्रित हैं। महर्षि अरविंद कहते हैं कि भक्ति और कर्म तब तक पूर्ण रूप से स्थाई नहीं हो सकते हैं जब तक वे ज्ञान पर आधारित न हों।
जीवन सूत्र 269 ज्ञान से आत्मविश्वास में वृद्धि
हम कर्म करते चले तो मंजिल अपने आप ही प्राप्त हो जाएगी।जब ज्ञानरूपी मंजिल प्राप्त हो जाए तो हमारे कर्म अधिक संतुलित और प्रभावी होंगे।इससे हमारे आत्मविश्वास में वृद्धि होगी और निर्णय शक्ति भी प्रबल होगी। योग के अभिमुख होकर कर्म का मार्ग जहां उस तत्वज्ञान तक ले जाता है वहां उस तत्व ज्ञान की प्राप्ति के बाद जीवन में आनंद छा जाता है। मोह माया के कारण निर्मित संसार के सारे बंधनों का नाश हो जाता है। रुद्रहृदयोपनिषद में कहा गया है-ज्ञानादेव हि संसारविनाशो नैव कर्मणा।इसका अर्थ है,ज्ञान से ही संसार बंधन का नाश होता है, कर्म से नहीं। दूसरे शब्दों में इसे इस तरह से कह सकते हैं कि ज्ञान मिल जाने के बाद संसार के सारे बंधन टूट जाते हैं और वे बंधन भी जो हमारे कर्मों को प्रभावित करते हैं और हमें अवांछित दिशा में ले जाते हैं।
जीवन सूत्र 270 ज्ञान का हस्तांतरण संभव और उचित
इस श्लोक की एक दूसरी विशेष बात यह है कि ज्ञान का वह स्वरूप जो हमारे पूर्वजों,साधकों को अत्यंत परिश्रम और समय साध्य साधना के माध्यम से प्राप्त हुआ है,उचित तरीके से प्रयत्न और परिश्रम करने पर वही ज्ञान हमें भी प्राप्त हो सकता है।इसमें कोई दुराव छिपाव वाली बात नहीं है।इस ज्ञान का अधिकारी कोई भी बन सकता है,लेकिन अनुभूति उसे स्वयं प्राप्त करनी होगी।अपने दृढ़ संकल्प और परिश्रम के बल पर।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय